आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 11 अप्रैल, 2018

नवभारत टाइम्स

एक और बंद

मंगलवार को मात्र आठ दिन के अंतर पर दूसरी बार किसी बड़े राजनीतिक दल या संगठन के नेतृत्व के बगैर ही ‘भारत बंद’ आयोजित किया गया। 2 अप्रैल के बंद से सबक लेते हुए सरकार ने कानून-व्यवस्था की मशीनरी को पहले ही सतर्क कर दिया था, फिर भी कई स्थानों पर हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाएं देखने को मिलीं। निश्चित रूप से मारपीट की खबरों से या बंद की सफलता-विफलता के दावों से इस घटना की अहमियत नहीं नापी जा सकती। जिस माहौल में और जिस अंदाज में ये दोनों बंद आयोजित हुए, वह इस बात का ठोस सबूत है कि समाज के अंदर गहराई में कोई खदबदाहट चल रही है। ऊपर से भले ही सब कुछ ठीक-ठाक लग रहा हो, पर यह बेचैनी कभी भी किसी बड़े विस्फोट का कारण बन सकती है। 2 अप्रैल के बंद की तात्कालिक वजह सुप्रीम कोर्ट का एक ऐसा फैसला बना, जिसे समाज के एक हिस्से ने संघर्षों के जरिए हासिल अपनी सुरक्षा के एक उपकरण से वंचित किए जाने के रूप में ग्रहण किया। उस बंद को इस फैसले के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में समझा जा सकता है। लेकिन 10 अप्रैल के बंद के पीछे तो ऐसी कोई वजह भी नहीं है। जो एक मुख्य नारा इस घटना से उभर कर आया, वह है- ‘आरक्षण हटाओ देश बचाओ।’ जाहिर है, पिछले बंद की तरह कोई सुरक्षात्मक सोच इसके पीछे सक्रिय नहीं थी। पिछड़े और दलित वर्गों को आरक्षण से वंचित करने की मांग के साथ खड़े होने का साहस समकालीन राजनीति की कोई भी धारा नहीं कर सकती। यानी देश के घोषित राजनीतिक विवेक में इस मांग के लिए कोई जगह नहीं है। इस बंद के पीछे कोई संगठन नहीं है, इस विरोध का कोई चेहरा नहीं है, लिहाजा सरकार के पास उसके साथ संवाद स्थापित करके समझाने-बुझाने की प्रक्रिया चलाने का विकल्प भी नहीं है। बावजूद इसके, एक बात तो तुरंत समझ में आती है कि इसके पीछे मुख्य भूमिका रोजगार की कमी से जूझते युवाओं की हताशा की है। इस हताशा से उन्हें उबारने और आम देशवासियों के बीच उम्मीद का माहौल बनाए रखने का काम सरकार का ही है। सरकार ही उन्हें इस बात का भरोसा दिला सकती है कि देश में जीविका के पर्याप्त साधन मौजूद हैं और देश का हर व्यक्ति यहां अपनी क्षमता के अनुसार सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकता है। युवाओं में यह भरोसा हो तो वे यह बात भी समझ जाएंगे कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में समाज के हर हिस्से का पर्याप्त प्रतिनिधित्व क्यों जरूरी है। इस समझदारी के उलट हम आज देश में ऐसे विमर्श का जोर देख रहे हैं कि आम युवाओं को रोजगार इसलिए नहीं मिल रहा क्योंकि उनकी नौकरी इस या उस समूह के हिस्से चली जा रही है। अफसोस कि सरकार न तो इस आत्मघाती विमर्श की कोई काट पेश कर पा रही है, न ही रोजगार के मोर्चे पर युवाओं को भरोसा दिला पा रही है।


जनसत्ता

पानी और आग

एक बार फिर कावेरी के मसले पर केंद्र को सर्वोच्च न्यायालय की फटकार सुननी पड़ी है। अगर दो या इससे अधिक राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे का विवाद हो, तो स्वाभाविक ही केंद्र से यह अपेक्षा की जाती है कि उसकी मध्यस्थता से सौहार्दपूर्ण समाधान निकाल आएगा। लेकिन यह उम्मीद न सतलुज के मामले में पूरी हो पाई है न कावेरी के मामले में। कावेरी के मामले में तो हद यह है कि सर्वोच्च अदालत के बताए समाधान पर अमल करने में भी केंद्र ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। गौरतलब है कि अदालत ने सोलह फरवरी के अपने आदेश में कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुदुच्चेरी के बीच कावेरी के पानी के बंटवारे पर निगरानी रखने के लिए केंद्र को कावेरी प्रबंधन बोर्ड गठित करने को कहा था।

इसकी समय-सीमा थी उनतीस मार्च। लेकिन केंद्र हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। और समय-सीमा निकल गई, तो अदालत में उसके आदेश की बाबत स्पष्टीकरण के लिए याचिका डाल दी। इस पर अदालत का कुपित होना स्वाभाविक था। आखिर स्पष्टीकरण चाहिए था, तो इसके लिए अनुरोध डेढ़ महीने गुजर जाने पर क्यों? याचिका में आदेश को और स्पष्ट करने के अनुरोध के साथ यह मांग भी की गई थी कि निगरानी तंत्र गठित करने के लिए तीन महीने का वक्त दिया जाए। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि तीन महीने की अवधि मांगने के पीछे क्या मंशा रही होगी।

कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी का पानी एक बहुत संवेदनशील मसला रहा है और इस पर दोनों राज्यों में जब-तब सियासी उबाल आता रहा है। इन दिनों एक तरफ तमिलनाडु में कावेरी प्रबंधन बोर्ड के गठन की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन और बंद आयोजित होते रहे हैं, तो दूसरी तरफ कर्नाटक में चुनावी माहौल है। केंद्र को यह डर सता रहा होगा कि बोर्ड के गठन की घोषणा से कहीं भाजपा को चुनावी नुकसान न उठाना पड़े; अगर तीन महीने की मोहलत मिल जाए तो यह खतरा नहीं रहेगा! वरना सर्वोच्च अदालत के सोलह फरवरी के आदेश में ऐसा कुछ नहीं था कि स्पष्टीकरण की जरूरत पड़े, और वह भी छह हफ्तों बाद! अदालत ने तथ्यों की विस्तृत पड़ताल के बाद दिए अपने आदेश में तमिलनाडु के हिस्से में थोड़ी-सी कमी कर दी, सिर्फ 14.75 टीएमसी फीट की, और इतनी ही बढ़ोतरी कर्नाटक के हिस्से में की, बेंगलुरु और मैसुरु में पेयजल संकट के मद्देनजर। फैसले के मुताबिक केरल और पुदुच्चेरी को पहले जितना ही पानी मिलता रहेगा। यह फैसला पंद्रह साल के लिए है।

अदालत ने तमिलनाडु के हिस्से में थोड़ी-सी कमी भले की हो, पर केंद्र को कावेरी प्रबंधन बोर्ड गठित करने का आदेश देकर जो तजवीज की है वह तमिलनाडु के हित में ही है। बोर्ड का गठन होने से यह बराबर सुनिश्चित होता रहेगा कि तमिलनाडु को उसके हिस्से का पानी मिलता रहेगा। यह फिलहाल नहीं हो पाया है तो केंद्र की निष्क्रियता या आनाकानी की वजह से। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र अब अदालत के आदेश को अमली जामा पहनाने के काम में जुटेगा। अदालत ने बोर्ड के गठन में देरी के लिए केंद्र को खरी-खोटी सुनाने के साथ ही बाकी पक्षों से यह उम्मीद जताई है कि वे फैसले के क्रियान्वयन में बाधा नहीं डालेंगे, और शांति बनाए रखेंगे। कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में बहुत बार आग भड़काई गई है। विवाद को और तूल देने तथा और लंबा खींचने के बजाय अब सर्वोच्च अदालत के फैसले को शांतिपूर्वक लागू करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए।


 हिंदुस्तान

सोशल मीडिया का बंद

बेहतर होगा कि इसे किसी सफलता या असफलता से न मापा जाए। यह ऐसा भारत बंद था, जिसके बाद सबकी आंखें ख्ुाल जानी चाहिए। अप्रत्यक्ष की अटकलें छोड़ दें, तो प्रत्यक्ष रूप से कोई भी संगठन, कोई भी राजनीतिक दल इसके समर्थन में सामने नहीं आया। किसी भी राजनीतिक गोलबंदी ने इसका आह्वान नहीं किया था। कहीं पोस्टर नहीं चिपके, कहीं बैनर नहीं लटके, न गली-गली इसका प्रचार करने वाले लाउडस्पीकर घूमे। इसके बावजूद कई जगहों पर बंद ने आंशिक ही सही, अपना असर दिखाया। दफ्तर, कारखाने और दुकानें वगैरह भले ही खुले रहे हों, लेकिन प्रदर्शन हुए, हिंसा और आगजनी हुई, झड़पें भी हुईं। कई शहरों में कफ्र्यू भी लगाना पड़ा। अगर सिर्फ सोशल मीडिया के जरिए इतना बड़ा कांड हो सकता है, तो यह चिंता की बात है। उस माध्यम से, जहां सच से ज्यादा बड़ा कारोबार फर्जी खबरों यानी फेक न्यूज का होता है। अभी तक हम यही मानते रहे हैं कि समाज-विरोधी ताकतें सोशल मीडिया के जरिए तनाव पैदा करती रही हैं। इसकी वजह से कुछ जगह दंगे होने की खबरें भी आती रही हैं। कभी सोशल मीडिया की ही एक अफवाह के कारण पूर्वोत्तर भारत के लोगों ने बेंगलुरु को खाली कर दिया था। लेकिन सिर्फ सोशल मीडिया के जरिए ही देशव्यापी स्तर के बंद की गोलबंदी कर ली जाए, ऐसा हमारे सामने यह पहला उदाहरण है। यह घटना जितनी चौंकाती है, उससे ज्यादा परेशान करती है।

एक फितूर की तरह सामने आया यह बंद शुरू से ही एक पहेली रहा। इसके लिए सोशल मीडिया पर तरह-तरह के जो आह्वान हो रहे थे, उनसे यह कभी स्पष्ट नहीं हो सका कि बंद का आयोजन एससी-एसटी ऐक्ट के खिलाफ हो रहा है, या फिर आरक्षण के खिलाफ। शुरू में इस ऐक्ट की बात कही जा रही थी, लेकिन बाद में आरक्षण पर चर्चा ज्यादा होने लगी। आरक्षण के मामले में ऐसा कुछ नया नहीं हुआ, जिससे यह माना जाए कि उसके खिलाफ लोग सड़कों पर उतरेंगे। दलित संगठनों के 2 अप्रैल के भारत बंद और फिर 10 अप्रैल की भारत बंद में बिहार के बाद सबसे ज्यादा घटनाएं मध्य प्रदेश और राजस्थान में सामने आई हैं। इन्हीं दो प्रदेशों में कुछ समय बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इससे साफ है कि जातीय तनाव की रोटियां सेंकी जाने लगी हैं। सोशल मीडिया पर संदेश एक से दूसरे और तीसरे, चौथे व्यक्ति तक होते हुए रातों-रात बड़े इलाके में पहुंच जाते हैं। लेकिन अगर ठीक तरह से पड़ताल हो, तो इसी रास्ते से षड्यंत्र के सूत्रधारों तक भी आसानी से पहुंचा जा सकता है। लेकिन क्या ऐसी    कोई पड़ताल होगी?

एक और चीज जिसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, वह है आरक्षण  विरोध का स्वर इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी बढ़ गया है। यह आमतौर पर उन नौजवानों की आवाज होती है, जो या तो बेरोजगार हैं या उम्मीद के अनुसार रोजगार नहीं हासिल कर सके हैं। जाहिर है, इसका नाता आरक्षण से उतना नहीं, जितना रोजगार की कमी से है, यह गुस्सा आरक्षण का विरोध बनकर फूटता है। उम्मीद है, सरकार इस मसले पर ध्यान देगी ही। लेकिन मंगलवार के बंद ने यह आशंका तो हमें दे ही दी है कि सोशल मीडिया की सूखी घास को भड़काने के लिए एक चिनगारी ही काफी है और डर यह है कि चिनगारियां न समाज-विरोधी ताकतों के पास कम हैं और न देश-विरोधी ताकतों के पास।


अमर उजाला

दुखद और शर्मनाक
उत्तर प्रदेश के एक भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर और उनके साथियों पर सामूहिक बलात्कार का आरोप लगाने वाली किशोरी के पिता की संदिग्ध हालात में हिरासत के दौरान अस्पताल में हुई मौत से साफ है कि इस मामले को किस तरह से प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है। इस मामले में शुरू से ही पुलिस की भूमिका संदिग्ध नजर आ रही है, जिसने किशोरी के पिता से मारपीट करने वाले विधायक के भाई अतुल सिंह और उनके साथियों पर कार्रवाई करने के बजाय किशोरी के पिता को ही गिरफ्तार कर लिया था! जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पुष्टि हो चुकी है कि उस लड़की के पिता के साथ बेरहमी से मारपीट की गई थी। उसका परिवार लगातार  यह आरोप लगा रहा था कि विधायक की ओर से उन पर दबाव बनाया जा रहा है, इसके बावजूद पुलिस ने इस पर ध्यान नहीं दिया। दूसरी ओर विधायक सेंगर का यह कहना कि किशोरी के परिवार का आपराधिक रिकॉर्ड रहा है, इस मामले की गंभीरता को कम नहीं कर देता। और फिर यदि कोई अपराधी है, तो उसे सजा देने का काम अदालतों का है। वास्तविकता यह है कि इस मामले में शुरू से ही पुलिस का रवैया गैरजिम्मेदाराना रहा है, जिसके कारण उस लड़की को अपनी फरियाद लखनऊ तक ले जानी पड़ी, जहां उसने मुख्यमंत्री निवास के समक्ष आत्मदाह करने की कोशिश की थी। पुलिस ने जरा भी संवेदनशीलता दिखाई होती और उसकी शिकायत पर शुरू से कार्रवाई की होती, तो यह नौबत नहीं आती। इसके उलट उस लड़की को पुलिस से किसी तरह की मदद नहीं मिलने के कारण अदालत का दरवाजा खटखटना पड़ा था। यह मामला राज्य की योगी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है, जिसने सत्ता में आने के साथ ही राज्य में कानून व्यवस्था में सुधार का वायदा किया था। इस दिशा में काम करते हुए पुलिस ने अपराधियों के खिलाफ मुठभेड़ की कार्रवाई भी की है, जिसे लेकर कुछ सवाल भी उठ रहे हैं। लेकिन इस घटना ने विपक्षी दलों को राज्य सरकार और भाजपा पर हमले का मौका दे दिया है, जिसने गायत्री प्रजापति से जुड़े इसी तरह के मामले में पिछली अखिलेश सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अच्छा हो कि अब इस मामले में और लीपापोती न हो और दोषी चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे बख्शा न जाए।


राजस्थान पत्रिका
सद्भाव लाएगा कौन?

‘मन की बात’ अगर सीधी ना की जाकर संकेतों में की न जाने लगे तो वही होगा जो इस देश का हो रहा है। जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग भी अगर कार्रवाई करने की जगह ज्ञान देने लग जाएं, तो देश का कल्याण कैसे संभव है? चंपारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे होने पर आयोजित समारोह में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी मन की बात की। बोले कि देश में विकास के साथ-साथ शांति और सद्भाव भी जरूरी है। समझदार लोग समझ गए कि नीतीश का इशारा रामनवमी के बाद बिहार में भड़की साम्प्रदायिक हिंसा की तरफ था। हिंसा में केद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के पुत्र को गिरफ्तार किया गया था। देश का हरेक बंदा नीतीश की बात से सहमत है। सबको विकास भी चाहिए और शांति सद्भाव भी। पर ये शाति और सद्भाव लाएगा कौन? नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हैं और राज्य में शांति स्थापित करने की जिम्मेदारी उन पर हैं। नीतीश को अपनी जिम्मेदारी पूरी करने से रोक कौन रहा है। यहां संदर्भ बिहार का भले ही हो सकता है लेकिन ये बात समूचे देश पर लागू होती है। देश आज साम्प्रदायिक और जातीय तनाव के दौर से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री के साथ-साथ देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्री शांति की बात कर रहे हैं। बावजूद इसके देश के सभी बड़े राज्य यूपी, बिहार, प. बंगाल, महाराष्ट्र और कर्नाटक हिंसा व तनाव की आग में जल रहे हैं। तनाव की लपटें हर जगह आग पैदा कर रही हैं। इन हालातों के बीच दलित और गैर दलितों के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही हैं। दो अप्रेल के बाद दस अप्रेल का बंद देश ने देखा। सवाल यह उठना स्वाभाविक है कि ऐसे बंद की जरूरत क्या है? न केंद्र सरकार और न राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारी संभाल रही हैं। नीतीश आज सत्ता के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठे हैं। केंद्र में भी उनका दल गठबंधन सरकार का हिस्सा हैं। तो फिर उन्हें शांति सद्भाव की बात क्यों करनी पड़ रही है? जाहिर हैं बिहार में सब कुछ नीतीश की मर्जी के अनुरूप नहीं हो रहा होगा। ऐसे में नीतीश के सामने एक ही रास्ता बचता है। मन की बात को घुमा-फिराकर करने की बजाय सीधी करें। बताए बिहार तनाव की लपटों से क्यों घिरा है। देश में भाईचारा स्थापित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए। ये वोटों के फायदे से अलग देश की एकता का सवाल है। ऐसे नाजुक सवालों से नीतीश पहले भी टकराते रहे हैं। उम्मीद है नीतीश ऐसी बात कहेंगे, जो एक वर्ग नहीं, बल्कि पूरे देश को पसंद आएगी।


दैनिक भास्कर

स्वच्छाग्रह ठीक है लेकिन सत्याग्रह को भी न भूलें

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोतीहारी में आयोजित महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह की समापन सभा को स्वच्छाग्रह में बदलकर न सिर्फ यह संकेत दिया है कि सरकार विकास के एजेंडे से पीछे नहीं हटने वाली है बल्कि समाज में बढ़ते विभाजन को भी उसी से पाटने की कोशिश करेगी। इसीलिए उन्होंने अपने 2014 के आम चुनाव के नारे ‘सबका साथ सबका विकास’ को दोहराते हुए कहा कि कुछ लोग तीव्र विकास से परेशान हैं और जन मन को जोड़ने की बजाय उसे तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। इस दौरान उन्होंने फ्रांस के सहयोग से चल रहे मधेपुरा के लोकोमोटिव कारखाने में बने 12000 हार्स पावर के इंजन का भी जिक्र किया, जिसने भारत को रूस, चीन, स्वीडन और जर्मनी की श्रेणी में पहुंचा दिया है। अपने जोशीले भाषण में मोदी का प्रयास अगले चुनाव के लिए अपनी सरकार का काम गिनाने के साथ ही एनडीए विशेषकर बिहार के उन नेताओं और दलों को एकजुट रखने का दिख रहा था, जिनके असंतुष्ट होने की खबरें आ रही हैं। इसके बावजूद प्रधानमंत्री देश की सामाजिक एकता और सद्‌भाव के सवाल से कन्नी काटते हुए दिखे जो इस समय बिहार समेत पूरे देश को बेचैन किए हुए हैं। संयोग से प्रधानमंत्री जिस समय मोतिहारी में शौचालय निर्माण, गंगा और मोतीहारी झील की सफाई का जिक्र कर रहे थे उसी समय दलितों के दो अप्रैल के बंद के जवाब में आयोजित सवर्णों के भारत बंद में सबसे ज्यादा हिंसा बिहार में ही हो रही थी। उससे पहले बिहार के भागलपुर समेत कई जिले सांप्रदायिकता की चपेट में आ चुके थे। जाति और धर्म के ये टकराव एनडीए को तोड़ रहे हैं। इसलिए सारी सदिच्छा के बावजूद मोदी की ये घोषणाएं तभी सफल हो सकती हैं, जब सामाजिक सद्‌भाव और सामाजिक न्याय का वातावरण बने। जाट आंदोलन, मराठा आंदोलन, भीमा कोरेगांव की हिंसा, गोरक्षा के बहाने गुंडागर्दी और फिर भारत बंद का उपद्रव देश को भीतर से खोखला कर रहा है। ऐसे में गांधी के सत्याग्रह को स्वच्छाग्रह में सीमित करने की बजाय गांधी सत्याग्रह के मूल उद्‌देश्य को समझना होगा। उनके लिए सांप्रदायिक सद्‌भाव बेहद जरूरी कार्यक्रम था और अगर आंबेडकर को भी उनके साथ जोड़ा जाए तो जाति उन्मूलन के बिना भारतीय समाज में शांति नहीं आने वाली है। इन चुनौतियों को दूसरों पर थोपने की बजाय प्रधानमंत्री को उनका मुकाबला करना ही होगा।


दैनिक जागरण

जीएसटी की रफ्त्कार

वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी के तहत 15 अप्रैल से पांच और राज्यों मे राज्य के भीतर ही माल ढुलाई के लिए ई-वे बिल सिस्टम लागू करने की तैयारी यह बताती है कि कर्नाटक में इस सिस्टम के अमल का प्रायोगिक परीक्षण सफल रहा। इसके बावजूद सरकारी तंत्र को इसके लिए सचेत रहना होगा कि पांच राज्यों में इस व्यवस्था के अमल में किसी तरह की बाधा न खड़ी होने पाए, क्योंकि तभी वह जल्द से जल्द अन्य राज्यों में ई-वे बिल सिस्टम लागू करने में समर्थ हो सकेगी। राज्यों के भीतर ही माल ढुलाई के लिए ई-वे बिल व्यवस्था को लागू करने की तैयारी इसका भी सूचक है कि एक से दूसरे राज्यों के बीच माल ढुलाई में इस व्यवस्था को लागू करने के सकारात्मक नतीजे हासिल हुए हैं। चूंकि ई-वे बिल सिस्टम का उद्देश्य माल ढुलाई के पुराने तौर-तरीकों के जरिये की जाने टैक्स चोरी को रोकना है इसलिए कारोबार जगत के लिए भी यह आवश्यक है कि वह पारदर्शी व्यवस्था का हिस्सा बने। कारोबार जगत से ऐसे ही सहयोग की अपेक्षा जीएसटी के अन्य नियमों के पालन के मामले में भी है, क्योंकि ऐसे प्रसंग सामने आ रहे हैं जो यह इंगित करते हैं कि जीएसटी की चोरी जारी है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कंपोजीशन स्कीम के जरिये व्यापक स्तर पर टैक्स चोरी की आशंका को देखते हुए जीएसटी काउंसिल ‘रिवर्स चार्ज मेकेनिज्म’ जल्द से जल्द लागू करना चाह रही है। उम्मीद है कि जीएसटी काउंसिल की आगामी बैठक में इस पर कोई सहमति बन जाएगी। यदि ‘रिवर्स चार्ज मेकेनिज्म’ अमल में आ जाता है तो यह टैक्स चोरी रोकने का एक और जतन होगा। विडंबना यह है कि ऐसे कुछ और जतन किए जाने की जरूरत महसूस की जा रही है और इसका कारण यही है कि कारोबार जगत का एक हिस्सा छल-छद्म से टैक्स बचाने से बाज नहीं आ रहा है। यह सही है कि जीएसटी का तंत्र अभी भी कई जटिलताओं से लैस है, लेकिन यह ठीक नहीं कि एक ओर जटिल प्रावधानों की शिकायत की जाए और दूसरी ओर टैक्स बचाने-छिपाने का काम भी किया जाए। ऐसा होगा तो फिर जीएसटी काउंसिल भी व्यवस्था के छिद्रों को भरने के लिए नए-नए उपाय तलाशने को विवश होगी, क्योंकि राजस्व हानि की अनदेखी नहीं की जा सकती। जीएसटी काउंसिल डाल-डाल तो टैक्स बचाने वाले पात-पात, ऐसा कोई माहौल कारोबार जगत के लिए ठीक नहीं। यह किसी से छिपा नहीं कि जुलाई-दिसंबर के बीच जीएसटी नेटवर्क में फाइल रिटर्न्‍स की छानबीन के दौरान यह संदेह उपजा कि कारोबारियों ने करीब 34 हजार करोड़ रुपये की टैक्स देनदारी छिपा ली। इसी तरह चंद दिनों पहले अप्रत्यक्ष कर एवं सीमा शुल्क बोर्ड ने देश भर में छापामारी करके सौ से ज्यादा प्रतिष्ठानों में चार सौ करोड़ रुपये की जीएसटी चोरी का पता लगाया। इन प्रतिष्ठानों ने जीएसटी वसूल तो लिया, लेकिन उसे सरकारी खजाने में जमा नहीं कराया। नि:संदेह जीएसटी को और सुगम बनाने एवं सही तरह से टैक्स दे रहे कारोबारियों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है, लेकिन इसी के साथ टैक्स चोरी की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की भी जरूरत है।


देशबन्धु

लोकतंत्र में न्याय का ऐसा तकाजा

उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी क्या अब अदालत का दायित्व भी खुद संभालने लगे हैं, क्या जज बनकर अब इंसाफ वे ही करेंगे? ये सवाल इसलिए कि उन्नाव सामूहिक दुष्कर्म मामले में जिस भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर पर पीड़ित परिवार ने आरोप लगाया है, उसे सोमवार को आदित्यनाथ योगी ने तलब किया था।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से राजधानी में मुलाकात कर विधायक महोदय ने अपनी सफाई पेश की। इसके बाद मीडिया से उन्होंने कहा कि यह उनके खिलाफ साजिश है। वह किसी भी जांच के लिए तैयार हैं। उनके ऊपर लगाए गए आरोप बेबुनियाद हैं। जबकि मुख्यमंत्री का कहना है कि मामले की जल्द से जल्द जांच कराकर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। यहां जल्द से जल्द का क्या मतलब है, समझ नहीं आ रहा। अगर यह मामला दो-चार दिन पहले का होता, और तब योगीजी तुरंत इंसाफ करने की बात कहते, तब तो उनकी न्यायप्रियता समझ में आती। लेकिन यह मामला तो पिछले साल जून का है। यानी भाजपा सरकार बनने के कुछ महीनों बाद ही भाजपा विधायक पर पीड़िता और उसके परिवार ने गैंगरेप का गंभीर आरोप लगाया था।

उन्नाव के माखी थाना क्षेत्र की रहने वाली पीड़ित युवती का कहना है कि कुलदीप सिंह सेंगर और उसके गुर्गों ने बंधक बनाकर कई बार रेप किया। कायदे से किसी युवती के ऐसे आरोप पर तुरंत कार्रवाई होनी चाहिए थी, आरोपियों के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज होना चाहिए था। लेकिन बेटी बचाओ का नारा देने वाली भाजपा सरकार में ऐसा नहीं हुआ। युवती के पिता और चाचा ने हिम्मत कर खुद ही अदालत में 156-3 के तहत अर्जी दाखिल की। बता दें कि किसी संज्ञेय मामले में अगर पुलिस एफआईआर दर्ज नहींं करती है, तो सीआरपीसी की धारा 156-3 के तहत शिकायती पक्ष अदालत में सुनवाई की अपील कर सकता है।

पीड़ित परिवार ने इस धारा का सहारा लिया यानी साफ है कि पुलिस ने उसकी शिकायत दर्ज नहीं की होगी। पुलिस ने विधायक महोदय पर तो कोई कार्रवाई नहीं की, अलबत्ता पीड़िता के पिता को इस 4 अप्रैल को जरूर कस्टडी में ले लिया, बताया जाता है कि इससे पहले 3 अप्रैल को कुलदीप सेंगर के भाई ने उन्हें पिटवाया भी था। 9 अप्रैल को पीड़ित युवती के पिता की पुलिस कस्टडी में ही मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट कहती है कि बेरहमी से मार के कारण पीड़िता के पिता की मौत हुई। हालांकि यूपी के एडीजी ला एंड आर्डर का कहना है कि बिना जांच के किसी भी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। तो साहब, जांच करिए तो सही।

लगभग एक साल से एक युवती अपने ऊपर हुए अन्याय के लिए इंसाफ की गुहार लगा रही थी, उसका परिवार तमाम धमकियों के बीच जिंदा रहने की कोशिश कर रहा था, उसके पिता को न जाने किस जुर्म में पुलिस हिरासत में ले लिया गया, जहां उनकी मौत हो गई, जबकि जिस पर आरोप लगाया गया, वह खुलेआम मुख्यमंत्री से मिलकर आता है और पुलिस के साहब कह रहे हैं कि जांच के बिना किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी।  समझ नहीं आता कि पुलिस और सरकार जनता की हिफाजत के लिए हैं या नेताओं की।

फिलहाल पुलिस ने कुलदीप सेंगर के भाई अतुल सिंह सेंगर को गिरफ्तार किया है, लेकिन इसके बाद मामले की जांच किस गति से आगे बढ़ेगी, इस बारे में क्या कहा जा सकता है? सरकार ने जांच के लिए एसआईटी का गठन कर लिया है। लेकिन उसकी उपयोगिता भी तभी मानी जाएगी, दोषियों को कड़ी सजा मिलेगी। अभी तो ऐसी कोई सूरत दिख नहीं रही, क्योंकि सत्तारूढ़ दल के विधायक पर आरोप है और उसने अदालत से पहले अपनी सफाई मुख्यमंत्री के दरबार में पेश की है। लोकतंत्र में तो इंसाफ का तकाजा ऐसा नहीं होना चाहिए, यह तो राजशाही, तानाशाही तरीका लगता है।


The Indian Express

Untenable Position
On Monday, Axis Bank announced in a stock exchange filing that the CEO of the bank, Shikha Sharma, who had been re-appointed for a fourth term, would leave by end December this year, well ahead of her proposed tenure until May 2021. The bank’s decision comes against the backdrop of the Reserve Bank of India’s concerns on approving a fresh term for the incumbent. Though the RBI hasn’t made public its reasons for doing so, reports suggest it had to do with bank’s mounting bad loans over the last few quarters. If that is indeed true, the early exit of the Axis Bank CEO would mean pinning of accountability on grounds of performance. Ironically, this comes at a time when questions are being raised by institutional investors on the issue of a conflict of interest or quid pro quo regarding ICICI Bank sanctioning a Rs 3,250-crore loan to the Videocon group in April 2012 and a transaction involving a trust controlled by Deepak Kochhar, the bank CEO Chanda Kochhar’s husband, prior to that. The board of ICICI Bank has backed the CEO, claiming there was no conflict of interest though she was a member of the credit committee that approved the Videocon loan.

Credit rating agency Fitch has now raised a red flag on the bank’s corporate governance: It has promised appropriate rating action if risks to the bank’s reputation and financial profile were to rise considerably. Fitch has warned that the CBI probe, which is underway, could undermine investor confidence in the bank, which has potential implications for funding costs and liquidity in an extreme scenario. The fact is the cloud over the potential conflict of interest of the CEO has already hurt the bank in terms of value erosion. The longer the issue festers, and with it a gradual loss of faith or trust, especially in the absence of the bank’s board providing greater clarity including on whether adequate disclosures had been made on the relationships of a corporate nature and that there were no breach of regulations or rules, greater the challenge for India’s largest private bank, including for raising capital.

While it has given a clean chit to Chanda Kochhar, the ICICI Bank board has not clarified on the broader issue — whether it has made a distinction between the interests of the shareholders and those of the management. A misalignment of such interests can dent the long-term prospects of the bank. The longer the board fails to address these issues, the more the CEO’s position will become untenable. What is troubling and disappointing in the case of both banks — Axis and ICICI — is that they were promoted by institutions without the baggage of external constraints being imposed on them, like in the case of state-run banks. Better board oversight and greater governance standards were expected of them.


The Times of India

Opportunity Beckons
Deteriorating trade ties between the US and China are bad for the world economy. But they also present India with opportunities to integrate more tightly into the high end dimension of cross-border economic activities. These opportunities stem from two important global trends. One, digitisation is disrupting traditional business models and making it easier for companies to split services across continents. Two, services by itself is becoming an increasingly important part of manufacturing, a phenomenon known as “servicification”. Put together, these trends present India with an opportunity to boost both economic growth and high value job creation, while compensating for the steady loss of ground of traditional outsourcing.

Over the last decade, an increasing number of transnational corporations have begun to locate global tech operations in India. This has led to the growing importance of global in-sourcing companies, or GICs, in the economic landscape. A significant number of GICs are using India’s information technology and managerial talent to set up operations in India. But other areas requiring skills are also in demand and it is showing up in terms of more R&D papers being generated from Indian operations of global corporations. Therefore, the availability of skilled talent, managerial personnel with wide exposure to international businesses and growing comfort with India have all helped.
The advent of GICs has been driven by US businesses, which presents India with an opportunity in the current global economic context. China is a manufacturing and now even a tech powerhouse, but with an increasingly fractious relationship with the US and Europe. The use of non-tariff barriers and dubious methods to get foreign firms to part with technology have made the outside world wary of it. India presents an attractive alternative. This trend should be strengthened through a judicious use of policy and executive action.

Bengaluru accounts for a little over a third of GICs. India needs to quickly upgrade its infrastructure to allow other cities to compete and also ensure that the country ranks high in global tech operations. Government must act to enhance India’s attraction to global businesses. Ongoing deliberations to reform the direct tax code need to focus on overcoming the country’s unfortunate reputation of complicated laws that often result in litigation. Simultaneously, India must focus on improving the quality of education. The rise of analytics and artificial intelligence certainly requires a workforce with higher order skills.


The Telegraph

Other Battles
The fight does not end in the playground for most sportswomen in India. In a country where cricket monopolizes the discourse on sports, those representing other kinds of games have to fight not just for recognition but also basic requirements such as better infrastructure. Women, as is usually the case, have to bear a double burden of discrimination. First, societal pressure makes it difficult for a woman to choose sports as a career. Apart from common hurdles like rudimentary training facilities and the lack of visibility, sportswomen have to fight for such things like pay parity and a chance to compete in international tournaments, which can be expensive. It is thus heartening to note that Indian sportswomen have made the country proud with their showing thus far in the Commonwealth Games. From weightlifting, shooting and boxing to table tennis, hockey and badminton, Indian women have drawn attention to sports that are as eclipsed from view as they. Even more encouraging is that women from the Northeast and from small towns – the public discourse is, usually, unaccommodating of these locations – have shone at the games. But would India give these female athletes the credit they deserve? It is often the case that they come in the limelight – momentarily – only after winning a medal. The ‘praise’, ironically, is not free of a patronizing undertone. No less than the prime minister had linked Sakshi Malik’s success in the Olympics in 2016 to the auspiciousness of the Rakhi festival.

The inspiring showing at the Commonwealth Games should be an occasion to examine the challenges that confront women athletes. Sexual harassment is allegedly commonplace; female coaches are few and far between. Basic necessities, like separate changing rooms, and modern training facilities are a luxury, especially for those hailing from the margins. The shortcomings are not limited to infrastructure alone. Gender insensitivity is integral to India’s sporting and institutions. Selection boards and associations are staffed with male bureaucrats whose understanding of both merit and sports is rather dim. It is not enough to call for greater investments from the private or the public sector, even though the Centre’s Khelo India initiative holds promise. Sports bodies must be reconstituted to make them representative. Greater representation of women in decision-making bodies can yet make a difference to sport and its practitioners in India.


The New Indian Express

Centre Cannot Sidestep Cauvery Any Longer
The Supreme Court’s fiat to draft a ‘scheme’ on the Cauvery water release mechanism by May 3 has put the Modi government between a rock and a hard place. In an attempt to avoid getting into the Cauvery muddle till the May 12 Assembly elections in Karnataka, where the BJP has high stakes, the Centre tried to put the ball in the SC’s court by filing a clarification petition on the regulatory mechanism. It cited competing claims by stakeholders and the history of violence around the Cauvery issue to justify fears of the ‘scheme’ vitiating the poll atmosphere in Karnataka.

Where it got it wrong was the filing of the clarification petition on the last day of the six-week deadline the SC had set in its February 16 verdict. Had it approached the apex court much earlier, the bench could possibly have taken a sympathetic view. “Why didn’t you come to us earlier if you had any confusion?” Chief Justice Dipak Misra roasted Attorney General K K Venugopal while hearing Tamil Nadu’s contempt petition against the Centre.

When Venugopal sought the court’s instruction on the structure of the monitoring board, recalling the clarification petition, the CJI snapped: “We don’t know. You implement our decree.” In other words, he said, don’t be a smart alec. Do your ground work and then we will judge. The court’s pointed attack made the clarification petition infructuous. Now that the SC has cracked the whip, the Centre cannot sidestep Cauvery any longer.

Also, since it feared violence by lumpen elements, one can safely infer the proposed scheme could touch sensitive nerve ends Karnataka may not be entirely happy with. So, the May 3 draft would bring the Cauvery bang in the middle of the election campaign and generate additional heat. That was not the situation the BJP wanted to find itself in.As for Tamil Nadu, CJI Misra assured it will get its rightful share while asking the state to maintain peace. But the proof of the pudding is in the eating. Till water actually starts flowing, it will keep its fingers crossed.

 

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