आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के सम्पादकीय: 02 अप्रैल, 2018

नवभारत टाइम्स

संवाद का रास्ता

यह राहत की बात है कि भारत और पाकिस्तान राजनयिकों से जुड़े विवाद को आपस में मिलकर सुलझाने पर सहमत हो गए हैं। दोनों देशों ने पिछले दिनों एक-दूसरे के यहां अपने उच्चायोगों के अफसरों, कर्मचारियों और उनके परिजनों को सताए जाने का आरोप लगाया था। अब दोनों ने कहा है कि वे इस मसले को राजनयिक/ दूतकर्मी से बर्ताव की आचार संहिता, 1992 के तहत सुलझाएंगे। यह संहिता दोनों देशों के राजनयिक और वाणिज्य दूतावास अधिकारियों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप सुगम एवं निर्बाध कामकाज मुहैया कराने के लिए बनाई गई है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस मुद्दे पर दोनों में बातचीत कब होगी। यह विवाद तत्काल सुलझाने की जरूरत है। लेकिन बात यहीं तक सीमित न रहे, इसका दायरा बढ़े। दोनों मुल्क पिछले कुछ समय से चले आ रहे तनाव को पूरी तरह दूर करने पर बात करें। आपसी संवाद के कई मैकेनिज्म बने हुए हैं। किसी भी स्तर पर शुरुआत की जा सकती है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों स्थायी सिंधु आयोग की बैठक हुई जिसमें दोनों देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए। इस तरह मिलने-जुलने से ही आपसी विश्वास बढ़ता है। अभी भरोसे की कमी की वजह से ही राजनयिकों को लेकर संकट पैदा हुआ। दूसरी तरफ सीमा पर आए-दिन गोलीबारी हो रही है जिससे सरहद पर रहने वाले लोगों का जीना मुहाल हो गया है। हजारों लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा है। खेती, कारोबार और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर बुरा असर पड़ा है। सरकार ने लोगों की सुरक्षा के लिए उन इलाकों में बंकर बनाने की नीति अपनाई, लेकिन यह समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं है। जब तक गोलीबारी पूरी तरह नहीं रुकती, तब तक सामान्य जनजीवन पटरी पर नहीं लौट सकता। फिर इसी तरह छाया युद्ध चलता रहा तो हमारी सेना में भी भारी हताशा आ सकती है। यह बात पाकिस्तानी फौज पर भी लागू होती है। इसी को भांपकर पाकिस्तानी आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा ने कुछ समय पहले अपने देश के सांसदों से भारत के साथ रिश्ते सुधारने को कहा था। यह सही है कि पाकिस्तान में इस समय ऐसी राजनीतिक अस्थिरता है कि यह समझ में नहीं आता कि किसके साथ बात की जाए। नवाज शरीफ और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने और उनके हाथ से सत्ता फिसलने के बाद वहां अनिश्चितता बढ़ी है। अमेरिका ने तमाम आतंकवादी संगठनों पर दबाव बना रखा है। इस अस्थिरता का फायदा उठा कर कट्टरपंथियों और आतंकवादी संगठनों ने भारत विरोधी गतिविधियां तेज कर रखी हैं। आतंकवाद या अन्य मुद्दों पर हमारा स्टैंड वही रहना चाहिए जो है, लेकिन दोनों देशों के आम नागरिकों के हित में हमें संवाद की प्रक्रिया भी आगे बढ़ानी चाहिए। लेकिन इस दिशा में बढ़ते हुए अपनी सुरक्षा में हमें कोई ढील नहीं देनी चाहिए।


जनसत्ता 

जातिप्रथा की जड़ें 
गुजरात के भावनगर जिले में पिछले हफ्ते एक दलित युवक की हत्या सामान्य कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। यह हत्या बताती है कि भारतीय समाज में वर्ण या जातिप्रथा की जड़ें कितनी गहरी हैं। कई लोगों पर उच्च जाति का अहंकार उन्माद की हद तक चढ़ा होता है और उन्हें अत्याचार या अपराध करने में भी हिचक नहीं होती। भावनगर के उमराला तालुका के टिम्बी गांव में प्रदीप नाम के इक्कीस वर्षीय दलित युवक की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई कि उसे घुड़सवारी का शौक था। उसके बार-बार जिद करने पर उसके किसान पिता ने कोई आठ महीने पहले उसे घोड़ा खरीद दिया था। वह उस पर सवारी करता, घूमता-फिरता। लेकिन घोर सामंती मिजाज के कुछ सवर्णों को यह सहन नहीं हुआ। प्रदीप और उसके परिवार को बार-बार धमकियां दी गर्इं। घोड़ा बेच डालने की सलाह दी गई, और इसे न मानने पर परिणाम भुगतने की चेतावनी। आखिरकार प्रदीप को घोड़ा रखने और घोड़े पर घूमने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। यह स्तब्ध कर देने वाली घटना जरूर है, पर अपनी तरह की पहली या अकेली नहीं। ऐसे जाने कितने वाकये गिनाए जा सकते हैं, जो बताते हैं कि हमारी संवैधानिक और सामाजिक तस्वीर के बीच कितना लंबा फासला है।

संविधान में सबको बराबर के अधिकार दिए गए हैं। लेकिन कानून के समक्ष समानता के प्रावधान के बावजूद हम देखते हैं कि दलितों के उत्पीड़न और अपमान की घटनाएं रोज होती हैं। कभी किसी दलित दूल्हे को घोड़े से उतार देने की खबर आती है, तो कभी मिड-डे मील के समय दलित बच्चों को अलग बिठाए जाने, तो कभी किसी दलित सरपंच को तिरंगा न फहराने देने की। पिछले दिनों खबर आई कि प्रधानमंत्री के ‘परीक्षा पर चर्चा’ उद्बोधन को सुनने के लिए हिमाचल प्रदेश के एक स्कूल में दलित बच्चों को बाहर बिठाया गया। ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब गुजरात में कुछ दलितों पर राजपूतों जैसी मूंछ रखने के लिए हमले हुए थे। उससे पहले गुजरात का उना कांड पूरे देश में चर्चा का विषय बना था। आंकड़े बताते हैं कि गुजरात देश के उन राज्यों में है जहां दलितों पर अत्याचार की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं। वर्ष 2016 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गुजरात में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं 32.5 फीसद दर्ज हुर्इं, जो कि राष्ट्रीय औसत 20.4 फीसद से बहुत ज्यादा था। यही हाल उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और आंध्र प्रदेश का भी है।

दूसरी तरफ दलितों पर अत्याचार के मामलों में दोषसिद्धि की दर काफी कम है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों को उत्पीड़न से बचाने के लिए हालांकि विशेष कानून है, मगर पुलिस और प्रशासन के स्तर पर पीड़ित पक्ष के लिए अपेक्षित सहयोग पाना अमूमन मुश्किल ही रहता है। अकसर जांच के स्तर पर ही मामले को कमजोर कर दिया जाता है। यह कैसा भारत बन रहा है? क्या भारत अपनी इसी तस्वीर के बल पर दुनिया को अपनी महान सभ्यता और संस्कृति की सीख देगा? गुजरात की गिनती देश के अपेक्षया संपन्न राज्यों में होती है। लेकिन क्या विकास का मतलब फ्लाईओवर, बड़े बांध और एफडीआई वगैरह ही होता है? क्या सामाजिक समता और सामाजिक सौहार्द भी विकास की एक कसौटी नहीं होना चाहिए?


हिन्दुस्तान 

गहरी नींद के सपने 
हर देश, हर क्षेत्र में सोते समय अपने-अपने तरह से सुहाने सपनों की दुआ की जाती है। नींद जरूरी है, लेकिन यह माना जाता है कि वह सपनों के बिना अधूरी है। सपने हमेशा से ही नींद का अभिन्न अंग रहे हैं। भले ही वे हमेशा याद नहीं रहते और कई बार सुहाने भी नहीं होते। जीवन की बुरी बातों या घटनाओं को किसी बुरे सपने की तरह भुला देने की बात भी अक्सर कही जाती है। सपनों के बारे में अच्छी बातों के बाद एक बुरी खबर भी है। वैज्ञानिकों ने अपने विश्लेषण में पाया है कि हमारी नींद, हमारी रातों के सपने लगातार कम हो रहे हैं। इसके ज्यादातर कारण वही हैं, जो आजकल हमें ठीक से सोने नहीं देते। यानी तेज रोशनी वाले शहर, कानफोड़ू संगीत, बिस्तर में आपके साथ ही पहुंच गया दिन भर के कामकाज का तनाव, मोबाइल फोन जैसे वे उपकरण, जो पूरी-पूरी रात आपके सिरहाने बैठकर तरह-तरह की हरकतें करते रहते हैं। और हां, पिछले दिनों जर्नल ऑफ क्लिनिकल स्लीप मेडिसिन  में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, कुछ लोग जो अपनी नींद को अच्छा बनाए रखने के लिए इन दिनों फिटनेस और स्लीप ट्रैकर इस्तेमाल करते हैं, वह भी सपनों के कम हो जाने का एक बड़ा कारण बनता जा रहा है।

सपनों को समझना है, तो हमें नींद को समझना होगा। सपने हम रात भर नहीं देखते। सबसे ज्यादा सपने हम नींद के उस हिस्से में देखते हैं, जिसे साधारण भाषा में गहरी नींद कहा जाता है। वैज्ञानिक नींद के इस हिस्से को रैपिड आई मूवमेंट या रैम स्लीप कहते हैं। नींद के इस हिस्से में इंसान की आंखें बंद पलकों के बीच काफी तेजी से घूमती हैं। आंखों की गति जितनी ज्यादा बढ़ती है, नींद उतनी ही गहरी होती जाती है। यह सिर्फ नींद और सपनों का समय ही नहीं होता, इस समय हमारे शरीर की मांसपेशियां भी सबसे ज्यादा आराम करती हैं। नींद का यह दौर बहुत लंबा नहीं होता, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण होता है। न्यू साइंटिस्ट  नाम की पत्रिका में छपे एक शोध के अनुसार, हमारे माहौल, हमारे तनाव और हमारी अनिद्रा का सबसे ज्यादा असर नींद के इस हिस्से पर पड़ा है। जाहिर है कि गहरी नींद कम हो रही है, तो सपने भी कम हो रहे हैं। नींद जितनी लंबी होगी और उसकी बाधाएं जितनी कम होंगी, हमारी रैम स्लीप भी उतनी ही लंबी होगी। इस गहरी नींद में कमी से वैज्ञानिकों ने सपनों के महत्व को नए सिरे से समझना शुरू कर दिया है।

वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि जिनकी नींद ठीक से पूरी नहीं होती, जागते समय उनकी कार्यक्षमता तो कम होती ही है, इसका सबसे ज्यादा असर उनकी रचनात्मकता और उनकी याददाश्त पर पड़ता है। यह भी पाया गया है कि हर रोज सात घंटे की नींद पूरी न होने से शरीर की बाकी बहुत सारी प्रक्रियाएं भी गड़बड़ाने लगती हैं और कई तरह के ऐसे रोग भी हो सकते हैं, जिन्हें हम सीधे तौर पर नींद से जोड़कर नहीं देखते। एक प्रयोग में जब चूहों को रैम स्लीप से वंचित कर दिया गया, तो पाया गया कि उनमें जितनी भी याददाश्त थी, उसने भी काम करना बंद कर दिया। वैज्ञानिक इस नतीजे पर भी पहुंचे हैं कि सपनों वाली गहरी नींद का काम सिर्फ हमारे शरीर और हमारे मस्तिष्क को आराम देना भर नहीं है। वह हमारी बुद्धि, हमारी याददाश्त और हमारी रचनात्मकता के बीच तारतम्य बिठाने का काम भी करती है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि सबसे बुरा होता है, आदमी के सपनों का मर जाना।


अमर उजाला

सार्क पर पेंच

अभी हालांकि भारत को इस बारे में औपचारिक जानकारी नहीं दी गई है, पर सार्क के मुद्दे पर नेपाल और श्रीलंका को अपने पाले में खींचने की इस्लामाबाद की कोशिशों से साफ है कि वह इस साल अपने यहां शिखर सम्मेलन आयोजित कराने का इच्छुक है। 2016 में उड़ी हमले की पृष्ठभूमि में भारत द्वारा इस्लामाबाद में आयोजित होने वाले सार्क सम्मेलन का बहिष्कार करने के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में कोई बहुत सुधार नहीं दिखा है। उल्टे सीमापार आतंकवाद को खाद-पानी देने के साथ। पाकिस्तान संघर्ष विराम का लगातार उल्लंघन करते हुए सीमा पर गोलीबारी भी करता आया है। पिछले दिनों राजनयिकों के मुद्दे पर सामने आई आपसी तल्खी ने भी रिश्तों में सुधार की संभावना को धूमिल किया। हालांकि राजनयिकों का विवाद सुलझा लिया गया है, और दोनों देशों ने आपसी रिश्ते बेहतर करने की बात भी कही है। पर जब तक जमीन पर नतीजे न दिखें, तब तक कुछ कहना कठिन है। सार्क की बैठक हर साल होनी चाहिए, पर यह बैठक औसतन डेढ़ साल में हो पाती है-एक बार चार साल तक यह बैठक नहीं हुई। सार्क जैसे क्षेत्रीय संगठन को भारतपाकिस्तान के विवाद का बंधक भी नहीं बनना चाहिए, पर भारत

के साथ रिश्ते सुधारे बगैर पाकिस्तान सार्क के कुछ देशों को अपने पाले में खींचने की जैसी कोशिश कर रहा है, वह भी गलत है। 2016 में सार्क की बैठक के बहिष्कार का ज्यादातर सदस्य। देशों ने समर्थन किया था, पर अब चीन के असर में आए श्रीलंका और नेपाल सार्क के मुद्दे पर पाकिस्तान के पक्ष में

बताए जाते हैं। श्रीलंका ने जहां संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का सदस्य बनने में पाकिस्तान की मदद की है, वहीं वर्षों बाद उसकी क्रिकेट टीम ने लाहौर का दौरा भी किया। भारत आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान का विरोध करता है। बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे मुल्क इसलिए भारत के साथ हैं, क्योंकि वे भी पाक-प्रायोजित आतंकवाद के शिकार हैं। जो श्रीलंका आज पाकिस्तान को समर्थन देने की बात कर रहा है, उसकी क्रिकेट टीम आठ साल पहले पाकिस्तान में आतंकी हमले का शिकार बनी थी। लिहाजा सार्क की बैठक के नाम पर आतंकवाद के प्रश्रयदाता देश का समर्थन करना महंगा पड़ सकता है। दूसरे देशों को साथ लेने के बजाय पाकिस्तान खुद आगे आकर आतंकवाद पर अपना रुख स्पष्ट क्यों नहीं करता?


राजस्थान पत्रिका

सच्ची खेल भावना

एक-दो नहीं, अनेक मौकों पर सचिन तेंदुलकर ने साबित ५ किया है कि वे महान नहीं, बल्कि महानतम हैं। एकखिलाड़ी के रूप में भी और एक इंसान के रूप में भी। खिलाड़ी के रूप में उपलब्धियों की सचिन के खाते में लम्बी फेहरिस्त हैं। खिलाड़ी के रूप में वे समय-समय पर अपनी प्रतिभा के साथ-साथ बड़प्पन दिखाते रहे हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में भी उन्होंने बड़प्पन दिखाने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। इस बड़प्पन का ताजा उदाहरण सबके सामने हैं। सचिन छह साल राज्यसभा के लिए मनोनीत सांसद के रूप में रहे। इस दौरान वेतन और भत्ते के रूप में मिली 90 लाख रुपए की राशि उन्होंने प्रधानमंत्री राहत कोष में दान करके सचमुच मानवीयता का परिचय दिया है। हालांकि सचिन के लिए ये राशि बहुत छोटी हो सकती है लेकिन इस राशि से कितने ही संकटग्रस्त परिवारों को मदद मिल सकती है। इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। आज के दौर में देश के राजनेताओं की छवि धूमिल हो रही है। भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में राजनेताओं का नाम सामने आने लगा है। कितने ही राजनेता भ्रष्टाचार के आरोपों में सलाखों के पीछे बैठे हैं। ऐसे समय में सचिन का इतनी बड़ी राशि दान करना पुनीत काम ही माना जाएगा। | सचिन की यह सेवा भावना उन लोगों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन सकती है जो साधन-सम्पन्न हैं। सचिन जैसे हजार लोग। खड़े हो जाएं तो कितने ही गरीब बच्चों के चेहरों पर मुस्कान फैल सकती है। छह साल तक सांसद रहने के दौरान राज्यसभा में सचिन । की कम उपस्थिति को लेकर भी अनेक सवाल खड़े हुए। सचिन को जितना समय देना चाहिए था, शायद वो नहीं दे पाए। लेकिन हकीकत यह है कि समाज का सम्पन्न तबका यदि जरूरतमंदों की सहायता के लिए उठ खड़ा हो तो अनेक समस्याओं के समाधान में मदद मिल सकती हैं। ऐसे फैसले लेना आसान काम नहीं हैं। सचिन ने जो रास्ता दिखाया है, उस पर आगे चलने की जरूरत है। अपनी आत्मा की आवाज पर लिये जाने वाले ऐसे फैसलों का स्वागत किया जाना चाहिए और सम्मान भी। सचिन ने सांसद निधि के रूप में मिलने वाली राशि का भी अधिकतम उपयोग किया है। ये भी संतोष प्रदान करने वाली खबर है। अन्यथा कितने ही सांसदों को तो इस निधि के इस्तेमाल का भी समय नहीं मिल पाता। सचिन के इस सराहनीय कार्य के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी आभार जताया है। देश भी ऐसे लोगों का आभार जताने में न पहले पीछे रहा है और न भविष्य में रहेगा। 


दैनिक जागरण

कश्मीर में बड़ी कामयाबी

कश्मीर में तीन मुठभेड़ों में 12 आतंकियों को मार गिराया जाना पुलिस, सुरक्षा बलों और सेना की एक बड़ी कामयाबी है। इस कामयाबी के लिए सुरक्षा बलों की पीठ थपथपाने के साथ इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि उन्हें कुर्बानी भी देनी पड़ी है। यह कामयाबी इसलिए कहीं अधिक उल्लेखनीय है, क्योंकि मारे गए आतंकियों में लेफ्टिनेंट उमर फैयाज के हत्यारे भी शामिल हैं। कम से कम अब तो बंदूक के सहारे तथाकथित जेहाद का मुगालता पालने वालों को यह समझ आ जाना चाहिए कि न तो देश के खिलाफ बंदूक उठाने वाले छोड़े जाएंगे और न ही सैनिकों को निशाना बनाने वाले। बेहतर हो कि सुरक्षा बल और सेना ऐसे आतंकियों को खास तौर पर अपने निशाने पर ले जो सिपाहियों और सैनिकों पर हमले की जुर्रत करते रहते हैं। एक दिन में 12 आतंकियों का खात्मा यह भी बताता है कि सेना पुलिस एवं अन्य सुरक्षा बलों के सहयोग से आतंकवाद को कुचलने के लिए प्रतिबद्ध है। यही इसी प्रतिबद्धता का परिणाम है कि हाल के समय में एक बड़ी संख्या में आतंकी मारे गए हैं। बीते साल तो दो सौ से अधिक आतंकी मारे गए थे, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। बड़ी संख्या में आतंकियों के ऐसे हश्र के बाद अलगाव और आतंक का समर्थन करने वालों को इस नतीजे पर पहुंचने में और देर नहीं करनी चाहिए कि यह सिर्फ और सिर्फ बर्बादी का रास्ता है। नि:संदेह बर्बादी के इस रास्ते के लिए वे अलगाववादी तत्व भी जिम्मेदार हैं जो कश्मीर की आजादी का ख्वाब दिखाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। जो भी यह ख्वाब देख रहे अथवा दूसरों को दिखा रहे वे इस सच से ही मुंह मोड़ रहे हैं कि दुनिया की कोई ताकत कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकती।1यह देखना दयनीय है कि आतंकियों के मारे जाने के विरोध में अलगाववादी तत्वों ने हड़ताल बुलाने में देर नहीं की। ये वही तत्व हैं जो उमर फैयाज और अयूब पंडित की शहादत पर मौन साधे रहे। बेहतर हो कि आम कश्मीरी अलगाववाद की दुकानें चला रहे तत्वों को न केवल हतोत्साहित करे, बल्कि उनसे यह भी पूछे कि क्या उमर फैयाज और अयूब पंडित कश्मीरी नहीं थे? बीते कुछ समय में कश्मीर में यह भाव घर करता दिखा है कि आतंक का रास्ता केवल तबाही की ओर ले जा रहा है, लेकिन जब केंद्र सरकार कश्मीरियों को गले लगाने को तैयार है तब फिर यह जरूरी हो जाता है कि अलगाव और आतंक की तरफदारी करने वालों को ठुकराने का काम आगे बढ़कर किया जाए। कश्मीर में बहुत खून बह चुका और अभी भी वहां कश्मीरियों के साथ शेष भारत के लोगों का भी खून बह रहा है। गत दिवस ही आतंकियों को मार गिराने के क्रम में जहां तीन नागरिक क्रास फायरिंग में मारे गए वहीं तीन जवानों को भी शहादत का सामना करना पड़ा। इस सिलसिले को जल्द थामा जा सकता है, लेकिन तभी जब कश्मीरी जनता पाकिस्तान परस्त तत्वों के बहकावे में आने से बचेगी। कश्मीरी जनता एकजुट होकर आतंक और अलगाव के खिलाफ खड़ी हो, इसकी कोशिश राज्य सरकार को भी करनी चाहिए।


प्रभात खबर

न्यायपालिका में संकट

पिछले कुछ वर्षों से न्यायपालिका के भीतर की असहमतियां तथा कार्यपालिका से उसकी तनातनी लगातार खबरों में हैं. न्यायाधीशों की कमी, नियुक्ति पर तकरार, संसाधनों का अभाव, सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों में तालमेल का न होना आदि अनेक मसलों पर अक्सर विवाद खड़े होते रहते हैं.एक स्वस्थ संवैधानिक लोकतंत्र में मतों की विविधता और विरोधाभासी विचारों का होना जरूरी है, परंतु अगर न्यायपालिका और कार्यपालिका में बार-बार टकराव हो तथा इस टकराव का एक असर यह हो कि न्यायाधीशों में ही बुनियादी एका टूटने लगे, तो यह मान लेना चाहिए कि शीर्ष संवैधानिक संस्थाओं में सबकुछ सामान्य नहीं है. इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश जे चेलामेश्वर की हालिया चिंता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है. उन्होंने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा को संबोधित अपने पत्र में कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है.

मौजूदा कायदों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय का  कॉलेजियम नियुक्त किये जानेवाले न्यायाधीशों के नाम सरकार को संस्तुति के लिए भेजती है. न्यायाधीश चेलामेश्वर ने लिखा है कि सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों को शायद ही कभी मानती है. यह ध्यान देने की बात है कि उच्च न्यायालयों में नियुक्ति के लिए करीब 230 नामों के प्रस्ताव डेढ़ साल से सरकार के पास लंबित हैं. सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी दो नामों पर सरकार का रवैया नकारात्मक रहा है. सर्वोच्च न्यायालय में 31 की जगह 27 न्यायाधीश ही कार्यरत हैं.

इस वर्ष प्रधान न्यायाधीश समेत छह न्यायाधीश सेवानिवृत्त होंगे. यह भी याद रखा जाना चाहिए कि न्यायपालिका की विभिन्न समस्याओं के कारण लाखों मुकदमे लटके पड़े हैं. सर्वोच्च न्यायालय की कॉलेजियम और प्रधान न्यायाधीश द्वारा न्यायाधीशों को मुकदमे देने के मसले पर पहले भी काफी बहस हो चुकी है. सवाल यह नहीं है कि इन टकरावों के लिए कौन जिम्मेदार है या किसे दोष दिया जाये, मसला यह है कि अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश आपस में या फिर सर्वोच्च न्यायालय और सरकार आपस में समस्याओं का निबटारा नहीं कर सकते हैं, तो यह देश की समूची शासन व्यवस्था के लिए चिंताजनक स्थिति है.

विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकारों का स्पष्ट बंटवारा संविधान एवं अन्य व्यवस्थाओं के तहत किया गया है. अगर कोई विवाद पैदा भी होता है, तो शीर्ष संस्थाओं से यह उम्मीद तो रहनी चाहिए कि वे इसका निबटारा समुचित तरीके से कर लेंगे. दुर्भाग्य की बात है कि संबंधित मसलों पर सरकार का रुख स्पष्ट नहीं है.

कार्यपालिका और विधायिका में राजनीति के सकारात्मक और नकारात्मक रुझानों का दखल स्वाभाविक है, पर इस खींचतान से न्यायपालिका के स्वतंत्र और स्वायत्त स्वरूप को बचाना लोकतांत्रिक प्रणाली और उसके मूल्यों को बचाना है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी संबद्ध पक्ष अपने उत्तरदायित्व को ठीक से समझते हुए सही रवैये से खामियों को दूर करने की कोशिश करेंगे.


 देशबन्धु

अंकगणित के जाल में उलझे बच्चे

हिंदुस्तान की शिक्षा और परीक्षा प्रणाली कितनी लचर और विसंगतियों से भरी है, इसका ताजा नमूना सीबीएसई पेपर लीक मामला है। सीबीएसई यानी केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के हाथों में देश के लाखों विद्यार्थियों की बागडोर है या यह कह सकते हैं कि 10वींऔर 12वीं के छात्रों की किस्मत सीबीएसई के हाथों में है। किस्मत अच्छी हुई तो परीक्षा देने से लेकर पर्चों की जांच तक सब ठीक रहेगा और किस्मत में खोट हुआ तो पर्चे लीक हो सकते हैं या उनकी जांच में गड़बड़ी हो सकती है। पाठ्यपुस्तकों में तो भाग्य की बजाए कर्म पर भरोसा करना सिखाया जाता है। गीता का ज्ञान भी यही है कि कर्म कर फल की चिंता मत कर। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पिछले चार सालों से विद्यार्थियों को कई तरह के उपदेश देते आए हैं। लेकिन बच्चों के जीवन की हकीकत तो कुछ और ही है। अच्छे स्कूल में प्रवेश से लेकर परीक्षा देने तक, हर चीज में वे शुरु से जोड़-तोड़ का गणित देखते हैं। किताबों का ज्ञान, जीवन के ज्ञान से बहुत अलग होता है, इसका अहसास उन्हें कदम-कदम पर होता है।

स्कूलों में न जाने कैसी पढ़ाई होती है  कि कुछेक अपवादों को छोड़कर सभी को ट्यूशन, कोचिंग का सहारा लेना पड़ता है। पाठ्यपुस्तकों के अलावा अलग-अलग प्रकाशकों की दर्जनों किताबें लेनी पड़ती हैं। स्कूल फीस के अलावा इन तमाम खर्चों का बोझ किसी तरह मां-बाप उठाते हैं कि एक बार अच्छा परिणाम आ जाए तो भविष्य संवर जाए। लेकिन यहां भी धांधली ही नजर आती है। कई नामी-गिरामी कोचिंग संस्थान दावा करते हैं कि उनके पास जो बच्चे पढ़ेंगे, उनके इतने अंक आ ही जाएंगे। क्या सभी बच्चों की क्षमता एक जैसी होती है? या फिर बच्चों के दिमाग को मशीन समझा जाता है कि सबमें एक जैसी प्रोगामिंग की जा सके? या कोचिंग सेंटर वाले जानते हैं कि किस तरह के पेपर परीक्षा में आ सकते हैं और उसी हिसाब से पढ़ाई कराते हैं। अगर ऐसा है तो फिर हमारे स्कूल क्या कर रहे हैं? वे भी क्यों नहीं बच्चों को केवल परीक्षा में अच्छे अंक लाने वाली कोचिंग ही नहीं दे देते? कायदे से तो शिक्षा का मकसद व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना होता है, ताकि बच्चा बड़े  होकर जीवन की हर परिस्थिति का सामना कर सके। लेकिन हिंदुस्तान में तो शिक्षा हो या परीक्षा, सारी कवायद अच्छे अंक लाने तक ही सीमित है।

इस अंकगणित का ही खेल है कि कुछ भ्रष्ट लोग परीक्षा से पहले पेपर लीक करते हैं और लाखों विद्यार्थियों के भविष्य के साथ खेलने में नहीं हिचकिचाते। अब तक कुछ प्रदेशों के शिक्षा बोर्ड नकल के मामले में कुख्यात थे, जिनकी छवि सुधारने की कोशिश की जा रही है। लेकिन सीबीएसई की छवि स्वच्छ-पारदर्शी बनी हुई थी कि इसके तहत होने वाली परीक्षाओं में नियमों का पूरा पालन किया जाता है। पर अब जिस तरह से पर्चे लीक होने के मामले सामने आए हैं, उससे सीबीएसई की साख को धक्का लगा है।

प्रश्नपत्र बनाने से लेकर उसे बैंकों की निगरानी में रखने और पूरी सुरक्षा के साथ परीक्षा केेंद्र तक पहुंचाने का काम विश्वसनीय और गोपनीय तरीके से होता रहा है, फिर कैसे कुछ लोगों के हाथों पेपर लग गए, यह बड़ा सवाल है। पहले 12वीं का पेपर लीक हुआ और दो दिन बाद 10 वीं का, तो इन दो दिनों में सीबीएसई हरकत में क्यों नहीं आई? क्या वह इंतजार कर रही थी कि कुछ और पेपर लीक हों, तो इक_े कार्रवाई शुरु करे? खबर तो यह भी थी कि 15 मार्च को 12वीं के एकाउंट्स का पेपर भी लीक हुआ था, लेकिन सीबीएसई ने कुछ ही घंटों में बतला दिया कि ऐसा कुछ नहीं है? क्या उसने 15 तारीख की घटना की पूरी जांच की थी या यूं ही किसी नतीजे पर पहुंच गई थी?

केन्द्रीय शिक्षा सचिव अनिल स्वरूप का कहना है कि 10 वीं के गणित के पर्चे केवल दिल्ली और हरियाणा में लीक हुए। सोशल मीडिया के इस जमाने में क्या यह संभव लगता है कि कोई पेपर लीक होगा और केवल दो प्रदेशों में ही प्रचारित होगा? और मान लें कि ऐसा है भी तो क्या झारखंड पुलिस का दावा गलत है किचतरा में 27 तारीख को ही गणित का पेपर लीक हुआ था, बल्कि वह तो एसएसटी और साइंस के पेपर परीक्षा के दिन ही लीक होने की बात भी कर रही है। इस मामले में उसने एक कोचिंग केेंद्र के संचालक समेत 12 लोगों को गिरफ्तार भी किया है।

गौर करने वाली बात यह भी है कि कोचिंग संचालक एबीवीपी का जिला संयोजक भी है। केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, शिक्षा सचिव अनिल स्वरूप सभी जांच करने और कड़ी कार्रवाई की बात कर रहे हैं। जांच एजेंसियां सारी कड़ियों को जोड़ भी रही हैं। लेकिन क्या इससे बच्चों के साथ हुआ अन्याय खत्म हो जाएगा। सीबीएसई ने इकानामिक्स की परीक्षा की अगली तारीख भी दे दी है, जिसके आसपास अन्य प्रवेश परीक्षाओं की तारीखें हैं। इनमें से किसी परीक्षा के लिए दूसरे शहर भी जाना पड़ सकता है। यानी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक हर तरह का तनाव विद्यार्थी और उसके अभिभावकों को होगा। क्या सरकार इसके लिए कोई क्षतिपूर्ति की घोषणा करेगी? वैसे यह बात भी दूर की कौड़ी लगती है, क्योंकि मोदी सरकार में विद्यार्थियों को हक और इंसाफ के लिए कई बार सड़कों पर उतरना पड़ा है, पर सरकार का रवैया नहीं बदला, तो अब क्या बदलेगा। इसलिए विद्यार्थी फिर से परीक्षा की तैयारी में जुट जाएं, क्योंकि आप ऐसे देश की संतान हैं, जहां अतीत का गौरवगान किया जाता है, भविष्य में विश्वगुरु बनने का सपना देखा जाता है, लेकिन वर्तमान को दुरुस्त करने की जहमत कोई नहीं उठाना चाहता।


The Hindu

High Hopes?
Nine months after the Union Cabinet’s in-principle nod for offloading the government’s stake in Air India, the ball has finally been set rolling to privatise the bleeding airline. A preliminary information memorandum was unveiled last week by the Civil Aviation Ministry for prospective bidders. According to this, the Centre will divest 76% of its stake in AI. A 100% stake is being offered in its subsidiary Air India Express, and a 50% stake is on offer in its ground handling operations arm. Other subsidiaries, such as Alliance Air, Hotel Corporation of India, which owns the Centaur properties in New Delhi and Srinagar, Air India Air Transport Services and Air India Engineering Services, are not being sold — they will be transferred to a special purpose entity along with roughly a third of AI’s ₹48,781 crore outstanding debt. Effectively, the government is offering a majority stake in AI and AI Express with management control, as well as a cumulative debt burden worth ₹33,392 crore. For prospective buyers, the attractiveness of AI’s international flying rights and slots would be offset by the possibility of taking on so much debt and putting a plan in place to whittle it down or refinance the loans. Details of the reallocation of these liabilities between AI and AI Express, and the logic behind it, will only be shared with bidders at a later stage when requests for proposals are issued.
Given the uncertainties over its debt burden, it will not be a surprise if those bold enough to make a bid for AI find it difficult to offer a lucrative price to the government. It is worth pausing to see if serious investors are enthused by the government’s decision to retain 24% stake in the airline (which will possibly come with one or two bureaucrats nominated to the airline’s board of directors). In 2016-17, the airline suffered a net loss of ₹5,765 crore, owing mainly to its high interest costs. While debt has been the major reason for AI’s losses in recent years, operational inefficiencies and poor management have been bugbears for long. The government is expected to offload its residual 24% stake at a later date, pinning its hopes on a better valuation after the new owner has fixed the airline’s legacy issues. The real benefit of privatisation will be that the airline will no longer drain taxpayer funds, after thousands of crores have been infused over the years to keep it up and running. That its new owner would get some room to rationalise its large workforce a year after the transaction and the government is thinking of footing the bill for some benefits paid to retired employees, such as complimentary air tickets, sounds good. The government is understandably keen to close the AI sale transaction soon, preferably by early 2019, in order to bolster its reformist credentials. But investors will look for the finer details to ascertain the carrier’s true worth.


Indian Express

Get to Work
Since March 16, when the Telugu Desam Party and YSR Congress gave notices for a motion of no-confidence against the Narendra Modigovernment, little transaction has taken place in the Lok Sabha. The Speaker, Sumitra Mahajan, has taken a firm stand that unless the House is in order she will not allow the motions to be discussed. Since the beginning of the budget session, the Opposition has been disrupting proceedings in Parliament over different issues. On Wednesday, the speaker adjourned proceedings for the eighth day since the notices were given. As this newspaper reported, in all the Lok Sabha has spent a mere 16 minutes on the no-trust motion notices. Until the motion, the first against the Modi government, is disposed of, the House is unlikely to take up other matters for debate. In short, the functioning of the Lok Sabha has been in limbo for over two weeks.This can’t continue.

The Speaker’s anger is understandable: The Opposition seems unwilling to listen to her pleas to uphold decorum in the House. The Congress, TDP, Telangana Rashtra Samiti and AIADMK have all turned the Lok Sabha into an arena of protest with MPs shouting slogans and raising placards. These stalling tactics make it tough for the chair to allow House business. What is glaring about this episode, however, is the government seems happy with the logjam. There is little effort on the part of the treasury benches to restore order in the House and facilitate the proceedings. Since the Union Budget has been passed and other important bills cleared already, the government seems keen to let the session pass without discussions on any matter, including the no-confidence motion. The Speaker’s inclination to adjourn the House at the slightest provocation has only contributed to the impasse. It is facile to expect the Opposition to conduct itself in the House strictly by book, especially since the ruling coalition has the advantage of numbers. As is their wont, the Opposition, especially the smaller, regional outfits, will try to attract the attention of the government, and the nation, with actions that may look spectacular. The task of the government is to reach out to the Opposition and persuade MPs to raise their concerns in accordance with the House rules. The BJP used to argue during the UPA rule that the onus is on the treasury benches to take the Opposition along in Parliament. Why must it not follow this very sensible logic while in office?

Debate and discussion are essential features of parliamentary democracy. Besides, each minute of running the House when Parliament is in session is estimated to cost the exchequer over Rs 2.5 lakh; the frequent adjournments mean a waste of public money running into crores of rupees. It is time the government took the initiative to end the stalemate in the Lok Sabha.


Times of India

Near Abroad
Indian foreign policy has come under criticism recently for ‘losing’ neighbours to China. The criticism is made most often with respect to India’s ties with Nepal. But Nepal Prime Minister KP Oli’s official visit to India this week, starting April 6, offers an opportunity to set right that perception. It will be recalled that Oli’s last stint as PM had seen New Delhi-Kathmandu ties go through a difficult phase. This in part was due to miscalculations by the Indian leadership. An impression came to take hold that India was unduly interfering in Nepal’s internal politics – further exacerbated by the 2015 Madhesi blockade for which Kathmandu blamed New Delhi.

Oli today is back in power after a near sweep by a leftist coalition comprising his CPN (UML) party and Prachanda’s Maoists in last year’s parliamentary and provincial polls. New Delhi thus needs to make a fresh beginning with the new Oli government. As some Indian officials have indicated, the days of carving out separate ‘spheres of influence’ are over. New Delhi should not be tempted by this, even if Beijing sometimes shows a penchant for such old-fashioned geopolitics.

Asking neighbours not to deal with China will only backfire for India – New Delhi will be accused of trying to undermine sovereignty even as China, which is five times richer, has far greater capacity and wants to pursue superpower status by throwing its weight around in Asia. Neither should New Delhi try to pick political favourites and indicate preferences regarding regional government composition. What it can do is lay down broad parameters such as upholding democracy and human rights, and work with international partners to safeguard these in the neighbourhood.

A good example of this would be European airlines contemplating suspending their operations to the Maldives this summer in order to pressure the archipelago nation to restore democratic functioning. This is a move that India should support with Western partners. With Nepal, India has always had a special relationship. We must continue to do what we can to help the Himalayan republic but without overt political strings attached. New Delhi can stress, for example, that it offers Nepal something that Beijing can never even remotely contemplate: unrestricted access to its citizens.


The Telegraph

 

Faith in Arms
The Indian Constitution imagined democratic freedoms as spacious. Everyone was free to practise their own religion, and allowances were made for occasional ceremonial processions for people of different faiths. The operative word here is ‘ceremonial’: symbolic acts without aggression or a show of dominance to people of other faiths. Some of these processions traditionally carried arms, or exhibited sword or stick play, but all this expressed religious beliefs or represented an event in that particular religious history. Not that things are always ideal. Tensions between communities are not uncommon, and often when such incidents occur the procession in question is not even armed. But the violent sectarian confrontations that took place in many parts of the country, including in West Bengal and Bihar, during Ram Navami processions this year have defined a completely different relationship between religion and the carrying of weapons. Ram Navami is celebrated as the birthday of Rama, and is traditionally a day of worship, of listening to Ram katha, of fasting for some, a visit to the temple perhaps, and processions with images of Rama, Lakshmana, Sita and Hanuman. All religious belief and practice have been overturned by the Rashtriya Swayamsevak Sangh and the Bharatiya Janata Party with their thundering claims of the superiority of their religion and their menacing promise to create a Ram rajya. Arms taken up on the most peaceful of religious occasions underline aggression, provocation, intimidation and carefully manufactured violence; the sectarian incidents prove that there is nothing symbolic about them.

Not misplaced faith, but the cruel cynicism of the use of religion is what characterizes the RSS-BJP combine. Determined to create trouble among people carrying on with their daily lives in order to consolidate its vote bank for 2019, the BJP is showing its hand quite nakedly. The party, entrusted with governance at the Centre and in most states, apparently feels no compunction about bringing out arms with the false excuse of religion and creating situations in which people, those whom it is supposed to look after, are killed, injured, robbed and their property burnt. Religion with arms is manufactured violence. In West Bengal, people in affected areas suspect that gangs from another state arrived to create the violence. That may be the new form of religiosity in Hindutva.


New Indian Express

Congress Falling Fast in Odisha

The Congress party’s never-ending downward spiral in Odisha continues. Led by former Union Minister Chandrasekhar Sahu, 50 of its leaders resigned last week virtually emptying the party’s Ganjam district unit. This has signalled the Grand Old Party’s meltdown in a state where it was once was a dominant force before being thrown out of power by the BJD 18 years ago.

Beset with infighting, the party is in a constant state of turmoil. This has been compounded by the All India Congress Committee’s (AICC) myopic vision of the affairs in Odisha. That the Congress has gradually yielded ground to the BJD was never in question but the first serious signs of the party losing its core support base surfaced in the Bijepur bypoll where it was pushed to a distant third despite winning the seat in the last three polls.

The clamour for the removal of incumbent PCC chief Prasad Harichandan, who has been facing a spate of rebellion, grows but he continues to be favoured by party President Rahul Gandhi while his dissidents found themselves out of the recent AICC list. Rahul has reportedly given Harichandan a green signal to lead the 2019 polls with a small unit since he enjoys no support from within the ranks. The party, it appears, is ready to risk a rout in the coming days but will not go back to older influential leaders. This has opened up the possibility of a two-party contest in the 2019 polls.

As the BJD ramps up its efforts to retain power for a record fifth time, the BJP has made more ground. In the Bijepur bypoll, the saffron party lost by over 40,000 votes to the ruling BJD but doubled its vote share while the Congress candidate forfeited his deposit.

This could be an ideal situation for the BJP which has been eyeing a direct contest with the regional outfit to achieve its Mission 120 in the next Assembly polls. To seriously challenge the BJD, the BJP would require the Congress vote base while the regional party would like to replicate its Bijepur performance. Much would depend on how the Congress gets its act together in the coming months.

 

 

 

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