हिंदी अख़बारों में आज के संपादकीय- 13 फ़रवरी, 2018

                                                  नवभारत टाइम्स

पश्चिम एशिया में हम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन पश्चिमी एशियाई देशों की यात्रा का मकसद व्यापारिक संबंधों को मजबूत बनाने के साथ ही कूटनीतिक रिश्तों में एक नया संतुलन बनाना भी था। विदेश नीति में संतुलन से ज्यादा जरूरी चीज शायद ही कोई और होती हो। हाल के वर्षों में भारत और इजरायल बेहद करीब आए हैं। प्रधानमंत्री मोदी की इजरायल यात्रा इस मामले में मील का पत्थर ही कही जा सकती है। लेकिन इलाके के सारे अरब देशों के लिए इजरायल की स्थिति एक शत्रु देश जैसी है। खासकर इजरायल सरकार से लंबे संघर्ष में उतरे फिलिस्तीनियों के लिए भारत का इजरायल-समर्थक रुख एक बड़े धक्के जैसा था। फिलिस्तीन के साथ भारत के रिश्ते पारंपरिक रूप से बहुत अच्छे रहे हैं।
ऐसे में इजरायल से बढ़ती नजदीकी को ध्यान में रखते हुए फिलिस्तीन को आश्वस्त करना जरूरी था कि हमारी नजर में उसका महत्व भी पहले से कम नहीं हुआ है। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र में यरूशलम को इजरायली राजधानी का दर्जा देने वाले अमेरिकी प्रस्ताव के खिलाफ मतदान करके हमने यह संकेत पहले ही दे दिया था। इस फिलिस्तीन दौरे के जरिए प्रधानमंत्री ने भारत के स्टैंड को पुख्ता कर दिया है। मोदी ने ओमान जैसे देश की यात्रा भी की, जिससे हमारा संबंध हमेशा प्रगाढ़ रहा है, हालांकि बीच में कुछ गलतफहमी आ गई थी और संवाद कमजोर हो गया था। दरअसल ओमान जिस तरह का रक्षा संबंध चाहता रहा है, उसका हमने कई बार आश्वासन तो दिया, पर वह जमीन पर नहीं उतर पाया। अब भारतीय प्रधानमंत्री ने रिश्तों को दोबारा पहले जैसी गर्मजोशी देने की कोशिश की है। ओमान पूर्वी अफ्रीका के उभरते बाजारों तक पहुँच बनाने में भारत के लिए मददगार साबित होगा, जो अभी चीन के लिए कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी का सबब बन हुए हैं। यमन का गृहयुद्ध लंबे समय से भारत के लिए चिंता का विषय है। उस इलाके में समुद्री सुरक्षा की दृष्टि से भी ओमान हमारे लिए बेहद उपयोगी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ओमान के सुल्तान कबूस से व्यापक स्तर पर चर्चा की और भारत व ओमान के बीच रक्षा, स्वास्थ्य और पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग सहित आठ समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। आर्थिक सहयोग के करार संयुक्त अरब अमीरात और फिलीस्तीन के साथ भी हुए हैं। प्रधानमंत्री ने संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबूधाबी में पहले हिन्दू मंदिर की आधारशिला रखी। सांस्कृतिक दृष्टि से इसे एक बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए। दोनों देशों के बीच पाँच समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, जिनमें ओवीएल के नेतृत्व वाले कंपनी समूह को अपतटीय तेल सुविधा में दस फीसदी हिस्सेदारी देने का करार भी शामिल है। इसी तरह फिलिस्तीन के साथ करीब पाँच करोड़ डॉलर के छह समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। कुल मिलाकर यह एक सफल दौरा रहा और इसने पश्चिम एशिया में भारत को एक नई पहचान दी है

                                                       

                                                          राजस्थान पत्रिका

बेतुका बयान…
अनुशासित स्वयं सेवकों की बड़ी ताकत पास होने का मतलब यह नहीं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खुद को देश की सेना से भी अधिक सक्षम मानने लगे। लोकतंत्र भी अजीब है। जहाँ यह नहीं है वहाँ इसे पाने के लिए संघर्ष चल रहा है। और जिन देशों में है, वहाँ इसका महत्व समझ में नहीं आता। बोलने की आजादी के नाम पर कोई कुछ भी बोल जाता है। बिना सोचे-समझे कि उसके बोल का देश पर क्या असर पड़ेगा। संघ प्रमुख मोहन भागवत के ताजा बयान को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। भागवत ने इस बार सेना के बारे में ऐसा बयान दे डाला जिससे शायद ही कोई देशवासी सहमत हो। भागवत का मानना है कि देश की सेना को तैयार होने में 6-7 महीने लग जाते हैं। लेकिन जरूरत पड़े तो संघ की सेना दो दिन में तैयार हो सकती है। भागवत के बयान पर संघ भले ही कुछ भी सफाई देता रहे लेकिन उनके बयान का सीधा-सा अर्थ यही समझ में आता है कि, जो काम देश की सेना नहीं कर सकती, वह काम संघ के स्वयं सेवक कर सकते हैं। भागवत ने यह नहीं बताया कि दो दिन में स्वयं सेवक सेना की तरह तैयार कैसे हो जाएंगे? क्या स्वयं सेवक दो दिन में लड़ाकू विमान उड़ाना व टैंक चलाना सीख जाएंगे? बयान से साफ झलकता है कि वे सेना की क्षमता को कम करके आंक रहे हैं। नौ दशक पुराना संघ देश के राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उत्थान के लिए कार्य कर रहा है। उसके पास अनुशासित स्वयं सेवकों की बड़ी ताकत है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह अपनेआपको देश की सेना से भी अधिक सक्षम मानने लगे। भारतीय सेना पर देश के हर नागरिक को गर्व है। संकट के समय अपने प्राणों की आहुति देकर भी वह आम नागरिकों को सुरक्षा देती है। विपरीत परिस्थितियों में भी दुश्मनों के नापाक इरादों को विफल करती है। ऐसी सेना के मनोबल को कम करने के प्रयासों की जितनी निंदा की जाए कम है। सेना के मनोबल को गिराने के बयानों का विरोध करने वाले संघ से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह बिना सोचे-समझे ऐसे बयान दे, जिससे देशवासी शर्मिंदा हों। राजनीतिक मुद्दों पर संघ की अपनी राय हो सकती है। ऐसी राय जिसपे हर कोई सहमत न हो। लेकिन देश और खासकर सेना से जुड़े मुद्दों पर संघ ही नहीं हर संगठन को नाप-तौल कर बोलना चाहिए। संघ के हित में भी यही होगा और देश हित में भी।

                                                               अमर उजाला

अलविदा अस्मा जहाँगीर
जानेमाने वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता अस्मा जहाँगीर के निधन से पाकिस्तान के वंचितों ने अपनी एक ऐसी पक्षधर को खो दिया है, जो ज़िन्दगी भर लोकतंत्र की मजबूती कर लिए संघर्ष करती रहीं। वह ऐसी गिनी-चुनी शख्सियतों में शामिल थीं, जिनकी आवाज़ भारत और पाकिस्तान दोनों ओर सुनी जाती रही है। पाँच दशक लम्बे सार्वजनिक जीवन में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हक़ के साथ ही उन्होंने धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक व्यवस्था में सैन्य हस्तक्षेप के खिलाफ मुखरता से आवाज़ उठाई, जिसके कारण उन्हें आतंकवादियों और सैन्य तानाशाही दोनों की नाराज़गी मोल लेनी पड़ी। 1970 के दशक में जब उनके वालिद को सैन्य तानाशाह याह्या खान का विरोध करने पर दूसरे लोगों के साथ नज़रबंद कर दिया गया था,
अब अस्मा ने उनका मुकदमा लड़ा, जिसके फलस्वरूप अदालत ने मार्शल लॉ को ही अवैध करार दिया था। जनरल जिया उलहक और जनरल मुशर्रफ के शासन काल के दौरान खुद अस्मा को नज़रबंद किया गया और जेल में ही रखा गया, इसके बावजूद भी लोकतंत्र के पक्ष में उनका संघर्ष कमज़ोर नहीं पड़ा। वह ऐसी लड़ाका थीं, जिन्हें अदालत में कानूनी लड़ाई के साथ ही सड़क पर उतर कर प्रदर्शन करने से गुरेज नहीं था, वह भी एक ऐसे देश में, जहाँ महिलाओं पर काफी बन्दिशें हैं। उन्होंने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया, यही वजह है कि अलग-अलग मौकों पर जब नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी की सरकारों को बर्खास्त किए जाने के प्रयास किए गए, तो इसके खिलाफ खड़े होने में उन्होंने हिचक नहीं दिखाई। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने हमेशा सत्ता से एक निश्चित दूरी बना कर रखी, बावजूद इसके कि उनके बेनज़ीर भुट्टो से लेकर अनेक शीर्ष नेताओं से अच्छे सम्बन्ध रहे। उन्होंने पाकिस्तानी सर्वोच्च अदालत की जज बनाए जाने या फिर पंजाब की गवर्नर बनाए जाने जैसे प्रस्तावों को इसलिए ठुकरा दिया, क्योंकि इससे उनकी आवाज़ स्वतंत्र नहीं रह जाती। बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन का मुद्दा उठाने पर उनके अपने देश में उन्हें भारत समर्थक माना जाता था, तो वहीं कश्मीर में मानवाधिकार का मुद्दा उठाने पर भारत में भी उनके आलोचक कम नहीं थे। मगर जैसा कि पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हामिद मीर ने टिप्पणी की है, ‘वह किसी राज्य की नहीं, बल्कि गरीबों और बेबस लोगों की एजेंट थीं।’ उनके निधन से हमने सचमुच एक निर्भीक योद्धा को खो दिया।

 


 

                                                                   जनसत्ता 

आतंक के खिलाफ

संयुक्त अरब अमीरात के दो दिवसीय दौरे के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यों तो वहां के शाह मोहम्मद बिन जायद अल शाह से कई मुद्दों पर बातचीत हुई, और इस मौके पर दोनों देशों के बीच पांच समझौते भी हुए, पर जो बात सबसे ज्यादा ध्यान खींचती है वह है आतंकवाद के खिलाफ समान नजरिया। इस अवसर पर जारी साझा बयान में दोनों देशों ने आतंकवाद को प्रायोजित करने या इसका समर्थन करने और इसे राज्य-नीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल करने आदि की निंदा की है। यह ऐसी शब्दावली है जिसका इस्तेमाल भारत आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान को घेरने के लिए करता आया है। इसलिए सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि साझा बयान में बगैर नाम लिये पाकिस्तान की तरफ इशारा किया गया है। विश्व व्यापार के एक बड़े केंद्र और खाड़ी क्षेत्र के अहम देश संयुक्त अरब अमीरात का आतंकवाद के मुद्दे पर भारत के सुर में सुर मिलाना मायने रखता है। यों यह पहली बार नहीं है जब दोनों देशों ने आतंकवाद की निंदा की है। 2017 में, जब संयुक्त अरब अमीरात के शाह भारत के गणतंत्र दिवस समारोह के मेहमान के तौर पर दिल्ली आए थे, तब भी दोनों देशों ने आतंकवाद का समर्थन करने या उसे धार्मिक रंग देने के प्रयासों की निंदा की थी। लेकिन तब के बयान और ताजा बयान में काबिलेगौर फर्क है।

 दो रोज पहले जारी हुए साझा बयान में आतंकवाद तथा उग्रवाद के सभी रूपों की कड़े शब्दों में निंदा की गई है, चाहे उसके पीछे हाथ किसी का भी हो। इसी के साथ इस पर अफसोस जताया गया है कि कुछ देश राजनीतिक मुद्दों को धार्मिक या सांप्रदायिक रंग देने से बाज नहीं आते। इस साझा बयान में पाकिस्तान का नाम कहीं नहीं आया है, पर उसकी तरफ संकेत में रही-सही कसर दोऔर बातों से पूरी हो जाती है। एक, जब भी किसी आतंकी हमले के तार पाकिस्तान से जुड़े होने के तथ्य सामने आते हैं, पाकिस्तान यह कह कर पल्ला झाड़ लेता है कि यह कारगुजारी ‘गैर-सरकारी’ तत्त्वों ने की है, ये उसकी नुमाइंदगी नहीं करते, लिहाजा उसकी कोई जवाबदेही नहीं बनती। भारत और संयुक्त अरब अमीरात के साझा बयान में कहा गया है कि यह तमाम देशों का उत्तरदायित्व है कि वे ऐसे तथाकथित गैर-सरकारी तत्त्वों की गतिविधियों पर अंकुश लगाएं और उन आतंकवादियों को मिलने वाली हर तरह की मदद के सारे रास्ते बंद करें, जो अपने देश की जमीन से अन्य देशों के खिलाफ साजिशें रचते और आतंकी हमले करते हैं। दो, साझा बयान में आतंकवाद से निपटने के लिए मजबूत और विश्वसनीय कदम उठाने की वकालत करते हुए यह भी कहा गया है कि आतंकवादियों के लिए दुनिया में कहीं भी पनाहगाह या अभयारण्य नहीं होना चाहिए।

भारत ने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में एक व्यापक समझौते का प्रस्ताव पेश कर रखा है। इस पर मोटामोटी आम सहमति के बावजूद, इसमें दी गई आतंकवाद की परिभाषा को लेकर कई देशों को एतराज है। लेकिन संयुक्त अरब अमीरात ने इस समझौते को मान्य कराने के लिए भारत के साथ मिलजुल कर प्रयास करने का साझा संकल्प जताया है। ऐसे वक्त जब भारत कश्मीर में आतंकी हमलों का सामना कर रहा है, यह संकल्प भारत की कोई सीधी मदद तो नहीं करता, पर यह भरोसा जरूर दिलाता है कि घुसपैठ और सीमापार आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव दिनोंदिन और बढ़ता जाएगा।


 

                                                            हिंदुस्तान 

शिविरों पर हमले

कश्मीर की सर्दियां इस बार बदली हुई हैं। पहले माना जाता था कि जब पहाड़ी ऊचाइयों, दर्रों और रास्तों पर बर्फ गिर जाती है, तो पाकिस्तान से आतंकवादियों की घुसपैठ रुक जाती है। फिर जब मार्च में बर्फ पिघलनी शुरू होती है, तो घुसपैठ शुरू हो जाती है। लेकिन कश्मीर के आतंकवाद का कैलेंडर इस बार बदला हुआ है। इस बार पूरी सर्दियों में कश्मीर गरमाया रहा। आतंकवादी हमले लगातार बढ़ रहे हैं। घुसपैठ भी बढ़ी है, इसका अंदाज इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पाकिस्तानी फौज की तरफ से गोलाबारी इस बार काफी हुई है। आमतौर पर आतंकवादी इस गोलाबारी की आड़ लेकर ही भारत में घुसपैठ करते रहे हैं। लेकिन इससे भी खतरनाक बात यह है कि आतंकवादी इस बार ज्यादा दुस्साहस दिखा रहे हैं। छोटे-मोटे आतंकवादी हमले तो खैर जारी हैं ही, लेकिन जो खतरनाक चीज इस बार दिखी है, वह यह कि आतंकवादी एक के बाद एक सुरक्षा बल के शिविरों, यहां तक कि सेना के शिविरों पर हमले बोल रहे हैं। यहां तक कि सुरक्षा बलों द्वारा पकड़े गए आतंकवादी को छुड़ा ले जाने का दुस्साहस भी उन्होंने दिखाया है। कश्मीर में सुरक्षा बलों और सेना के शिविरों पर हमले पहले भी होते रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से ये लगातार हुए हैं, वह चिंता में डालने वाला है। ये सब जिस तरह के हमले हैं, उन्हें सामान्य नहीं कहा जा सकता, जरूर उसके लिए लंबी तैयारी की गई होगी। जो कुछ वहां हो रहा है, उसे लेकर केंद्र सरकार भी काफी चिंतित है, इसीलिए सोमवार को गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने नॉर्थ ब्लॉक में एक उच्च स्तरीय बैठक भी की।

कश्मीर में आतंकवादी हमले का यह ट्रेंड नया जरूर है, लेकिन केंद्र सरकार और सुरक्षा बलों के सामने जो चुनौती है, वह पहले की तरह ही बनी हुई है। सबको मालूम है कि दुश्मन कौन है, लेकिन उससे सीधी लड़ाई फिलहाल एक हद से ज्यादा मुमकिन नहीं है, क्योंकि वह छद्म ढंग से आतंकवादियों की आड़ में लड़ रहा है। हालांकि भारतीय सेना ने इसके लिए सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कड़े कदम भी उठाए हैं, लेकिन एक तो ऐसी कार्रवाई जब-तब नहीं की जा सकती, और दूसरा, इसकी सीमाएं भी हैं। लेकिन यह सच है कि सर्जिकल स्ट्राइक का जमीन पर असर भी दिखा है। यह भी माना जाता है कि इसी के बाद से सुरक्षा बलों पर हमले बढ़े हैं। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद इस तरह की तिलमिलाहट बढ़ेगी, इसका अंदाज भारतीय सेना को भी रहा होगा। साथ ही, सेना और केंद्र सरकार, दोनों ही इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि समस्या जितनी बड़ी है, उसे एकाध सर्जिकल स्ट्राइक से पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता।

जाहिर है, भारतीय सेना और सरकार ने इसके लिए तैयारी भी शुरू कर दी होगी। फिलहाल समस्या किसी दूसरे स्तर पर है। सुरक्षा बलों पर हमले से ज्यादा चिंता की बात वह राजनीति है, जो इसे लेकर शुरू हो गई है। सोमवार को जब कश्मीर में सीआरपीएफ मुख्यालय पर हमला हुआ, तो मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने पाकिस्तान के साथ बातचीत का राग अलापना शुरू कर दिया। जबकि वह इस समस्या की जटिलताएं अच्छी तरह समझती होंगी। इतना ही नहीं, कई छोटे-बड़े राजनीतिकों के तमाम बयान एक के बाद एक आने लगे। कश्मीर में हम जो लड़ाई लड़ रहे हैं, वह धैर्य की मांग करती है। सेना और सुरक्षा बलों ने ऐसा धैर्य दिखाया भी है, यही उम्मीद हमें राजनीतिज्ञों से भी करनी चाहिए।

 


 

                                                                 दैनिक भास्कर

 

कश्मीर समस्या को चौतरफा रणनीति से हल करना जरूरी

आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने जम्मू से घाटी तक सुरक्षा बलों के ठिकानों पर हमला करके न सिर्फ सुरक्षाकर्मियों बल्कि नागरिकों को भी क्षति पहुंचाई है। अफजल गुरु की फांसी के दिन नौ फरवरी को हमले की आशंका थी और खुफिया विभाग ने इस तरह की रपट दी थी। सेना और अर्द्धसैनिक बलों ने उन रपटों के हवाले से चौकसी भी की थी लेकिन आखिरकार रविवार शाम जम्मू के सुजवान स्थित सेना के शिविर पर हमला हो गया और पांच जवान शहीद हो गए। विडंबना देखिए कि उस हमले के दूसरे ही दिन सोमवार को श्रीनगर के करणनगर में केंद्रीय अर्द्धसुरक्षा बल के कैंप पर हमला हुआ और वहां भी एक जवान शहीद हुआ। सेना और सुरक्षा बल लगातार इन हमलों का मुकाबला कर रहे हैं, इस बारे में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। इसके बावजूद अगर आतंकी अपनी गतिविधियों में कामयाब हो रहे हैं तो जाहिर है कि स्थानीय आबादी में उनकी पैठ है। हाल में नावीद नामक आतंकी के श्रीनगर जेल से भाग निकलने की घटना इसका प्रमाण है। वह 2016 में पकड़ा गया था और जैसे-तैसे कश्मीर में ही बना हुआ था। अगर कश्मीर में पकड़े गए सारे आतंकियों को राज्य से बाहर रखा जाता है और फिर भी नावीद वहां रहने में सफल हो गया तो इसका मतलब है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। हमारी जासूसी संस्थाएं तो सक्रिय हैं और वे यह बता देती हैं कि कब हमला होने वाला है। इस बारे में कश्मीर में काम कर रही महबूबा मुफ्ती की मौजूदा सरकार को जिम्मेदारी से पूरी तरह बरी नहीं किया जा सकता। कश्मीरी नेताओं की सहानुभुति पाकिस्तान के साथ है। इसकी झलक हाल में विधानसभा में नेशनल कांफ्रेंस के विधायक की तरफ से पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने में भी दिखाई पड़ी। यह कमियां हैं और इनके साथ एनडीए सरकार कश्मीर को संभाल रही है। यहां कांग्रेस नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद की उस आलोचना को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि मौजूदा सरकार के आने के साथ सीमा पर युद्धविराम के उल्लंघन और राज्य के भीतरी हिस्सों में भी हमले बढ़े हैं। कश्मीर समस्या के लंबे दौर में यह उतार चढ़ाव आते रहते हैं इसके बावजूद इस सरकार ने जो दावे किए थे वह पूरे नहीं हो रहे हैं। इसलिए कश्मीर समस्या को चौतरफा रणनीति के माध्यम से हल करने के लिए ठोस कदम उठाने ही  होंगे।

 


                                                         

                                                   दैनिक जागरण/ नई दुनिया 

दुस्साहस की पराकाष्ठा
ऐसी सूचनाओं से देश को शायद ही सन्तुष्टि मिले कि जम्मू-कश्मीर में लगातार हो रहे आतंकी हमलों को लेकर पाकिस्तान को सबक सिखाने पर गम्भीर मंथन शुरू हो गया है। आखिर ऐसा कोई मंथन सुंजवां में सेना के ठिकाने पर हमले के पहले क्यों नहीं किया गया- और वह भी तब जब ऐसे हमलों के साथ संघर्ष विराम के उल्लंघन का सिलसिला एक अरसे से कायम है? यह पाकिस्तान और उसके पाले-पोसे आतंकियों के दुस्साहस की पराकाष्ठा ही है कि जम्मू-कश्मीर के सुंजवां में सेना की कार्रवाई समाप्त होने से पहले ही श्रीनगर में सीआरपीएफ के शिविर को निशाना बनाने की कोशिश की गई। तीन दिन के अंदर सुरक्षा बलों के दो ठिकानों को निशाना बनाया जाना यही बताता है कि जैश और लश्कर सरीखे आतंकी संगठनों के जरिए पाकिस्तान ने अपने छद्म युद्ध को तेज कर दिया है। यह छद्म युद्ध वास्तविक युद्ध से इसलिए कहीं घातक है, क्योंकि इसका कोई नियम नहीं। पाकिस्तान की ओर से जम्मू एवं कश्मीर में थोपे गए इस छद्म युद्ध का प्रतिकार तब तक तक संभव नहीं जब उसे इसकी बड़ी कीमत न चुकानी पड़े। यह ठीक नहीं कि भारत एक लम्बे समय से पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों पर प्रतिक्रिया देने में लगा हुआ है। आतंकी हमलों के बाद सेना एवं सुरक्षा बलों को खुली छूट देना हो या फिर संघर्ष विराम उल्लंघन के बाद की जाने वाली जवाबी कार्रवाई- ये एक तरह की प्रतिक्रियाएं ही कही जाएंगी। पाकिस्तान जब कुछ अनुचित करे तब इसके खिलाफ कोई कदम उठाने की नीति ने भारत को एक तरह से प्रतिक्रिया देने तक सीमित कर दिया है। न जाने कबसे इसकी जरूरत बताई जा रही है कि पाकिस्तान के शैतानी इरादों को भाँप कर उसके खिलाफ ऐसी गहन कार्रवाई की जाए जिससे वह कुछ भी करने से पहले न केवल हिचके बल्कि सौ बार सोचे भी।
आतंकी हमले के प्रमाण देने या फिर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के साथ मिल कर काम कर रहे हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे आतंकी सरगनाओं के खिलाफ कार्रवाई करने की जरूरत जताने से न तो पहले कुछ हासिल हुआ है और न ही आगे होने वाला है। जिस देश ने आतंकवाद को अपनी सुरक्षा और विदेश नीति का अहम हिस्सा बना लिया हो उससे आतंकवाद के बारे में बात करना कुल मिलाकर समय जाया करना है। यदि पाकिस्तान अपनी भारत विरोधी हरकतों के लिए दंडित नहीं किया जाता तो जम्मू-कश्मीर में खून-खराबा रुकने वाला नहीं है। आखिर क्या कारण है कि पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए कठोर कूटनीतिक कदम उठाने से भी इन्कार किया गया। अब जब पानी सिर के ऊपर बहने लगा है तब पाकिस्तान को कठोर दंड का भागीदार बनाने के साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि सुरक्षा बलों के ठिकानों पर तमाम हमलों के बाद भी आतंकी पहले जैसे तौर-तरीकों से वहाँ घुसने में कैसे सफल हो जा रहे हैं? वे अगर सैन्य ठिकानों में घुसने के पहले ही मार गिराए जा रहे होते तो शायद ऐसे ठिकानों को निशाना बनाने का सिलसिला न जाने कब थम जाता। स्पष्ट है कि पाकिस्तान को सबक सिखाने के साथ ही हमारे सुरक्षा तंत्र को भी कुछ सबक सीखने होंगे।

 


 

                                                       प्रभात ख़बर
स्वास्थ्य पर जोर

राज्य और केंद्र शासित प्रदेश लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने में किस हद तक कामयाब हैं, इस बारे में नीति आयोग ने एक स्वास्थ्य सूचकांक ( हेल्थ इंडेक्स) रिपोर्ट जारी की है. इसमें 2014-15 को आधार वर्ष मानकर 2015-16 तक की अवधि में स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता के आधार पर राज्यों के प्रदर्शन की तुलना करते रैंकिंग दी गई है. यह पहल कई कारणों से सराहनीय है. आमतौर पर लोग यह तो जानते हैं कि स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराना राज्य की जिम्मेदारी है और केंद्र इसके लिए वित्तीय तथा नीतिगत सहायता देता है, लेकिन हर साल ऐसा कोई दस्तावेज प्रकाशित नहीं होता था, जिससे सेवा के विस्तार और गुणवत्ता के बारे में पता चले. इस सूचकांक से राज्यों पर कामकाज बेहतर करने का दबाव बढ़ेगा। दूसरे, एक उम्मीद यह भी है कि मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था की खस्ताहाली ठोस बहस का विषय बनेगी और सुधार को लेकर विभिन्न पक्ष अपनी समझ स्पष्ट करेंगे. इस सूचकांक का मुख्य संदेश है कि जिन राज्यों ने साक्षरता, पोषण और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के विस्तार पर समुचित निवेश किया है, उनका प्रदर्शन अन्य राज्यों से अच्छा है. केरल, तमिलनाडु तथा पंजाब सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा ओडिशा सर्वाधिक पिछड़े राज्य हैं. दूसरा बड़ा संदेश यह है कि बाकी राज्यों से आगे दिखते केरल और तमिलनाडु जैसे राज्य 2014-15 की तुलना में 2015-16 में पिछड़े प्रदर्शन में खास सुधार नहीं कर सके हैं. मिसाल के लिए, नवजात शिशुओं की मृत्यु दर कम करने में राज्यवार रैंकिंग पर गौर किया जा सकता है. देश के 21 बड़े राज्यों में केवल पांच राज्य (आंध्र प्रदेश, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, छत्तीसगढ़ और झारखंड) ही आधार वर्ष (2014-15) की तुलना में अपना प्रदर्शन सुधार पाए हैं। स्वास्थ्य के मोर्चे पर राज्यों की रैंकिंग से बेशक एक अहम जरूरत पूरी हुई है, परंतु स्वास्थ्य के मद में केंद्र से मिलने वाली वित्तीय और नीतिगत सहायता के सवाल को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. नेशनल हेल्थ अकाउंट्स, 2014-15 के तथ्य बताते हैं कि स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का दो तिहाई से ज़्यादा (67 फीसदी) अभी लोगों को अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है. उद्योग जगत की अहम संस्था सीआईआई की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक देश में मौजूद स्वास्थ्य सेवा के ढांचे का 70 फीसदी हिस्सा सिर्फ 20 शहरों तक सीमित है और 30 फीसदी भारतीय प्राथमिक स्तर की भी चिकित्सा सुविधा से वंचित हैं. लिहाजा, देश में चिकित्सा सेवा के ढाँचागत विस्तार की बड़ी जरूरत है, पर सेहत के मद में सरकार अभी जीडीपी का बहुत ही थोड़ा हिस्सा (1.25 फीसदी) ही खर्च करती है. भारत सेहत के मोर्चे पर खर्च के लिहाज से दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों से भी पीछे है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आयोग की रिपोर्ट से स्वास्थ्य सेवा के मसले पर देश में नयी शुरुआत होगी।


                                                           देशबन्धु 

 

सपनों को मार रही है सरकार

लगता है हमारे राजनेताओं को अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके बयानों से कोई आहत हो सकता है, कोई विवाद खड़ा हो सकता है, कोई गलत मिसाल कायम हो सकती है…

लगता है हमारे राजनेताओं को अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके बयानों से कोई आहत हो सकता है, कोई विवाद खड़ा हो सकता है, कोई गलत मिसाल कायम हो सकती है। निजी जीवन में आपके विचार जो भी हों, सार्वजनिक तौर पर जुबान संभाल कर ही बोलनी चाहिए। लेकिन जब संसद के भीतर शब्दों की मर्यादा टूटने पर मेजें थपथपा कर ठहाके लगाए जा सकते हैं, तो सदन के बाहर सोच-समझ कर बोलने की जहमत कौन उठाए। ये बात इसलिए क्योंकि हाल ही में जिम्मेदार पदों पर बैठे तीन लोगों के ऐसे बयान आए हैं, जो उनकी पद की गरिमा के अनुकूल नहीं हैं।

गोवा में मनोहर पर्रीकर सरकार मेंटाउन एंड कंट्री प्लानिंग मिनिस्टर विजय सरदेसाई ने गोवा बिजनेस फेस्ट में उत्तर भारतीय पर्यटकों के लिए कहा कि उत्तर भारतीय टूरिस्ट गोवा में हरियाणा बनाना चाहते हैं। हम इसे दूसरा गुड़गांव नहीं बनने देंगे। सरदेसाई ने यह भी कहा कि हमारे मुख्यमंत्री गोवा में टूरिस्टों की संख्या बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं। आज यहां राज्य की आबादी से 6 गुना लोग घूमने आते हैं। लेकिन इनमें सभी टॉप एंड के टूरिस्ट नहीं, बल्कि धरती की गंदगी हैं। उन्होंने अपनी ही सरकार की सस्ती घरेलू टूरिज्म पॉलिसी की भी आलोचना की।

हालांकि, इस बयान के बाद सफाई देते हुए उन्होंने कहा कि यह कमेंट कुछ लोगों के लिए था, जिनके अंदर सिविक सेंस नहीं है। इसे सभी पर्यटकों से जोड़कर ना देखा जाए। 16 लाख की आबादी वाले गोवा में हर साल करीब 65 लाख से ज्यादा पर्यटक पहुंचते हैं। इन पर्यटकों के कारण राज्य की अर्थव्यवस्था को भी गति मिलती है। हालांकि यह सही है कि गोवा के समुद्री तटों व अन्य पर्यटक स्थलों पर बढ़ती गंदगी एक बड़ी चिंता है। लेकिन इसके लिए उत्तर भारतीय पर्यटकों पर इस तरह की टिप्पणी नहीं की जा सकती। सरकार गंदगी फैलाने वालों पर कड़ा जुर्माना लगाए।

सफाई कर्मियों की संख्या बढ़ाए। आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल सफाई के लिए करे। इस तरह के और भी कई उपाय गोवा को साफ-सुथरा बनाए रखने के लिए किए जा सकते हैं। लेकिन अगर श्री सरदेसाई चाहते हैं कि केवल हाईप्रोफाइल या टॉप एंड के पर्यटक ही वहां पहुंचे तो यह विचार ही लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है। अब क्या इनके राज में बोलने-लिखने की तरह घूमने की आजादी पर भी पहरा लगेगा?

गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर ने भी बीते दिनों एक विवादास्पद बयान दिया। वे राज्य विधानमंडल विभाग की ओर से किए जाने वाली राज्य युवा संसद में युवाओं में नशे की लत पर बात कर रहे थे और इस सिलसिले में उन्होंने कहा कि मुझे डर लगने लगा है, क्योंकि अब लड़कियों ने भी बियर पीना शुरू कर दिया है। उनके इस बयान के बाद हैशटैग गर्ल्सहूड्रिंकबियर अभियान सोशल मीडिया पर छिड़ गया है और बहुत सी लड़कियां बियर पीते हुए अपनी तस्वीरें डाल रही हैं। जबकि पर्रीकर के बचाव में कुछ लोग कह रहे हैं कि उन्होंने नशे के खिलाफ चिंता जाहिर की थी। मान लिया कि श्री पर्रीकर को नशे की आदत पर चिंता हो रही है, लेकिन यह चिंता तो लड़का-लड़की दोनों के लिए होनी चाहिए।

 

उन्हें लड़कियों के बियर पीने से किस बात का डर लगा? क्या फिर रामायण की तरह लक्ष्मण रेखा खींचे जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जा रहा है? लड़कियों के लिए मर्यादा के नित नए पाठ रचने वाले कभी लड़कों के उच्छृंखल व्यवहार पर मर्यादा का कोई चाबुक क्यों नहीं चलाते? पर्रीकर ने इसी कार्यक्रम में बेरोजगारी पर कहा कि आजकल युवा कड़ी मेहनत करने से बचते हैं। यही वजह है कि लोवर डिवीजन क्लर्क (एलडीसी) की नौकरियों के लिए लंबी कतार लगी रहती है। इस बयान से एक झटके में उन्होंने सारे युवाओं को आलसी या कामचोर करार दे दिया। इसी तरह मध्यप्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने कहा कि पकौड़ा बनाना भी कौशल विकास का एक हुनर है। इसमें शुरू के दो साल तक भले ही कम सफलता मिले लेकिन तीसरे साल वह व्यक्ति रेस्त्रां और आगे जाकर होटल का मालिक बन सकता है।

उन्होंने यह भी कहा कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। ऐसे में जरूरी है कि बेरोजगारों के कौशल विकास को प्रोत्साहन दिया जाए। श्री पर्रीकर और सुश्री पटेल के ये बयान मोदी सरकार की नाकामी को ही पेश कर रहे हैं। जब सरकार रोजगार दे नहीं सकती तो हर साल दो करोड़ नौकरियों का खोखला वादा क्यों किया? और कैसे ये लोग कह सकते हैं कि कड़ी मेहनत से बचने के लिए कोई एलडीसी की नौकरी पाना चाहता है। क्या एलडीसी बनने पर काम नहीं करना पड़ता? दो साल तक पकौड़ा बेचकर अगर कोई रेस्त्रां का मालिक बन जाता, तो सालों से रेहड़ी-पटरी से कमाई करने वाले कब के सूट-बूट में आ चुके होते।

पकौड़ा बनाना कौशल विकास में आने लगा है, तो सारे उच्च शिक्षण संस्थान सरकार बंद कर दे और चाय-पकौड़ा निर्माण प्रशिक्षण केन्द्र ही खोल ले। कम से कम इस देश का युवा सपने देखना तो बंद कर देगा। यह उनके सपने की मौत होने से बेहतर ही होगा। पाश भी कह गए हैं-सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।

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