विकास नारायण राय
गोधरा अग्निसंहार अपील में अहमदाबाद हाई कोर्ट की खंडपीठ के हालिया फैसले ने किसी बड़े रहस्य से पर्दा नहीं उठाया जब उन्होंने घोषित किया कि 26 फरवरी 2002 के लोमहर्षक कांड को राज्य सरकार और रेल मंत्रालय की आपराधिक चूक ने संभव किया था. लिहाजा, ग्यारह दोषियों की फांसी को आजीवन कारावास की सजा में बदलने के साथ अदालत ने निर्देश दिया कि हर मृतक के वारिसों को राज्य दस लाख का हर्जाना दे.
याद कीजिये, 1989-90 में कश्मीर से आतंकित पंडितों का अमानवीय विस्थापन भी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के 1999 में दिए गये फैसले में कुछ इसी तरह, राज्य की जवाबदेही के परिप्रेक्ष्य में देखा गया था. आयोग ने अपने निष्कर्ष में उस दौर के आने में राज्य की निष्क्रिय भूमिका को आड़े हाथ लिया और उसे विस्थापितों को हर्जाना देने का आदेश पारित किया.
गोधरा के समय गुजरात राज्य की कानून-व्यवस्था के सर्वेसर्वा नरेंद्र मोदी नाम के मुख्यमंत्री और अमित शाह नाम के गृह मंत्री रहे जबकि रेल मंत्रालय के मुखिया होते थे फिलहाल उन दोनों के नए यार नीतीश कुमार. दोनों मामलों में न्याय का अगला स्वाभाविक चरण होना चाहिए था सम्बंधित राज्य संचालकों की कानूनी जवाबदेही तय करना. यहां हिंदुत्व की राजनीति आड़े आ गयी और न्यायपालिका बेबस हो गयी.
इसी तरह, घाटी में आतंकवाद के कुटिल निशाने पर आए पंडितों के कश्मीर से बदहवास पलायन के समय एक जगमोहन नामधारी नौकरशाह राज्य के गवर्नर होते थे और केन्द्रीय गृह मंत्री के पद पर आसीन थे मुफ्ती मोहम्मद सईद नामक कश्मीरी नेता. जगमोहन को हाल में आरएसएस ने मोदी की भारत सरकार से देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण दिलाया है. मुफ़्ती को आरएसएस ने कश्मीर का मुख्यमंत्री बना कर रखा और उनकी मृत्यु के बाद से उनकी बेटी महबूबा को. जवाबदेही की बात गयी भाड़ में!
मशहूर है, तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी को राजधर्म की याद दिलाई थी. जगमोहन को भी पंडितों के विस्थापन के बाद जल्द ही कश्मीर से हटना पड़ा, कभी न वापस होने के लिए. मध्ययुग के सामंती ज़माने में बेशक कल्पनातीत नहीं रहा होगा कि एक ओर जलता हुआ रोम था और दूसरी ओर बांसुरी बजाने में मगन सम्राट नीरो. लेकिन मोदियों और शाहों, जगमोहनों और मुफ्तियों से सवाल तक न किया जाना, भारतीय लोकतंत्र के स्तंभों, विशेषकर न्यायपालिका के कमजोर होने का लक्षण माना जाएगा.
मोदी और जगमोहन की उग्र छवि के चलते उनके हिंदुत्ववादी पैरोकारों में घोर रक्षात्मक प्रतिवाद का चलन रहा है. उनके अपराधी शासन को सवाल के घेरे में लाने पर लगता है जैसे गोधरा पीड़ितों और विस्थापित पंडितों को ही त्रासदी का जिम्मेदार ठहराया जा रहा हो. क्या ये दो अलग आयाम नहीं हैं? क्या मोदी और जगमोहन दोनों को अपनी गंभीर प्रशासनिक कमियों को ढंकने के लिए राज्य पोषित बदनाम हिंसा का सहारा नहीं लेना पड़ा?
किसी में भी इतनी समझ तो होगी ही कि हत्या, लूट और बलात्कार की लगातार धमकियों के सामने पूरी तरह विवश हो जाने पर ही कश्मीरी पंडितों ने अपनी पुरखों की धरती से पलायन किया होगा. यानी जब राज्य का पलायन पहले ही हो गया हो और उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया हो. राज्य का यही पलायन गोधरा में भी नजर आया, जहां इंटेलिजेंस रपटों और साक्षात तनाव के बावजूद, सुरक्षा स्थिति दृढ़ करने की सरकारी पहल नदारद रही. आतंक और गुंडागर्दी के खुले खेल में राज्य संचालकों की भूमिका पर सवाल उठने ही चाहिए!
हिंदुत्व की राजनीति अमानवीयता की भी राजनीति है. गोधरा के नृशंस प्रकरण को, जिसमें 58 स्त्री-पुरुष-बच्चों ने जान गंवाई, भाजपा ने चुनाव दर चुनाव भुनाया है. हालांकि तब भी मोदी की राज्य सरकार ने मृतकों के वारिसों को पहले घोषित मात्र दो लाख रुपया हर्जाना घटाकर एक लाख कर देना ही ठीक समझा था. यह इसलिए, क्योंकि गोधरा क्रम में संपन्न हुए गुजरात पोग्राम (जनसंहार) के सैकड़ों मुस्लिम मृतकों के वारिसों को एक लाख हर्जाना ही घोषित किया गया था.
पलायित कश्मीरी पंडितों की पीछे छूटी अचल संपत्ति को औने-पौने बिक्री से बचाने और उसे हड़पने पर उतारू तत्वों से सुरक्षित रखने के लिए राज्य सरकार ने 1997 में ‘माइग्रेंट इम्मूवेबल प्रोपर्टी एक्ट’ बनाया था. इसके अंतर्गत सम्बंधित जिलों के डिप्टी कमिश्नर कस्टोडियन बनाए गए थे. हालाँकि, एक्ट पर अमल की जमीनी सच्चाई, अटल राज से आज मोदी राज तक, एकदम विपरीत रही है. न केवल औने-पौने बिक्री नहीं रुकी, न केवल जमीनों का हड़पना चलता रहा, बल्कि स्वयं सरकारी विभागों ने कितनी ही ऐसी जमीनों पर बिना मालिकों की अनुमति के भवन बना लिए हैं.
शासनकर्ताओं की आपराधिक निष्क्रियता एक दिन की देन नहीं होती. इसके पीछे उनकी वर्षों की षड्यंत्रकारी सक्रियता का बड़ा हाथ होता है. बाबरी मस्जिद विध्वंस में कल्याण सिंह और नरसिम्हा राव की राजनीतिक जवाबदेही पर खासी बहस हुई होगी पर उनकी आपराधिक चुप्पी की जवाबदेही पर शायद ही. 1984 के सिख संहार को एक दिन का प्रधानमंत्री राजीव गांधी नहीं, वर्षों का इंदिरा-जैल सिंह संचालित हिन्दू-सिख ध्रुवीकरण उकसा रहा था.
तर्क दिया जाता है कि 19 जनवरी 1990 की रात शुरू हुये पंडितों के विवश पलायन के लिए जगमोहन को जवाबदेह कैसे कहा जा सकता है जबकि उसे गवर्नर लगे अभी एक दिन ही हुआ था. क्या सचमुच? जगमोहन पहले अप्रैल 1984 से जुलाई 1989 तक कश्मीर का गवर्नर रह चुका था और केंद्र की कांग्रेसी सरकार के इशारे पर राज्य में कठपुतली लोकतंत्र के रास्ते पर चलते हुए, आतंकी अलगाववादियों की जमीन को पर्याप्त खाद-पानी पहुंचा चुका था. दिसंबर 1989 में मुफ़्ती की बेटी के अपहरण की पृष्ठभूमि में उसे दोबारा गवर्नर लगाया गया. लिहाजा, 19 जनवरी की जगमोहन की निष्क्रियता एक दिन की नहीं बल्कि पांच वर्षों की आपराधिक सक्रियता का विस्तार थी.
भारत में लोकतंत्र की सेहत के लिए, हिंदुत्व राजनीति के समीकरण में फिट बैठने वाले प्रकरणों का लेखा-जोखा बताएगा कि इन मामलों की पटकथा प्रशासनिक अकर्मण्यता की स्याही से ही नहीं, शासकों की ‘सक्रिय’ निष्क्रिय कलम से भी लिखी मिलेगी. इस वर्ष कश्मीरी पंडितों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पलायन से जुड़े आपराधिक आयामों की जांच का आदेश देने से इनकार करने में बोगस तर्क का सहारा लिया कि 27 साल बाद सबूत मिलना संभव नहीं. जगमोहन को पद्म विभूषण देने वाली मोदी सरकार स्वयं भी जांच का आदेश दे सकती है, बशर्ते यह कवायद हिंदुत्व की राजनीति को माफिक आये. भविष्य में, जब भी गोधरा कांड की अपील सुप्रीम कोर्ट में सुनी जायेगी, एक बार पुनः शासकों की जवाबदेही की बॉल न्यायपालिका के पाले में होगी.