आज के हिंदी /अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 14 अप्रैल, 2018

नवभारत टाइम्स

सिनेमा का दायरा

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से हिंदी वालों को थोड़ा संतोष हुआ होगा क्योंकि दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिवंगत बॉलिवुड अभिनेता विनोद खन्ना को दिया गया है। वहीं सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार श्रीदेवी को मरणोपरांत फिल्म ‘मॉम’ के लिए दिया गया है। जहां तक विषयों के चयन, कलात्मक गुणवत्ता और प्रयोग की बात है, तो क्षेत्रीय सिनेमा अब भी बॉलिवुड पर भारी है। सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार इस बार असमिया फिल्म ‘विलेज रॉकस्टार’ को मिला है। यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ संपादन और सबसे अच्छे लोकेशन साउंड (स्थानीय ध्वनि) का पुरस्कार भी विलेज रॉकस्टार को ही मिला है। इसी फिल्म की भनिता दास को सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म का पुरस्कार ‘बाहुबली द कन्क्लूजन’ को दिया गया जबकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार बांग्ला फिल्म ‘नगर कीर्तन’ के लिए ऋद्धि सेन को मिला है। इसी फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ छायांकन और पटकथा का पुरस्कार भी जीता है। गौर करने की बात है कि ‘विलेज रॉकस्टार’ असम की कामरूपी बोली में बनाई गई है। आज अनेक स्थानीय भाषाओं और बोलियों में भी फिल्में बन रही हैं। जैसे लद्दाखी में कई फिल्में बनी हैं। यह निश्चित रूप से फिल्म तकनीक के सर्वसुलभ होने का असर है। प्रतिभा‌वान युवा छोटी से छोटी जगह में भी फिल्में बना रहे हैं। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों ने उन पर ध्यान दिया है, जो अच्छी बात है। नैशनल फिल्म अवार्ड पूरे देश के सिनेमा परिदृश्य को सामने लाते हैं। इससे सभी को एक-दूसरे को परखने का अवसर मिलता है। हिंदी सिनेमा का पिछले कुछ समय से दक्षिण के फिल्म जगत खासकर तेलुगू और तमिल सिनेमा से तालमेल और संवाद बढ़ा है। हिंदी के दर्शकों के लिए दक्षिण का परिवेश सुपरिचित हो गया है। लेकिन असमिया, बांग्ला और मलयाली फिल्मों से बॉलिवुड का संवाद कम हो गया लगता है। बीच में भूपेन हजारिका के जरिए असमिया से थोड़ा परिचय बना था, लेकिन यह यात्रा फिर रुक गई। बांग्ला से हिंदी में काफी समय से कुछ नहीं आया। हिंदी से ‘न्यूटन’ का चयन खुद में एक संदेश है, जिसे समझने की जरूरत है। तड़क-भड़क और तकनीक का खेल नहीं, प्रासंगिक कथानक और दमदार अभिनय ही अच्छी फिल्मों की कसौटी है। बॉलिवुड अब फॉर्म्युलों से बाहर निकल रहा है और यहां भी सार्थक विषयों वाली फिल्में बनने लगी हैं। आने वाले समय में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में इसका हिस्सा जरूर बढ़ेगा। इस बार निर्णय प्रक्रिया को अधिक जनतांत्रिक बनाने की कोशिश की गई है। जूरी में विभिन्न स्तरों पर छोटे-छोटे शहरों के लेखक, कलाकार और टिप्पणीकार शामिल किए गए। इस तरह निर्णायकों में मुंबई-दिल्ली का दबदबा घटा है और मूल्यांकन की दृष्टि व्यापक हुई है।


जनसत्ता

फजीहत के बाद

इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि कानून के राज का दावा करने वाली सरकार को उसकी जिम्मेदारी की याद दिलाने के लिए अदालत को आदेश देना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के उन्नाव में सामूहिक बलात्कार के आरोप के बाद राज्य सरकार और वहां की पुलिस ने कार्रवाई में जिस तरह की लापरवाही बरती, उससे यही संदेश गया कि अभियुक्त को बचाने की कोशिश की जा रही है। जबकि इस मामले में जिस तरह के घटनाक्रम सामने आ रहे थे, उसमें कानूनी कदम उठाने के मजबूत आधार थे। लेकिन आरोपी चूंकि रसूखदार पृष्ठभूमि से हैं, शायद इसीलिए उनके खिलाफ कार्रवाई में अब तक टालमटोल हो रही थी। हालांकि राज्य सरकार के पास पूरा मौका था कि वह इस प्रकरण में समय रहते ठोस कदम उठाए। मगर विवाद ने जब तूल पकड़ लिया और मुख्य आरोपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर की गिरफ्तारी के लिए दबाव बढ़ने लगा तब भी पर्याप्त साक्ष्य न होने की दलील देकर उसे गिरफ्तार नहीं किया गया। हालात यहां तक पहुंचे कि आखिर हाईकोर्ट को यह सख्त आदेश जारी करना पड़ा कि आरोपी को हिरासत में रखना काफी नहीं है, उसे गिरफ्तार किया जाए। सवाल है कि सरकार के सामने कौन-सी मजबूरी थी कि वह सेंगर के खिलाफ कार्रवाई से बच रही थी!

गौरतलब है कि सामूहिक बलात्कार की पीड़ित लड़की ने अपनी शिकायत पर कार्रवाई न होने से हताश होकर मुख्यमंत्री आवास के सामने आत्मदाह की कोशिश की थी। उसके बावजूद पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करना जरूरी नहीं समझा। एक तरह से यह आरोपियों को शह देना था और शायद यही वजह है कि उन्होंने पीड़ित लड़की के पिता की बर्बरता से पिटाई की, जिसके चलते आखिर उसकी मौत हो गई। मरने से पहले के एक वीडियो में उसने साफ तौर पर विधायक के भाई का नाम लिया था। इसके अलावा, एक अन्य आॅडियो क्लिप के मुताबिक विधायक पर शक गहरा रहा था। यह समझना मुश्किल है कि पुलिस ने किस दबाव के तहत आरोपियों को एक तरह से खुली छूट दे रखी थी या उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने से बच रही थी। अगर समय पर पुलिस ने जरूरी कदम उठाए होते तो पीड़ित लड़की के पिता की जान बच सकती थी।

अब हालत यह है कि इस मामले पर लोगों के बीच उठे आक्रोश का दायरा देश भर में फैल चुका है और उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार पर आरोपियों को बचाने की कोशिश करने के आरोप लग रहे हैं। ऐसी स्थिति तब है जब सरकार आपराधिक घटनाओं और अपराधियों के खिलाफ बेहद सख्त होने के दावे कर रही है। मगर क्या सरकार अपराध में शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने में अपनी सुविधा से कदम उठा रही है? अफसोस यह है कि विधानसभा चुनावों के पहले भाजपा ने उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था के बिगड़े हालात का ही हवाला दिया था और उसे दुरुस्त करने का भरोसा दिया था। उन्नाव सामूहिक बलात्कार के आरोप और फिर पीड़ित लड़की के पिता की बेरहमी से पिटाई से हुई मौत की घटना पर सरकार ने अगर पहले ही शिद्दत से कार्रवाई की होती तो निश्चित रूप से कानून का राज कायम करने के उसके दावे मजबूत होते। मगर इस मामले में अदालती आदेशों पर अमल के लिए बाध्य होना किसी सरकार की नीयत और कार्यशैली पर सवालिया निशान है। क्या यह सरकार के लिए एक असुविधाजनक स्थिति नहीं है?


हिंदुस्तान

नवाज की राजनीति खत्म

यह फैसला पाकिस्तान का राजनीतिक इतिहास बदलकर रख देगा। पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे किसी भी इंसान के आजीवन चुनाव लड़ने या सार्वजनिक पद पर बने रहने की संभावना खत्म कर दी है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 62(1)(एफ) के तहत अयोग्य ठहराया गया हो। यानी इस फैसले के बाद देश के तीन बार प्रधानमंत्री रहे नवाज शरीफ की राजनीति में वापसी की सारी उम्मीदें खत्म हो गई हैं। वह न तो कभी चुनाव लड़ सकेंगे, न कोई सार्वजनिक पद संभाल सकेंगे, यानी अपनी पार्टी के अध्यक्ष भी नहीं बन सकेंगे। 68 वर्षीय नवाज शरीफ को सुप्रीम कोर्ट ने पनामा पेपर लीक मामले में नाम आने के बाद बीते साल 28 जुलाई को प्रधानमंत्री पद के अयोग्य ठहराया था, जिसके बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। फैसला नावाज शरीफ के साथ ही पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के नेता जहांगीर तरीन पर भी लागू होगा, जिन्हें इन्हीं प्रावधानों के तहत 15 दिसंबर को अयोग्य ठहराया गया था।
फैसला इस मामले में नायाब लग सकता है कि इसने भ्रष्टाचार के ढेर पर बैठे पाकिस्तान जैसे मुल्क को नई राह दिखाई है। उन कयासों को धता बताई है, जो नवाज की जोड़-तोड़ के कायल थे और मान रहे थे कि तमाम विपरीत हालात को धता बताने वाले शरीफ इस बार भी इससे बाहर आ जाएंगे। पाकिस्तान के कई प्रधानमंत्री इससे पहले भी विपरीत हालात में हटे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में किसी प्रधानमंत्री या बड़े नेता के हटने का यह पहला मामला था। पहली बार एक सत्तारूढ़ प्रधानमंत्री और उसके परिवार को अपनी आय के स्रोतों पर जनता के सामने सफाई देनी पड़ी। इसीलिए वहां इसे राजनेताओं व सरकारी सेवकों के बीच पारदर्शिता कायम करने के दबाव की शुरुआत भी माना जा रहा है। लेकिन इसका एक पहलू और भी है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। पाकिस्तान में बीते दिनों न्यायपालिका ने जैसी अतिसक्रियता दिखाई है, किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए उसके खतरनाक संकेत हैं। वैसे भी, वहां कभी न्यायपालिका सक्रिय होती है, तो कभी सेना। लोकतांत्रिक सत्ता तो सबसे निचले पायदान पर हुआ करती है। पनामा पेपर लीक से निकली न्यायिक और सिविल सोसाइटी की सक्रियता कुछ मायनों में जरूर स्वागतयोग्य है, लेकिन बेहतर यही होता कि भविष्य तय करने का फैसला जनता चुनाव के जरिए करती।
देश में आम चुनावों की आहट के बीच आए इस फैसले की कई व्याख्याएं होंगी। ऐसे वक्त मेें, जब नवाज की सबसे बड़ी उम्मीद उनकी बेटी मरियम नवाज खुद इसी मामले में मुसीबत में हों, तो यह नवाज और उनकी पार्टी के लिए कठिन चुनौती की घड़ी है। जाहिर है, नवाज तो फैसले के खिलाफ जन-समर्थन लेने की कोशिश करेंगे। ऐसे में, भाई और पीएमएल-एन के अध्यक्ष शहबाज शरीफ को अपने लिए उनसे अलग राग छेड़ना आसान नहीं होगा। रोचक पहलू यह भी है कि यह मुसीबत खुद नवाज शरीफ की ही बुलाई हुई है। जब संविधान संशोधन से इस अनुच्छेद को ही खत्म करने की बात आई थी, तब उन्होंने संसद की बजाय कोर्ट का रुख करना बेहतर समझा था। यही उनके लिए भारी पड़ा। वैसे जिस पनामागेट मामले में हमारे देश के बड़े-बड़े नाम आने के बावजूद अभी तक कोई सुनगुन भी न दिखी हो, पाकिस्तान की अदालत ने वहां की तस्वीर बदलने वाला फैसला सुना दिया है।


अमर उजाला

सरोकारों का सिनेमा
जब खासकर बॉलीवुड में फिल्मों का मतलब बॉक्स ऑफिस सफलता, सैकड़ों करोड़ का बजट और मार-धाड़ ही ज्यादा है, तब 65वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की घोषणा में सिनेमा की अर्थवत्ता और गरिमा को बचाए रखने की कोशिश सराहनीय है, जिसमें एक बार फिर जरूरी विषयों और उपेक्षित मुद्दों को फोकस करती फिल्मों को पुरस्कृत किया गया है। मसलन, इसमें उस असमिया फिल्म, विलेज रॉकस्टार को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के तौर पर चुना गया है, जो अपनी मौलिक कथावस्तु और सधे हुए अभिनय के कारण पहले ही अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रशंसित हो चुकी हैं। एक गरीब लड़की धुनू की बस एक गिटार खरीदने की मामूली महत्वाकांक्षा से शुरू होकर यह फिल्म लिंगभेद, महिला सशक्तिकरण से लेकर बारिश और बाढ़ जैसी असम की प्राकृतिक चुनौतियों तक को फोकस करते हुए पूर्वोत्तर की कठोर सच्चाई को देश के सामने लाती है। इस तरह से एक लड़की की महत्वाकांक्षा की कहानी के साथ-साथ यह असम की सालाना त्रासदी का भी मार्मिक आख्यान है; फिल्म में एक दृश्य है, जहां पानी में डूबे हुए खेत के सामने से बच्चों का एक जुलूस बाढ़ और बारिश पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए गुजरता है! हिंदी की श्रेष्ठ पुरस्कृत फिल्म न्यूटन भी ठीक इसी तरह दंडकारण्य में चुनाव और वोट के जरिये लोकतंत्र के महत्व और उसकी विडंबना को हमारे सामने लाती है। नक्सल प्रभावित इलाके में चुनाव अधिकारी के तौर पर गया एक क्लर्क वहां पारदर्शी चुनाव कराने का इरादा जताता है, और इस प्रक्रिया में लोकतंत्र का विद्रूप एक के बाद एक जिस तरह सामने आता है, वही इस फिल्म को खास बनाता है। यह समकालीन राजनीति की समूची समझदारी पर ही व्यंग्य है, जिसमें एक राजनेता आदिवासी समुदाय के लोगों को लैपटॉप और मोबाइल देने की बात कहकर विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करता है। हालांकि स्वर्गीय विनोद खन्ना को दादासाहब फाल्के तथा दिवंगता श्रीदेवी को मॉम के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के उल्लेखनीय फैसलों में से हैं, अलबत्ता गंभीर सिनेमा को महत्व देने का प्रयास ही इस पुरस्कार को ज्यादा अर्थ पूर्ण बनाता है।


राजस्थान पत्रिका

वक्त सफाई का

उन्नाव और कठुआ की घटनाओं ने न सिर्फ मानवता को शर्मसार किया, बल्कि कानून-व्यवस्था के जिम्मेदारों को भी बेनकाब किया है। उन्नाव में युवती से दुष्कर्म और उसके पिता की हत्या का आरोप एक विधायक और उसके साथियों पर लगा। पुलिस में गैर जमानती धाराओं में एफआईआर दर्ज होने के बावजूद विधायक की गिरफ्तारी नहीं होना साफ जाहिर करता है कि प्रशासनिक अमले पर सियातदानों का किस कदर खौफ है। यहां तक कि सीबीआइ जांच शुरू होने के बाद भी गिरफ्तारी नहीं हुई। उच्च न्यायालय को आखिर सरकार से जवाब तलब करना पड़ा और खुद गिरफ्तारी के आदेश देने पड़े। क्या पुलिस ऐसी ही धाराओं के अन्य

आरोपितों के साथ ऐसा ही सुलूक करती है? मोदी सरकार का तो नारा ही ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का था। क्या सब दिखावा था? क्यों उन्नाव और कठुआ के आरोपितों को बचाने के लिए सत्तारूढ़ दल के नेता आगे आए? क्या इन पर भी अपराधियों को बचाने की धाराओं में मुकदमे दर्ज कराने की हिम्मत सरकार दिखाएगी? विपक्ष का रवैया भी ऐसा नहीं दिखा कि वह महिलाओं व मासूम बालिकाओं के उत्पीड़न के खिलाफ गंभीर है। न उन्नाव में और न ही कठुआ में। घटना के एक हफ्ते बाद जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकार से सवाल किए, तब कांग्रेस को लगा कि मुद्दे को सियासी रंग दिया जा सकता है। आनन-फानन में कैंडल मार्च का निर्णय हो गया। आधी रात में इण्डिया गेट पर नेताओं की गंभीरता कम, टीवी कैमरों में दिखाई पड़ने की होड़ ज्यादा दिखी। एक सप्ताह से दोनों जगह कांग्रेस, सपा, बसपा समेत वामपंथी दल क्यों निष्क्रिय थे? क्या तब उन्हें मामले की गंभीरता का भान नहीं था? निर्भया मामले के बाद यौन उत्पीड़न के खिलाफ सख्त कानून लाया गया। विभिन्न राज्यों में मासूमों के बलात्कारियों को मौत की सजा का प्रावधान हुआ। लेकिन कितनों को सजा हुई? जबकि इन सालों में महिला उत्पीड़न व दुष्कर्म के मामले बढ़े हैं। सिर्फ कानून बनाने या घटना होने पर सियासत करने से काम नहीं चलेगा। सभी दलों को निहित स्वाथों से ऊपर उठकर जागृति अभियान चलाना होगा। राजनीति से अपराधियों, दुष्कर्मियों, बाहुबलियों और भ्रष्टाचारियों का सफाया नहीं होगा, तो कानूनव्यवस्था सुधरने की उम्मीद बेमानी है। आमजन भी बेदाग छवि वालों को ही वोट देने की ठान ले। बदलाव आपके हाथ में है। समय आ गया है सिस्टम में चेंज का। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं।


दैनिक जागरण

कठोर कानून की जरूरत

दुष्कर्म की घटनाओं में भयावह वृद्धि के साथ जिस तरह बच्चियों को भी बड़े पैमाने पर दुष्कर्म का शिकार बनाया जा रहा है उसे देखते हुए अब यह अनिवार्य हो गया है कि ऐसे वीभत्स अपराध के दोषियों को कठोरतम सजा देने के कुछ उपाय किए जाएं। इस मामले में और देर इसलिए नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानून को कठोर करने के जो उपाय किए गए थे वे पर्याप्त नहीं सिद्ध हुए। न तो दुष्कर्म के मामलों में कोई उल्लेखनीय कमी देखने को मिली और न ही बच्चियों के साथ होने वाली दुष्कर्म की घटनाओं में। उलटे इस तरह की घटनाएं बढ़ती ही दिख रही हैं। ऐसे में दुष्कर्म के अपराधियों पर लगाम लगाने के लिए जो कुछ भी संभव हो, उसे प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। दुष्कर्म और खासकर बच्चियों से दुष्कर्म के मामले समाज को शर्मिदा करने के साथ ही देश की छवि को भी खराब करते हैं। ऐसी घिनौनी घटनाएं सभ्य समाज के चेहरे पर एक दाग की तरह तो चस्पा होती ही हैं, आम लोगों में सिहरन पैदा करने का भी काम करती हैं। कठुआ में एक बच्ची से दुष्कर्म की जघन्य घटना ने ठीक ऐसा ही किया है। यह स्वाभाविक ही है कि कठुआ की घटना को लेकर देश में कुछ वैसा ही रोष-आक्रोश देखने को मिल रहा है जैसा निर्भया कांड के समय देखने को मिला था। यदि केंद्रीय समाज कल्याण मंत्रलय बच्चों को यौन अपराधों से बचाने वाले पोक्सो कानून की धाराओं में बदलाव लाकर 12 साल से कम उम्र की लड़कियों से दुष्कर्म के अपराधियों के लिए मौत की सजा के प्रावधान पर विचार कर रहा है तो यह वक्त की मांग भी है और जरूरत भी। 1बच्चियों से दुष्कर्म के अपराधियों को मौत की सजा संबंधी कानून हरियाणा, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बनाए जा चुके हैं। इन राज्यों ने ऐसे कानून इसलिए बनाए, क्योंकि बच्चियों से दुष्कर्म थमने का नाम नहीं ले रहे थे। चूंकि इन राज्यों जैसी स्थिति सारे देश में दिख रही है इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि समाज कल्याण मंत्रलय अपने विचार को अमल में लाने के मामले में तेजी दिखाए। बच्चियों से हैवानियत के सिलसिले को जारी रहते हुए नहीं देखा जा सकता। इसमें दोराय नहीं कि दुष्कर्मी तत्वों के मन में खौफ पैदा करने और उन्हें ऐसी सजा देने की जरूरत है जो सबक सिखाने वाली हो, लेकिन यह ध्यान रहे कि केवल कठोर कानून बनाने से उद्देश्य की पूर्ति होने वाली नहीं है। कठोर कानून बनाने के साथ ही पुलिस जांच और न्याय प्रकिया को दुरुस्त करने की भी जरूरत है। दुर्भाग्य से यह कार्य हमारे नीति-नियंताओं के एजेंडे में नहीं नजर आता और इसका उदाहरण है उन्नाव का मामला। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं जिनसे यह पता चलता है कि दुष्कर्म के मामलों की जांच में न्यूनतम संवेदनशीलता का भी परिचय नहीं दिया जाता। नि:संदेह कठोर कानून तभी प्रभावी सिद्ध होते हैं जब उन पर अमल होता है, लेकिन ऐसे कानून बनाते समय यह भी देखना होगा कि उनका दुरुपयोग न होने पाए, क्योंकि अपने देश में यह काम भी खूब होता है।


 Indian Express

A tipping point

The late Mufti Mohammed Saeed described the 2014 alliance between his People’s Democratic Party and the BJP as the coming together of the North Pole and South Pole. Saeed believed that this was a visionary partnership that would bring the resolution that Jammu & Kashmir has long yearned. He went so far as to imagine that the state would become the point of reconciliation between India and Pakistan. There is no way of saying what he might have thought today were he alive. But his son, Tassaduq Mufti, recently appointed minister in the J&K government led by his sister, Mehbooba Mufti, has described the PDP and BJP as “partners in a crime”, for which “a generation of Kashmiris would have to pay with their blood”.

A partnership envisioned as one that would bring Jammu and Kashmir together has ended up pulling the two apart even farther in separate communal directions. There has been no better illustration of this than the low Hindutva politics in Jammu, with the liberal use of the tricolour and invocations of “Bharat mata”, to denigrate the J&K police’s investigation into the unspeakably horrific rape of an eight-year-old child, for the reason that it was conducted by “Muslim officers from Kashmir” and led to the chargesheeting of Hindu men.


 The Times of India

Mission 2025
The four-day DefExpo 2018 showcasing India as an “emerging defence manufacturing hub” comes soon after the draft defence production policy’s target of achieving self-reliance in most weapon systems by 2025. These include fighter aircraft, warships, land combat vehicles, autonomous weapons, missiles, gun systems, small arms and surveillance equipment. Considering that imports meet 70% of defence needs currently the 2025 target is ambitious – some would argue so overly ambitious as to be irrelevant. Even as DefExpo displays a wide catalogue of indigenous products to prospective buyers, defence minister Nirmala Sitharaman’s statement that Indian armed forces cannot be compelled to buy indigenous weapons reveals gross shortfalls in achieving global standards.

Buyers will be circumspect towards weapons rejected by our armed forces or inducted after long years of testing. India is the world’s largest arms importer and the lack of enthusiasm among foreign firms for Make in India is not surprising. The private sector which thrives on surety and continuous flow of orders remains perplexed by the slow pace of weapons acquisition from drafting requirements to testing and signing contracts. With four defence ministers in as many years, the political signalling is no better with NDA than in UPA years under AK Antony.
As a result, India’s strategic heft suffers with ageing weapon systems imported from abroad. With just Rs 1.17 lakh crore in FDI until December 2017, Make in India’s failure has complicated efforts to build a military industrial complex. Without FDI, the target of Rs 1.7 lakh crore turnover in defence manufacturing by 2025, up from Rs 56,000 crore in 2016-17, can only be achieved with spending directed towards private companies and away from the public sector defence establishment comprising DRDO, defence PSUs and Ordnance Factory Boards. Having witnessed public sector sloth at close quarters, Modi government must repose faith in private enterprise and untangle bureaucratic red tape.


The New  Indian Express

Women And India’s New Cartography of Horror
No woman no cry/No woman no cry/Oh, my little sister/Don’t shed no tears…” Thus went the iconic Bob Marley’s words of assuagement, to a woman in the ghetto, gesturing at a better tomorrow around the corner. The only precondition is that the woman does not submit to fear or terminal depression, or resignedly accept defeat. For a land filled with upturned moustaches and masculinist mottos, it has again fallen upon the woman to stand up and look the horror of history in the eye—and force it to back off. And again, they have not failed history’s burden.

In Kathua, where the Western Himalayan foothills tumble down to meet the great plains, where the cherubic little Asifa became the face of something larger than she would have understood, it took a woman lawyer to stand up to a whole hostile phalanx, the local political/legal establishment. It is her courage that ensured the Supreme Court has taken up the matter, after upbraiding the local bar association for obstructing justice. Unnao, in central UP, is over 1,000 km from Kathua.

But the distance became immaterial last week as they were yoked together in India’s new cartography of horror. And in the fact of the woman not being just a victim of male violence, but the only real source of resistance to it. Here, a 17-year-old fought off hell as she insisted on an FIR being filed, losing her father in battle.

Our mythic lore may, at first glance, seem to be a compendium of stories about men fighting other men over women and territory—with an equivalence between the two forms of ‘property’. But look deeper and one feels other currents. At the moment of the deepest moral crisis in the Mahabharata, when Draupadi is being disrobed in full court, she is not stunned into paralysis. Rather, the strongest, most thorough-going critique of the male order unfolds then, voiced by her. “You have no rights over me and my body,” she tells Yudhishtira. “You have already lost your rights over yourself.” That is what today’s women are saying too.


The Telegraph

Birthday Blues
New India is proving its newness in more than one way. One of its chief features is its ability to turn every occasion into an opportunity for violence. The birthday of B.R. Ambedkar is traditionally an occasion for celebration. This year it is suffused with tension. The Union home ministry has directed the states to ensure that nothing untoward takes place today. Perhaps the government expects that such solemn concern would obscure the Bharatiya Janata Party’s role in the increased violence against Dalits, notably in the BJP-ruled states, ever since the party came to government in the Centre. Why should there be ‘untoward’ incidents instead of celebration if the government has been just and firm?

The Dalits’ bandh on April 2 had caused widespread violence that killed 11 people. The bandh was an expression of anger that had been building up since atrocities upon Dalits had intensified with the cow slaughter ban being rejuvenated. These hurts were aggravated by a government decision regarding quotas in teaching jobs, ceaseless victimization by upper castes and what Dalits saw as a dilution by the Supreme Court of the law against atrocities on them. While the government is presenting a virtuous front in its belated review petition to the court, the court’s remarks show that it was the government’s data about abuse of the law that led to the court’s decision.

The violence has not stopped. The divisive edge of Hindutva-garbed politics, propagated by the Rashtriya Swayamsevak Sangh and the BJP, works by intimidating selected castes and communities. That work of violence is carried out by local institutions and caste and sect foes that are protected by the ruling powers. Not just the Opposition but a Dalit member of parliament from the BJP too has said that Dalits are being tortured after the bandh in BJP-ruled Rajasthan, Uttar Pradesh and Madhya Pradesh, with houses being burnt and false cases being filed against them. This is a frightening parody of the law, where perpetrators can get away with anything.

Nothing better symbolizes how polarization is being institutionalized than the admission forms for schools in Haryana circulated by the state government. It seeks to know if the child’s parents are in “unclean jobs”. Accompanying this sequence, statues of Ambedkar are being vandalized, the most in UP. This spate of indirect violence was inaugurated by the destruction of Lenin’s statue by the usual ‘unknown miscreants’ in Tripura after the BJP victory there. For the BJP, however, Ambedkar cannot be dismissed as easily as Lenin just before 2019. The party needs to claim him to command the Dalit vote. The Ambedkar statue destroyed in Badaun, UP, was restored in a saffron coat, then painted over in blue as protests came. But the UP government’s decision to add Ramji to his name – that is how he signed the draft Constitution – is a less than subtle avowal of the party’s intentions. Nothing can be less celebratory than an ongoing tussle.

 

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