आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 12 अप्रैल, 2018

नवभारत टाइम्स

उपवास के रास्ते

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज एक दिन का उपवास करेंगे, हालांकि इस दौरान वह अपना सामान्य कामकाज निपटाते रहेंगे। निश्चय ही यह एक असाधारण घटना है। आप सत्ता में हैं तो लोग आपके ही खिलाफ अनशन, धरना, प्रदर्शन आदि करते हैं। इस तरह की प्रतिरोधात्मक कार्रवाई भारत ही नहीं, किसी भी देश के कार्यरत शासनाध्यक्ष ने कभी की हो, याद नहीं पड़ता। दरअसल प्रधानमंत्री इस बात से नाराज हैं कि विपक्ष ने संसद नहीं चलने दी। उसके इस रवैये के विरोध में उन्होंने यह कदम उठाया है। उनके साथ बीजेपी अध्यक्ष और पार्टी के तमाम सांसद भी उपवास करेंगे। सोमवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बीजेपी सरकार पर दलित और अल्पसंख्यक विरोधी होने का आरोप लगाते हुए एक दिन का उपवास रखा था। उनके साथ कई वरिष्ठ कांग्रेसी भी थे। हालांकि बीजेपी ने उपवास की घोषणा पहले से कर रखी थी और दोनों पार्टियों में शह-मात का खेल सा चल रहा है। इसे अगर अगले आम चुनाव के प्रचार अभियान का प्रारंभ बिंदु मान लें तो भी यह सवाल बचा रह जाता है कि अपने उपवास के जरिये मोदी जी क्या संदेश देना चाहते हैं/ क्या वह कांग्रेस का हृदय परिवर्तन करने के लिए उपवास कर रहे हैं/ रही बात संसद की कार्यवाही न चल पाने की, तो संसदीय प्रणाली में इसकी जवाबदेही सत्ता पक्ष की मानी जाती है। हर सरकार में एक संसदीय कार्य मंत्री होता है जो विपक्ष से संवाद करता है और संसद की कार्यवाही बेरोकटोक चलती रहे, इसके लिए दोनों पक्षों में यथासंभव तालमेल बनाए रखने की कोशिश करता है। संसद में मुद्दे उठाना और जनहित से जुड़े मुद्दों पर सरकार को घेरना विपक्ष की जिम्मेदारी है। लेकिन हाल के दिनों में यह देखा गया है कि सत्ता पक्ष प्राय: विपक्ष के सवालों को अपने ऊपर आरोप की तरह लेता है और उनका तथ्यपरक जवाब देने या जमीनी कार्रवाई करने के बजाय विपक्ष को ही घेरने में जुट जाता है। इस तरह मुद्दा पृष्ठभूमि में चला जाता है और मामला सरकार बनाम विपक्ष की तू-तू मैं-मैं तक सिमट कर रह जाता है। दूसरी तरफ कई बार विपक्ष भी किसी मुद्दे पर इतनी बुरी तरह अड़ जाता है कि कार्यवाही बाधित होती है। वैसे, पीएम की नाराजगी अपनी जगह, लेकिन हाल में संसद में सबसे ज्यादा हंगामा एआईडीएमके और वाईएसआर कांग्रेस के सांसदों ने काटा है, जिनकी सरकार के साथ नजदीकी जगजाहिर है। बहरहाल, दोषी कोई भी हो, संसद हर हाल में चलनी चाहिए। हंगामे की वजह से बजट जैसे निर्णायक महत्व के बिल बिना चर्चा के पास हो जाते हैं और जालसाज व्यापारियों के हाथों सरकारी बैंकों की दिनदहाड़े लूट पर कोई ठोस बात नहीं हो पाती। प्रधानमंत्री के उपवास से सबका ध्यान शायद इस समस्या की ओर जाए, लेकिन बेहतर यही होगा कि विपक्ष से संवाद बनाकर वह संसद की गरिमा बहाल करें।

 


जनसत्ता

दावों के बरक्स

उन्नाव में सामूहिक बलात्कार के एक आरोप के बाद उत्तर प्रदेश में जो स्थिति बनती दिख रही है, उसमें यही लगता है कि प्रशासन कानून के बजाय आरोपियों को बचाने की कोशिश में लगा है। इसमें पुलिस का अब तक जो रवैया रहा है, उससे साफ है कि आरोपों पर कार्रवाई करने के बजाय मामले को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है। सामूहिक बलात्कार के आरोप पर कोई कार्रवाई न होने से निराश पीड़ित लड़की ने मुख्यमंत्री आवास के सामने आत्मदाह करने की कोशिश की, तब भी पुलिस को संवेदनशील होने और अपनी ड्यूटी निभाने की जरूरत महसूस नहीं हुई!

इस मामले में कार्रवाई की मांग करने वाले लड़की के पिता की आरोपी विधायक के भाई और उसके साथियों ने बर्बरतापूर्वक पिटाई की। पर पुलिस ने मारपीट करने वालों के बजाय उल्टे लड़की के पिता को ही हिरासत में ले लिया। बाद में हिरासत में ही उसकी मौत हो गई। पहले उस पर भी परदा डालने की कोशिश की गई, लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत की वजह बेरहमी से पिटाई सामने आई।

अब लड़की के पिता की बुरी तरह घायल अवस्था में अंगूठा निशान लेते वीडियो और विधायक की धमकी वाले ऑडियो में जो तथ्य सामने आए हैं, उससे साफ है कि समूचे प्रकरण में पुलिस और आरोपियों की भूमिका संदिग्ध रही है। इससे पहले भी अस्पताल में बने एक वीडियो में मौत से कुछ दिन पहले लड़की के पिता ने अपने साथ मारपीट के मामले में विधायक के भाई का नाम लिया था।

मगर जैसा कि आमतौर पर देखा जाता है, शायद आरोपी के रसूख के असर में पुलिस को पीड़ित की शिकायत पर गौर करना जरूरी नहीं लगा और जब पिटाई में गंभीर चोटों की वजह से उसके पिता मौत हो गई तो अब मामले के तूल पकड़ने के डर से आनन-फानन में विधायक के भाई सहित कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है।

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने अखिलेश यादव सरकार पर अपराधों से निपटने में नाकाम रहने और लचर कानून-व्यवस्था को बड़ा मुद्दा बनाया था। पर सत्ता में आने के बाद इस मोर्चे पर भाजपा सरकार के अब तक के प्रदर्शन के ऐसा नहीं लगता कि उसके लिए कानून का शासन कोई अहम मसला है। अपराध पर काबू पाने के नाम पर मुठभेड़ों में हुई मौतों पर भी अब सवाल उठने लगे हैं।

इसके अलावा, उत्तर प्रदेश में छेड़छाड़, बलात्कार आदि अपराधों से महिलाओं की सुरक्षा के लिए बड़ी पहल करने का दावा करते हुए एंटी रोमियो दलों का गठन किया गया। मगर कुछ प्रेमी जोड़ों को गैरकानूनी तरीके से परेशान करने के अलावा उस दल की कोई खास उपलब्धि सामने नहीं आ सकी। खुद उत्तर प्रदेश में महिला सुरक्षा हेल्पलाइन के आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं का डर कम नहीं हो सका है।

उन्नाव मामले में आरोपी विधायक और उसके रिश्तेदारों सहित पुलिस की जो भूमिका सामने आ रही है, उससे साफ है कि महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने का भरोसा भाजपा के लिए शायद एक चुनावी नारा भर था। अगर उत्तर प्रदेश सरकार को लगता है कि वह अपराध के शिकार पीड़ितों को न्याय दिलाने के प्रति ईमानदार है, तो उसे पुलिस की कोताही के बावजूद अब तक सामने आ चुके तथ्यों के बाद इस मामले में आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई सुनिश्चित करनी चाहिए।


हिंदुस्तान

जुकरबर्ग की पेशी

जिसे उनकी अग्नि परीक्षा माना जा रहा था, उससे फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग बेदाग निकल आए। पिछले तीन दिन से अखबारों, खबरियां चैनलों और सोशल मीडिया पर इस तरह की तमाम अटकलें थीं कि कैंब्रिज एनालिटिका मामले में जकरबर्ग जब अमेरिका की संसदीय समिति के सामने पेश होंगे, तो उनसे किस तरह के सवाल पूछे जाएंगे और वे कैसे निरुत्तर हो जाएंगे? बेशक, कुछ सवालों के जवाब में वह निरुत्तर भी दिखे। जैसे पांच घंटे चली इस पूछताछ में एक सांसद ने उनसे पूछा कि क्या वह बताना चाहेंगे कि कल रात वह किस होटल में ठहरे थे? लंबी चुप्पी के बाद जकरबर्ग ने कहा कि नहीं, वह नहीं बताना चाहेंगे। इसके बाद भले ही कुछ कहा नहीं गया, लेकिन इशारा साफ था कि जब वह अपनी निजी जानकारी संसदीय समिति से साझा नहीं कर सकते, तो अपने उपयोगकर्ताओं की जानकारी व्यापारिक कारणों से क्यों साझा करते हैं? ऐसे कुछ सवालों को छोड़ दें, तो जकरबर्ग भी पूरी तैयारी से आए थे। उन्हें पता था कि मामला तकनीकी पेच में गया, तो वह फंस सकते हैं, इसलिए वह शुरू से ही माफी मांगने की मुद्रा में दिखाई दिए। उन्होंने कहा कि जो हुआ, उसकी जिम्मेदारी उन्हीं की है और उनका वादा है कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। उन्होंने यह भी कहा कि अगले एक साल में भारत समेत कई देशों में चुनाव हैं और वह पूरी कोशिश करेंगे कि फेसबुक उपयोगकर्ताओं की निजी जानकारी का इनमें दुरुपयोग न हो।
अमेरिकी संसदीय समिति के सामने इस पेशी से पहले तक माना जा रहा था कि फेसबुक का भले ही कुछ न बिगडे़, पर जकरबर्ग एक पस्त योद्धा की तरह बाहर आएंगे। अगर ऐसा होता, तो उनके व फेसबुक के लिए यह एक और झटका होता। जब से कैंब्रिज एनालिटिका मामले का खुलासा हुआ है, फेसबुक के शेयर लगातार लुढ़क रहे हैं, उसके बाजार पूंजीकरण में बड़ी गिरावट आई है। मगर बुधवार की इस पेशी के बाद उन्हें हाथोंहाथ विजयी घोषित कर दिया गया है। कोई उनके धैर्य की तारीफ कर रहा है, तो कोई उनकी माफी और उनके पछतावे में भविष्य के लिए अच्छे संकेत देख रहा है। बेशक, ये सारी चीजें अहम हैं, पर वे सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं, जो कैंब्रिज एनालिटिका मामले से उठे थे।
हम यह मान सकते हैं कि जो हुआ, उससे फेसबुक ने बहुत कुछ सीखा होगा। कैंब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक के उपयोगकर्ताओं की जानकारी को बडे़ पैमाने पर हासिल किया, अपने व्यापारिक हितों या यूं कहें कि अपने ग्राहकों के लिए राजनीतिक इस्तेमाल किया और फेसबुक ने चुपचाप इसे होने दिया। माना जा सकता है कि फेसबुक अब शायद भविष्य में ऐसा न होने दे। पर इसमें इस बात की गारंटी नहीं है कि लोगों की निजी जानकारी का फेसबुक अपने व्यावसायिक हित में इस्तेमाल नहीं करेगा, क्योंकि अंतत: इसी से उसकी कमाई होनी है। सबसे बड़ी समस्या फर्जी खबरों की है। फेसबुक फर्जी खबरों का सबसे बड़ा प्रसारक बनकर उभरा है, दूसरा बड़ा प्रसारक वाट्सएप है, जिसका मालिकाना हक भी फेसबुक के पास ही है। इन्हीं दोनों की बदौलत फर्जी खबर चंद मिनट में पूरी दुनिया में फैल जाती है। हालांकि यह ऐसी समस्या है, जिससे पूरी दुनिया और उसके सभी समाजों को निपटना होगा, लेकिन फेसबुक के सक्रिय सहयोग के बिना यह संभव नहीं है। क्या फेसबुक ऐसा करेगा?


दैनिक भास्कर

मुख्य न्यायाधीश को संदेह से परे मानने का मतलब 

असमंजस और अनिश्चितता की धुंध में घिरी न्यायपालिका की छवि को स्पष्ट करते हुए सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने मुख्य न्यायाधीश को ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ के निर्णय का संपूर्ण अधिकार तो दे दिया है लेकिन, इससे संदेह का वातावरण मिटता हुआ दिख नहीं रहा है। फैसला आने के तुरंत बाद वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा है कि यह सारा फैसला जल्दबाजी में लिया गया है और इसका प्रयास उनके पिता शांति भूषण की याचिका को बेअसर करने का है। यह फैसला अशोक पांडे की जनहित याचिका पर दिया गया है, जिसमें उन्होंने मांग की थी कि कौन-सा मुकदमा किस जज के पास जाए और किस तरह संवैधानिक पीठ का गठन किया जाए इस बारे में एक दिशा-निर्देश जारी होना चाहिए। यह विवाद उस समय से ज्यादा गरमाया हुआ है जब 12 फरवरी को न्यायमूर्ति चेलमेश्वर सहित चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश के इन अधिकारों पर आपत्ति की थी। उस प्रेस कॉन्फ्रेंस ने सुप्रीम कोर्ट की साख को झकझोर कर रख दिया था। तबसे अब तक सुप्रीम कोर्ट के भीतरी विवाद को निपटाने के लिए जजों के बीच कई दौर की बैठकें हो चुकी हैं लेकिन, मामला जस का तस अटका हुआ है। इस बीच अगले मुख्य न्यायाधीश के नाम को लेकर भी अटकलें तेज हैं। कुछ दिन पहले न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने के मार्ग में कोई बाधा नहीं डालेंगे। इसी के साथ उन्होंने यह आशंका भी जताई थी कि अगर बाधा डाली गई तो 12 जनवरी को उन लोगों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो आरोप लगाए थे वे सही साबित होंगे। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाम कॉलेजियम प्रणाली का शाश्वत विवाद अपनी जगह है ही। इन सबके बीच विपक्ष मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग की तैयारी भी कर रहा है। मौजूदा स्थितियों में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को स्वीकार्य करवाना एक कठिन चुनौती है कि मुख्य न्यायाधीश एक संस्था है और उस पर अविश्वास नहीं करना चाहिए। निश्चित तौर पर किसी संस्था के सफल संचालन के लिए उसे चलाने वाले व्यक्तियों पर भरोसा तो करना ही चाहिए लेकिन, न्याय को जरूरत से ज्यादा प्रमाणिक भी होना चाहिए। इसीलिए कहा भी गया है कि न्याय सिर्फ किया ही नहीं जाना चाहिए बल्कि वह होते हुए दिखाई पड़ना चाहिए।


दैनिक जागरण

पानी पर उग्र राजनीति

कावेरी जल विवाद को लेकर इंडियन प्रीमियर लीग के चेन्नई में होने वाले मैच अन्यत्र स्थानांतरित करने की नौबत आना दुर्भाग्यपूर्ण भी है और चिंताजनक भी। आइपीएल का कावेरी जल विवाद से कोई लेना-देना नहीं और हो भी नहीं सकता। समझना कठिन है कि यदि उग्र विरोध के चलते चेन्नई में आइपीएल के मैच नहीं होते तो इससे कावेरी जल विवाद सुलझने में मदद कैसे मिलेगी? आइपीएल का तो केंद्र सरकार से भी कोई लेना-देना नहीं। एक तरह से जल विवाद की खीझ आइपीएल पर निकाली जा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि राजनीतिक दलों की ओर से उन अनाम-गुमनाम संगठनों को उकसाया जा रहा है जो आइपीएल के विरोध के बहाने अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। यह अच्छा नहीं हुआ कि राजनीति में कदम रखने जा रहे अभिनेता रजनीकांत ने ऐसा बयान दिया कि कावेरी विवाद के रहते चेन्नई में आइपीएल के मैच होना शर्मनाक है। हालांकि उन्होंने पिछले आइपीएल मैच के दौरान चेन्नई में हुई ¨हसा पर नाराजगी जाहिर की, लेकिन ऐसा लगता है कि जो नुकसान होना था वह हो गया। यह पहली बार नहीं है जब राजनीतिक क्षुद्रता के कारण चेन्नई से में होने वाले आइपीएल के मैचों पर संकट मंडराया हो। इसके पहले श्रीलंका के तमिलों से भेदभाव को लेकर आइपीएल के खिलाफ तलवारें तानी गई थीं। बेहतर हो कि राजनीतिक दल एवं सामाजिक संगठन इस बुनियादी बात को समङों कि राजनीतिक मसलों को खेल के मैदान में नहीं ले जाया जाना चाहिए। यदि कावेरी जल विवाद के चलते आइपीएल के मैच चेन्नई में नहीं हो पाते तो यह न तो क्रिकेट के हित में होगा और न ही तमिलनाडु के। 1यह सही है कि कावेरी जल का मसला तमिलनाडु के लोगों के लिए एक भावनात्मक मामला है और इस मुद्दे पर केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप अपने कदम उठाने में देर नहीं करनी चाहिए, लेकिन यदि यह मान भी लिया जाए कि केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर अमल को लेकर हीलाहवाली दिखाई तो भी उसका गुस्सा आइपीएल पर निकालने का क्या मतलब? भले ही तमिलनाडु के राजनीतिक दल ऐसा प्रकट कर रहे हों कि कावेरी नदी का जल उनके लिए अपरिहार्य है, लेकिन सच्चाई यह है कि इस नदी के जल पर कर्नाटक समेत अन्य राज्यों का भी अधिकार है। यह वक्त की मांग है कि सभी राज्य सिंचाई के अन्य साधन एवं स्नोत विकसित करें। अच्छा यह होगा कि नदी जल बंटवारे को लेकर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होने वाले राज्य यह समङों कि नदियों पर केवल उनका ही अधिकार नहीं। यह पहली बार नहीं है जब किन्हीं दो राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर तनातनी सामने आई हो। कई राज्यों के बीच नदियों के जल के बंटवारे का मसला अदालतों के समक्ष लंबित है। ये मामले यही बताते हैं कि हम 70 सालों बाद भी किस तरह नदियों के जल के बंटवारे का कोई कारगर उपाय नहीं खोज सके हैं। इससे भी बुरा यह है कि रह-रह कर राज्यों के बीच तनातनी वैमनस्यता की हद तक बढ़ जाती है और कभी-कभी तो कानून एवं व्यवस्था के समक्ष गंभीर खतरे भी उत्पन्न हो जाते हैं।


प्रभात खबर

शासन पर सवाल

विधि-विधान से संचालित देश में ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’ की नीति तो नहीं ही चलनी चाहिए, परंतु उत्तर प्रदेश के एक भाजपा विधायक पर लगे बलात्कार के आरोप के सिलसिले में यही देखने को मिल रहा है.

पीड़िता ने अपनी फरियाद लेकर मुख्यमंत्री आवास के सामने गुहार लगाते हुए आत्मदाह की कोशिश की. आत्महत्या का यह प्रयास हताशा भरे रोष की अभिव्यक्ति था. लेकिन, सुनवाई तो दूर की बात, उस लड़की के साथ एक और भयानक अत्याचार को अंजाम दिया गया. उसके पिता को फर्जी मामलों में फंसाकर गिरफ्तार किया गया और हिरासत में जानलेवा मार-पीट की गयी, जिसके कारण उनकी मौत हो गयी. उस व्यक्ति के साथ बाहुबली नेता के इशारे पर कानून के रखवालों ने जो घृणित हिंसा की, उसके भयावह वीडियो देश के सामने हैं. मीडिया में चर्चा के बाद इस प्रकरण में जांच तो सरकार करा रही है, पर ऐसे संकेत साफ हैं कि सत्ता द्वारा उक्त विधायक और उसके अपराधी सहयोगियों को बचाने की कोशिश भी हो रही है.

ताकतवर जुल्म करता है, फरियादी को शिकायत करने पर सबक सिखाता है और किसी भी सजा के डर से बेखौफ होता है, लेकिन वह कहता फिरता है कि ‘कुछ लोग मेरे खिलाफ साजिश कर रहे हैं’. उत्तर प्रदेश के उन्नाव से जम्मू-कश्मीर का कठुआ बहुत दूर है. वहां आठ साल की बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के आरोपितों ने मामले को रफा-दफा करने के लिए राजनीतिक दबाव और रिश्वत का सहारा लिया. पुलिस का एक जांच अधिकारी खुद ही आरोपियों से मिल गया.

हद तो यह है कि आरोपितों के बचाव में राष्ट्रीय झंडे लेकर जुलूस तक निकाले गये और वकीलों के संगठन ने अदालत में आरोप-पत्र जमा करने में बाधा पहुंचाने की कोशिश की. ऐसे माहौल में जहां सरकार, निर्वाचित जनप्रतिनिधि, पुलिस और वकील ही पीड़ितों के न्याय के बुनियादी अधिकार की राह में अवरोध पैदा करें, इंसाफ की उम्मीद कहां बचती है! मामला उन्नाव का हो या कठुआ का- दोनों जगह एक-सी बात निकलकर सामने आती है.

हमारे सत्ता-तंत्र के भीतर बलात्कार शक्ति-प्रदर्शन की एक युक्ति है और इस शक्ति-प्रदर्शन से अगर दबदबा कायम रखने में मदद मिलती है, तो फिर जिम्मेदारी के अहम पदों पर बैठे लोग अपराध की तरफ से आंख मूंदे भी रह सकते हैं और उस पर पर्दा डालने के लिए अन्य संगीन अपराधों को भी अंजाम दे सकते हैं. शासन-प्रशासन, न्यायालय और समाज को आज खुद से यह सवाल पूछना होगा कि क्या सचमुच हम कानून के राज के अधीन हैं या फिर आपराधिक गिरोहों के रहमो-करम पर डरे-सहमे हुए जिंदा रहना ही हमारी हकीकत है.

मसला सिर्फ कुछ अपराधियों को सजा देने भर का नहीं है, आज कटघरे में हमारी पूरी शासन-व्यवस्था ही खड़ी है. उसे पीड़ितों के साथ हर आम नागरिक को जवाब देना है, जिसके मान-सम्मान के साथ खेलना ताकतवर लोगों का शगल बन गया है.


 देशबन्धु

उपवास और बंद की राजनीति

कांग्रेस और भाजपा के बीच 2019 के चुनावी मुकाबले से पहले उपवास का मुकाबला शुरु हो गया है। जिसमें पहला दांव कांग्रेस खेल चुकी है और अब भाजपा अपना दांव खेलने की तैयारी में है। प्रधानमंत्री मोदी धार्मिक व्रत करते ही हैं, अब उन्होंने राजनीतिक उपवास रखने का निर्णय भी लिया है। उन्हें पीड़ा है कि इस बार संसद का बजट सत्र व्यर्थ चला गया, तो वे इसका गम गलत करने के लिए उपवास पर बैठ रहे हैं, जिसमें उनके अनुयायी साथ दे रहे हैं। नरेन्द्र मोदी तो दिल्ली में अपने कार्यालय में काम करते हुए उपवास करेंगे, जबकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कर्नाटक में उपवास करेंगे। उन्होंने कर्नाटक का चयन क्यों किया, समझना कठिन नहीं है।

हेमामालिनी अपने संसदीय क्षेत्र मथुरा में उपवास करेंगी और गांधी जी की मूर्ति के सामने धरना भी देंगी। कांग्रेस ने भी राजघाट पर ही उपवास किया था। दरअसल भारत की आधुनिक राजनीति में उपवास गांधीजी का हथियार था। हालांकि गांधीजी केवल राजनीतिक कारणों से उपवास नहीं रखते थे। अगर वे अंग्रेजों की गलत नीतियों का विरोध करने के लिए अनशन करते थे, तो हिंदू-मुसलमानों की लड़ाई रोकने के लिए भी उपवास करते थे। साध्य प्राप्ति के लिए अगर साधन में खोट आ जाए तो उसका प्रायश्चित भी उपवास से करते थे। एक वाक्य में कहा जाए तो मन, वचन और कर्म तीनों की शुद्धि के लिए गांधीजी उपवास करते थे। अब ये सवाल आज के नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि वे केवल वोटशुद्धि के लिए उपवास करते हैं या उसके वृहत्तर मायने भी हैं।

कांग्रेस हो या भाजपा क्या इनके एक दिन के उपवास के प्रहसन से देश की गंभीर समस्याएं सुलझ जाएंगी। संसद सत्र बेकार चले जाने पर प्रधानमंत्री और अन्य सांसद अगर अब उपवास कर रहे हैं तो क्या इससे बीता हुआ समय वापस आ जाएगा? गंवाया हुआ समय फिर उपयोग में लाया जा सकेगा? इस उपवास से तो यह गारंटी भी नहीं मिलेगी कि आइंदा चाहे जो हो, हम संसद में व्यवधान नहीं होने देंगे। अगर सरकार को संसद में काम न होने की इतनी ही पीड़ा है, तो क्यों नहीं प्रधानमंत्री ने तब कोई कदम उठाया, जब सत्र चल रहा था। बात अकेले कांग्रेस के विरोध की नहीं है। टीडीपी, टीएमसी आदि के सांसद भी जो मांगें उठा रहे थे, जो सवाल पूछ रहे थे, तब भाजपा ने उन्हें सुनना जरूरी क्यों नहीं समझा? ऐसा तो है नहीं कि संसद सत्र पहली बार हंगामेदार रहा हो।

बीते कुछ सालों में तो संसद का मतलब ही हंगामे, विरोध का सदन हो गया है। इस स्थिति को सुधारने की पहल प्रधानमंत्री समेत अन्य दिग्गज नेताओं ने क्यों नहीं की? आज उपवास का खेल इसलिए खेला जा रहा है, क्योंकि चुनाव सामने है, जहां जनता को जवाब देना है। कमोबेश यही स्थिति दलित बनाम सवर्ण के मुद्दे की है। सदियों से हिंदू धर्म वर्ण विभाजन का शिकार हुआ है, जिसका लाभ गुलाम भारत में अंग्रेजों ने उठाया और आजाद भारत में राजनीतिकदलों ने। कई सौ सालों की प्रताड़नाओं, शोषण, गैरबराबरी की पीड़ा को थोड़ा कम करने के लिए, दलितों के लिए आरक्षण की जो व्यवस्था की गई, उसे भी सवर्णों के सामने गलत तरीके से पेश किया गया। नतीजा यह निकला कि आज सवर्णों का एक बड़ा तबका यह मानता है कि उनका हिस्सा कम करके दलितों को दिया जा रहा है।

आरएसएस के खुद के विचार आरक्षण पर डांवाडोल हैं, लेकिन दलितों को पुचकारना उसकी मजबूरी बन गई है। हकीकत यह है कि दलित हों या सवर्ण दोनों का ही हिस्सा सरकार की गलत नीतियों के कारण खत्म हो रहा है। सरकार रोजगार और शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं कर रही है, नौकरियां देने में उसने हाथ खड़े कर दिए हैं। इसलिए बहुत से नौजवान बेरोजगार हैं। दूसरी ओर निजी क्षेत्र अपनी शर्तों पर शिक्षा, रोजगार देते हैं, जिसमें लोककल्याण नहीं निजकल्याण का ध्यान रखा जाता है। निजी क्षेत्र की सुविधाओं का लाभ संपन्न तबका ही उठा पाता है। इसलिए दलित यहां भी पीछे रह जाते हैं। इस तरह सवर्ण और दलित दोनों वर्गों की युवा पीढ़ी हताशा, कुंठा का शिकार हो रही है। सरकार इस निराशा को दूर करने की जगह उनका ध्यान भटकाने में लगी है।

इसलिए भारत बंद, उपवास जैसे खेल चल रहे हैं। एससीएसटी एक्ट में बदलाव पर दलितों के 2 अप्रैल के भारत बंद पर हिंसा हुई, तो प्रचार किया गया कि दलितों ने हिंसा फैलाई, जबकि इसमें मरने वाले भी दलित ही ज्यादा है। इसके बाद आरक्षण के विरोध के नाम पर 10 अप्रैल को फिर भारत बंद हुआ। आरक्षण मुक्ति दल जैसे संगठनों ने इस बंद का आह्वान किया और कहने की आवश्यकता नहीं कि इसमें किस तबके के लोग शामिल थे। इस बंद में भी हिंसा हुई, लेकिन उसे मीडिया ने अधिक तवज्जो नहीं दी। गुजरात दंगों के वक्त क्रिया की प्रतिक्रिया का तर्क पेश किया गया था। जिसके बाद हिंदुओं-मुसलमानों के बीच विभाजन की खाई और गहरी हो गई थी। अब एक बार फिर वैसा ही प्रयोग किया जा रहा है। फर्क यह है कि विभाजन रेखा के एक ओर दलित हैं, दूसरी ओर सवर्ण। इनके बीच की खाई इस बार इतनी गहरी हो गई है कि इसे कम करने में बरसों लगेंगे, वह भी तब, जबकि गांधी जैसी ईमानदार नीयत वाला कोई नेता कोशिश करे। फिलहाल तो जनता मेरा उपवास और तेरा उपवास, मेरा बंद और तेरा बंद की रस्साकशी देखे।


अमर उजाला

सांविधानिक पद की गरिमा
रिटायर होने के बाद कोई पद ग्रहण करना या न करना किसी का व्यक्तिगत मामला है। कई बार रिटायर होने के बाद भी काम करना व्यक्ति की जरूरत बन जाता है, तो कई बार यह लोगों की रुचि का भी मामला होता है। लेकिन सांविधानिक पदों पर बैठे लोगों से यह अपेक्षा जरूर की जाती है कि रिटायर होने के बाद वे ऐसा कोई पद ग्रहण न करें, जिससे उनकी छवि पर असर पड़े या ऐसा लगे कि उनके योगदान के बदले उन्हें उपकृत किया जा रहा है। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों-न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ का फैसला सराहनीय है : इन दोनों ने ही कहा है कि रिटायर होने के बाद वे किसी भी सरकार से कोई पद ग्रहण नहीं करेंगे। निश्चित तौर पर ऐसा कहने वाले ये पहले जज नहीं होंगे। पहले भी एकाधिक जजों ने रिटायर होने के बाद सांविधानिक पदों की गरिमा का ख्याल रखते हुए सरकारी जिम्मेदारी लेने से परहेज किया। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि रिटायर होने के बाद सरकार से पद ग्रहण करने वाले न्यायाधीशों को उपकृत ही किया जाता रहा है। वस्तुतः रिटायरमेंट के बाद सरकार में इन्हें पद देने के पीछे इनके अनुभव और इनकी विशेषज्ञता का लाभ उठाने का मकसद भी होता है। लेकिन सांविधानिक पदों पर बैठे लोग अगर खुद यह फैसला लें कि वे कोई सरकारी पद नहीं लेंगे, तो उसका समाज में बेहतर संदेश जाता है। हालांकि यह संयोग ही है कि शीर्ष अदालत के ये दो वरिष्ठतम न्यायाधीश विगत जनवरी में रोस्टर के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों में शामिल थे। न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने तो हाल ही में जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी कर उच्च न्यायालय से सीधे संपर्क साधने को गंभीरता से लेते हुए प्रधान न्यायाधीश को चिट्ठी भी लिखी थी। उनके मीडिया में जाने की भी आलोचना हुई है; इसे उनके प्रधान न्यायाधीश न बन पाने के क्षोभ से जोड़कर भी देखा जा रहा है। इसके बावजूद यह नहीं माना जा सकता कि व्यवस्था से नाराज होने के कारण ही इन दो न्यायाधीशों ने भविष्य में कोई पद ग्रहण न करने की बात कही है। इसके बजाय उनके इस फैसले को सांविधानिक पद की गरिमा बनाए रखने के प्रयास के रूप में ही देखा जाना चाहिए।


राजस्थान पत्रिका

चंदे से चांदी
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) जैसी संस्था का धन्यवाद। देश की सवा सौ करोड़ जनता की आंखें खोलने के लिए। ये बताने के लिए कि हमारे देश के राजनीतिक दल चंदा उगाह कर किस तरह कमाई के मामले में औद्योगिक घरानों को चुनौती दे रहे हैं। एडीआर की ताजा रिपोर्ट से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को मिले राजनीतिक चंदे का खुलासा हुआ है। एक साल में भाजपा की ‘कमाई’ 81 फीसदी बढ़ गई। पिछले साल 570 करोड़ रुपए के मुकाबले इस साल 1034 करोड़ रुपए कमाए। रिपोर्ट ये भी बताती है कि देश पर सबसे अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस की कमाई 14 फीसदी कम हो गई है। खास बात ये कि भाजपा ने चंदे की कमाई में से खर्चे के बाद 324 करोड़ रुपए बचा भी लिए। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का दो-तिहाई अकेले भाजपा के खाते में गया। यहाँ ये महत्वपूर्ण नहीं कि भाजपा को ही सर्वाधिक चंदा क्यों मिला। सबको पता है कि औद्योगिक घराने और दूसरे बड़े व्यापारी सत्तारूढ़ दल को अधिक चंदा देते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि करोड़ों का चंदा देने वाले लोग अपने ‘निवेश’ की वसूली कैसे करते हैं। औद्योगिक घराने इसे चंदा नहीं मानकर निवेश मानते हैं। देश में लम्बे समय से चंदे के धंधे को पारदर्शी बनाने की मांग चलती आ रही है।
सरकारें आती हैं, बदल जाती हैं लेकिन चंदे का खेल है कि हर साल दिन दुना रात चौगुना फलता-फूलता जा रहा है। चंदे के पैसे से ये राजनीतिक दल परोपकार का कार्य नहीं करते। पैसे का इस्तेमाल होता हैं, चुनाव जीतने के लिए। नेताओं के लिए चार्टर प्लेन में पार्टी की पांच सितारा होटलों में होने वाली बैठकों पर चंदे के पैसों को पानी की तरह बहाया जाता है। शायद इसीलिए साल-दर साल राजनीतिक दलों की सेवा बढ़ती जा रही है। पिछले लोक सभा चुनाव में मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों समेत कुल 464 दलों ने चुनावी सफर में भाग्य आजमाया था। इनमें से चार सौ से अधिक दलों का तो खाता भी नहीं खुल पाया। भारत जैसे विकासशील देश के लिए क्या ये चीजें शोभा देती हैं। जिस देश के करोड़ों लोग आजादी के 70 साल बाद भी रोटी-कपड़ा और मकान के लिए तरस रहे हों, उस देश के नेता पांच सितारा जिंदगी जिएं। मेहनत के पैसों से नहीं, बल्कि चंदे के पैसों से। कांग्रेस से या भाजपा, वामपंथी दल हों अथवा सपा-बसपा। सब आम आदमी की बात करते हैं। लेकिन उनकी सुध लेने की परवाह किसी को भी नहीं। परवाह है तो अपनी कमाई बढ़ाने की। फिर उस कमाई को लुटाने की।


The Times of India

End the Impunity
The bare facts of the Unnao case are this: a young woman who alleged that she had been gangraped by BJP MLA Kuldeep Singh Sengar and his associates, then disregarded by the police, took her protest to chief minister Yogi Adityanath’s house, threatening to commit suicide there on Sunday. Sengar brazened it out, telling reporters: “They are people of a lower standing, this is a conspiracy against me.” Meanwhile Sengar’s supporters allegedly assaulted the girl’s father, grievously hurting him. Booked by the police under the Arms Act, he died in custody on Monday. This is a situation raising disturbing questions about Sengar’s position of power obstructing justice.

Although the Adityanath government came to power on the promise of ending jungle raj in UP, across districts like Shamli, Muzaffarnagar, Saharanpur and Baghpat,there have been over a thousand encounters – open extrajudicial shootings – since he became chief minister. Police claim this is what it takes to control crime but what happens if the criminal is within one’s own ranks, say an MLA cosy with the police? The government is also moving to roll back a rape charge against former minister Swami Chinamayanand and to withdraw cases relating to the Muzaffarnagar riots. These are now deemed to have been “politically motivated”. But when police lose accountability, the state’s motives also become suspect. The encounters feed lawlessness.
Now, after public uproar, the chief minister has ordered a special investigation team to probe the Unnao case, and Sengar’s brother has been arrested among others. But the MLA’s clout is overwhelming in Makhi village – he is a four time MLA, his wife and sister-in-law are district panchayat president and village pradhan respectively. The complainant is reluctant to return there fearing reprisal.

Of course guilt cannot be assigned pre-emptively, by the media, police or anyone else. It can only be established by due process. The Supreme Court has agreed to hear a plea for a CBI investigation, the NHRC has also taken notice. Until his guilt or innocence is proven, BJP should suspend Sengar from the party, to create the conditions for a fair probe. And chief minister Adityanath should fulfil BJP’s campaign promise to restore law and order to UP.


The Indian Express

Accomplice in Rape
Two revolting crimes have laid to rest all the claims of civilisational superiority that have become a leitmotif of political rhetoric. Not because the revenge rape and slaying of an eight-year-old nomad girl in Kathua, or the systematic exploitation of an 18-year-old woman in Unnao, and the fatal beating of her father, are extraordinary events. To be human is, among other things, to dream up horrific things to do to other humans. What sets these vile crimes beyond the pale is a common thread. In both cases, elements of the establishment — political interests, the bureaucracy, the police or lawyers — have sought to protect the aggressor. The Kathua case is particularly flagrant. A violent crime against a child was indifferently pursued by the police, until the aggrieved Bakharwal community began to protest. The influential community of lawyers has sought to prevent the filing of a chargesheet. And Hindu political interests in the state are trying to score by forging a communal instrument out of a sordid crime.
The matter in Unnao is on more expected lines. Impunity for a ruling party MLA is not really surprising in a dispensation which is focused on the personality of the muscular chief minister rather than reliable systems, and which thinks that promoting encounters is a good way to tackle the crime rate while also cutting down on the paperwork. But the manner in which the district administration was used to restrain the victim is certainly extraordinary. And the assault on her father by the perpetrator’s family is impunity at its most audacious. It is also surprising that the father was in judicial custody when he should have been hospitalised instead.

In both cases, administrations and the elites close to them seemed to be more than willing to move against inconvenient victims, or to go out of their way to help the perpetrators. Never before have government officials and political interests colluded to rally in support of rapists. All the goodwill earned by the BJP’s beti bachao campaign stands annulled by the response to these two crimes, one characterised by political impunity, the other by a readiness to communalise what is merely an unspeakable crime, in which a small girl was drugged, raped and killed. More significantly, India’s standing among the leading democracies is threatened, if the scales are weighed so heavily against victims of rape. The impression that Establishment impunity is out of control is pernicious, and these multiple fallouts may be contained only if the BJP, which has an overwhelming mandate in Uttar Pradesh and is a partner in Mehbooba Mufti’s government in Jammu and Kashmir, pushes for a proper investigation in UP and restrains communal lobbies in J&K.


The New Indian Express

Finally, Centre Gets It’s Cow Policy Right
In the old American West, there used to be what they called stock cars—or cattle wagons—on which longhorns and other breeds were transported across vast distances. Mortality was high. This was before humane treatment of animals became a category of thought, although many would see only the blackest of ironies in the idea of exhibiting kindness towards animals being reared on an industrial scale, only to be delivered to death on an equally industrial scale. Still, this fundamental difference in culture and ideology—between those who see meat as a natural part of human diet, and those for whom it is taboo—had a role to play in some fluctuations in India’s policy environment in recent times.

The role of policy in a democracy should be to harmonise differences. But the debate loomed large; it was almost as if cow vigilantism had become official. Going by reports from across India, the effects of curbs on transport were not happy. Farm incomes, already depressed, came under even more stress as farmers were unable to set in motion what had always been a key part of their micro economy: the resale of old cattle. This had terrible effects even in zones that were themselves not part of the beef map. And as prowling vigilantes drew blood again and again, even the transport of what was legal dried up. The ‘cow belt’ lived up to its name: huge numbers of abandoned cows started roaming the countryside, becoming a menace to farmers.

It’s a welcome if belated move by the Centre, therefore, to have diluted its own ill-conceived rules. The Prevention of Cruelty to Animals (Regulation of Livestock Markets) Rules, 2017, notified on 23 May 2017, now stands replaced with draft rules that do away with the clause on “restrictions on sale of cattle”. Cattle, including cows, can now be sold in animal markets, even for slaughter wherever it is legal. Even a government overprotective of ‘Hindutva’ sentiments must have realised that this is not against the Indian ethos. It is how India has always been.


The Telegraph

Remote Control
The autonomy of key institutions has made it to the endangered list in India. A shadow allegedly hangs over the media and even the judiciary — that of an authoritarian central government. Some state governments are emulating the Centre in this respect. The Trinamul Congress, which carps about the strong-arm tactic of the Bharatiya Janata Party at the Centre, seems to have taken a leaf out of its arch-rival’s book. It is being alleged, not without reason, that the TMC forced the state election commission to scrap a notification that had sought to extend the window for submitting nomination papers for the upcoming panchayat elections. There are reports that influential ministers had been dispatched to make the state election commissioner comply to the wishes of the ruling party. The state BJP had taken up the matter with the Supreme Court, which has asked the party to approach the Calcutta High Court. The latter stayed the commission’s decision to extend nomination proceedings.

The ironies — there are several — are evident. The state election commission has cited ‘legal infirmities’ to explain its volte-face. However, the law, as cited by the apex court in the Kishan Singh Tomar versus Municipal Corporation of the City of Ahmedabad case makes it abundantly clear that the commission, a constitutional body, is invested with the sole authority to conduct elections to panchayats and municipalities. Of course, the acrimony between the Trinamul Congress and the state election commission is not new. On an earlier occasion, a different commissioner, who refused to be intimidated, had dragged the government to the highest court, which had ruled in the commission’s favour. The need to preserve the independence of the commission cannot be overstated. The institution serves as a bastion to ensure that elections are free and fair. Elected dispensations thus seek to strike at the root of its autonomy to extend political control. A pliant election commissioner can help such a cause. Already, the nomination process in this year’s panchayat polls has been marred by charges of wanton violence against the TMC. The democratic ethic is undermined in several ways in a democracy. The intimidation of political opponents is perhaps the most visible ploy. The impunity enjoyed by governments to browbeat constitutional bodies must also be recognized as another means of defiling democracy.

 

 

 

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