पंकज चतुर्वेदी
1947 में जब हिंदुस्तान आज़ाद हुआ, तो इस ट्रेजेडी के साथ कि इसका विभाजन हो गया। इस सदमे के बावजूद स्वतंत्र भारत के शिल्पकारों ने सुनिश्चित किया कि अपनी सामासिक या गंगा-जमुनी संस्कृति को भरसक अक्षुण्ण रखना है और साम्प्रदायिक वैमनस्य से इसे आहत नहीं होने देना है। इसीलिए यह खुली छूट दी गयी कि जो लोग पाकिस्तान जाना चाहें, जायें और जो यहीं अपने वतन में रहना चाहें, निश्चिंत होकर रहें, उनके साथ बराबरी का सुलूक होगा और उनके किसी अधिकार का हनन नहीं किया जायेगा। इसी उदात्त राजनीतिक विचारशीलता और मनुष्यता से अभिभूत होकर असंख्य मुसलमान पाकिस्तान नहीं गये। मगर कोई आधी सदी बीतते-न-बीतते कैसे साम्प्रदायिकता की विषाक्त राजनीति उनके इस विश्वास को लहूलुहान करने लगी, ‘नसीम’ इस प्रक्रिया की मर्मस्पर्शी दास्तान है, जिसे आप सिनेमा के परदे पर देख सकते हैं।
फ़िल्म में नसीम के घर से लेकर स्कूल, सिनेमा हॉल और शहर तक समूचा परिवेश अप्रत्याशित साम्प्रदायिक नफ़रत की चपेट में है, उसकी मनहूस छाया में साँस लेने को मजबूर। दूरदर्शन के ज़रिए हिंसक दंगों की जो ख़बरें आती रहती हैं और उसके असर में आसपास जिस तरह के संवादों और घटनाओं का सिलसिला चलता है, उनसे प्रभावित लोगों का मानसिक तनाव लगातार बढ़ता और सघन होता जाता है। इसका चरम बिंदु तब आता है, जब मस्जिद अंततः ढहा दी जाती है। एकबारगी जैसे किसी यक़ीन का शीराज़ा बिखर जाता है। पात्र अवसन्न और निःशब्द रह जाते हैं और उनके पास कहने को कुछ बचता नहीं, सिवा इस प्रश्न के कि इस देश में उनकी जगह या होने का औचित्य क्या है ? इसी परिस्थिति में उन्हें यह अवसाद या एक क़िस्म का नकारात्मक पश्चात्ताप घेरने लगता है कि हमारे अभिभावकों ने आज़ादी के वक़्त पाकिस्तान जाना क्यों नहीं चुना था ?
तनाव के अद्वितीय अभिनेता कुलभूषण खरबंदा फ़िल्म में अपने पिता की भूमिका में कैफ़ी आज़मी से पूछते हैं : ‘अब्बू, मुल्क जब आज़ाद हुआ, तो आप पाकिस्तान क्यों नहीं गये ?’
नसीम का घर आगरा में दिखाया गया है। पिता बहुत ज़हीन, सहृदय और प्रभावशाली होने के बावजूद बूढ़े और अशक्त हो गये हैं और अक्सर बिस्तर पर ही रहते हैं। माँ दिवंगत हो चुकी हैं। बेटे का सवाल सुनकर वह छड़ी के सहारे बमुश्किल अपने कमरे के दरवाज़े तक आते हैं और बाहर बाग़ीचे में शायद आम के एक पुराने पेड़ की ओर इशारा करके कहते हैं : ‘यह दरख़्त देख रहे हो न ! यह तुम्हारी अम्मी को बहुत पसंद था।’
यह एक राजनीतिक प्रश्न का निहायत ग़ैर-राजनीतिक जवाब है, लेकिन इतना नेक और संजीदा कि किसी भी फ़िरक़ापरस्त राजनीति पर भारी पड़ता है। यह प्यार है, जिसकी बदौलत हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सौंदर्य पैदा होता है और यह बुनियादी तौर पर महसूस करने की चीज़ है, किसी को नसीहत देने की नहीं। अगरचे इससे रूबरू होकर इस एहसास से हमारी आँखें भीग जाती हैं कि हम होशियार तो बहुत हुए, पर इसे समझने लायक़ इंसान शायद अभी तक नहीं हुए।
लेखक हिंदी के प्रसिद्ध कवि और आलोचक हैं। सागर विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं।