घाट घाट का पानी: गुरुजी के साथ एक शाम और अन्‍य मुलाकातें

अगर खोने का डर न हो तो ऐसे दोस्त ही ज़िंदगी को जीने लायक बनाते हैं. बनाते हैं, फिर खो जाते हैं

क्रिस

मेट्रो से क्रॉएत्ज़बैर्ग जा रहा था. रास्ते में वह मेट्रो में चढ़ा और उसने अपना भाषण शुरू कर दिया. वह बेघर लोगों का एक अखबार बेच रहा था. दरअसल अखबार बेचने के बहाने भीख मांग रहा था. तेज़-तर्रार युवक, थोड़ा गंदा सा, बातचीत से पढ़ा-लिखा लग रहा था. कुछ लोगों के चेहरे पर शिकायत साफ़-साफ़ दिख रही थी- इस उम्र में काम करने के बदले भीख मांग रहे हो? बगल में बैठी युवती ने उसे कुछ पैसे दिये, बदले में उसने अखबार दिया. मैंने भी एक यूरो दिया, उसने कहा- पार्टनर, अखबार ख़त्म हो गया है. मैंने कहा- कोई बात नहीं.

अपने भाषण में वह हथियारों के व्यापार, बर्लिन सेनेट की कटौती की नीति से लेकर आप्रवासियों के प्रति दुर्भावना तक हर मसले पर क्रांतिकारी बातें किये जा रहा था. उसने कहा- ये पैसे, जो आप दे रहे हैं, एक सामाजिक मद में इसे खर्च किया जाएगा: बेघर लोगों के एक आवास के लिये. वहां बेघर लोग रह सकते हैं, नहा सकते हैं- फिर अपने जिस्म की ओर देखते हुए उसने कहा- हां, मुझे भी नहाना पड़ेगा.

पता चला, उसका नाम क्रिस है, उम्र 28 साल. मैंने उससे कहा- तुम्हारी कम से कम आधी बातें तो झूठी हैं. लिखते क्यों नहीं? उसने कहा: कौन कहता है कि मैं नहीं लिखता हूं? चलो, अभी तुम्हें सुनाता हूं. मैं डर गया. फिर मैंने पूछा- यह बताओ, दारू और गांजा के अलावा और क्या लेते हो? बिना किसी झिझक के उसने कहा- कोकाइन. लेकिन बर्लिन में कायदे से कोकाइन नहीं मिलती है, म्युनिख की क्वालिटी बेहतर है… इसके बाद उसने मुझे कोकाइन के बारे में बहुत सारी जानकारी दी. आस-पास बैठे लोग मुफ़्त में यह सारा ज्ञान प्राप्त कर रहे थे.

उसका स्टेशन आने वाला था. मैंने धीरे से उससे पूछा: कोकाइन छोड़ नहीं सकते? मुझसे भी धीमी आवाज़ में उसने कहा: कोशिश कर रहा हूं. डाक्टर के पास जाता हूं, नशा छोड़ने की दवाई लेता हूं.

उसका चेहरा थोड़ा लाल हो गया था. मानो नशा छोड़ते हुए वह कोई ग़लत काम कर रहा हो.

ज्योतिदा

कोई तीस-बत्तीस साल पहले की बात है. बांगला के लेखक व आलोचक दिवंगत ज्योतिप्रकाश चट्टोपाध्याय मेरे पिताजी के मित्र थे, और मेरे भी. लेकिन दारू वह मेरे साथ पीते थे. एक बार कोलकाता गया तो ज्योतिदा ने कहा, चलो, तुम्हें चायना टाउन के एक रेस्त्रां में ले चलते हैं. खाना बढ़िया था, साथ में हम ह्विस्की पीते रहे, बात करते रहे. मिथकों की चर्चा हो रही थी. मैंने कहा कि रामायण मुझे बेहद उबाऊ लगता है, महाभारत की महानता और व्यापकता के सामने वह कहीं नहीं ठहरता, राम का कैरेक्टर कतई दिलचस्प नहीं है. ज्योतिदा ने कुछ कहा नहीं. वह चुप रहे.

थोड़ी देर बाद ज्योतिदा ने घर का हाल पूछा, पता नहीं मैं किस मूड में था, अपना दुखड़ा रोने लगा: बहन की शादी होनी है, इस भाई की यह समस्या, उस भाई की वह समस्या, मां की तबीयत… और मैं बड़ा बेटा हूं, सोचना मुझे ही पड़ेगा…

ज्योतिदा ने मुस्कराकर कहा: देखो, तुम्हारे अंदर से राम बोल रहा है.

मुन्नी

मुन्नी दशाश्वमेध सट्टी के सामने सड़क पर सब्ज़ी बेचती है. चालीस साल पहले वह दस साल की एक बच्ची हुआ करती थी. तीन-चार साल बाद शादी हुई, गउना भी हुआ, मरद से पटी नहीं, भाग गई. पंचायत हुआ, मामला तय हो गया. किसी दूसरे के साथ घर बसा ली, बाल-बच्चे हुए, ज़िंदगी की गाड़ी चल निकली. शायद सुखी भी होगी. देखने में दुखी नहीं लगती है.

अब वह गांव पंचायत की प्रमुख है. मेरा छोटा भाई (सीपीआई का नगर सचिव) सब्ज़ी ख़रीदने जाता है. मुन्नी उससे बार-बार कहती है: दादा, एक दफे हमरे घरे आ जइहा. तु अइबा त दरोगा अउर बीडीओ के भी बुला लेब. बस इस्टाप म कउनो से पुछबा के मुन्नी परधान क घर केट्ठिन हव, बताय देइहैं. तोहे असल बिलायती पिलाइब. तु अइब त हमार इज्जत बढ़ जाई.

मेरा भाई मज़ाक में पूछता है: घोटाला-उटाला करत हऊ कि नाहि? मुन्नी फुसफुसाकर कहती है: अरे दादा, बड़ा पइसा हव एम्मन. बकि हम लालच नाहि करिला. बीडीओ से जउन मिल जाला, ओहि में आपन संतोस कर लेइला.

कामवाली

उसका नाम मुझे नहीं याद है. वो हमारे घर में बरतन साफ़ करती थी. एकदिन मां से उसने कहा – दीदी, बिटिया क सादी तय हो गईल. मां ने अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की और बक्से से एक साड़ी निकाल कर दी. फिर पूछा- लड़का क्या करता है.

संतोष के साथ उस औरत ने कहा – कमावत हव. सलीमा क टिकट बिलेक करल.

आज उस बेटी और दामाद की बेटी साइकोलॉजी में एमए कर चुकी है. इस दलित परिवार की आर्थिक स्थिति में ही बेहतरी नहीं आई है. वहां अब सांस्कृतिक महत्वाकांक्षा भी आ चुकी है.

आन्या

कल ट्रेन में आन्या से मुलाक़ात हुई. पांच ही मिनट में हम काफ़ी घुल-मिल गये. 30 साल की आन्या बर्लिन की फ़्री यूनिवर्सिटी में शोधार्थी है, उसका विषय है आठवीं से सत्रहवीं सदी तक का जर्मन साहित्य. मैंने सोचा कि फिर न्युक्लियर फ़िज़िक्स के बारे में बात की जाय. खैर, नारीवाद, गोएथे से लेकर पूर्वी जर्मनी की भूमिगत महिला कवियों के बारे में हमारी बातचीत होती रही. दूसरे विषयों पर भी.

आन्या कह रही थी, लंबे समय के दोस्त होते हैं, लगता है उनके बिना ज़िंदगी जीना मुमकिन नहीं है. लेकिन समय के साथ वे खो जाते हैं, पता भी नहीं चलता. फिर अक्सर कोई मिलता है और लगता है कि हम अरसे से एक-दूसरे को जानते हैं.

उसका कहना था कि अगर खोने का डर न हो तो ऐसे दोस्त ही ज़िंदगी को जीने लायक बनाते हैं. बनाते हैं, फिर खो जाते हैं.

सैम्युएल

तंज़ानिया का मेरा मित्र था सैम्युएल. गांधी का अंधभक्त, मुझसे अक्सर बहस हो जाती थी. खाते-पीते घर का लड़का था, एक बार तीन महीने के लिये भारत गया था. भारत बहुत पसंद आया, लेकिन…

एक शाम हम बियर पी रहे थे, उसने कहा- यार, एक बात मेरी समझ में नहीं आई. तंज़ानिया में भी नस्लवाद है, लेकिन वह गोरों के ख़िलाफ़ है. तुम्हारे मुल्क का नस्लवाद गोरों के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि काले लोगों के ख़िलाफ़ है. ऐसा क्यों?

गुरुजी के साथ एक शाम, 2015

बात उन दिनों की है, जब रुश्‍दी का उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेज़’ आया ही था. भारत में वह प्रतिबंधित हो चुका था. जर्मनी में उसे पढ़ने के बाद मैं भारत गया था. गुरूजी (नामवर सिंह) से बात हो रही थी. मेरा कहना था कि उपन्यास का आख्यान क्रिस्टलाइज़्ड नहीं है. गुरूजी ने मेरी बात नहीं काटी, लेकिन चंद लमहों की ख़ामोशी के बाद उन्होंने कहा था: देखो, ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ और ‘शेम’ की वास्तुकला परंपरागत है लेकिन ‘सैटेनिक वर्सेज़’ में एक नई वास्तुकला है. और साहित्य के लिये यह बहुत महत्वपूर्ण है.

इस बार जर्मनी वापस आने से पहले उनसे मिलने गया था. एक परिवर्तन नज़र में आया. कोई बात जब उन्हें छूती है, तो आजकल उनके चेहरे पर एक बेचैन सा भाव दिखता है. लेकिन फिर उनकी पुरानी आश्वस्त मुस्कान लौट आती है. उनके ख़िलाफ़ अनेक शिकायतों में से एक यह भी है कि वे राग दरबारी की समीक्षा से कतराते रहे. उन्हें जान-बूझकर छेड़ने के लिये मैंने कहा : गुरूजी, राग दरबारी मेरे जीवनकाल की तीन सबसे महत्वपूर्ण हिंदी रचनाओं में से एक है. बाक़ी दो हैं मैला आंचल और मुर्दहिया. चेहरे पर वही बेचैनी, फिर आश्वस्त मुस्कान. उन्होंने कहा, देखो, तीन रचनाओं के तो कई सेट बन सकते हैं. लेकिन राग दरबारी अक्सर उनमें होगा. मैंने उन्हें टोकते हुए कहा: लेकिन, गुरूजी, उपन्यास की संरचना की दृष्टि से मुझे राग दरबारी कमज़ोर लगता है. मुस्कराकर उन्होंने कहा : हां, सैटेनिक वर्सेज़ भी तुम्हें कमज़ोर लगा था. मैंने कहा: हां, लेकिन अचानक एक बात मेरे मन में आई. महाभारत भी कुछ इसी शैली में रचित है. क्या राग दरबारी को इस लिहाज से उपन्यास के पश्चिमी मापदंड से अलग एक भारतीय रचना कहा जा सकता है.

एक लंबी ख़ामोशी. फिर उन्होंने कहा: देखो, मैं तो पूछता रहा हूं कि यह शब्द उपन्यास साहित्य के विमर्श में कब और कहां से आया. लेकिन तुम्हारी महाभारत वाली बात… दिलचस्प है. राग दरबारी पढ़ते हुए पाओगे कि उसके हर टुकड़े का व्यंग्य अपने-आप में संपूर्ण है. यह बात महाभारत की हर कहानी के बारे में भी कही जा सकती है.

काफ़ी देर तक उनसे बातचीत होती रही. गुरूजी ने कहा, तुम इसे लिख डालो. मैंने वादा भी किया था, लेकिन तीन-चार दिनों के बाद मुझे भारत छोड़कर रवाना होना था. कोशिश करूंगा.

लंदन के सरदारजी

विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान लंदन की एक घटना याद आ गई.

एक बार कहीं जाना था तो हमने एक टैक्सी ली. ड्राइवर थे- जैसा कि लंदन में अक्सर होता है – सरदारजी, एक बुजुर्ग सरदारजी. रास्ते में हुई हमारी बातचीत :

“लंदन में रहते हो?”
“नहीं.”
“कहां रहते हो?”
” जर्मनी?”
“हुम्म. कित्ते साल हो गये?”
“बीस साल से ऊपर.”
“ओह, पुराने हो. जर्मन बन गए?.”

सवाल मुझे समझ में नहीं आया. फिर भी जवाब देना आसान था. मैंने कहा, “नहीं.”
“अभी तक नहीं बने? मैं तो अंग्रेज़ बन गया.”

मुझे उसका जवाब दिलचस्प लगा. मैंने पूछा : “वह कैसे?”

सरदार जी जवाब देते रहे : “चौरासी में आ गये. (इस छोटे से वाक्य में उन्होंने अपने विस्थापन की सारी कहानी सुना दी) फिर थामस (मैं समझ गया कि टेम्स नदी) में पासपोर्ट फेंक दिया, बस अंग्रेज़ बन गये. अब तो पूरी फ़ैमिली आ गई है.”

थोड़ी देर बाद सरदार जी ने पूछा : “सिथल्ले गये थे?”

मुझे समझ में नहीं आया. मैंने पूछा : “सिथल्ले?”

“हां-हां, वहीं तो हम रहते हैं.”

अब मुझे समझ में आया कि सरदारजी साउथहॉल की बात कर रहे हैं, जहां दक्षिण एशियाई आप्रवासियों की कॉलोनी बन गई है. मैंने कहा: “नहीं, लेकिन जाऊंगा.”

“देख लो जाकर. अमृतसर बना दिया है.”

सरदारजी ने गर्व से कहा.

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