आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 25 अप्रैल, 2018

नवभारत टाइम्स

प्रौढ़ राजनय का नमूना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा पर पूरी दुनिया की नजर है। दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने अनौपचारिक रूप से मिलने का फैसला कर तमाम कूटनीतिक विशेषज्ञों को चौंका दिया है। डोकलाम प्रकरण को ठंडा पड़े अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। भारत, चीन और भूटान की इस सीमावर्ती जगह पर करीब 70 दिनों तक चला टकराव पिछले साल अगस्त में खत्म हुआ था। इसके बाद दोनों देशों में कोई विवाद तो नहीं हुआ लेकिन एक तनाव सा बना ही रह गया। दोनों ने ही ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि संबंध सुधारने के लिए उसकी तरफ से कोई अतिरिक्त प्रयास किया जा रहा है। लेकिन अब मोदी और शी चिन फिंग की 27-28 अप्रैल को होने वाली अनौपचारिक मुलाकात से जाहिर हो गया है कि दोनों ने रिश्तों को दोबारा पटरी पर लाने का फैसला किया है। यह दोनों देशों की परिपक्व डिप्लोमेसी का सूचक है। दोनों ने वक्त की नजाकत भांप ली है और उसके मुताबिक चलने का निर्णय किया है। इस मुलाकात से न सिर्फ द्विपक्षीय संबंधों की दिशा बदल सकती है बल्कि वैश्विक समीकरण में भी बदलाव आ सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के संरक्षणवादी रवैये के बाद विश्व व्यापार का परिदृश्य बदल गया है। क्षेत्रीय कारोबारी समीकरणों का महत्व बढ़ने वाला है। चीन ने पहले ही इसका अंदाजा लगाकर अपनी निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था को उपभोग आधारित बनाने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। अभी अमेरिका से उसका व्यापार युद्ध शुरू हो जाने के बाद भारत के विशाल बाजार की उसे बहुत ज्यादा जरूरत है। फिर, चीन अपने व्यापारिक तंत्र को मध्य एशिया तक बढ़ाना चाहता है। इसके लिए भी भारत का सहयोग अहम है। दूसरी तरफ अमेरिकी संरक्षणवादी नीति भारतीय अर्थतंत्र के लिए भी नुकसानदेह साबित हो रही है। अमेरिका की सख्त वीजा पॉलिसी ने भारतीय प्रफेशनल्स के लिए वहां जाना और काम करना कठिन बना दिया है। भारतीय पेशेवरों को भी चीन जैसे नए इलाकों की ओर ध्यान देना होगा। ऐसे में चीन के साथ आपसी सहयोग बढ़ाना हमारे लिए भी फायदे का सौदा साबित होगा। 1988 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और चीन के तत्कालीन विचार प्रमुख तंग श्याओफिंग के बीच इसी तरह अनौपचारिक वार्ता हुई थी, तब तंग ने राजीव गांधी से कहा था कि हम सीमा विवाद को छोड़कर व्यापार पर ध्यान केंद्रित करें। इस तरह दोनों देशों के रिश्तों में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई थी। संभव है, शी चिन फिंग उसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहते हों। उन्हें भी अहसास होगा कि दोनों मुल्कों के बीच आधी सदी से चले आ रहे विवाद रातोंरात नहीं सुलझने वाले। वे समय के साथ सुलझेंगे, लेकिन अभी ज्यादा जरूरत कारोबारी सहयोग बढ़ाने की है, ताकि एशिया के दोनों ताकतवर देश शांति और समृद्धि की ओर बढ़ सकें।


जनसत्ता

अफस्पा से राहत

मेघालय से अफस्पा (सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम) का हटाया जाना एक सकारात्मक कदम है। सेना को विशेषाधिकारों से लैस करने वाले इस बेहद कड़े कानून को पूर्वोत्तर की जनता ने लंबे समय तक एक खतरनाक और दमनकारी कानून के रूप में देखा और झेला है। इस कानून की आड़ में कई बेगुनाह नौजवान सैन्य कार्रवाई का शिकार बने। इसलिए अफस्पा को हटाने की लंबे समय से मांग होती रही है। मणिपुर की सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला तो इस कानून के विरोध में सोलह साल तक अनशन पर रहीं। अभी तक मेघालय से लगने वाली असम की सीमा पर चालीस फीसद इलाके में यह कानून लागू था। त्रिपुरा और मिजोरम के बाद मेघालय तीसरा राज्य है जहां से अफस्पा को पूरी तरह हटा लिया गया है। अरुणाचल प्रदेश में भी इसका दायरा घटा दिया गया है। अरुणाचल में पिछले साल सोलह पुलिस थाना क्षेत्रों में इसे लागू किया गया था, लेकिन अब यह असम से लगने वाली सीमा के आठ थाना क्षेत्रों और म्यांमा सीमा से सटे तीन जिलों में ही लागू रहेगा।

अफस्पा छह दशक पुराना कानून है। इसे एक सितंबर 1958 को असम, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में लागू किया गया था। इन राज्यों की सीमाएं चीन, म्यांमा, भूटान और बांग्लादेश से मिलती हैं। इन राज्यों को राष्ट्रीय सुरक्षा और कानून-व्यवस्था की दृष्टि से काफी संवेदनशील बताते हुए इस कानून को लागू किया गया था। वर्ष 1986 में हुए मिजो समझौते के तहत मिजोरम में अफस्पा स्वत: ही खत्म हो गया था। इसके बाद 2015 में कानून-व्यवस्था की समीक्षा के बाद त्रिपुरा से भी अफस्पा हटा लिया गया। दरअसल, पूर्वोत्तर का उग्रवाद सरकारों के लिए बड़ी चुनौती रहा है। पूर्वोत्तर राज्यों में अलग प्रदेश की मांग को लेकर अलगाववादी संगठन हिंसा का सहारा लेते रहे हैं। इन संगठनों को देश के बाहर से मदद मिलती है, यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है। अफस्पा का मूल मकसद उग्रवादी हिंसा को कुचलना था। लेकिन इस कानून की आड़ में नागरिकों पर जो जुल्म हुए, वे रोंगटे खड़े कर देने वाले थे।

जम्मू-कश्मीर में भी अफस्पा 1990 से लागू है। हालांकि हालात को देखते हुए केंद्र ने वहां से इसे हटाने से इनकार कर दिया है। अफस्पा के तहत सेना को असीमित अधिकार हासिल हैं। इस कानून के तहत सेना किसी को भी बिना कारण बताए गिरफ्तार कर सकती है, बिना वारंट किसी भी घर की तलाशी ले सकती है। जब ऐसा कानून हाथ में आ जाता है और उसे इस्तेमाल करने वाले बेलगाम होने लगते हैं और किसी के प्रति उनकी जवाबदेही नहीं बनती तो हालात सुधरने के बजाय अराजक हो जाते हैं। हालांकि गृह मंत्रालय ने अब हालात सुधरने का दावा किया है।

मंत्रालय का कहना है कि पूर्वोत्तर राज्यों में हिंसा में तिरसठ फीसद की कमी आई है। उग्रवादी हिंसा में नागरिकों की मौतों में तिरासी फीसद और सुरक्षाकर्मियों की मौतों में चालीस फीसद की गिरावट आई है। वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने भी इसे औपनिवेशिक कानून बताते हुए भारत के सभी हिस्सों से हटाने की मांग की थी। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अफस्पा को भले जरूरी माना जाए, लेकिन इसकी दमनकारी संभावनाओं को रोकने के लिए क्या संशोधन किए जाएं इस विचार किया जाना चाहिए।


हिंदुस्तान

अपराध और माफ़ी

किसी को माफ करना कभी आसान नहीं होता। खासकर तब, जब मामला अपने किसी परिजन के हत्यारे को माफ करने का हो। इसलिए सबरीना लाल जो कह रही हैं, उसके लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए। जिस मनु शर्मा ने 19 साल पहले सबरीना की बहन और प्रसिद्ध मॉडल जेसिका लाल की निर्मम हत्या कर दी थी, सबरीना आज उसी को माफ करने की बात कर रही हैं। और वह सिर्फ बात ही नहीं कर रही हैं, बल्कि उन्होंने इस बाबत दिल्ली की तिहाड़ जेल के अधिकारियों को एक चिट्ठी भी लिखी है कि अगर मनु शर्मा को रिहा कर दिया जाता है, तो उन्हें कोई ऐतराज नहीं होगा। सबरीना ने यह भी कहा है कि मनु शर्मा ने उनके पूरे परिवार को तबाह कर दिया है, लेकिन अब अच्छा यही है कि इन सबको भूलकर आगे बढ़ा जाए। निस्संदेह, सबरीना की यह सोच तारीफ के काबिल है। ऐसा नहीं है कि उनको वह कठिन दौर याद नहीं होगा, जो जेसिका की हत्या के बाद कहर बनकर उनके परिवार पर टूटा था। एक बड़े राजनीतिक और उद्योगपति परिवार के बिगड़ैल लड़के को सजा दिलवाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह सब भी सबरीना को अच्छी तरह याद होगा। निचली अदालत ने तो मनु शर्मा को तकरीबन रिहा ही कर दिया था। बाद में किसी तरह उसे शीर्ष अदालत से सजा दिलाई जा सकी।

सबरीना ने यह चिट्ठी उस वक्त लिखी है, जब तिहाड़ जेल से 90 कैदियों की रिहाई पर विचार चल रहा है। इनमें से ज्यादातर कैदी वे हैं, जिन्होंने लंबा समय जेल में गुजार लिया है, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जिनके ‘आचरण’ के कारण उनकी रिहाई की सिफारिश की गई है। इस फेहरिस्त में दिल्ली के तंदूर कांड के अभियुक्त सुशील शर्मा का नाम भी है। सुशील शर्मा ने अपनी पत्नी नैना साहनी को न सिर्फ गोली मारी थी, बल्कि उनके शरीर को एक होटल के तंदूर में जला दिया था। इन दो नामों से यह फेहरिस्त विवादों में आ गई है। खासकर मनु शर्मा के बारे में जो रिपोर्टें पिछले नौ साल में छपती रही हैं, वे उसके आचरण की कुछ अलग ही कहानी कहती हैं। मनु शर्मा इस समय खुली जेल में है। पिछले नौ साल में वह सात बार पेरोल पर बाहर निकला और पेरोल पर रिहाई के दौरान भी वह कई बार विवादों में रहा। एक बार जब वह मां की बीमारी के नाम पर पेरोल पर आया, तो खबर आई थी कि वह एक नाइट क्लब में घूम रहा था, जबकि उसकी मां एक सम्मेलन में भाग ले रही थीं। इसी तरह, एक पेरोल के दौरान उसने किसी पब में खासा हंगामा किया था। उसकी एक पेरोल की सिफारिश के लिए दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तक को परेशानी झेलनी पड़ी थी। कुछ खबरें तो यह भी बताती हैं कि जब वह अपनी खुली जेल में था, तो उस दौरान भी उसे कई बार जेल के बाहर देखा गया।

ऐसा नहीं है कि ये सारी चीजें सबरीना को नहीं पता होंगी, फिर भी अगर वह सब कुछ भूलकर मनु शर्मा को माफ करने की बात करती हैं, तो उनकी तारीफ होनी चाहिए। हालांकि उनकी चिट्ठी का इसके अलावा कोई बड़ा अर्थ नहीं है। भारत की न्याय व्यवस्था में पीड़ित या पीड़ित के परिवार वालों के पास अपराधी को माफ करने का कोई अधिकार नहीं होता। यह अधिकार सिर्फ सरकार के पास होता है। और वहां भी माफी की बाकायदा एक प्रक्रिया है। लेकिन इस मामले में यह प्रक्रिया आगे बढ़े, इसके फेहरिस्त की कड़ी जांच जरूरी है।


दैनिक भास्कर  

देश को पीछे खींचने वाले राज्यों का विकास कैसे हो?

नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने सही कहा है कि देश के उत्तर और पूर्व के राज्य उसे पिछड़ा बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में खान अब्दुल गफ्फार खान स्मृति व्याख्यान में उन्होंने स्पष्ट तौर पर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान का उल्लेख करते हुए कहा कि इन राज्यों के कारण मानव विकास सूचकांक में भारत दुनिया के 188 देशों में 133 वें पायदान पर है। विडंबना देखिए कि आजादी की लड़ाई में सर्वाधिक योगदान देने वाले और आजादी के बाद देश की राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले ये राज्य विकास के मोर्चे पर पिछड़े ही रह गए। आज भी देश के सबसे पिछड़े जिलों में कई जिले इन्हीं राज्यों से हैं। आबादी के लिहाज से सबसे बड़े और देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश का श्रावस्ती जनपद अपने पिछड़ेपन और गोंडा जिले अपनी गंदगी के कारण देश में शीर्ष पर है। श्रावस्ती वह जनपद है, जिसका नगर बौद्धकाल में इतना समृद्ध था कि वहां हर वस्तु मिलती थी और उसके सेठ अनाथ पिंडक ने स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर बुद्ध के लिए गंधकुटीर की जमीन खरीदी थी। दरअसल बीमारू राज्य कहे जाने वाले ये प्रदेश दक्षिणी और पश्चिमी प्रदेशों के मुकाबले इसलिए पिछड़े हुए हैं, क्योंकि यहां राजनीतिक आंदोलन तो हुए लेकिन सामाजिक सुधार के आंदोलन कम से कम हुए। ध्यान देने की बात है कि 1991 में शुरू हुए उदारीकरण के दौर में उत्तर भारत के राज्य मंडल और मंदिर के आंदोलनों में उलझे रहे तो दक्षिणी और पश्चिमी राज्य भूमंडलीकरण का लाभ लेते रहे। उत्तर भारत में दिल्ली और एनसीआर के अलावा पंजाब और हरियाणा को जरूर भूमंडलीकरण का लाभ मिला लेकिन बिहार, राजस्थान अपने सामंती ढांचे से जूझता रहा तो उत्तर प्रदेश भगवान राम के मंदिर आंदोलन में उलझा रहा। पूरे देश की राजनीति तय करने के जोश में इन राज्यों ने अपने विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया। यह एक तरह की बादशाहत की बीमारी है। इन राज्यों को विकास की जब तक सुध आई तब तक दक्षिण के राज्य काफी आगे निकल गए। इसके विपरीत दक्षिण के राज्यों के नेताओं का सरोकार राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय रहा है। आज सवाल यह है कि विकास का यह असंतुलन कैसे दूर होगा। नीति आयोग के सीईओ की तरफ से उधर ध्यान दिलाया जाना तो उचित है लेकिन राजनेताओं का ध्यान बदले बिना उसका समाधान नहीं होगा।


दैनिक जागरण

नाकाम महाभियोग के सबक

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव के खारिज होने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को यह समझ आ जाए तो अच्छा कि इस मामले को तूल देने से उसे बदनामी के सिवाय और कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि कांग्रेस के वकील सांसदों और चंद स्वतंत्र वकीलों के गुट को छोड़ दें तो अन्य सभी विधि विशेषज्ञ महाभियोग को बदनीयत से लैस बताने के साथ ही न्यायपालिका की गरिमा गिराने वाला कह रहे हैं। अगर फली एस नरीमन, सोली सोराबजी, राम जेठमलानी, हरीश साल्वे, केके वेणुगोपालन, के पारासरन, जैसे कानूनी जानकार इस नतीजे पर पहुंचे कि अधकचरा महाभियोग लाकर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई गई तो इन सबको गलत अथवा सरकार समर्थक नहीं करार दिया जा सकता। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि इनमें कई उस समय अटार्नी जनरल रहे हैं जब कांग्रेस सत्ता में थी। कांग्रेस नेतृत्व इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि उसके कई नेता एवं विधि विशेषज्ञ भी महाभियोग से सहमत नहीं। सुप्रीम कोर्ट के कुछ पूर्व न्यायाधीशों का भी यह कहना है कि मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने के ठोस आधार नहीं थे। ऐसे में यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष अपने वकील सांसदों के साथ-साथ वकीलों के उस गुट के बहकावे में आ गए जो सरकार के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के प्रति एक तरह के बैर भाव से ग्रस्त है और जो किस्म-किस्म की जनहित याचिकाएं दायर करने में माहिर है। 1यह एक तथ्य है कि वैचारिक तौर पर सरकार के अंध विरोध से ग्रस्त वकीलों का एक गुट फालतू की जनहित याचिकाएं थोक भाव में दायर करता रहा है। यह गुट सरकार के साथ-साथ मुख्य न्यायाधीश से भी खुन्नस खाता है, इसका प्रमाण यह है कि उनकी पीठ का बहिष्कार करने की धमकी देने के साथ-साथ अदालती कार्यवाही के दौरान अभद्रता करने के प्रसंग किसी से छिपे नहीं। इसमें संदेह नहीं कि वकीलों के इस गुट को चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की उस प्रेस कांफ्रेंस से और बल मिला जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कामकाज को लेकर सवाल उठाए थे। यदि सुप्रीम कोर्ट खास एजेंडे वाली जनहित याचिकाएं दायर करने वाले वकीलों के गुट को केवल चेताने तक सीमित नहीं रहता तो शायद जो स्थिति बनी उससे बचा जा सकता था। इसका कोई मतलब नहीं कि न्यायपालिका को नीचा दिखाने और शासन को अस्थिर करने के इरादे से जनहित याचिकाएं दायर करने वालों को सिर्फ हिदायत देकर छोड़ दिया जाए। आज जरूरी केवल यह नहीं है कि जनहित के बहाने अपना स्वार्थ साधने वालों को बेनकाब किया जाए, बल्कि यह भी है कि न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया का प्रभावी विकल्प भी खोजा जाए। अब तक का अनुभव यही बताता है कि महाभियोग इतनी जटिल प्रक्रिया है कि उससे कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। यह ठीक है कि राज्यसभा सभापति के फैसले के बाद संकीर्ण राजनीतिक इरादे से महाभियोग लाने वाले हतोत्साहित होंगे, लेकिन अगर कभी किसी न्यायाधीश का आचरण ऐसा हो कि उसे हटाना जरूरी हो जाए तो फिर देश के पास कोई ठोस उपाय होने ही चाहिए।


प्रभात खबर

चीन का रुख समझें

एक साथ दो केंद्रीय मंत्री चीन के दौरे पर हों, तो फिर कयास लगाये जा सकते हैं कि दोनों देशों के रिश्ते में जरूर ही कुछ महत्वपूर्ण होने जा रहा है. यों विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में भाग लेने के लिए गये हैं.

सो औपचारिक तौर पर कहा जा सकता है कि दोनों मंत्रियों के चीन दौरे के महत्व को द्विपक्षीय (चीन-भारत संबंध) नहीं, बल्कि बहुपक्षीय जमीन पर देखा जाना चाहिए. बात पहली नजर में ठीक लगती है. एससीओ की स्थापना साल 2001 में हुई और इस संगठन का मकसद सदस्य देशों के बीच आर्थिक और सैन्य सहयोग बढ़ाना तथा मध्य एशियाई क्षेत्र में आतंकवाद का सामना करने के लिए एकजुट प्रयास करना है.

संगठन में चीन के अलावे सदस्य देश के रूप में रूस, कजाखिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजीकिस्तान, किर्गिजस्तान, भारत और पाकिस्तान शामिल हैं. लेकिन, दोनों केंद्रीय मंत्रियों के चीन दौरे को एससीओ के मकसद के दायरे के भीतर सीमित करना ठीक नहीं, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले हफ्ते राष्ट्रपति शी जिनपिंग से बातचीत के लिए चीन जा रहे हैं. सुषमा स्वराज के चीन दौरे को भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति की प्रस्तावित भेंट की जमीनी तैयारी के रूप में भी देखा जाना चाहिए. चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बयान के भी यही संकेत हैं.

वांग यी ने शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी के बीच होनेवाली बातचीत को ‘दोनों देशों के रिश्तों के बीच नया मोड़ लानेवाला’ करार दिया है. भेंट से पहले चीन ने अपने रुख में बदलाव के भी संकेत दिये हैं. ब्रह्मपुत्र नदी से जुड़े आंकड़े भारत के साथ साझा करने और कैलाश-मानसरोवर यात्रा नाथू-ला दर्रे के रास्ते फिर से शुरू करने पर चीन राजी दिख रहा है.

इस बदली हुई पृष्ठभूमि में बहुत मुमकिन है पीएम मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बातचीत में डोकलाम में जारी चीन के निर्माण कार्य, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति बहाली, चीन की वन बेल्ट वन रोड योजना, एनएसजी में भारत की सदस्यता और भारत में चीन के निवेश जैसे कई मसले उठें.

एनएसजी में भारत की सदस्यता के समर्थन के एवज में चीन चाहेगा कि भारत सीपीईसी (चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) के प्रति सहयोगी रुख अपनाये और चीन-नेपाल-भारत के बीच प्रस्तावित आर्थिक गलियारे (सीएनआइइसी) का मसला भी शी जिनपिंग उठा सकते हैं.

लेकिन, सीएनआइइसी या फिर सीपीइसी पर कोई भी वादा करने से पहले भारत को ध्यान रखना होगा कि चीन-पाकिस्तान गलियारा पाक अधिकृत कश्मीर में कई जगहों पर भारतीय संप्रभुता का उल्लंघन करता है और सीएनआइइसी के जरिये चीन नेपाल की तराई तक अपनी पैठ बनाना चाहता है.

उसका इरादा पाकिस्तान की तरह पूर्वोत्तर भारत को भी अपनी कंपनियों और कामगारों से पाट देने का है. सो, चीन के साथ रिश्तों को नया रूप देते वक्त भारत के लिए फूंक-फूंककर कदम रखने की जरूरत है.


देशबन्धु

झूठे वादों ने तेल निकाल दिया

भारत में इस वक्त तेल में लगी आग की तपिश महसूस की जा सकती है। पेट्रोल और डीजल की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं और उन पर अंकुश लगाने की सरकार की नीयत फिलहाल नहीं दिख रही है। अभी अप्रैल में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16वें इंटरनेशनल एनर्जी फोरम के मंत्री स्तर की बैठक में कहा कि बेवजह तेल की कीमतें बढ़ाने से आयातक देशों की मुसीबतें काफी बढ़ जाएंगी। उन्होंंने इशारों-इशारों में ही ओपेक को चेताया भी दुनिया में सभी को सस्ती ऊर्जा मुहैया कराने के लिए जरूरी है कि तेल कीमतों पर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया जाए। श्री मोदी ने कहा कि दुनिया पिछले काफी वक्त से तेल कीमतों के भारी उतार-चढ़ाव से जूझ रही है। हमें ऐसी कीमतें तय करनी होगी जिससे तेल उपभोक्ता और उत्पादक दोनों देशों को फायदा हो।

भारत के लोग तो मोदीजी का प्रवचन सुन लेंगे, लेकिन ओपेक देश उनकी नसीहत किसलिए सुनेंगे? वैसे मोदीजी ये बात अच्छे से जानते हैं कि तेल की कीमतों पर भारत सरकार का नियंत्रण एक हद तक ही है, और उसे निर्यातक देशों की मर्जी माननी ही होगी। फिर क्यों उन्होंने 2014 के चुनाव में भारत की जनता को मूर्ख बनाया। याद करें अपनी चुनावी रैलियों में नरेन्द्र मोदी तेल की बढ़ती कीमतों को लेकर यूपीए की कड़ी आलोचना करते थे। इसके साथ ही डॉलर के मुकाबले कमजोर होते रुपये के लिए भी वे पिछली कांग्रेस सरकारों को कोसते थे। एक रैली में उन्होंने डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत का ग्राफ बताते हुए कहा था कि कांग्रेस ने जब पहली बार सरकार बनाई तो तब तक मामला 42 रुपये तक पहुंच गया था। लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कालखंड में ये साठ रुपये में पहुंच गया है। उनकी ऐसी बातें सुनकर जनता को लगता था कि तेल की कीमतें जानबूझ कर बढ़ाई गई हैं और भारतीय रुपए को भी कांग्रेस ने कमजोर कर दिया है। हकीकत यह है कि चाहे तेल की कीमत हो, या रुपए का अवमूल्यन, यह बहुत कुछ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही तय होता है।

इसका गणित दो और दो चार जैसा सरल नहीं होता, लेकिन मोदीजी ने इसका अतिसरलीकरण किया और जनता को लुभाकर सत्ता हासिल भी कर ली। अब आज जो स्थिति है, वह सब देख रहे हैं। रुपए की कीमत एक डालर के मुकाबले 67 रुपए तक जा पहुंची है और सीरिया संकट, ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध, तेल उत्पादक देशों यानी ओपेक के उत्पादन में कटौती के फैसले आदि के कारण तेल की कीमत भी पिछले 55 महीनों में सबसे ज्यादा है। यूं तो अंततराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने से सभी देश प्रभावित होते हैं, लेकिन बात करें दक्षिण एशियाई देशों की तो इनमें भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमतें सबसे अधिक हैं। इसकी एक वजह तरह-तरह के टैक्स हैं। केेंद्र सरकार एक्साइज ड्यूटी लगाती है, तो राज्य सरकारें वैट लगाती हैं। फिलहाल केेंद्र सरकार ने एक्साइज ड्यूटी हटाने से साफ इंकार कर दिया है, क्योंकि इससे राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा।

मौजूदा वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.3 प्रतिशत तक नियंत्रित करने का सरकार का लक्ष्य है। पिछली बार यह 3.5 प्रतिशत था। अगर सरकार पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी को एक रुपए भी घटाती है, तो उसे 13 हजार करोड़ रुपयों का नुकसान होगा। जबकि उसका मानना है कि एक-दो रुपयों का अतिरिक्त बोझ उठाने में उपभोक्ताओं को कोई दिक्कत नहीं होगी। आपकी यह बात भी जनता मान लेगी सरकार, लेकिन आप उसे बरगलाना कब छोड़ेंगे?

पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को नियंत्रण-मुक्त करने समय तर्क दिया गया था कि इससे उपभोक्ताओं को लाभ ही होगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम होने से खुदरा बाजार में पेट्रोल-डीजल की कम कीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी। लेकिन ऐसा हुआ ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम होने के बावजूद उसका लाभ उपभोक्ताओं को नहीं मिल पाया, क्योंकि सरकार ने कर बढ़ा दिए थे।  अभी भी केेंद्र सरकार चाहती है कि राज्य सरकारेंं वैट कम कर दें तो ग्राहकों को राहत मिले। लेकिन चाहने और कहने में बड़ा फर्क होता है।  केेंद्र में भाजपा काबिज है, और देश के तीन चौथाई राज्य भगवा रंग में रंग चुके हैं। तो क्या यहां की भाजपा या भाजपा समर्थित सरकारों को वैट कम करने के लिए केेंद्र सरकार नहीं कह सकती है। या अभी वह इसलिए नहीं कह रही है, क्योंकि आम चुनावों में एक साल का समय है, तब तक महंगाई से जनता का थोड़ा तेल और निकल जाए, फिर महात्मा, महामना, महापुरूष मोदीजी मलहम लगाने मंच पर आएंगे। तेल की बढ़ती कीमतों का असर खेती, व्यापार, उद्योग सभी पर पड़ता है। इसलिए इसमें झूठी उम्मीदें नहीं बंधानी चाहिए। 2014 में आर्थिक नीतियों के चमत्कारिक विकल्प का विजन मोदीजी ने पेश किया लेकिन उसमें पूरी तरह से असफल रहे हैं। कम से कम अब तो वे धरातल की सच्चाई को देखकर सही-सही बात जनता के सामने पेश करें।


The Times of India

Changed Reality

The Centre’s decision to withdraw the Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) totally from Meghalaya as well as from eight out of 16 police stations in Arunachal Pradesh, with effect from March 31, is a shot in the arm for these regions. The Centre’s move was motivated by the fact that insurgency-related incidents in the north-east have come down by 85% from peak levels almost two decades ago. In fact, areas of Meghalaya and Arunachal Pradesh bordering Assam were declared disturbed in 1991 to avoid a spillover of insurgency by Assam-based outfits like the United Liberation Front of Asom (Ulfa). However, the security situation has changed significantly today with Ulfa – main pro-talks faction – and other big insurgent groups like the Naga NSCN (IM) entering into ceasefire agreements and negotiations with government.

True, AFSPA continues to be in force in the whole of Assam and Nagaland, and all of Manipur except the Imphal municipal area. But the law – which gives special powers and immunity to the armed forces deployed in disturbed areas – is already loosely implemented in large parts of Assam. Neighbouring Tripura completely revoked it in 2015. All of this indicates a change in ground realities and exemplifies the need to expeditiously withdraw the heavy-handed security arrangements. The continued imposition of AFSPA would be onerous and hinder the normalisation of the north-east region.

Besides, the north-east states comprise a critical pillar of the government’s Act East policy. The policy aims to make these states serve as a bridge between the rest of India and southeast Asia, boosting two-way trade and other exchanges. That will be inhibited if AFSPA remains in place. If government wants investors to flock to the northeast, it must create the right atmosphere. The same goes for tourism – the north-east is blessed with abundant natural beauty, but tourists will flock to the region only if travel and movement are made easy.

 

With development and connectivity improving in the north-east, removal of AFSPA is certain to add to the momentum for change. Apart from unfortunate incidents like the Manorama Devi case in 2004, the imposition of AFSPA also created vested interests that benefited from the extraordinary security arrangements and special status. Perhaps a metric can be devised for levels of insurgency in various parts of the north-east, and AFSPA automatically revoked if it falls below a defined threshold value.


The Indian Express

Revisiting AFSPA
The Centre has done well to withdraw the Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) from the entire Meghalaya state and restrict its operation to parts of Arunachal Pradesh. These states have not reported any incidents of insurgency in 2017. Three years ago, the Act was withdrawn from Tripura after the Manik Sarkar government sought its removal on the ground that it had ended insurgency in the state. It is only right that the government acknowledges and rewards a people for holding the peace. The Act continues to be in operation in Assam, Nagaland and most parts of Manipur.

The AFSPA is a draconian law that gives enormous discretionary powers to the armed forces over a civilian population. Of course, it is imposed in extreme situations and on the plea of the local administration that it is unable to enforce the writ of the state. However, once in place, administrations tend to be reluctant to lift the Act, a modified version of a 1942 colonial law devised to subjugate local populations. For instance, the AFSPA has been in force in Meghalaya for the past 27 years though the state ceased to have any active insurgency years ago. It was reluctantly withdrawn from the Imphal Municipal Area in 2004 after several civil society campaigns — the hunger strike by Irom Sharmila being the most high-profile of them — and public mobilisations in Manipur. The Assam government declared the entire state “disturbed” and embraced the cover of the Act in February this year, though militancy in the state has nearly petered out. Clearly, the government loves this law, which causes the suspension of basic civil rights. However, a 2016 Supreme Court judgment clarified that the notion that the Act provides a free hand to security forces is flawed. Ruling on a petition filed by the Extra Judicial Execution Victims Families Association, a representative platform of people in Manipur whose kin have allegedly been killed by security forces, the Court held that due process needs to be followed in civilian complaints reported from areas under the AFSPA and that the Act doesn’t provide blanket immunity to army personnel in anti-insurgency operations.

The continuance of the Act in any region for extended periods symbolises, according to the apex court, “failure of the civil administration and the armed forces”. This is most evident in Jammu and Kashmir, where the Centre has continuously stonewalled pleas to lift the Act even when it had opportunities to remove it from relatively peaceful districts and entrust the task of enforcing the rule of law to local agencies. Worse, in cases like the shooting of three civilians in Shopian in January this year, there have been attempts to ignore the rights discourse the 2016 SC order had laid out and revert to the immunity argument. The Meghalaya experience will hopefully revive a sober debate on the Act and its limits.


The New Indian Express

Will this Bill Nab Fugitives Abroad?
The Fugitive Economic Offenders Bill, 2018, is now a reality. Congratulations, everyone! Fraudsters may flee the country, but they cannot hide forever. The Bill, announced in Budget 2017, was passed months after the $2-billion PNB fraud came to light and as Nirav Modi and Mehul Choksi are on the run. The speed at which the Centre pursued the Bill shows its intent to avoid both voter indignation and self-embarrassment. Economic offences doubled in the past decade and offenders avoiding the Indian jurisdiction hamper investigation, waste the time of courts, undermine the rule of law and worsen the financial sector.

The Centre hopes attaching assets would coerce offenders to return home, like wasps to jam, and face trial. Else, authorities can sell confiscated assets, including benami properties. This provision is lifted straight out of the UN Convention against Corruption (ratified by India in 2011), which counts asset recovery as its fundamental principle. The Bill allows seizing property based on allegations, but with no conviction and without a trial which some believe is inconsistent with natural justice. It disentitles associated companies, again considered an unfair play, and allows seizure of all properties, regardless of whether they exceed liabilities.

Though viewed as regressive, the Bill may be a futile legislation when it comes to confiscation of properties abroad. Why? Despite the ministry of external affairs’ legal assistance treaties with 39 countries, our success rate with extraditions is evident from the progress made on absconders Lalit Modi and Vijay Mallya. Importantly, the Bill is silent on prevention of undesirable economic behaviour, and on associated parties who may not have been benefited.
The burden of proof rests solely on them to prove their innocence. Critics say it’s a legal overkill, as the new Bill covers economic offences already defined under 15 statutes. Wouldn’t amendments to existing laws have been enough, instead of a new Bill adding to the ‘too many laws, too little justice’ tag? The jury is still out.


The Telegraph

Poor Move
The recent shortage of cash, with ATMs running dry, has caught the citizen by surprise. When bad news pours out of banks every day, this hardly adds any assurance or confidence about the financial system. The crunch has been localized in five or six states and the shortage seems to be particularly noticeable in currency notes of the denomination of Rs 2000. The official position of banks and government alike is that there has been an unanticipated and extraordinary spike in the demand for cash in the past three or four months. Reasons have been cited too: post-harvest rise in demand, imminent elections when political parties tend to hoard cash, misperceived anxieties about a regulation being considered by which banks may be told to reduce their liabilities by snipping off a part of depositors’ assets. Some bank officials have clearly stated that the Reserve Bank of India has not pumped in enough cash commensurate with the rise in national income. Over and above this, for reasons unclear, the RBI has actually stopped putting Rs 2000 notes into circulation. There are rumours that these will be replaced by more notes of lower denominations.

Whatever be the reason, the authorities behind the management of the supply of cash in the economy have failed to tackle the emerging issues. None of the reasons cited above can be completely unanticipated, barring a spike beyond the other factors that spurred demand for cash. If indeed, the reason was a rise in demand that caused the spike, it is an ominous sign. People are beginning to keep more cash in their wealth portfolios because they are either apprehensive of the financial system’s health or they are anticipating markets and returns to go down considerably in the near future. It might be a wake-up call for the RBI and the ministry of finance. On the other hand, if the shortage of cash was not due to demand factors, but because of a supply side induced shortage, then clearly it has been done quite consciously by the monetary authorities. Some have observed that this might have been done to get Rs 2000notes gradually out of circulation. If that is so, then it was done in an inefficient manner where new notes were not ready before the older ones were being withdrawn. Or this could have been one way the government might have thought of to force citizens to go digital by refusing them cash. It would be a remarkably inept method if that is indeed the case.

Whichever way one might try to resolve the mystery of the missing cash, it reflects extremely poorly on the RBI and the government. What more could be expected from authorities who tried to reduce black money and cash hoarding by introducing new currency of higher denomination and smaller physical size – an ideal pair of convenience for hoarders?

 

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