आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 07 मई, 2018

नवभारत टाइम्स

टकराव ठीक नहीं

न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच पिछले कुछ समय से चल रहा टकराव खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। हायर जुडिशरी में जजों की नियुक्ति के मुद्दे पर शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर यह टकराव स्पष्ट रूप में सामने आया। केंद्र का कहना था कि कॉलेजियम बहुत कम नामों की सिफारिश कर रही है, जबकि सुप्रीम कोर्ट की राय थी कि सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों को लटका रही है। पिछले कुछ समय से कार्यपालिका और न्यायपालिका परोक्ष रूप से एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करती रही हैं। लोकतंत्र में व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच वैचारिक मतभेद का होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, पर उन लोगों से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वे समझदारी के साथ कोई न कोई रास्ता निकालेंगे। दुर्भाग्यवश सरकार और जुडिशरी की टकराहट लंबी खिंचती चली जा रही है। जजों की नियुक्ति न होने से अदालतों के कामकाज पर सीधा असर पड़ रहा है। इससे भी बड़ी बात यह है कि सरकार और जुडिशरी में लगातार तनातनी की खबरें उजागर होने से जनता में व्यवस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं, उसमें निराशा फैल रही है। नियुक्तियों को लेकर विवाद पुराना है। 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका के शीर्ष स्तर पर नियुक्तियों और जजों के तबादले का काम पूरी तरह अपने हाथ में ले लिया और सरकार की इसमें भूमिका औपचारिकता भर रह गई। ऐसी व्यवस्था दुनिया में कहीं नहीं है। 2014 में 99 वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति की व्यवस्था को खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया। मगर दिसंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन को असंवैधानिक ठहराया। कॉलेजियम पर कई सवाल उठाए जाते हैं। कहा जाता है कि इसका कोई जिक्र संविधान में नहीं है, जुडिशरी ने मनमाने तरीके से यह व्यवस्था लागू कराई है। आरोप है कि कॉलेजियम नियुक्ति की गुणवत्ता को सुधारने में असफल रही है। यह भी कहा जाता है कि उसके सदस्य अपने-अपने प्रत्याशियों के नाम आगे बढ़ाते रहते हैं। जो भी हो, अगर हमारे तंत्र में कहीं कोई गड़बड़ी आ गई है तो उसे सुधारने की जिम्मेदारी व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे लोगों की ही है। हमारा संविधान विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच तालमेल और संतुलन की बात करता है। इन तीनों के ऊपर एक-दूसरे की गरिमा की रक्षा की जवाबदेही है। अगर इनके लोग आपस में ही लड़ने लगेंगे तो उसका जनता में गलत संदेश जाएगा। अभी कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच जो उलझनें आ गई हैं, उन्हें आपस में बैठकर दूर कर लेना ही ठीक है। किसी भी मुद्दे को नाक का सवाल बनाने से कुछ नहीं होने वाला है। उम्मीद है यह मसला जल्दी सुलझा लिया जाएगा। बेहतर है सरकार इसके लिए पहल करे।


जनसत्ता 

घाटी में चुनौती 

मौसम हर चीज पर असर डालता है। हमारी फसलों पर, पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों के अलावा नदी, पहाड़ और समुद्र, सभी पर। और हम पर तो इसका अनोखा असर होता ही है। हमारी सभी संस्कृतियां, हमारी सभी सभ्यताएं मौसम की जरूरतों और उसके दबावों के बीच ही बनी और बिगड़ी हैं। मौसम के साथ ही हमारा खान-पान, हमारे कपडे़ और यहां तक कि हमारे गीत-संगीत, सब बदल जाते हैं। मौसम के हिसाब से ही हमारे त्योहार भी होते हैं और हमारी सामाजिकता के अवसर भी। हमारी अर्थव्यवस्था और कई तरह से हमारे अस्तित्व का मूल आधार तो खैर मौसम होता ही है। अक्सर यह हमारी खुशियों और कई बार हमारे दुखों का कारण भी बनता है। मौसम से इंसान के रिश्ते की यह कविता हर उस जगह पहुंच जाती है, जहां इंसान जाता है। शोधकर्ताओं ने इसे सोशल मीडिया पर भी ढूंढ़ डाला है। जी नहीं, यहां हम उन बधाई संदेशों या उन तस्वीरों का जिक्र नहीं कर रहे, जो आपको हर नए मौसम में सोशल मीडिया पर दिख जाते हैं। इसके अलावा भी बहुत कुछ है, जो मौसम के हिसाब से सोशल मीडिया पर बदलता है। लेकिन अक्सर यह इतना सूक्ष्म होता है कि हम पकड़ नहीं पाते।

प्लॉस वन  नाम की एक शोध पत्रिका में छपे शोध के अनुसार, अगर आप ध्यान से देखें, तो मौसम के बदलाव को आसानी से फेसबुक और ट्विटर पर पढ़ सकते हैं। शोध में पाया गया कि अगर मौसम अच्छा हो, तो उस दिन लोग सोशल मीडिया पर खुशिया बिखेरते हैं। लेकिन मौसम अगर अच्छा नहीं है, नमी ज्यादा है या कोहरा छाया है, तो बहुत से लोगों की पोस्ट में निराशा झलकने लगती है। और अगर तापमान 20 डिग्री सेल्शियस से ज्यादा बढ़ने लगे, तो लोगों की पोस्ट में सकारात्मकता कम होने लगती है और नकारात्मकता बढ़ती हुई दिखती है। ऐसा सिर्फ पोस्ट में ही नहीं होता, लोगों की लाइक और टिप्पणियों में भी यह दिखता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि तापमान, बारिश, बादल कोहरा और आंधी वगैरह लोगों के मूड को बदल देते हैं और उनका यही मिजाज सोशल मीडिया पर झलकने लगता है। हालांकि मौसम और मूड की यह अवधारणा देश और भूगोल के हिसाब से बदलती है। पश्चिम के ठंडे देशों में जिस दिन सूरज पूरी तरह खिलता है, उसे अच्छा दिन माना जाता है। जबकि भारत जैसे देशों में मई-जून के सूरज का कुछ और ही अर्थ होता है। इसी शोध पत्रिका में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के अनुसार, किसी वयस्क का सोशल मीडिया पर व्यवहार देखकर हम उसकी मन:स्थिति का सही आकलन कर सकते हैं। दोनों शोध एक तरह से यही बताते हैं कि सोशल मीडिया पर जो व्यक्त होता है, वह हमारा भीतरी एहसास ही होता है।

लेकिन बहुत से सवाल अब भी ऐसे हैं, जो अनुत्तरित हैं। मसलन, जितनी नफरत हमें समाज में नहीं दिखती, उतनी हमें सोशल मीडिया पर क्यों दिखती है? आम जीवन में प्यार और भाईचारे की बात करने वाले क्यों कभी-कभी सोशल मीडिया पर दंगे और हिंसा की भाषा का प्रयोग करते दिख जाते हैं। अपने रोजमर्रा के जीवन में हम भले ही अफवाहों से खुद को बचा लें, लेकिन ऐसा क्या होता है कि सोशल मीडिया पर हम कभी न कभी इसकी चपेट में आ ही जाते हैं। हमारी ऑनलाइन मानसिकता और ऑफलाइन मानसिकता में इतना फर्क क्यों है, इस पर शोध बहुत जरूरी है।


हिंदुस्तान 

मौसम का ओनलाईन जादू

मौसम हर चीज पर असर डालता है। हमारी फसलों पर, पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों के अलावा नदी, पहाड़ और समुद्र, सभी पर। और हम पर तो इसका अनोखा असर होता ही है। हमारी सभी संस्कृतियां, हमारी सभी सभ्यताएं मौसम की जरूरतों और उसके दबावों के बीच ही बनी और बिगड़ी हैं। मौसम के साथ ही हमारा खान-पान, हमारे कपडे़ और यहां तक कि हमारे गीत-संगीत, सब बदल जाते हैं। मौसम के हिसाब से ही हमारे त्योहार भी होते हैं और हमारी सामाजिकता के अवसर भी। हमारी अर्थव्यवस्था और कई तरह से हमारे अस्तित्व का मूल आधार तो खैर मौसम होता ही है। अक्सर यह हमारी खुशियों और कई बार हमारे दुखों का कारण भी बनता है। मौसम से इंसान के रिश्ते की यह कविता हर उस जगह पहुंच जाती है, जहां इंसान जाता है। शोधकर्ताओं ने इसे सोशल मीडिया पर भी ढूंढ़ डाला है। जी नहीं, यहां हम उन बधाई संदेशों या उन तस्वीरों का जिक्र नहीं कर रहे, जो आपको हर नए मौसम में सोशल मीडिया पर दिख जाते हैं। इसके अलावा भी बहुत कुछ है, जो मौसम के हिसाब से सोशल मीडिया पर बदलता है। लेकिन अक्सर यह इतना सूक्ष्म होता है कि हम पकड़ नहीं पाते।

प्लॉस वन  नाम की एक शोध पत्रिका में छपे शोध के अनुसार, अगर आप ध्यान से देखें, तो मौसम के बदलाव को आसानी से फेसबुक और ट्विटर पर पढ़ सकते हैं। शोध में पाया गया कि अगर मौसम अच्छा हो, तो उस दिन लोग सोशल मीडिया पर खुशिया बिखेरते हैं। लेकिन मौसम अगर अच्छा नहीं है, नमी ज्यादा है या कोहरा छाया है, तो बहुत से लोगों की पोस्ट में निराशा झलकने लगती है। और अगर तापमान 20 डिग्री सेल्शियस से ज्यादा बढ़ने लगे, तो लोगों की पोस्ट में सकारात्मकता कम होने लगती है और नकारात्मकता बढ़ती हुई दिखती है। ऐसा सिर्फ पोस्ट में ही नहीं होता, लोगों की लाइक और टिप्पणियों में भी यह दिखता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि तापमान, बारिश, बादल कोहरा और आंधी वगैरह लोगों के मूड को बदल देते हैं और उनका यही मिजाज सोशल मीडिया पर झलकने लगता है। हालांकि मौसम और मूड की यह अवधारणा देश और भूगोल के हिसाब से बदलती है। पश्चिम के ठंडे देशों में जिस दिन सूरज पूरी तरह खिलता है, उसे अच्छा दिन माना जाता है। जबकि भारत जैसे देशों में मई-जून के सूरज का कुछ और ही अर्थ होता है। इसी शोध पत्रिका में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के अनुसार, किसी वयस्क का सोशल मीडिया पर व्यवहार देखकर हम उसकी मन:स्थिति का सही आकलन कर सकते हैं। दोनों शोध एक तरह से यही बताते हैं कि सोशल मीडिया पर जो व्यक्त होता है, वह हमारा भीतरी एहसास ही होता है।

लेकिन बहुत से सवाल अब भी ऐसे हैं, जो अनुत्तरित हैं। मसलन, जितनी नफरत हमें समाज में नहीं दिखती, उतनी हमें सोशल मीडिया पर क्यों दिखती है? आम जीवन में प्यार और भाईचारे की बात करने वाले क्यों कभी-कभी सोशल मीडिया पर दंगे और हिंसा की भाषा का प्रयोग करते दिख जाते हैं। अपने रोजमर्रा के जीवन में हम भले ही अफवाहों से खुद को बचा लें, लेकिन ऐसा क्या होता है कि सोशल मीडिया पर हम कभी न कभी इसकी चपेट में आ ही जाते हैं। हमारी ऑनलाइन मानसिकता और ऑफलाइन मानसिकता में इतना फर्क क्यों है, इस पर शोध बहुत जरूरी है।


राजस्थान पत्रिका

दफा करें दागी

देश में परिवर्तन की हवा बहाने के बड़े-बड़े दावे करने वाले  राजनेता और राजनीतिक दल राजनीति में बदलाव को ही तैयार नहीं होते। नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले चुनाव सिर पर आते ही सारी नैतिकता भूल जाते हैं। कर्नाटक विधानसभा में होने जा रहे चुनाव इसका ताजा उदाहरण है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हों या मुख्यमंत्री सिद्धारमैया। पिछले एक माह में सैकड़ों धर्मस्थलों पर माथा टेक चुके हैं। रैलियों में राज्य को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने के दावे किए जा रहे हैं। टिकट वांटने की बारी आई तो सारा आदर्शवाद धरा रह गया। धनबल,भुजबल, वंशवादी और अपराधी फिर हावी हो गए। हो भी क्यों ना। दलों को जीत की गारंटी इन्हीं लोगों में दिखाई देती है। कांग्रेस ने 48, भाजपा ने 30 और जनता दल (एस) ने 17 दागियों को टिकट दिए हैं। कुल में से 13 प्रतिशत उम्मीदवारों पर पर गंभीर आरोप हैं। चुनाव आयोग लाचार है, न्यायालय के आदेश नेता मानते ही नहीं।

चुनाव आयोग मांग कर चुका है कि दागियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन रोक लगा दी जाए। सुप्रीम कोर्ट ने सजायाफ्ता माननीयों की सदस्यता खत्म करने और दागियों के खिलाफ आपराधिक मामलों को निपटाने के लिए विशेष अदालतें बनाने का आदेश दिया। सब ठंडे बस्ते में हैं। लोकसभा में 34 फीसदी, राज्यसभा में 19 फीसदी और विधानसभाओं में करीब 33 फीसदी माननीयों के खिलाफ गंभीर आपराधिक केस चल रहे हैं। फिर कैसे देश में अपराध व भ्रष्टाचार खत्म करने की कल्पना भी की जा सकती है। आजादी के ठीक बाद देश में समाज सुधारक, शिक्षाविद्, स्वच्छ छवि वाले राजनीति में आते थे, अब अपराधी राजनीति का उपयोग ढाल के रूप में करने लगे हैं। संसद या विधानसभा की सीट नोट मशीन की गारंटी बन गई, तभी तो संसद और राज्यों के विधानसभाओं में 71 फीसदी सदस्य करोड़पति हैं। राजनीति में दागियों से निजात दिलाने का दारोमदार जनता और राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व पर ही है। जनता ठान ले कि उसके क्षेत्र में यदि कोई दागी नेता चुनाव लड़ता है तो उसको वोट नहीं देने का अभियान चले। ऐसे लोगों के खिलाफ खुलकर सामने आना मुश्किल तो है लेकिन नामुमकिन नहीं है। युवा वर्ग तैयारी कर ले सफाई की, तो शायद देश में सबसे बड़ा स्वच्छता अभियान होगा।


दैनिक जागरण

आतंकियों के हमदर्द

कश्मीर के शोपियां जिले में पांच आतंकियों को मार गिराने में मिली सफलता यह बताती है कि पुलिस और सुरक्षाबलों के साथ सेना आतंकी संगठनों पर दबाव बनाने में कहीं अधिक कामयाब हो रही है। हाल के दिनों में सेना, सीआरपीएफ और पुलिस के साथ मिलकर कई बड़े आतंकियों को मार गिराने में सफल रही है। शोपियां में भी जो आतंकी मारे गए उनमें एक हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर बताया जा रहा है। उसके साथ जो चार अन्य आतंकी मारे गए उनमें एक कश्मीर विश्वविद्यालय का सहायक प्रोफेसर भी है। यह सहायक प्रोफेसर चंद दिनों पहले ही विश्वविद्यालय से गायब हो गया था और जब ऐसा हुआ था तो स्थानीय लोगों ने उसकी तलाश करने के लिए धरना-प्रदर्शन भी किए थे। एक विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर का आतंकी बनना यही बताता है कि कश्मीर में किस तरह उच्च शिक्षित लोग भी आतंक के रास्ते पर चल रहे हैं। इसके पहले भी कई उच्च शिक्षित युवा आतंक के रास्ते पर जा चुके हैं। ऐसे युवाओं का आतंक के रास्ते पर जाना इसी बात का सूचक है कि आजादी की बेतुकी मांग और मजहबी रंगत वाले पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने किस तरह कश्मीर के सामाजिक माहौल को बुरी तरह दूषित कर दिया है। क्या यह अजीब नहीं कि शोपियां में मारा गया आतंकी समाजशास्त्र का सहायक प्रोफेसर था? नि:संदेह यह अच्छा नहीं हुआ कि आतंकियों के साथ मुठभेड़ शुरू होने के साथ ही आसपास के लोग वहां खलल डालने पहुंच गए। हालांकि आतंकियों को अपने घेरे में लिए पुलिस उनके परिजनों के जरिये उनसे आत्मसमर्पण की अपील कर रही थी, लेकिन मुठभेड़ स्थल पर जमा अराजक भीड़ सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी करने में जुटी रही। वह यह समझने के लिए तैयार नहीं हुई कि दुनिया में कहीं भी आतंकियों के प्रति ऐसी नरमी नहीं बरती जाती। यह विडंबना ही है कि जब-तब कोई न कोई सुरक्षा बलों को संयम बरतने का उपदेश देता रहता है। 1शोपियां में पत्थरबाजों के उपद्रव का परिणाम यह हुआ कि जब सुरक्षाबलों की जान पर बन आई और उन्होंने अपने को बचाने के लिए मजबूरी में बल प्रयोग किया तो पांच पत्थरबाज मारे गए। यह तय है कि अब शोपियां और अन्य जिलों में आतंकियों को बचाने के लिए मुठभेड़ स्थल पर गए पत्थरबाजों के मारे जाने पर विरोध प्रदर्शन और उपद्रव होंगे। इस तरह से तो हिंसा का दुष्चक्र जारी ही रहेगा। यह पहली बार नहीं जब आतंकियों से मुठभेड़ के दौरान सुरक्षा बलों के काम में बाधा डालने वाले पत्थरबाज मारे गए हों, लेकिन शायद ही कभी कश्मीर के राजनीतिक दल एवं अन्य प्रभावी लोग पत्थरबाजों के पागलपन के खिलाफ कुछ कहते हों। चंद दिन पहले ही इन पत्थरबाजों ने एक स्कूली बस को निशाना बनाकर छात्रों को घायल कर दिया था। कायदे से इस घटना के बाद राज्य सरकार को आतंकियों के हमदर्द पत्थरबाजों के खिलाफ कठोर कार्रवाई सुनिश्चित करनी चाहिए थी, लेकिन उसकी ओर से औपचारिक आलोचना करके कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई। कश्मीर की जनता के साथ- साथ वहां के लोगों को यह समझना होगा कि आतंकवाद सिर्फ तबाही फैला रहा है और पत्थरबाज आतंकियों के शातिर समर्थक ही हैं।


प्रभात खबर

लंबित मामलों की समस्या

अदालतों में लटके पड़े मामलों की मुश्किल को ‘तारीख पे तारीख’ के तंजभरे मुहावरे से इंगित किया जाता है, एक ने शुक्रवार-शनिवार की रात 3.30 बजे तक काम कर और उस दिन तुरंत सुनवाई के लिए। सूचीबद्ध सभी मामलों का निबटारा कर शानदार नजीर पेश की है, यह गर्मी की छुट्टियों से पहले का आखिरी कार्यदिवस था और उन्हें यह एहसास था कि इन मामलों को रोकने से संबद्ध पक्षों को दिक्कत होगी. वैसे भी जज कथावाला सुबह जल्दी काम शुरू करने और देर शाम तक सुनवाई करने के लिए जाने जाते हैं, देश की विभिन्न अदालतों में करीब तीन करोड़ लंबित मामलों का दबाव जजों पर है तथा कम् जज होने के कारण सुनवाई पूरी होने में सालों लग जाते हैं, ऐसे में कथावाला जैसे जजों से उम्मीदें बढ़ जाती हैं, पर यह भी समझना होगा कि कुछ जजों के रात-दिन काम करने से समस्या का स्थायी समाधान संभव नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि 24 उच्च न्यायालयों में 37 फीसदी पद अदालतों में करीब तीन खाली हैं. फरवरी में रिक्तियों की संख्या 400 करोड़ लंबित मामलों के स्तर पर पहुंच चुकी है, नियुक्ति के लिए भेजे गये करीब 120 नाम सरकारी मंजूरी का का दबाव जजों पर है। इंतजार कर रहे हैं. नतीजा यह है कि उच्च तथा कमजज होने के न्यायालयों में लटके पड़े मुकदमों की तादाद कारण सुनवाई पूरी होने 42 लाख के आसपास पहुंच चुकी है. यह में सालों लग जाते हैं, बेहद चिंताजनक है कि इनमें से लगभग आधे मुकदमे पांच साल या उससे ज्यादा अरसे से लंबित हैं, यह हाल सिर्फ इंसाफ के लिहाज से ही नहीं, बल्कि आर्थिक विकास के लिए भी ठीक नहीं है, आर्थिक समीक्षा के अनुसार, 52 हजार करोड़ की विनिर्माण परियोजनाएं अदालती पेंच में उलझी होने की वजह से रुकी पड़ी हैं, खाली पदों को नहीं भरने और न्यायपालिका को समुचित संसाधन मुहैया न कराने के पीछे सबसे बड़ी वजह सरकार और सर्वोच्च न्यायालय में चल रही खींचतान है, जो कई अन्य कारकों के जुड़ने के कारण बहुत उलझ चुकी है, लेकिन सरकार के पास भी बचाव के तर्क हैं. पूर्वोत्तर के उच्च न्यायालयों में जजों की कम संख्या से जुड़े मामले की सुनवाई के दौरान शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने कॉलेजियम पर ही दोष मढ़ दिया. उसका कहना है कि कॉलेजियम पर्याप्त संख्या में नामों के प्रस्ताव सरकार को नहीं भेजता है. सरकार का यह कहना निराधार नहीं है, कुछ न्यायालयों में 40 पदों के खाली होने के बावजूद तीन नाम ही मंजूरी के लिए भेजे गये हैं. पर, यह भी उतना ही सच है कि जो नाम भेजे गये हैं, उन पर सरकार समय से फैसला लेने में नाकाम रही है, ऐसे में दोनों पक्षों को त्वरित गति से सकारात्मक कदम उठाना होगा, अन्यथा जजों की पुरजोर मेहनत के बाद भी अदालतों में तारीखों पर लोगों को भटकना जारी रहेगा.


देशबन्धु 

कर्नाटक है या कौरव सभा

चुनावों के कारण कर्नाटक में माहौल इस वक्त कौरवों की सभा में चल रही द्यूत क्रीड़ा जैसा हो गया है। जिसमें किसी भी तरह जीतना ही एकमात्र लक्ष्य है। फिर चाहे उसके लिए सारी मर्यादाओं को ताक पर क्यों न रख दिया जाए। कौरव सभा में भीष्म पितामह से लेकर तमाम बड़े-बुजुर्ग, गुरुजन बैठे रहे उनके सामने सभी तरह के अनाचार हो गए, लेकिन किसी ने कोई दखल नहीं दिया। सब चुपचाप बैठे तमाशा देखते रहे। कर्नाटक के चुनाव में भी राजनीति का जुआ पूरी बेशर्मी के साथ खेला जा रहा है, लेकिन चुनाव आयोग भीष्म पितामह या धृतराष्ट्र की तरह बेबस सा बैठा हुआ है।

चुनावी सभाओं में खुलेआम लोकतांत्रिक मर्यादाओं का चीरहरण किया जा रहा है और उसे रोकने की कोई कोशिश नहींं हो रही। धर्म, जाति, समुदाय के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं और खुलेआम धमकी भी दी जा रही है। हाल ही में भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार बी एस येदियुरप्पा ने बेलगावी की चुनावी रैली में भाजपा समर्थकों को उकसाया कि कोई वोट डालने नहींआ रहा है तो उसके घर जाकर हाथ-पैर बांधकर ले आओ और भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में वोट डलवाओ। क्या चुनाव आयोग भाजपा उम्मीदवार के इस कथन को गंभीरता से लेकर कोई कार्रवाई करेगा या जुमला समझ कर हवा में उड़ा देगा? देखने वाली बात यह भी है कि भाजपा नेतृत्व अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार के इस कथन पर क्या रुख अपनाती है?

भाजपा के एक और स्टार प्रचारक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने भी चुनावी रैली में विवादित बयान दिया। कर्नाटक के सिरसी में जनसभा को संबोधित करते हुए योगी ने कहा था कि यहां पर आज एक राष्ट्रवादी सरकार की जरूरत है, जो कि राज्य से जेहादी तत्वों को बाहर निकाल सके। योगी ने ये भी कहा था कि कर्नाटक में 23 बीजेपी कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या कर दी गई थी।

जिहाद जैसे शब्द का इस्तेमाल कर धार्मिक उन्माद भड़काने वाले योगी जिन 23 लोगों की हत्या की बात कर रहे हैं, उस सूची में अशोकपुजारी का नाम सबसे पहले है और उसने टीवी कैमरे के सामने बयान देकर खुद ही पुष्टि कर दी कि वह कभी मरा ही नहीं था। सवाल यह है कि इस तरह का झूठ फैलाकर भाजपा कौन से धर्म का शासन स्थापित करना चाहती है। दरअसल कर्नाटक चुनाव को भाजपा से ज्यादा अमित शाह और नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया गया है। इसलिए पहले प्रधानमंत्री की 15 रैलियां होने वाली थींऔर अब उसे बढ़ाकर 21 कर दिया गया है। इन रैलियों में प्रधानमंत्री अपने पद की गरिमा को ताक पर रखते हुए खालिस भाजपाई बनकर कांग्रेस पर हमला बोलते हैं। कभी भ्रष्टाचार, कभी परिवारवाद तो कभी कांग्रेस मुक्त भारत का उनका सपना, मोदीजी के भाषणों में एक राज्य के लिए प्रधानमंत्री का विजन नहीं झलकता, केवल सब कुछ हड़पने की लालसा झलकती है। हाल की एक रैली में उन्होंने कहा कि 15 मई के बाद कांग्रेस पीपीपी बन जाएगी। 15 मई को नतीजे आने हैं और मोदीजी यह मानकर चल रहे हैं कि जीत भाजपा की ही होगी। इसलिए वे कांग्रेस का मखौल उड़ाते हुए कहते हैं कि कांग्रेस पंजाब, पुडुचेरी और परिवार तक सिमट कर रह जाएगी।

मोदीजी के भाषण वे खुद लिखते हैं या कोई और, यह नहीं मालूम, लेकिन जो भी लिखता है उसके मन में लोकतंत्र के लिए कोई सम्मान नहीं है, यह झलकता है। कांग्रेस को केवल एक परिवार तक सिमटा हुआ बताना, उन तमाम लोगों का अपमान है, जो अपनी मर्जी से किसी राजनीतिक दल के समर्थक, कार्यकर्ता या मतदाता बनते हैं। लोकतंत्र ही नहीं, देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को लेकर मोदीजी कितने गंभीर हैं, इस पर भी प्रश्न उठ रहे हैं। और इस बार सवाल सुप्रीम कोर्ट ने उठाया है।

दरअसल केेंद्र सरकार को कावेरी विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर बताना था कि इसे सुलझाने के लिए उसने क्या-क्या कदम उठाए हैं। इस पर केंद्र सरकार का ढीठ बच्चे जैसा जवाब सर्वोच्च अदालत में पेश हुआ कि कावेरी नदी के जल बंटवारे से संबंधित विधेयक कैबिनेट के समक्ष रखा जा चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा के बाद फिलहाल कर्नाटक चुनाव में व्यस्त हैं, इस वजह से अभी तक विधेयक को मंजूरी नहीं मिल पाई है। जिस मुद्दे पर दक्षिण भारत बीते कई सालों से सुलग रहा है, उसे सुलझाने की जगह अगर प्रधानमंत्री की प्राथमिकता चुनाव जीतना रहेगा, तो फिर इस देश का भगवान ही मालिक है। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार के जवाब पर नाराजगी तो जताई है, लेकिन क्या इससे मोदीजी के रवैये में कोई बदलाव आएगा? क्या न्यायपालिका और चुनाव आयोग सब की मर्यादा कौरवसभा की तरह ताक पर रखी जाएगी


INDIAN EXPRESS

MAKE IT SWEET

With cane payment dues to farmers by sugar mills touching Rs 20,000 crore, and hardly a year to go for the general election, the Narendra Modi government is understandably in a bind. Not for nothing, the last week saw the Union cabinet approve financial assistance of Rs 5.50 for every quintal of cane crushed during the 2017-18 sugar season (October-September), to enable mills discharge arrears to growers against the “fair and remunerative price” (FRP) payable to them. The Goods and Services Tax (GST) Council, too, meet to discuss the levy of a special Rs 3-per-kg cess on sugar (whose proceeds would go to pay cane farmers) and lowering the 18 per cent rate on ethanol (produced by distilleries attached to mills).

These moves don’t address the root of the problem, which has to do with the political fixation of cane prices. It leads to farmers planting more area and mills producing excess sugar, causing its prices to crash — as they have, from Rs 36-37 to Rs 26.27 a kg, in the last six months. The resultant build-up of cane arrears, then, induces farmers to plant less. When that happens and sugar prices soar, governments intervene, this time in so-called consumer interest — by banning exports, allowing duty-free imports, imposing stock controls on traders and taking away the freedom of mills to decide when and how much quantity to sell at what rate. We have, indeed, seen all these measures — from “pro-consumer” to “pro-producer” — within the last two years. They are ineffective, at best, and market-distortive, at worst. The latest Rs 5.50-per-quintal assistance will barely cover the gap between the all-India average FRP of around Rs 287 and the Rs 215-220/quintal cane price that mills can afford to pay at current sugar realisations. The gap will be even more vis-à-vis the Rs 315-325/quintal price “advised” by states such as Uttar Pradesh. The proposed Rs 3/kg cess on sugar, over and above the GST rate, is a terrible idea. It will spur similar demands — on cloth for supporting cotton farmers, on tyres for rubber growers, and so on — while defeating GST’s goal of abolishing cascading of taxes.


 TIMES OF INDIA

CEASE THE CESSES

The 27th meeting of the GST Council last week sent mixed signals on the future architecture of India’s most ambitious tax reform. On the positive side, the council has sought to simplify filing of tax returns. Taxpayers will be required to file just one monthly return, with the dates being spread out based on turnover. The change from the current three-stage return filing process is welcome, as is how it has been staggered to allow both taxpayers and government systems enough time to make a smooth transition.

On the other hand, in a move that threatens to severely complicate the GST architecture, a sub-group in the council is to debate the possibility of introducing a cess on sugar, over and above the GST rate. The aim is to raise additional money that will be set aside to offset problems faced by sugarcane farmers and sugar mills on account of a current glut. To underline, consumers are being asked to bear an additional tax to help just some farmers and sugar mills, much of whose sufferings are caused by counterproductive government pricing and tariff policies.

It bears reminding that the transition to GST required Centre and states to subsume different kinds of cess. The only exception was a compensation cess on so-called demerit and luxury goods to deal with shortfall of revenue. The compensation is restricted to five years and is a mechanism meant to ease the switch to GST. The sugar cess is an entirely different matter. It deals with an issue unrelated to GST and comes with inbuilt problems which can distort the entire GST architecture and also undermine the council’s efficacy.

The recent trend in India is that whenever farmers face adverse conditions, state governments shower loan waivers. Now there is this proposal to levy a nationwide extra tax to help farmers of just one crop, who are limited to a few states. Allowing this will lead to a justifiable clamour for more taxes to help farmers of other crops and states. Partisan politics will soon colour the council’s functioning. More state governments may follow the irrational pricing model that exists for sugarcane. The council must therefore reject the sugar cess proposal and focus on converting GST into a good and simple tax. A cess will be antithetical to this idea.


 TELEGRAPH

UP CLOSE

Politicians often find tokenism a useful political strategy: it is a shortcut to the right appearances without the hard work of commitment. But, sometimes, tokenism comes back to bite. The Bharatiya Janata Party might be feeling its edge as the period marked for special homage to B.R. Ambedkar, leading up to his birthday, comes to an end. Obviously unsettled by the expression of Dalit anger expressed through countrywide protests and a bandh that ended in more than 10 deaths, the prime minister, at the beginning of April, had asked all ministers to spend two nights in villages that had at least 50 per cent scheduled caste residents, to eat with them and talk to them about the BJP’s schemes for their uplift. The party’s pitiful lack of originality in matters that have nothing to do with instant glory was demonstrated by their adoption as strategy what it had derided as ‘poverty tourism’ when Rahul Gandhi spent the night in a Dalit household.

That did not help Mr Gandhi win the election, but the sting in the BJP’s case is perhaps uglier. Dalit activists as well as the BJP’s Dalit members of parliament are now vocal in criticism of the strategy. To carry out Narendra Modi’s orders in the Gram Swaraj Abhiyan, BJP leaders rushed to Dalit-dominated villages and, reportedly, not only ordered food and mineral water from outside, but also had their own helpers serve them. Is it the touch of their hosts they abhorred or the poverty? While Uma Bharti said she was not going to join a feast with Dalits and covered up later by saying that when they come to her house she would serve them, another leader compared himself to Ram who gave Shabari salvation. Such crudenesses apart, two points need to be made. Dalit anger has exposed the deep casteism of the ruling party. Nothing else can explain why eating together was made into such a theatrical event. The whole notion of politics via food is regressive, insensitive and dangerous. As Dalit MPs have pointed out, this is a double insult to the backward classes. Eating together – or pretending to do so for votes – has nothing to do with development and dignity. The second point is the BJP’s bankruptcy in constructive ideas and action. Rhetoric and theatrics have been successful so far, but the Dalits’ rejection of the party recently in Rajasthan and Uttar Pradesh suggests that the clay feet are showing. So is the overbearing condescension. Addressing the causes of Dalit anger is not a matter of spending a night in a mosquito-infested village.


 NEW INDIAN EXPRESS

POLITICS OF POLL PROMISESS IN KARNATAKA

With the two main rivals in the Karnataka Assembly elections—the Congress and BJP—releasing their manifestos, voters have enough time to weigh the two sets of documents for what they are worth and make an informed choice. While wooing voters with promises is the norm in polls across the world, what rankles the Indian voter is the tendency of parties to make tall and impractical promises only to go back on them once the votes are counted.

The manifestos of both the Congress and BJP are full of welfare-oriented promises that are sure to be a drain on the state’s resources if implemented. Here, the parties enjoy an unfair advantage—they are allowed to make all kinds of promises but are not bound to disclose how they will find the means to fulfil them. What that means is most of these promises remain a mere tool to win over the voters, and their fulfilment is governed by factors that come into the picture only after the elections.

It should ideally be left to voters to decide who offers them a better bargain, but the BJP does seem to have got one up on the Congress when it comes to the sheer number of promises and their potential mass appeal. If Congress promised to spend Rs 1.25 lakh crore for irrigation, the BJP increased the figure to Rs 1.5 lakh crore. While both promised sops for farmers, women, students, Dalits and the poor, the BJP made the potentially game-changing announcement of waiver of farm loans up to Rs 1 lakh. The Congress manifesto had specific measures aimed at minorities, and the BJP pandered to its Hindu vote bank through promises like prohibition of cow slaughter and a recommendation to ban Muslim organisation PFI—an example of how divisive agendas invariably creep into poll narratives.

Now that the promises have been made—though JD(S) is yet to come out with its list of sops—the parties should stop trying to run down each other’s manifesto. Voters are smart enough to separate wheat from the chaff, and the parties will know how they did on May 15.

 

 

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