सत्येंद्र पीएस
दरअसल, गुजरात में पटेल समाज में फूट डाली जा चुकी है। हार्दिक की लड़की के साथ फोटो, आंदोलन से पैसे कमा लेने वाला जैसे चरित्र हनन और कांग्रेसी होने जैसे आरोप लग गए। जो आंदोलित थे वे शांत हो गए। समस्या वहीं की वहीं है। गुजरात में पटेल समुदाय का बचा खुचा खेत नरेंद्र मोदी सरकार ने उद्योगों को दे दिया। बिल्कुल वैसे ही, जैसे हरियाणा के जाटों का। जिनके पास थोड़ा बहुत खेत था, उसका मुआवजा मिला, पैसे खत्म हो गए। किसानों के बेटे बेटियों को इतना कौशल भी नहीं था कि वो कॉल सेंटर या प्राइवेट सेक्टर की जॉब्स पा सकें। ज्यादा मुआवजा पाने वाले तमाम किसानों से करोड़ों रुपये लेकर मॉल बनाने वालों ने एकाध दुकानें दे दीं, किसानों के बच्चों ने उसमें गुची, कैंताबिल के शोरूम खोले, मैकडोनाल्ड, केंटुकी की फ्रेंचाइजी ली। फ्रेंचाइजी लेने में 50 लाख से एक करोड़ गंवाया। इतने पैसे लगाने के बाद वे बर्बाद होकर सड़क पर आ गए। दुकान नहीं चली।
कुटीर उद्यम में पटेलों का कब्जा है। वह पहले से मर खपकर चलता था, नोटबन्दी और जीएसटी के बाद उसपर भी ताला लग गया। राजनीति में भी भाजपा ने पटेल (और जाटों की भी) बची खुची इज्जत छीन ली।
हार्दिक पटेल ने पाटीदार को रिजर्वेशन देने, किसानों का कर्ज माफ किए जाने, अपने सहयोगी अल्पेश कठेरिया को रिहा किए जाने की मांग रखी है।इनमे से एक रिहाई वाली मांग तो ऐसी है कि सरकार इस पर तत्काल विचार कर सकती है। किसानों की कर्जमाफी भी कोई बड़ी चीज नहीं है।
सरकार की 4 साल की नीतियों का परिणाम यह हुआ है कि बिजली क्षेत्र में करीब 2 लाख करोड़ रुपये बैंको का फंस चुका है। इसके अलावा व्यापार घाटा लगातार बढ़ा है। पिछले शुक्रवार को सरकार ने जो आंकड़े जारी किए हैं उसके मुताबिक प्रत्यक्ष कर में बढ़ोतरी उम्मीद से बहुत कम रही है। कारोबारी इस हाल में नहीं हैं कि वह कर दे सकें। इतने डूबे धन के बीच करोड़ों किसानों को अगर कर्जमाफी करके राहत दे दी जाए तो कोई खास आफत नहीं आने वाली है। खासकर ऐसे वक्त में, जब तमाम राज्य सरकारों ने अपने यहां कर्जमाफी कर दी है।
जहां तक आरक्षण का सवाल है, इस मामले में भाजपा आरएसएस ने हमेशा से गन्दी नीति अपनाई है और आग लगाने का काम किया है। जाट आरक्षण बहुत छोटे स्तर पर था, समाज के कुछ लोग ही इसकी मांग कर रहे थे उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आंदोलन को व्यापक बना दिया कि जाट समुदाय की मांग उचित है।
अब केंद्र सरकार कह रही है कि अगली जनगणना में ओबीसी गिने जाएंगे। वक्त की मांग यह थी कि जातीय जनगणना कर ली जाए। उससे यह साफ हो जाएगा कि किस जाति के कितने लोग सरकारी नौकरियों में हैं, कितने लोग पेंशन पाते हैं। यह भी पता चल सकेगा कि केंद्र और राज्य की कुल कितनी सरकारी नौकरियां हैं और इन नौकरियों से कितने लोगों का भला हो सकता है। सरकारी नौकरियों में टॉप लेवल पर किन जातियों का कब्जा है जो प्राइवेट सेक्टर को हैंडल करते हैं और वहां अपने लोगों को मोटे वेतन पर सेट कराकर उन्हें सरकारी नीतियों से कोयला, लोहा, पानी, रेत आदि आदि जैसे संसाधन मुफ्त में दिलाते हैं।
जाति जनगणना से निजी क्षेत्र में नौकरियों, कुटीर और लघु उद्योगों की संख्या का भी पता चल सकेगा कि देश में कितने लघु और कुटीर उद्योग हैं। भारत में आज तक यह भी नहीं जाना जा सका है कि स्वरोजगार कितने लोग कर रहे हैं? देश में कितने ठेले लगते हैं और पकौड़ा बेचने के क्षेत्र में रोजगार की संभावना है या पकौड़े की ओवर सप्लाई होने की वजह से वहां खरीदारों की कमी हो चुकी है!
मण्डल कमीशन लागू हुए 25 साल से ऊपर हो गए। कमीशन ने अपनी सिफारिश में कहा था कि तमाम अछूत और घुमंतू जातियों के छोटे छोटे जातीय समूह हैं जो अनुसूचित जाति और जनजाति की सूची बनाते वक्त छूट गए थे। उन्हें कमीशन ने ओबीसी सूची में डाल दिया और सिफारिश की कि सर्वे कराकर उन्हें अनुसूचित जाति या जनजाति में लिया जाए। लेकिन कुछ नहीं हुआ।
अब जरूरत है कि जातीय जनगणना कराई जाए और जांच लिया जाए कि जातीय गिरोहबंदी करके किन लोगों ने संसाधनों, सुख सुविधाओं पर कब्जा जमा रखा है। जो सुविधाओ से वंचित रह गए हैं उन्हें किस तरीके से सामान्य जिंदगी जीने का हक दिया जाए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। मंडल कमीशन पर इनकी लिखी किताब हाल में काफ़ी चर्चित हुई थी।