मैं यह सवाल इस लिए उठा रहा हूं कि भीमा कोरेगांव मामले में एक अभियुक्त के कंप्यूटर को हैक कर उसमें ई-मेल के जरिए स्पाईवेयर प्लांट करने और फिर सबूत रख देने का शर्मनाक मामला सामने आने के बाद सरकार को जो कार्रवाई करनी थी, उसकी कोई सूचना मैं जो पांच अखबार देखता हूं उसमें पहले पन्ने पर नहीं दिखी। सोशल मीडिया पर भी ऐसी कोई चर्चा मुझे नहीं दिखी। ऐसा लगा ही नहीं कि सरकार पर कोई असर हुआ है या इस शर्मनाक कृत्य में उच्च स्तर पर लोगों की भागीदारी का कोई मतलब है। या किसी कार्रवाई की जरूरत है।
अव्वल तो मैं यही मान रहा हूं कि यह सब साजिश नीचे के लोगों ने की होगी और उनका सरकार से कोई संबंध नहीं होगा। संभव है, अधिकारों के दुरुपयोग या निजी खुंदक का कोई मामला हो जिसे कुछ अपराधी अधिकारियों ने सरकारी कार्रवाई का रूप दिया होगा ताकि वे बच सकें या कामयाब रहें। या फिर यह भी संभव है कि ऐसा हुआ ही नहीं हो। पक्का तो तभी होगा जब जांच होगी। पर जांच होगी कैसे? कौन कराएगा? कब कराएगा? यह स्थिति तब है जब पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे यौन शोषण के आरोप को साजिश माना गया लेकिन उसकी जांच की जरूरत नहीं समझी गई क्योंकि अब सबूत मिलना मुश्किल है। अगर ऐसा होता है तो तुरंत जांच की व्यवस्था क्यों नहीं होनी चाहिए? देर करने का क्या मतलब है?
यहां स्थिति अलग है। सरकार (या बड़े सरकारी अधिकारियों पर) आरोप लगे और वे चुप रहकर ‘मौनम स्वीकृति लक्षणम‘ की स्थिति बना देते हैं क्योंकि राजनीतिक तौर पर फर्क नहीं पड़ता है। अखबारों में मीडिया में चर्चा नहीं होती है तो बदनामी का डर ही नहीं है। भीमा कोरेगांव मामले में जो स्थिति सामने आई है उसे स्वीकार कर लेना किसी के लिए भी मुश्किल है लेकिन सरकार जो राजनीति कर रही है उसमें नामुमकिन कुछ भी नहीं है। चुनाव के समय नारा भी था, नामुमकिन मुमकिन है। वैसे तो राजनीतिक या सरकारी प्रतिक्रिया नहीं आने का कारण यह भी माना जा सकता है कि मामला अदालत में है और प्रतिक्रिया देने की जरूरत नहीं है। अदालत को कार्रवाई करनी है। हालांकि मैं इससे सहमत नहीं हूं।
सरकार ने अमेरिकी प्रयोगशाला की जांच रिपोर्ट के बाद इस मामले में कोई कार्रवाई की या नहीं – लगभग उसी समय 18 फरवरी को हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर चार कॉलम की खबर छपी थी कि एक सरकारी ई-मेल से कुछ सरकारी अधिकारियों को निशाना बनाने की कोशिश की गई है। अनीशा दत्ता और बिनायक दासगुप्ता की यह खबर पर्याप्त चिन्ताजनक है क्योंकि जब सरकारी अधिकारी और उनका कंप्यूटर सुरक्षित नहीं है तो आम जनता का क्या होगा। आम जनता को ठगने, लूटने की शिकायतें आती रहती हैं उसपर कार्रवाई की तो अब कोई उम्मीद भी नहीं करता। लुटे-पिटे लोग रोते बिलखते रहते हैं। पर सरकारी अफसरों को निशाना बनाए जाने की खबर पर भी इस तरह की चुप्पी चिन्ताजनक है खासकर तब जब राहुल गांधी के किसी सही या गलत बयान पर प्रतिक्रिया तुरंत होती है और उन्हें पप्पू साबित करने की कोशिश में केंद्रीय मंत्री अपना पप्पू बनवाते रहते हैं। हालांकि, वह अलग मुद्दा है।
गंभीर खबरों पर सरकारी प्रतिक्रिया नहीं होने का मामला मैं आज इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि हिन्दुस्तान टाइम्स में आज फिर पहले पन्ने पर ही चार कॉलम में ऐसी ही एक और खबर छपी है। इसबार शिकार होने वाले पूर्व रक्षा अधिकारी हैं। आज की खबर भी उन्हीं दो बाईलाइन के साथ है। इसमें गड़बड़ यह है कि सरकारी ई-मेल आईडी का दुरुपयोग किया जा रहा है। सरकारी आईडी से देसी बाबुओं, नागरिकों के साथ विदेशी अधिकारियों को भी निशाना बनाना अपेक्षाकृत आसान है और सरकारी ईमेल का दुरुपयोग अपनी जगह है। इससे इनकी विश्वसनीयता खराब होगी, सो अलग। ऐसा बहुत कम होता है कि एक जैसी खबर चार दिन में दोबारा छपे या छापनी पड़े। हिन्दुस्तान टाइम्स ने न सिर्फ दूसरी बार यह खबर पहले पन्ने पर छापी है बल्कि अंदर विस्तार भी है। जाहिर है, विवरण सारा है फिर भी जांच या कार्रवाई के नाम पर सन्नाटा है।
आज प्रकाशित हिन्दुस्तान टाइम्स की दूसरी खबर के साथ शीर्षक के अलावा इंट्रो के रूप में प्रमुखता से कहा गया है कि सरकारी डाटा से गड़बड़ी नहीं हुई और संवेदनशील कंप्यूटर सुरक्षित हैं। पर मामला इतना सीधा नहीं है। सारे सरकारी कंप्यूटर सुरक्षित होने चाहिए और सरकारी ही नहीं हर आम और खास का कंप्यूटर किसी भी तरह की हैकिंग से मुक्त होना चाहिए। और संवेदनशील सूचनाएं किसी खास कंप्यूटर में रखी जाएं और उसे ही सुरक्षित रखा जाए तो पूरा मामला डिजिटल करने की क्या जरूरत थी लोग मजबूत तिजोरियों में पैसे रखते ही थे। यही नहीं, मामला सरकारी ई मेल के दुरुपयोग का भी है।
मेरा अनुभव है कि सरकार खबरों पर कार्रवाई नहीं के बराबर करती है। मुख्य धारा का मीडिया अगर अपनी भूमिका निभाने में बुरी तरह नाकाम है तो सरकार उसे पूरी तरह नजरअंदाज भी करती है। यह दिलचस्प है कि “मन की बात” करने वाले मुखिया की सरकार गंभीर मामलों पर चुप रहती है और पक्ष में माहौल बनाने से ज्यादा विपक्षी या विरोधी की छवि खराब करने में यकीन करती है। हालत यह है कि पीआईबी खबरें देते-देते अब फैक्ट चेक भी करने लगा है और एक मामले में तो टेलीविजन पर खबर चलने के साथ-साथ ‘फेक न्यूज’ होने की प्रतिक्रिया आ चुकी है। इसलिए, आप यह न समझें कि सरकार तुरंत कैसे कार्रवाई करे। हर जगह नजर कैसे रखी जा सकती है आदि। स्थिति यह है कि सरकार की प्राथमिकता अलग है और इसे ठीक करना सबके लिए जरूरी है। यह ठीक नहीं है कि सरकार सिर्फ चुनाव जीतने वाले काम करे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।