आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 09 मार्च, 2018

नवभारत टाइम्स

पीछे होती महिलाएं

भारत में औरतें काम से बाहर हो रही हैं। देश की कार्यशक्ति का हिस्सा बनने वाली महिलाओं का प्रतिशत पिछले बारह वर्षों में सीधे दस फीसदी नीचे आ गया है किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए यह खबर भयंकर बेचैनी पैदा करने वाली होती, लेकिन हमारे यहां तो इस पर बात भी नहीं हो रही है। वर्ल्ड बैंक के आंकड़े बता रहे हैं कि 2005 में 15 साल से ज्यादा उम्र की लगभग 36 फीसदी महिलाएं वेतन या मजदूरी के एवज में कहीं न कहीं काम कर रही थीं। लेकिन 2017 में ऐसी महिलाओं का हिस्सा सिमटकर 25.9 फीसदी पर आ गया। इसका असर देश की कुल श्रमशक्ति में कमी के रूप में देखा जा रहा है। सन 2016 में चीन का प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत का 2.4 गुना था, जबकि प्रति कामगार जीडीपी 1.7 गुना दर्ज किया गया। लेकिन तीन दशक पहले चीन उत्पादन से लेकर कमाई तक में भारत से पीछे था। उसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत से कम तो थी ही, प्रति कामगार जीडीपी भी भारत से कम थी। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक सन 1991 में इन दोनों ही मामलों में चीन का दर्जा भारत से नीचे था। लेकिन चीन की तेज तरक्की के पीछे तकनीकी बढ़त के अलावा खास बात यह देखी गई कि वहां की श्रम शक्ति में महिलाओं की की भागीदारी भारत से कहीं ज्यादा है। पिछले साल के आंकड़े के मुताबिक भारत के 25.9 प्रतिशत के मुकाबले चीन की 60 प्रतिशत महिलाएं बाहर निकलकर किसी कार्य स्थल पर अपनी सेवाएं दे रहे थीं। मामले का दूसरा पहलू यह है कि कुल महिलाओं में कामकाजी महिलाओं का हिस्सा धीमी रफ्तार से ही सही, लेकिन पूरी दुनिया में गिर रहा है, पर इस गिरावट में जितनी तेजी भारत में दर्ज की गई है, उसकी कहीं और कल्पना भी करना मुश्किल है। इसकी वजहों पर जाएं तो हाल का नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे बताता है कि 15 से 19 वर्ष तक की 78.3 फीसद लड़कियों को हम घर से बाहर जाने ही नहीं देते, जबकि 20 से 24 साल की 30.8 प्रतिशत लड़कियों को ही घर से बाहर जाने की इजाजत मिलती है। और यह बाहर निकलना भी प्रायः काम पर जाने के लिए नहीं, बाजार, अस्पताल और आसपास के दर्शनीय स्थलों के दर्शन तक ही सीमित होता है। 1991 में भारत की तीन चौथाई महिलाएं खेत में काम करती थीं। यह हिस्सा अभी 59 फीसद के आसपास आ गया है। उद्योगों और सेवाओं में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ी है, लेकिन 2005 के बाद से इस दायरे में भी ठहराव या गिरावट देखी जा रही है। सबसे ज्यादा बुरा हाल मध्यम वर्गीय नौकरियों का है, जिनमें टिक पाना महिलाओं के लिए मुश्किल साबित हो रहा है। सरकार को उद्यमियों से मिलकर इस बारे में कोई रास्ता निकालना चाहिए, वरना सिर्फ मुनाफे की फिक्र महिलाओं के साथ-साथ देश को भी गर्त में ले जाएगी।


 जनसत्त्ता

ध्वंस का उन्माद

जिस तरह एक के बाद एक कई महापुरुषों की प्रतिमाएं गिराए या तोड़े जाने की घटनाएं हुर्इं वे बेहद शर्मनाक और अफसोसनाक हैं। इन घटनाओं से जहां देश के भीतर नाहक कटुता पैदा हुई, वहीं दुनिया में एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की साख को धक्का लगा है। देश के कुछ हिस्सों में प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करने की घटनाओं की प्रधानमंत्री ने उचित ही निंदा की है और दोषी लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है। इसके साथ ही, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को दो बार निर्देश जारी किया कि इन घटनाओं में लिप्त लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए और ऐसी घटनाएं रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं। इन घटनाओं से सरकार का चितिंत होना स्वाभाविक है।

अगर ये घटनाएं नहीं थमीं तो प्रतिमा ध्वंस का सिलसिला कहां जाकर खत्म होगा, कौन जानता है! लेकिन सवाल है कि सरकार को चेतने में देर क्यों लगी? सबसे पहले त्रिपुरा में सोवियत क्रांति के जनक और कम्युनिस्ट विचारक लेनिन की प्रतिमा ढहाई गई। तब इसकी निंदा करने के बजाय भाजपा के कई नेता घुमा-फिरा कर इसे सही ठहराते रहे, यह कहते हुए कि यह वामपंथी शासन के दौरान दमन के शिकार रहे लोगों द्वारा अपने रोष का इजहार है। आजादी मिलने के बाद बहुत-से औपनिवेशिक निशान हटाने की घटनाओं से भी इसकी तुलना की गई। लेनिन की मूर्ति ढहाने को परोक्ष रूप से उचित ठहराने में त्रिपुरा के राज्यपाल तक शामिल हो गए, जबकि नई सरकार के शपथ ग्रहण से पहले कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी उन्हीं की थी।

फिर बात यहीं नहीं रुकी। तमिलनाडु से ताल्लुक रखने वाले भाजपा के राष्ट्रीय सचिव एच राजा ने एक फेसबुक-पोस्ट डाल कर पेरियार की मूर्ति का भी लेनिन की मूर्ति जैसा ही हश्र किए जाने की धमकी दे डाली। इसके कुछ ही घंटों बाद वेल्लोर में पेरियार की प्रतिमा गिरी हुई और खंडित अवस्था में मिली। इससे तमिलनाडु का सियासी पारा चढ़ गया। उधर कोलकाता में जनसंघ (भाजपा के पूर्व-रूप) के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी और मेरठ के एक गांव में दलितों के प्रेरणा-स्रोत भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के साथ तोड़-फोड़ की खबरें आर्इं। इस सब पर संसद के भीतर भी काफी हंगामा हो चुका है और बाहर भी। इन घटनाओं में कौन लोग शामिल थे, यह देखना संबंधित राज्य की पुलिस का काम है। पर इन घटनाओं से जो सामान्य सबक लिया जाना चाहिए वह यह कि सहिष्णुता के बगैर न तो कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था चल सकती है न समाज में शांति कायम रह सकती है। दूसरा सबक यह है कि सत्ता के साथ जवाबदेही आती है। त्रिपुरा में जनादेश हासिल करने के बाद भाजपा ने यह सबक याद क्यों नहीं रखा?

पश्चिम बंगाल में चौंतीस साल वाम मोर्चे का राज रहा। लेकिन वाम मोर्चे को शिकस्त देकर ममता बनर्जी आर्इं, तो वहां लेनिन की मूर्तियां नहीं तोड़ी गर्इं। लेनिन की मूर्ति गिराने के पीछे यह दलील देना कि वे भारत के नहीं थे, निहायत बेतुकी दलील है। जिन महापुरुषों ने तमाम देशों में बहुत-से लोगों को प्रभावित किया है और दुनिया भर में अपनी छाप छोड़ी है, लेनिन उनमें से एक हैं। गांधी की भी मूर्तियां बहुत-से देशों में हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर की भी। लेनिन, गांधी, पेरियार और आंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी से असहमत होने और उन्हें अपना आदर्श न मानने का किसी को भी हक है। लेकिन इनमें से किसी की भी प्रतिमा तोड़ना-ढहाना एक ऐसा उन्माद है जिसकी लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव नहीं होता, सहिष्णुता और सौहार्द भी होता है।


हिन्दुस्तान

राजनीति की नई बिसात

इसके पहले कि भाजपा अपनी गोटियों के बारे में कुछ सोचती, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने अपनी चुनावी चाल चल दी है। अगले साल देश में तो आम चुनाव होने ही हैं, उसी के साथ आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव भी होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भले ही चुनावी लहर चलाने में महारत हासिल कर ली हो, लेकिन नायडू कम से कम आंध्र प्रदेश में उनके लिए कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। वह भले ही अभी तक एनडीए गठबंधन के अभिन्न अंग माने जाते हों, लेकिन शायद उन्हें लग रहा है कि इस बार नैया तभी पार होगी, जब उनकी लहर दिल्ली की लहर से टकराती दिखे। इसके लिए उन्होंने जो मुद्दा चुना है, वह भले ही तर्क की कसौटी पर बहुत दूर तक जाता न दिखे, लेकिन इस मसले में उन्हें वह भावनात्मक अपील तो दिख ही रही है, जो पूरे राज्य के वोटरों को उनके पक्ष में लामबंद कर सकती है। इसी रणनीति पर चलते हुए उन्होंने एनडीए से दूर जाने का रास्ता तैयार कर लिया है। अब न उनकी पार्टी तेलुगू देशम केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहेगी और न भाजपा उनके अपने मंत्रिमंडल में। उनकी इस राजनीति से उन दलों की बांछें जरूर खिल गई हैं, जो तीसरे मोर्चे या गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा गठबंधन के सपने संजोते हैं। दिलचस्प बात यह है कि उनके पड़ोसी राज्य तेलंगाना के मुख्यमंत्री सी चंद्रशेखर राव भी इसी राजनीति की उतावली दिखा रहे हैं। हालांकि राव और नायडू कभी एक मंच पर आ सकेंगे, इसकी संभावना बहुत कम है। पर तीसरा मोर्चा नाम की जो अवधारणा है, उसके लिए ऐसे अंतरविरोध नई बात भी नहीं हैं।

हालांकि विशेष राज्य का दर्जा देने की जो बात टीडीपी और चंद्रबाबू नायडू कर रहे हैं, उसका कोई खास अर्थ नहीं है, इसे शायद वह खुद भी समझते होंगे। इसके पहले बिहार और ओडिशा भी विशेष राज्य का दर्जा पाने के लिए तमाम कोशिशें कर चुके हैं। पांचवें वित्त आयोग ने विशेष राज्य के दर्जे के लिए कुछ शर्तें रखी थीं, इनमें से कोई भी राज्य उन शर्तों को पूरा नहीं करता। न तो ये पर्वतीय भूभाग वाले प्रदेश हैं, न ही बहुत कम जनसंख्या वाले राज्य और न ही वे ऐसे सीमावर्ती इलाके हैं, जहां विकास की धारा आसानी से नहीं पहुंच पाती। और इससे भी बड़ी बात यह है कि 14वें वित्त आयोग ने विशेष राज्य के दर्जे का प्रावधान ही अब पूरी तरह से खत्म कर दिया है। यानी यह एक ऐसी मांग है, जिसके पूरा होने की गुंजाइश अब नहीं के बराबर है।

वैसे तो आधिकारिक रूप से अगले चुनाव की तैयारियां एक साल बाद ही शुरू होंगी। और चुनाव उसके भी कुछ हफ्ते बाद ही होंगे। लेकिन इतना पहले शुरू हो गई नायडू की सक्रियता यह बताती है कि वह इसके लिए कितनी लंबी तैयारी कर रहे हैं। जाहिर है, अब इन तैयारियों का जवाब देने के लिए भाजपा को भी मैदान में आना होगा और कांग्रेस को भी। साथ ही भाजपा को यह सोचना होगा कि ऐसा क्यों है कि चुनाव के इतने पहले ही एनडीए के महत्वपूर्ण घटक उससे छिटक रहे हैं? और कांग्रेस के लिए सोचने की बात यह है कि जिस समय यह उम्मीद की जा रही थी कि वह ध्रुवीकरण का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनेगी, यह केंद्र उससे दूर क्यों होता जा रहा है? जल्द ही ये दोनों दल अपनी जवाबी राजनीति के साथ मैदान में होंगे। तेलुगू देशम के नए तेवर ने अगले कुछ महीनों के लिए राजनीति को दिलचस्प बना दिया है।


अमर उजाला

नायडू का दांव

केंद्र द्वारा आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने से इन्कार करने पर तेदेपा के दो मंत्री केंद्रीय कैबिनेट से बाहर तो हो गए हैं, पर फिलहाल एनडीए में बने रहने का चंद्रबाबू नायडू का फैसला उनकी दुविधा के बारे में ही बताता है। आंध्र में नायडू की छवि चाहे जैसी भी हो, राष्ट्रीय परिदृश्य में उनकी छवि केंद्र पर दबाव बनाकर रियायतें ले जाने वाले क्षेत्रीय नेता की ही ज्यादा है। चुनाव से एक साल पहले, और सूबे में अपनी प्रतिद्वंदी जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस द्वारा आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने से संबंधित अल्टीमेटम देने के बाद नायडू का इस मुद्दे पर अचानक सख्त रुख अपनाना बहुत कुछ बता देता है। राजनीतिक लाभ के लिए आंध्र के मुद्दे पर वह सबसे आक्रामक दिखना चाहते हैं, पर एनडीए से नाता तोड़ लेने की अव्यावहारिकता भी बखूबी समझते हैं। इसीलिए ‘अपमानित होने’ और अपने मंत्रियों को केंद्रीय कैबिनेट से बाहर कर लेने के बावजूद एनडीए से बाहर होने का फैसला उन्होंने फिलहाल मुल्तवी रखा है! भाजपा ने नायडू की अव्यावहारिक मांग के आगे न झुकने का संकेत देकर अच्छा किया है, पर लोकसभा चुनाव में चूंकि करीब एक साल का समय रह गया है, ऐसे में, आंध्र के मुद्दे पर उसका यह रुख राजनीतिक रूप से नुकसान पहुंचाने वाला भी साबित हो सकता है। वहां लोकसभा की पच्चीस सीटें हैं, जिनमें से सत्रह फिलहाल तेदेपा और भाजपा के पास, जबकि शेष आठ सीटें वाईएसआर कांग्रेस के पास हैं। कहा जा रहा है कि तेदेपा से एक खटास के बाद भाजपा वाईएसआर कांग्रेस से तालमेल करने के बारे में सोच रही है, लेकिन नायडू आंध्र में भाजपा की जैसी छवि बना रहे हैं, उसके बाद वाईएसआर कांग्रेस उसके साथ तालमेल कर बहुत बड़ा जोखिम मोल लेगी। बेशक भाजपा ने इस बीच आंध्र में अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश की है, लेकिन वहां अपने दम पर चुनाव लड़ना जोखिम होगा। अगर मतदाताओं के बीच यह संदेश गया कि एनडीए सरकार आंध्र की मदद के मामले में उदासीन है, तो उसका वही हश्र हो सकता है, जैसा पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र को बांटने वाली कांग्रेस का हुआ था। लिहाजा केंद्र के लिए व्यावहारिक तो यही होगा कि वह तेदेपा के साथ अपने रिश्ते को इतना भी खराब न होने दे कि उसका इसे राजनीतिक नुकसान हो। प्रधानमंत्री ने नायडू से बात कर इस दिशा में पहल की भी है।


दैनिक भास्कर

राष्ट्रव्यापी हो सकता है चंद्रबाबू का अलगाव 

तेलुगु देशम पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार छोड़कर देश में एक नई किस्म की राजनीतिक बहस और ध्रुवीकरण की संभावना पैदा की है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू ने इसके पीछे का कारण राज्य को विशेष दर्जा न दिए जाना बताया है। उनका यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी उपेक्षा की है और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बयान से उन्हें आहत किया है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वे एनडीए भी छोड़ेंगे और सोनिया गांधी उन्हें अपने गठबंधन के लिए आमंत्रित करेंगी या नहीं। चंद्रबाबू के इस कदम से एक बात तो स्पष्ट है कि एनडीए में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और देश में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के अलावा दूसरे भी मुद्‌दे सुलग रहे हैं जो 2019 के चुनाव में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी और उनका गठबंधन जिन क्षेत्रीय दलों को साधकर दिल्ली में सत्ता में आया और जिनके बूते पर हाल में पूर्वोत्तर राज्यों में उसने सत्ता के समीकरण को उलट-पुलट दिया है वे क्षेत्रीय दल उसके लिए अगले चुनाव में परेशानी भी खड़ी कर सकते हैं। क्षेत्रीय दलों से एकता का आह्वान करते हुए चंद्रबाबू नायडू ने कहा भी है कि उनके राज्य का विभाजन होने से जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई करने का वादा मोदी सरकार नहीं निभाया। वे जिस विशेष दर्जे की मांग कर रहे हैं उसे देने में सरकार यह कह कर पीछे हट रही है कि वह पूर्वोत्तर और तीन पहाड़ी राज्यों के अलावा अन्य को नहीं दिया जा सकता। हालांकि केंद्र सरकार आंध्र प्रदेश को उस स्तर का वित्तीय सहयोग देने को तैयार है। विशेष दर्जा मिलने पर राज्य में केंद्रीय योजनाओं का 90 प्रतिशत धन केंद्र से ही मिलेगा, जबकि अभी सिर्फ 60 प्रतिशत मिलता है। नायडू के इस पैंतरे में विशेष दर्जे के मसले को राष्ट्रीय स्तर तक उठाने की रणनीति भी दिखती है, क्योंकि इससे पहले उड़ीसा और बिहार यह मांग करते रहे हैं। तेलुगु देशम ने यह मुद्‌दा आगामी चुनाव में राज्य की वाईएसआरसीपी, भाजपा और कांग्रेस से अपनी होड़ को देखते हुए भी उठाया है। वह राज्य के हितों के झंडाबरदार बनकर ताकत बढ़ाना चाहती है। भाजपा इस कदम को चुनौती और अवसर दोनों के रूप में भी देख रही है। जहां वह वाईएसआर से गठबंधन का प्रयास कर रही है वहीं अकेले दम पर चुनाव लड़ने का विकल्प भी खुला रखा है। आंध्र के विशेष दर्जे के बहाने यह 2019 की दिल्ली दौड़ है।


राजस्थान पत्रिका

क्या कर रही सरकारें?

सुप्रीम कोर्ट की फटकार पर फटकार के बाद भी राज्य सरकारें हैं कि सबक लेना ही नहीं चाहती। शीर्ष अदालत ने इस बार कचरा प्रबंधन पर दिल्ली सरकार को आड़े हाथों लेकर कहा कि “पूरी दिल्ली घोड़े के ‘बम’ पर बैठी हुई है।” गंभीर स्थिति के बावजूद दिल्ली सरकार कोई प्रभावी कदम उठाती नजर नहीं आ रही। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने भी यमुना नदी में गंदगी के लिए दिल्ली जल बोर्ड को फटकार लगाई है। खास बात ये कि ये फटकार पहले भी लगती रही है। अदालत को दिखाने के लिए अफसर हर पेशी पर एक रिपोर्ट पेश करके अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ लेते हैं। कूड़े की ये बीमारी अकेले दिल्ली या किसी दूसरे राज्य तक सीमित नहीं है। देश के तमाम बड़े शहर ही बड़े शहर ही कूड़े के बम पर बैठे हुए हैं। स्वाइन फ्लू, चिकनगुनिया-डेंगू जैसी बीमारियों ने हाहाकार मचा रखा है। एक तरफ स्वच्छता को लेकर शहरों में सर्वेक्षण चल रहा है तो दूसरी तरफ देश की राजधानी देश की राजधानी राजधानी के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। आम जनता जानना चाहती है कि आखिर सरकारें क्या कर रही हैं? गंदगी बढ़ रही है, ट्रैफिक समस्या काबू से बाहर होती जा रही है। अपराधों पर कोई सरकार लगाम नहीं लगा पा रही। हर शहर में मिलावटी खाद्य पदार्थ धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं। अतिक्रमणों की बाढ़ आ गई है। यानी सरकारों को जो काम करने चाहिए वह भी नहीं हो रहे। रोजमर्रा के हर कामों के लिए अदालत को फटकार लगानी पड़े, ये अच्छी बात नहीं। दिल्ली में तो लगता है कि सरकार को टकराव से ही फुर्सत नहीं मिल पाती। कभी उपराज्यपाल के साथ भिड़ंत तो कभी केंद्र सरकार के साथ, कभी विधायकों और अफसरों के बीच मारपीट की शर्मनाक खबरें सामने आने लगी हैं। सरकारों का काम जनता से किए गए वायदे पूरे करना है। काम भी ऐसा कि हर मुद्दे पर अदालतों को दखल ना देना पड़े। दिल्ली सरकार ही नहीं देश की दूसरी सरकारों से भी जिम्मेदार बन कर काम करने की उम्मीद की जाती है, ताकि बात-बात पर लोकतंत्र को यूं शर्मसार ना होना पड़े।


दैनिक जागरण

राजनीतिक अलगाव

कुछ समय पहले तक इसके आसार कम ही थे कि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग इतना ज्यादा तूल पकड़ेगी कि भाजपा और तेलुगु देसम पार्टी की दोस्ती अलगाव में बदल जाएगी, लेकिन ऐसा ही हुआ। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं कि मोदी सरकार से अलग होने के बाद तेलुगु देसम राजग से भी बाहर जाने का फैसला करती है या नहीं? जो भी हो, इस अलगाव का कारण आर्थिक कम राजनीतिक ज्यादा नजर आता है। इसमें दोराय नहीं कि अलग राज्य तेलंगाना के गठन और विकसित शहर एवं राजधानी हैदराबाद के उसके हिस्से में जाने के बाद आंध्र को नई राजधानी के निर्माण और साथ ही विकास संबंधी योजनाओं के लिए केंद्र सरकार से विशेष आर्थिक मदद की दरकार थी, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि मोदी सरकार ने आंध्र को यथासंभव पर्याप्त धन देने से इन्कार नहीं किया। जहां मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू आंध्र के लिए विशेष राज्य का दर्जा चाह रहे थे वहीं केंद्र सरकार का तर्क था कि विशेष पैकेज तो दिया जा सकता है, लेकिन विशेष राज्य का दर्जा देना संभव नहीं। इस दलील को निराधार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वित्त आयोग के अनुसार एक तो यह दर्जा छोटे और विकास से वंचित राज्यों को ही दिया जा सकता है और दूसरे अगर आंध्र की बात मान ली गई तो फिर बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य भी ऐसी ही मांग करेंगे। 1समझना कठिन है कि जब केंद्र सरकार आंध्र प्रदेश सरकार को विशेष पैकेज के तहत यथासंभव मदद देने की हामी भर रही थी और नई राजधानी अमरावती के निर्माण समेत अन्य परियोजनाओं के लिए धन जारी भी करती जा रही थी तो फिर चंद्रबाबू नायडू ने विशेष राज्य के दर्जे की अपनी मांग को एक राजनीतिक रंग क्यों दिया? हैरत नहीं कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया हो ताकि खुद को इस आधार पर राजनीतिक तौर पर मजबूत कर सकें कि केंद्र सरकार आंध्र के साथ अन्याय कर रही है। ध्यान रहे कि चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक विरोधी जगन मोहन रेड्डी इसे मुद्दा बनाए हुए थे कि आंध्र के निर्माण में केंद्र सरकार का क्या और कितना योगदान है? एक आर्थिक मामले में किस तरह राजनीति हावी होती चली गई, इसका पता इससे भी चलता है कि राहुल गांधी ने तेलुगु देसम पाटी के नेताओं के बीच खड़े होकर उनकी मांगों का समर्थन करने में देर नहीं की। यह बात और है कि आज आंध्र प्रदेश की मौजूदा स्थिति के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी जवाबदेह है। उसने 2014 के आम चुनाव के पहले जिस तरह आनन-फानन आंध्र का बंटवारा किया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। राजनीतिक दलों की ओर से आर्थिक मसलों को राजनीतिक रंग देना कोई नई बात नहीं, लेकिन चंद्रबाबू नायडू से यह अपेक्षित नहीं था कि वह ऐसा करने के साथ विशेष राज्य की अपनी मांग को एक भावनात्मक मसला भी बनाएंगे। वह इसी दिशा में बढ़ते दिख रहे हैं। हो सकता है कि इससे उन्हें फौरी तौर पर राजनीतिक लाभ हो, लेकिन यह परिपक्व राजनीति का उदाहरण नहीं है। अच्छा होता कि वह थोड़ी और राजनीतिक परिपक्वता दिखाते।


प्रभातखबर

रोजगार का संकट  

देश में रोजगार विहीन वृद्धी का दौर चल रहा है.  सरकार और उद्दोग जगत द्वारा प्रयासों के बावजूद हालत चिंताजनक हैं केन्द्रीय श्रममंत्री संतोष गंगवार ने विश्व श्रम संगठन के हवाले से संसद को बताया है कि इस वर्ष बेरोजगारों की संख्या 1.86 करोड़ हो सकती है, जो बीते वर्ष 1.83 करोड़ थी. इसका मतलब यह है कि बेरोजगारी की दर 3.5 के स्तर पर स्थिर रह सकती है. लेकिन, क्या इन अनुमानों से पूरी तरह आश्वस्त हुआ जा सकता है? भारतीय अर्थव्यवस्था का अध्यन करने वाली प्रती संस्था सेंटर फ़ॉर मॉनीटिरिंग इन्डियन इकोनॉमी की रिपोर्ट कहती है कि फरवरी में बेरोजगारी पिछ्ले 15 महीनों के उच्चतम स्तर पर थी. इसके मुताबिक बेरोजगारों की मौजूदा संख्या 3.10 करोड़ है, जो कि अक्टूबर 2016 के बाद सर्वाधिक है. इस हिसाब से फरवरी में बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत रही, जबकि जनवरी में यह दर पांच फीसदी थी. मौजूदा वित्त वर्ष में करीब छ लाख रोजगार सृजन का आकलन है. चिंता की बात यह है कि बेरोजगारी की दर में कमी की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है. पिछ्ले माह केंद्र सरकार ने जानकारी दी थी कि मार्च, 2016 तक उसके चार लाख से अधिक पद खाली हैं, जो कि केंद्रीय विभागों के कुल कार्य बल का 11 फीसदी है. जब 1.70 करोड़ लोग हर साल रोजगार के लिए तैयार हो रहे हैं, तो सरकार को अपने अधीन खाली पदों को भरने पर जोर देना चाहिए. याद रहे सितंबर 2015 तक ही साढ़े चार करोड़ लोग रोजगार केन्द्रों में पंजीकृत थे.अब यह संख्या बड़ी ही होगी तथा बड़ी संख्या में बेरोजगार पंजीकरण भी नहीं कराते हैं. रोजगार के संदर्भ में नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने भी व्यक्ति की क्षमता और कौशल से निम्न स्तर के रोजगार में लगे होने की अहम समस्या को रेखांकित किया है, परंतु इसे बेरोजगारी से अधिक बड़ी समस्या कहना सही नहीं है. बहरहाल, विभिन्न आर्थिक सुधारों और अर्थव्यवस्था की मजबूती के भरोसे से यह माना जा सकता है कि आनेवाले समय में हालत बेहतर हो सकती है. सरकार ने राष्ट्रीय रोजगार नीति तैयार करने के लिए मंत्रियों की एक समिति गठित की है. साथ ही, व्यापक आंकड़े जुटाने की दिशा में भी कोशिशें जारी हैं. संपत्ति के सृजन और आर्थिक वृद्धि के संतोषजनक रहने की स्थिति को तभी सकारात्मक माना जा सकता है, जब रोजगार के अवसर भी समुचित संख्या में पैदा होते रहें. उत्पादन और मांगों को गति देने के लिए जरूरी है कि आम लोगों की आमदनी बढ़े. अगले साल के पूर्वार्द्ध में लोकसभा के चुनाव होने हैं. ऐसे में केंद्र सरकार के पास बेरोजगारों की समस्या के समाधान हेतु ठोस पहल करने के लिए बहुत अधिक समय नहीं बचा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस मुद्दे पर संबंधित पक्षों के साथ विचार-विमर्श कर जल्दी ही कोई बड़ा नीतिगत फैसला लेगी.


देशबन्धु

प्रधानमंत्री के झुंझुनू दौरे के निहितार्थ

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजस्थान के झुंझुनू पहुंचे, और यहां से बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने के साथ-साथ राष्ट्रीय पोषाहार मिशन की शुरुआत की। एक लिहाज से देखें तो बेटियों से जुड़ी सरकारी योजना को शुरु करने के लिए झुंझुनू का चयन सही है, क्योंकि इस इलाके में सचमुच बेटियों को बचाने के लिए समाज जागरूक हुआ है। 2011 मेंं राजस्थान के इस जिले की गिनती सबसे खराब लिंगानुपात वाले जिलों में होती थी। यानी यहां लड़कों के मुकाबले लड़कियों के जन्म लेने की संभावनाएं कम होती थीं। 2011 की जनगणना में 1000 लड़कों पर मात्र 837 लड़कियां थीं, वहीं अब यह संख्या 1000 लड़कों पर 955 लड़कियों की हो गई है।

साल दर साल लिंगानुपात में सुधार हुआ है और इसके लिए झुंझुनू को महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से पिछले दो सालों में कई बार सम्मानित भी किया जा चुका है। दरअसल यहां प्रशासनिक और सामाजिक प्रयासों से जनजागरूकता फैलाई जा रही है, ताकि लड़कियों को बोझ न समझ कर सौगात समझा जाए। यहां के अधिकारी हर हफ्ते मंगलवार को एक जन सुनवाई करते हैं, जिसमें लिंगानुपात से जुड़ी जानकारियां साझा की जाती हैं, शिकायतें सुनी जाती हैं। इससे गांवों में लोगों की सोच में काफी बदलाव आया है।

झुंझुनू जैसे प्रयोग देश के अन्य जिलों में भी किए जाएं तो फिर बेटी बचाओ जैसे नारों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। लेकिन बाकी देश तो छोड़िए, राजस्थान में ही लड़कियों के प्रति सोच अभी कहां बदल सकी है। अभी 4 मार्च को राजस्थान सरकार की ओर से सभी शासकीय कालेजों को एक पत्र भेजा गया है, जिसमें विद्यार्थियों के लिए ड्रेस कोड लागू करने कहा गया है। कालेजों से कहा गया है कि वे 12 मार्च तक विद्यार्थियों के ड्रेस का रंग तय करके भेजें। बहुत से निजी कालेजों, व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों यहां तक कि कार्पोरेट दफ्तरों में भी इसी तरह ड्रेस कोड लागू रहता है, लेकिन वहां लड़कों-लड़कियों की पोशाकों में भेदभाव नहींं होता। लेकिन राजस्थान सरकार चाहती है कि कालेज में पढ़ने वाले लड़के पैंट, शर्ट, जूते, मोजे पहनें और सर्दियों में जर्सी डाल लें।

जबकि लड़कियां सलवार-कमीज-दुपट्टा या साड़ी पहनें और सर्दियों में कार्डिगन पहन लें। इसका मतलब ये हुआ कि लड़कियोंं के लिए जींस, टी शर्ट, कोट, पैंट ये सब पहनना वर्जित होगा। उच्च शिक्षा मंत्री किरण माहेश्वरी का कहना है कि ड्रेस कोड से कालेज के बाहर के लोगों और विद्यार्थियों को अलग-अलग पहचाना जा सकेगा। उनका मानना है कि बाहरी लोग या पूर्व छात्र कालेज परिसरों में आकर अनावश्यक विघ्न पैदा करते हैं। अगर समस्या बाहरी लोगों से है तो क्या इसके लिए कालेज परिचय पत्र जारी नहीं कर सकता, जिसे प्रवेश द्वार पर दिखाकर केवल विद्यार्थी ही भीतर आ सकेें। लड़कियों को जींस-शर्ट या आधुनिक कपड़े पहनने से रोकने के लिए एक से बढ़कर एक लचर तर्क पेश किए गए हैं, किरण माहेश्वरी का तर्क भी उनमें से एक है।

 

उत्तरप्रदेश में भी आदित्यनाथ योगी ने पिछले साल सत्ता संभालने के बाद शासकीय कालेजों में ड्रेस कोड की वकालत की थी। उन्होंने शिक्षकों से भी कहा था कि वे जींस-टीशर्ट छोड़ें और सलीके के कपड़े पहनें, क्योंकि शिक्षकों को देखकर छात्र सीखते हैं। जींस पर पाबंदी का यह एक और बेकार तर्क है। क्योंकि हमारे कई तथाकथित गुरु और बाबा जो भगवाधारी हैं या संन्यासियों जैसे कपड़े पहनते हैं, उन्होंने समाज में कैसे संस्कार फैलाएं हैं, इसके कई उदाहरण समाज ने बीते ïवर्षों में देखे हैं। सीधी बात यह है कि कपड़ों से संस्कारों या अनुशासन का वास्ता जोड़कर दरअसल फासीवादी सोच है।

फासीवाद में व्यक्तिगत आजादी पर कई तरह की पाबंदियां लगाई जाती हैं। आज आपको अपनी मर्जी के कपड़े पहनने से भी रोका जाएगा, कल भोजन पर पाबंदी लगेगी और परसों घूमने-फिरने पर। क्या इस तरह की तानाशाही में कोई समाज सचमुच आगे बढ़ सकता है? सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास, बिजली, पानी, सड़क, सिंचाई ऐसी दर्जनों जिम्मेदारियों को पूरा करने में अपनी ऊर्जा लगाए, न कि हम क्या पहनें और क्या खाएं, यह तय करती रहे। जहां तक बात झुंझुनू में प्रधानमंत्री के दौरे की है, तो यह केवल बेटी बचाने के लिए नहीं है, बल्कि इसके राजनीतिक मकसद कहीं ज्यादा हैं। पिछले सात महीनों में प्रधानमंत्री तीसरी बार राजस्थान पहुंचे हैं, क्योंकि यहां जल्द ही चुनाव हैं।

उपचुनावों और पंचायत चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा, तो आने वाले महीनों में हम कुछ और अवसरों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राजस्थान में देख सकते हैं। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की शुरुआत वे दिल्ली या हरियाणा में भी कर सकते थे, जहां महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर सबसे ज्यादा है।

 

 

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