हिंदी अखबारों के संपादकीय : आपको सूचना देने वालों के दिमाग में क्या चल रहा है

मीडियाविजिल को लम्बे समय से ऐसा महसूस हो रहा था कि हिंदी के पाठकों के पास ऐसा कोई साधन नहीं जिसके सहारे वे एक साथ तमाम हिंदी दैनिकों के सम्पादकीय पढ़ सकें. एक सामान्य पाठक के लिए रोजाना ईपेपर खोल कर बांचना जटिल काम है जबकि लोगों को यह जानने की ख्वाहिश रहती है कि आखिर इस दौर में अखबारों की आधिकारिक व नीतिगत लाइन अहम मसलों पर क्या है. कुछ मोबाइल एप्प ज़रूर हैं जो इस काम के लिए बनाए गए हैं लेकिन हिंदी का पाठकवर्ग अभी उसका अभ्यस्त नहीं हुआ है.
इसी ज़रूरत को समझते हुए मीडियाविजिल आज से कुछ हिंदी अखबारों के सम्पादकीय एक जगह प्रकाशित करने की पहल कर रहा है ताकि हमारा पाठक सुबह दिन की शुरुआत से पहले सभी अखबारों की दैनिक दिशा से परिचित हो सके. हमारी कोशिश होगी की यह स्तम्भ रोजाना आप तक सुबह 8 बजे से पहले पहुंचे और ज्यादा से ज्यादा हिंदी अखबारों को हम कवर कर सकें. धीरे-धीरे इस पहल को हम संसाधनों की उपलब्धता के हिसाब से अंग्रेजी और उर्दू के अखबारों तक विस्तारित करने की कोशिश करेंगे. 

(संपादक)  


दैनिक हिंदुस्तान

जासूस अधिकारी

आपस में उलझे हुए दो देशों के बीच जासूसी कोई नई चीज नहीं है। सेनाएं और खुफिया एजेंसियां इससे अच्छी तरह निपटना भी जानती हैं। इसलिए समय-समय पर जासूस पकड़े भी जाते हैं। दुश्मन देश के जासूस का पकड़े जाना एक सामान्य सी बात है, लेकिन स्थिति उस समय असहज हो जाती है, जब अपने ही देश का कोई व्यक्ति दुश्मन के लिए जासूसी करते पकड़ा जाए। यह तब और भी दिक्कत भरा होता है, जब पकड़ा जाने वाला व्यक्ति सेना का ही कोई अधिकारी हो। भारतीय वायु सेना के ग्रुप कैप्टन अरुण मारवाह की गिरफ्तारी इसी लिहाज से परेशान करने वाली खबर है। वायु सेना के मुख्यालय में तैनात इस अधिकारी को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने जिस तरह से अपने जाल में फंसाया, उससे हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए। आईएसआई ने उन्हें फंसाने के लिए सदियों पुराने तरीके से प्रलोभन दिया। फर्क इतना है कि इसके लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल किया गया, वह आधुनिक थी। सैनिकों को प्रलोभन देने के लिए विषकन्याओं के इस्तेमाल की कहानियां हम हमेशा से सुनते आए हैं, लेकिन इस बार कोई विषकन्या नहीं, बल्कि महिलाओं के नाम पर बनी फेक आईडी थी। अधिकारी महोदय फेसबुक पर इनके चक्कर में पड़े और यह संपर्क वाट्सएप तक पहुंच गया। यहीं पर थोड़ा आगे चलकर महत्वपूर्ण खुफिया जानकारियां लीक होने लगीं। कम से कम रक्षा मंत्रालय से मिली खबरों में तो यही बताया गया है। हकीकत अगर सचमुच में ऐसी ही है, तो हमारी परेशानी और भी बढ़ जानी चाहिए।

अरुण मारवाह ग्रुप कैप्टन स्तर के बड़े अधिकारी थे। हमें पता नहीं है कि सेना की सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण जानकारियों तक किस स्तर के अधिकारियों की पहुंच होती है। लेकिन यह उम्मीद तो की ही जाती है कि ऐसे दस्तावेजों की सुरक्षा के कई तरह की अतिरिक्त सतर्कता बरती जाती होगी। साथ ही जिन अधिकारियों की ऐसे दस्तावेजों तक पहुंच होती है, उन पर भी खास नजर रखी जाती होगी। उसके बाद भी अगर यह सब हो रहा है, तो सुरक्षा कवच में कहीं ढील या कोई झोल बचा रह गया है। खबरों में यह भी बताया गया है कि अरुण मारवाह जिस स्तर के अधिकारी थे, उन्हें मुख्यालय में स्मार्टफोन साथ ले जाने की इजाजत थी। आज के दौर में स्मार्टफोन पर पूरी पाबंदी शायद मुमकिन न हो, लेकिन ऐसे में, नेटवर्क पर गतिविधियों की विशेष निगरानी तो होनी ही चाहिए।

पूरा मामला यह भी बताता है कि संचार के इस युग में हमें अपनी कई चीजें बदलनी होंगी। हम अपने सैनिकों को हथियार चलाने, दुश्मन से लड़ने और उसकी चालों से बचने का पूरा प्रशिक्षण देते हैं। अब उन चालों से बचने का प्रशिक्षण देना भी जरूरी है, जो सोशल मीडिया पर चली जाती हैं। सैनिक अपने निजी जीवन में दूसरे नागरिकों की तरह ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं। वे सैनिक, जो अपने घर से बहुत दूर लंबे समय तक सीमा या किसी भी तरह के खतरनाक क्षेत्र में तैनात होते हैं, उनके लिए संचार सुविधाएं और सोशल मीडिया अपने परिवार से संपर्क बनाए रखने का एक अच्छा माध्यम हैं। सोशल मीडिया पर उनकी उपस्थिति का दुश्मन किसी भी तरह से गलत फायदा न उठाए, इसे सुनिश्चित करना जरूरी है और यह सेना के प्रबंधन तंत्र की महती जिम्मेदारी भी। सैनिकों और अधिकारियों के प्रशिक्षण में कुछ नए अध्याय जोड़ने का वक्त आ गया है।


दैनिक भास्कर

अयोध्या विवाद में भावनाओं को नहीं मानने का उचित तर्क

अयोध्या मामले पर भावनाओं के दबाव को मानने से इनकार करके सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही किया है। अदालत की यह टिप्पणी संविधानवाद से निकली है कि अयोध्या विवाद मूलतः एक भूमि विवाद है और सुनवाई भावनाओं की नहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2010 के फैसले के विरुद्ध की गई अपील की हो रही है। करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं का सवाल उठाकर कई और पक्षकार शामिल होना चाहते थे, जिनकी दलीलों को मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र की तीन सदस्यीय पीठ ने अनसुना कर दिया। अयोध्या भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे पेचीदा विवाद है और इसमें अदालती दलीलों, अपीलों और सबूतों के साथ राजनीतिक भावनाओं के जुड़ाव को खारिज करना कठिन है। इसीलिए मुख्य न्यायाधीश को यह भी कहना पड़ा कि वे इस मामले की नजाकत को समझते हैं। यह भी एक कारण है कि जिसके नाते सुप्रीम कोर्ट इसकी लगातार सुनवाई करना चाहता है। हालांकि संवैधानिक पीठ की तरफ से किसी एक मामले पर इतना ध्यान देने से जरूरतमंदों के दूसरे मामले प्रभावित हो रहे हैं और यह दलील अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से पैरवी कर रहे वकील राजीव धवन ने न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत भी की है। इस मसले में सुप्रीम कोर्ट फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है। दिसंबर 1992 में भी आरोप लगे थे कि अगर अदालत समय से फैसला दे देती तो शायद वैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना न होती। सही है कि न्यायालय में लंबे समय से जन्मभूमि का विवाद लटका हुआ था लेकिन अगर सुनवाई अदालत अपना फैसला बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध सुना देती तो क्या वह उसे मानने को तैयार हो जाता? यही प्रश्न आज भी है जिसका दबाव सुप्रीम कोर्ट पर काम कर रहा होगा। न्यायालय अगर धर्मग्रंथों के आधार पर यह फैसला देने का प्रयास करता है कि भगवान राम का जन्म वहीं हुआ था तो विधिशास्त्र की अवहेलना होगी और अगर वह इस दावे से इनकार करता है तो बहुसंख्यक समाज और उसकी राजनीति से सीधे टकराव लेना होगा। वैसे ही जल्दी में निर्णय देने पर न्याय को दफनाए जाने का तो देर से देने पर न्याय से वंचित करने की मशहूर उक्ति चरितार्थ होती दिख रही है। अदालती निर्णय से राजनीतिक दलों की लाभ-हानि तो होगी लेकिन उससे भी बड़ा सवाल भारतीय लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं की लाज का है।


जनसत्ता

खालिदा के खिलाफ

बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया आखिरकार जेल भेज दी गर्इं। भ्रष्टाचार के एक मामले में अदालत ने उन्हें दोषी करार दिया और पांच साल की सजा सुनाई। जैसा कि अंदेशा था, खालिदा जिया के खिलाफ फैसला आते ही उनके हजारों समर्थक सड़कों पर उतर आए। कई जगह पुलिस से उनकी झड़पें भी हुर्इं। यह अप्रत्याशित नहीं था। सरकार को अनुमान था कि खालिदा जिया के जेल जाने की नौबत आएगी, तो बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हो सकते हैं। हिंसा भी फूट सकती है। इसलिए सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती की गई थी। खालिदा जिया पर एक अनाथालय के लिए मिले दो लाख बावन हजार डॉलर (2.1 करोड़ टका) की रकम के गबन का आरोप था। इस मामले में खालिदा के बेटे और अन्य चार को भी दस साल की सजा हुई है। खालिदा के वकील ने ऊपरी अदालत में अपील करने की बात कही है। अपील में क्या होगा, उनकी सजा बरकरार रहेगी, या वे खुद को निर्दोष साबित कर पाएंगी, यह सब ऊपरी अदालत का फैसला आने पर ही जाना जा सकेगा। लेकिन यह तो साफ है कि खालिदा का जेल जाना बांग्लादेश के राजनीतिक इतिहास की एक बड़ी घटना है। यों वे पहली बार जेल नहीं गई हैं। पर भ्रष्टाचार के आरोप में उन्हें पहली बार सजा सुनाई गई है।


राजस्थान पत्रिका

एकतरफा संवाद

चाय पर चर्चा की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा सांसदों को अब जनता के साथ ‘टिफ़िन पर चर्चा’ का सुझाव दिया है। इस काम में सांसदों की मदद के लिये, उन्हें प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष के भाषणों का संकलन भी भेंट किया गया। सुझाव अच्छा है लेकिन उसमें “मन की बात” की तरह एकतरफा संवाद की ध्वनी आ रही है। खासतौर पर उस वाकये से, जिसमें राज्स्थान के सभी तीनों उपचुनावों की हार का जिक्र करते हुए किसानों के मुद्दे उठाने वाले सांसद को यह कहते हुए चुप करा दिया गया कि राज्स्थान की हार मत देखो, 2019 की जीत की ओर देखो। इस बात में कोई दोराय नहीं कि, लोकतंत्र में हर राजनीतिक दल का लक्ष्य चुनाव जीतना और सत्ता पर काबिज होना है। कुछ साल पहले तक इसमें पार्टियों के अपने नीति-सिद्धान्त और कार्यक्रमों के लिये जगह होती थी लेकिन इन वर्षों में वह जगह भी सभी दलों में समाप्त हो गई है। एक और बड़ी कमी जो हालिया वर्षों में आई है, वह है राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का कम होना। पार्टी कोई भी हो, नेता कोई भी हो, वह सिर्फ अपनी कहना और चलाना चाहता है। यहां  प्रश्न यह है कि, सांसद भाजपा का हो या कांग्रेस अथवा अन्य किसी दल का,वह मतदाताओं की नस नस को जानता है। यही हाल जनता का है। वह भी सरकार की हर उपलब्धी को जानती है। तब सांसद को उस जनता की राय बताने से रोकना, वही सुनने का संदेश देना है जो नेतृत्व सुनना चाहता है, का क्या अर्थ है? पार्टी कोई भी हो सांसद की, सांसद की नहीं सुना जाना लोकतंत्र ही नहीं, स्वयं उन दलों की सेहत के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। आलोचक या विश्लेषक तो हर दल को अपने साथ रखने ही चाहिए, उसी में उसकी कामयाबी निहित है।


अमर उजाला

मुश्किल में खालिदा

भ्रष्टाचार के मामले में खालिदा जिया को सजा मिलना तय ही था, पर ऐसे भी मिल रहे हैं कि आम चुनाव से पहले उन्हें मिली सख्त सजा के पीछे राजनीति भी हो सकती है

जिया चैरिटेबल ट्रस्ट से जुड़े भ्रस्टाचार के मामले में बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया, उनके भगोड़े बड़े बेटे और अन्य लोगों को मिली सजा प्रत्याशित ही थी, अलबत्ता इसी साल होने वाले आम चुनाव से पहले आया यह फैसला बांग्लादेश की राजनीति को अस्थिर कर सकता है। भ्रष्टाचार का यह मामला खालिदा जिया के प्रधानमंत्री काल का है, जब उन्होंने विदेश से अनाथ बच्चों की बेहतर देख-रेख के लिये जिया चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम आये रुपयों का गबन कर लिया था। एंटी करप्शन(एसीसी) ने न केवल खालिदा और उनके नजदीकियों के खिलाफ़ मुक्द्द्में दर्ज किये थे, बल्कि उसने कहा था कि खालिदा के पति के नाम पर बना यह ट्रस्ट कागजों पर चलता है। अपने शाही रहन-सहन के लिये चर्चित खालिदा बांग्लादेश की सबसे धनी राजनीतिज्ञ हैं, तो वह ऐसे ही नहीं हैं। अलबत्ता 2.1 करोड़ टका के भ्रस्टाचार में निचली अदालत ने उन्हें जिस तरह पांच साल का सश्रम कारादंड दिया है, वह चौंकाता है, क्योंकि बांग्लादेश के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद इरशाद को भ्रष्टाचार के इससे करीब  5 गुना बड़े मामले में इससे कम सजा मिली थी। चूंकि बांग्लादेश में दो साल से अधिक की सजा होने पर व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, ऐसे में, चुनाव से पहले खालिदा जिया की मुश्किलें बढ़ गई हैं; हालांकि उनके लिये ऊपरी अदालतों के दरवाजे खुले हुए हैं। इन्हीं कारणों से आशंका भी जताई जाने लगी है कि उन्हें मिली सख्त सजा के पीछे राजनीति भी हो सकती है। खालिदा की बांग्लादेश नेशनलिश्ट पार्टी द्वारा, जो वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी भी है, पिछ्ले आम चुनाव का बहिष्कार करने के कारण न केवल शेख हसीना सत्ता में फिर लौटीं, बल्कि उनका मौजूदा कार्यकाल उनके तानाशाही तौर-तरीके और कट्टरतावाद के आगे समर्पण के लिये ही ज्यादा याद किया जाता है। अगर खालिदा अगला चुनाव नहीं लड़ पातीं, तो शेख हसीना के लिए लड़ाई आसान हो जाएगी। हालांकि खालिदा की तुलना में शेख हसीना को ज्यादा उदार और भारतपरस्त माना जाता है, पर अपने निष्कंटक राज के लिए अगर वह लोकतंत्र की परम्पराओं को ताक पर रखतीं हैं, तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।


दैनिक जागरण 

स्वास्थ्य ढांचे का सच

नीति आयोग की ओर से जारी स्वास्थ्य सूचकांक पर केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के नीति-नियंताओं को भी चेत जाना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि बड़ी आबादी वाले राज्यों में केरल को छोड़कर किसी के भी अंक 70 से अधिक नहीं। केरल सौ में 80 अंक लेकर पहले स्थान पर है तो पंजाब करीब 65 अंक के साथ दूसरे पायदान पर। इस सूचकांक में कहीं अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों ने जिस तरह 50 से भी कम अंक हासिल किए उससे यह साफ है कि वहां स्वास्थ्य सुविधाएं संतोषजनक नहीं हैं। चिंता की बात यह है कि ज्यादातर राज्यों के अंक 40-50 के आसपास ही हैं। सेहत के विभिन्न पहलुओं के आधार पर तैयार इस सूचकांक का विवरण सामने आने के बाद फिसड्डी राज्यों को अपने स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने के लिए कमर कसनी ही होगी। नि:संदेह यह काम उन राज्यों को भी करना होगा जो कुछ बेहतर स्थिति में दिख रहे हैं, क्योंकि उनकी प्रगति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। अगर केरल स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने का काम उल्लेखनीय तरीके से कर सकता है तो अन्य राज्य क्यों नहीं कर सकते? केंद्र सरकार को केवल यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं करनी चाहिए कि वह इसी सूचकांक के आधार पर राज्यों को अनुदान देगी। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि राज्य अपने स्वास्थ्य तंत्र को सुधारने को लेकर आवश्यक प्रतिबद्धता दिखाएं। यह इसलिए और आवश्यक है, क्योंकि इस बार के आम बजट में जिस स्वास्थ्य बीमा योजना को बाजी पलटने वाला बताया जा रहा है वह ऐसी तभी साबित होगी जब देश का स्वास्थ्य ढांचा बेहतर होगा। अभी तो स्थिति चिंताजनक ही अधिक है। फिलहाल अपने देश में प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर का भी औसत नहीं है। ग्रामीण इलाकों में डॅाक्टरों के साथ सरकारी एवं गैर सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की उपलब्धता और अधिक दयनीय है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि एमबीबीएस करके निकले युवा डॅाक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने के लिए ही तैयार नहीं। कई राज्यों ने इसके लिए प्रोत्साहन योजनाएं चला रखी हैं, लेकिन वे कारगर साबित नहीं हो रही हैं। एक समस्या यह भी है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के साथ अन्य सरकारी अस्पतालों पर लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है। आम आदमी के लिए निजी क्षेत्र के अस्पताल महंगे ही नहीं हैं, नियमन और निगरानी के अभाव में वे बेलगाम भी हैं। इस सबके अतिरिक्त सरकार को इससे भी परिचित होना चाहिए कि भारत उन देशों में जहां आम लोग उपचार कराने के फेर में कर्जदार हो जा रहे हैं। कारगर स्वास्थ्य तंत्र का अभाव केवल संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में ही बाधक नहीं है। उसके कारण ही देश की उत्पादकता भी नहीं बढ़ पा रही है। ऐसे में नीति आयोग को केवल इससे संतुष्ट नहीं होना चाहिए कि भारत राज्यों के स्तर पर स्वास्थ्य सूचकांक तैयार करने वाला पहला देश बन गया है। उसका लक्ष्य ऐसी प्रभावी रीति-नीति बनाना भी होना चाहिए जिससे देश का स्वास्थ्य ढांचा तेजी के साथ सुधरे और वह आम लोगों की सेहत संबंधी जरूरतों को पूरा भी करे।

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