घाट घाट का पानी : मेरी पहली फिसलन


बर्लिन की मेरी कहानियों में फ़िसलने की कहानियां भी शामिल हैं.

बनारस में अपना ज़माना आम तौर पर सिनेमा हॉल के अंधेरे में ब्रेल पद्धति से फ़िमेल ऐनाटोमी के अध्ययन का ज़माना होता था, जीवन की कड़ी वास्तविकता का परिचय पाने के लिये मुझे 17 साल की उम्र तक इंतज़ार करना पड़ा था. उसके बाद भी हालत यह थी कि जीने और मरने दोनों के लिये नाकाफ़ी. 26 साल की उम्र में जब मैं बर्लिन पहुंचा तो दो उम्मीदें लेकर : सुना था कि जर्मन लोग पानी के बदले बियर पीते हैं और मैं इस आदत के समाजवादी संस्करण में सिद्ध होने के लिये बेताब था. दूसरी बात यह थी कि पता नहीं कैसे मेरे मन में यह बात बैठ गई थी कि यूरोप की, ख़ासकर समाजवाद में पली युवतियां आज़ाद खयालों की होती हैं, और मैं औरतों की आज़ादी का सिर्फ़ हिमायती ही नहीं हूं, उसे पसंद भी करता हूं. तब भी करता था. इस तरह मेरे मन में उम्मीदें उछल-कूद मचा रही थी कि हॉर्मोन की खुराक से फलते-फूलते पौधे की अब क़ायदे से सिंचाई होगी.

ख़ाक़ सिंचाई होगी ?

39 साल पहले के एक 26 साल के युवक की मानसिकता को पकड़ पाना और उसका बखान आसान नहीं है. फिर भी कोशिश करता हूं – इस जोखिम के साथ कि आज के युवक-युवतियों को वह युवक पोंगापंथी और बेहद मर्दवादी लग सकता है. अगर ऐसा लगता है तो यह बिल्कुल सही आकलन होगा. बात यह है कि युवतियां तो आज़ाद खयालों की थी, लेकिन यह बंदा अपनी कुंठाओं में ग्रस्त था. मैं जानता था कि कभी न कभी जीवन में पवित्र और शाश्वत प्रेम आएगा, लेकिन फ़िलहाल मैं उसके लिये बेचैन नहीं था. मुझे महज युवतियों का सान्निध्य चाहिये था और अगर मौक़ा मिले तो सेक्स, यानी साफ़ और सपाट लफ़्ज़ों में अपने नैतिक मापदंडों के अनुसार मैं ग़लत काम करना चाहता था. यह ज़रूर है कि देश में उस उम्र तक दो-चार बार प्यार हो चुका था, जिसका मतलब था हाथ पकड़ना या उससे कुछ ज़्यादा. देश छोड़ते समय किसी पर दिल भी आ गया था, लेकिन फ़िलहाल वह पवित्र भावना दिल के एक बंद दराज में बंद पड़ी थी.

लेकिन व्यवहारिक समस्यायें कम नहीं थी. पहली बात कि मुझे जर्मन नहीं आती थी और यह कतई पता नहीं था कि जर्मन न आना कोई समस्या ही नहीं है. दूसरी बात कि मैं नवंबर के अंत में बर्लिन पहुंचा, अगले ही दिन से दफ़्तर जाना शुरू किया. साढ़े चार बजे तक ड्युटी, और उसके बाद यूरोप के जाड़े का अंधेरा. दफ़्तर में आस-पास नज़र दौड़ाने पर पता चला कि मेरी उम्र की अधिकतर युवतियां या तो शादीशुदा हैं या किसी से बंधी हुई, और शादीशुदा हो या अनब्याही – आधे से अधिक मां बन चुकी थी. मैं जिस भवन में रहता था, वहां 16 मंज़िलों में 240 एक कमरे वाले फ़्लैट थे, यानी अधिकतर अकेले रहने वाले युवक-युवतियां, और उनमें से आधे विदेशी. इनमें से काफ़ी अंग्रेज़ी बोलने वाले थे, लेकिन अभी तक इन अनुकूल परिस्थितियों से वाकिफ़ नहीं हुआ था. एक परेशानी यह भी थी कि मेरे कपड़े अभी तक यूरोपीय सामाजिकता के अनुरूप नहीं थे. हालांकि स्कूली पढ़ाई के दौरान ही गांधी की आत्मकथा पढ़कर मैंने तय कर लिया था कि कभी अगर यूरोप जाने का मौक़ा मिले, तो अपनी पोशाक और कांटा-चम्मच चलाने के बारे में सोचे बिना बोदलेयर और रिलके की कविता के बारे में बात करूंगा, लेकिन बाहर निकलने पर अगर जाड़े से ठिठुरना पड़े, तो रिलके भी मदद के लिये सामने नहीं आते हैं.

उन्हीं दिनों हाउस कमेटी की ओर से फ़ाशिंग या कार्नेवाल की एक पार्टी का आयोजन किया गया था. बगल के फ़्लैट में रेडियो में अंग्रेज़ी विभाग में काम करने वाले आयरिश युवक नायल और उसकी स्कॉटिश-जर्मन प्रेमिका जेनी से दोस्ती हो चुकी थी, उनकी सलाह पर घर में पहनने के लिये लाये गये पैजामा-कुरते के साथ लुंगी को पगड़ी बनाकर और किसी तरह सिर में बांधकर जब यह बंदा पार्टी में पहुंचा, तो कम से कम कुछ लोगों को लगा कि कोई महाराजा आ गया है. बियर के लिये काउंटर बना हुआ था, जहां सस्ते में बियर मिल रही थी. पहली बार मैं खुला, लेकिन कितनी देर तक यह याद नहीं है. इतना पता है कि अगले दिन, यानी शनिवार की सुबह मैं अपने फ़्लैट में ही बिस्तर पर (अकेले) लेटा हुआ था.

इस पार्टी के एक हफ़्ते बाद शुक्रवार को दफ़्तर के बाद सूपरमार्केट से खरीदारी करते हुए घर पहुंचकर चाय के लिये पानी चढ़ाया था कि कॉलिंग बेल बजने की आवाज़ सुनाई दी. शायद नायल या जेनी है, मैंने सोचा. दरवाज़ा खोला, तो जेनेवियेव खड़ी थी, फ़्रांस से आई कम्युनिस्ट युवती, विश्वविद्यालय में पढ़ा रही थी, फ़ाशिंग की पार्टी में परिचय हुआ था. उसने मुझसे कहा कि शाम को जर्मन कलाकार कैथे कोलवित्ज़ के स्थापत्य पर एक व्याख्यान होने जा रहा है, वह जा रही है. अगर मैं जाना चाहूं तो चल सकता हूं. आधे घंटे में निकलना है. मैंने हामी भर दी.

…….

अगली सुबह जब आंखें खुलने को हुई, तो सबसे पहले याद आया कि आज शनिवार है, दफ़्तर नहीं जाना है. ढांढस का अहसास हुआ, क्योंकि सिर भारी लग रहा था. धीरे-धीरे आंखें खोली तो पता चला कि एक अनजान बिस्तर में, एक अनजान कमरे में हूं, हालांकि कमरा मेरे फ़्लैट जैसा ही था. शाम की घटनायें मन में तैरने लगी…

उन दिनों मुझे पता भी नहीं था कि कैथे कोलवित्ज़ कौन थीं. व्याख्यान सुनने के बाद भी जानकारी नहीं बढ़ी क्योंकि वह जर्मन में था. उसके बाद श्रोताओं के सवालों की बारी थी. जेनेवियेव ने अपने बैग से एक सिगार निकालकर सुलगाया (उस ज़माने में सिगरेट-बीड़ी पीने के नियम काफ़ी ढीले थे). एक देखने लायक सीन – एक पांच फीट की युवती, साथ में साढ़े पांच फीट का एक दाढ़ीवाला भारतीय युवक और युवती के होठों पर 6 इंच का सुलगता सिगार. मैं बुद्धिमान की तरह सवाल-जवाब सुनते हुए अपनी दाढ़ी खुजलाता रहा – यह क़ायदा मैंने एक छात्र नेता से सीखा था, जिन्हें हम बनारस के कार्ल मार्क्स कहते थे.

खैर, कार्यक्रम से बाहर निकलने के बाद जेनेवियेव ने कहा कि थोड़ा पैदल चलते हुए अगले स्टेशन से मेट्रो लिया जाय. मेरी किस्मत से ठंडक उस शाम थोड़ी कम थी, मैं उत्साह दिखाते हुए राज़ी हो गया. रास्ते में मैंने बताया कि कोलवित्ज़ के बारे में कुछ नहीं जानता हूं. उसे अचरज हुआ कि फ़्रांसीसी कवियों के बारे में जानता हूं, लेकिन कोलवित्ज़ के बारे में नहीं. फिर बोली – मैं तो भारत के बारे में कुछ नहीं जानती हूं. टैगोर का सिर्फ़ नाम सुना है. फिर उसने कहा – मेरे कमरे में आज वाइन नहीं है. मेरी बुद्धि अब काम करने लगी थी, समझ गया कि मेरे साथ वाइन पीना चाहती है. मैंने कहा – मेरे कमरे में भी नहीं है, लेकिन किसी पब या कैफ़े में चलते हैं. उसने कहा कि बेहतर होगा कि एक बोतल ख़रीद ली जाय. वाइन की बोतल लेकर हम दोनों उसके फ़्लैट में पहुंचे. ज़ाहिर है कि उसके बाद मैंने ही पहल की थी, लेकिन सिर्फ़ पहल ही. फिर उसने जो चाहा, वही हुआ.

खैर, अब नशीली रात नहीं, खुमारी की सुबह थी. जेनेवियेव दो मग में कॉफ़ी लेकर आई, काली कड़ी कॉफ़ी, जिसकी आदत अभी नहीं बनी थी. कॉफ़ी पीते-पीते बात होती रही – ब्रेष्त, ईरान और नाटो के मिसाइल निर्णय के बारे में. उसके लिये यह कोई विषय ही नहीं था कि अभी-अभी हम दोनों एक जिस्मानी रात गुजार चुके थे. सब कुछ इस हद तक मामूली समझना – मुझे यह कुछ अजीब सा लग रहा था. जब मैं जाने लगा, तो अगली बार मिलने का कोई वादा भी नहीं हुआ. हां, जब मैं जाने लगा, तो उसने मुझे चूमा ज़रूर.

उस रात के बाद जेनेवियेव दो बार मेरे फ़्लैट में आई थी, मैं भी एक बार उसके फ़्लैट में गया था. लगभग तीन-चार हफ़्ते बाद जब एक शाम मैंने उसके फ़्लैट का बेल बजाया, तो एक बड़े तौलिये में लिपटी जेनेवियेव ने दरवाज़ा थोड़ा सा खोलकर झांका. मुझे देखकर झेंपते हुए उसने कहा – सॉरी उज़ुल, अभी गेस्ट हैं, बाद में आना. मुझे फ़ोन कर लेना.

उसके बाद हम कभी अकेले एक-दूसरे से नहीं मिले. पता नहीं क्यों.


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