पहला पन्ना: ‘बंगाल जीतने की डरावनी कोशिश’ को शीर्षक बनाने से डर गये!

द टेलीग्राफ में यह खबर लीड है, "बंगाल जीतने की डरावनी कोशिश।" हिन्दी पट्टी के लिए यह खबर नहीं है? अखबार ने बताया है कि प्रतिबंध का समय खत्म होने के बाद ममता बनर्जी ने बारासात और विधान नगर में रैली की और जोरदार तरीके से भाजपा की कोशिशों की पोल खोली। ममता ने कहा कि केंद्रीय एजेंसियों समेत संसाधनों के दुरुपयोग से भाजपा उन्हें रोकना चाहती है। अखबार ने लिखा है कि ममता बनर्जी ने चुनाव आयोग से बचने के लिए उसपर सीधे हमला नहीं किया। उन्होंने कहा, "ऐसे लोग हैं जो गोली चलाने, चार और, आठ और लोगों को मारने की बातें करते हैं, हर जगह हत्या की बात करते हैं लेकिन उनके मामलों में पूरी चुप्पी है। मुंह सिले हुए हैं।

आपने कल पढ़ा कि ममता बनर्जी को जिन बातों के लिए चुनाव प्रचार से प्रतिबंधित किया गया लगभग वैसी ही बातों के लिए प्रधानमंत्री को प्रतिबंधित नहीं किया गया। चुनाव आयोग के इस निर्णय के खिलाफ ममता बनर्जी ने कल दिन भर धरना दिया और प्रतिबंध खत्म होने के बाद रैली की। ऐसे में धरने की तस्वीर या सूचना खबर नहीं है, खबर ये है कि ममता बनर्जी ने प्रतिबंध पर कहा क्या। कहने के लिए कहा जाता है कि एक तस्वीर 1000 शब्द के बराबर होती है लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता है। ऐसे में धरना खबर है लेकिन कितनी बड़ी और किस खबर की कीमत पर? आइए देखते हैं। 

धरने की खबर आज सभी अखबारों में प्रमुखता से है। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह बिना फोटो के सिंगल कॉलम की खबर है, “ममता धरने पर बैंठीं, कहा उन्हें ‘रोकने’ की कोशिश है।” यह एक अन्य खबर के साथ है, जिसका शीर्षक है, “दीदी के बाद, उकसाने वाली टिप्पणियों के लिए भाजपा नेता चुनाव आयोग के गुस्से का शिकार हुए।” मुझे लगता है दीदी पर उकसाने वाली टिप्पणी का आरोप नहीं था और जो उन्होंने कहा था वही बात प्रधानमंत्री भी कह चुके थे। इसलिए अगर कार्रवाई होनी थी तो दोनों के खिलाफ होनी चाहिए थी। जहां तक भाजपा नेताओं के उकसाने वाले बयानों की बात है, बंगाल में ही नहीं, देश भर में कई मिल जाएंगे। इस लिए किसी मामले में कार्रवाई ममता बनर्जी पर प्रतिबंध लगाने या प्रधानमंत्री पर नहीं लगाने के मुकाबले में कुछ नहीं है। जब प्रधानमंत्री को बांग्लादेश जाकर चुनावी राजनीति करने से नहीं रोका गया तो बाकी का कोई मतलब नहीं है। हालांकि, भाजपा नेताओं को कुछ भी बोलने देने की आजादी भी नहीं है। पर यह वैसा मामला नहीं है कि उसकी बराबरी में रखा जाए या ममता बनर्जी ने विरोध स्वरूप जो किया उसका महत्व कम हो जाए। इसीलिए, दूसरे सभी अखबारों में उसकी तस्वीर है। 

 

हिन्दुस्तान टाइम्स में फोटो के साथ छपी खबर का शीर्षक है, “चुनाव आयोग के प्रतिबंध पर दीदी ने धरना दिया, शाह ने हमले जारी रखे।” द हिन्दू में शीर्षक है, “ममता बनर्जी ने प्रचार पर प्रतिबंध के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध किया।” इंडियन एक्सप्रेस में सिर्फ धरने की तस्वीर है। इसके साथ कोई खबर नहीं। फोटो कैप्शन का शीर्षक (बड़े फौन्ट में) है, ममता का सड़क पर धरना। अखबार में इसके साथ पर अलग खबर है, चुनाव आयोग ने भाजपा नेता पर 48 घंटे का प्रतिबंध लगाया। यह प्रतिबंध किसी राहुल सिन्हा पर है जिनका नाम पहली बार मैंने उस बयान के लिए ही जाना जिसके लिए उनपर प्रतिबंध लगाया है। मुझे लगता है कि यह पहले पन्ने के डबल कॉलम की खबर नहीं है और संतुलन बनाने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने यही काम कुछ कायदे से किया है। कुछ और लोगों पर एतराज, कारण बताओ आदि को मिलाकर अधपन्ने की लीड बना दी है और धरने को उसी खबर से दबा भी दिया है। पर यही संपादकीय स्वतंत्रता और विवेक है।  

द टेलीग्राफ में यह खबर लीड है, “बंगाल जीतने की डरावनी कोशिश।” हिन्दी पट्टी के लिए यह खबर नहीं है? अखबार ने बताया है कि प्रतिबंध का समय खत्म होने के बाद ममता बनर्जी ने बारासात और विधान नगर में रैली की और जोरदार तरीके से भाजपा की कोशिशों की पोल खोली। ममता ने कहा कि केंद्रीय एजेंसियों समेत संसाधनों के दुरुपयोग से भाजपा उन्हें रोकना चाहती है। अखबार ने लिखा है कि ममता बनर्जी ने चुनाव आयोग से बचने के लिए उसपर सीधे हमला नहीं किया। उन्होंने कहा, “ऐसे लोग हैं जो गोली चलाने, चार और, आठ और लोगों को मारने की बातें करते हैं, हर जगह हत्या की बात करते हैं लेकिन उनके मामलों में पूरी चुप्पी है। मुंह सिले हुए हैं। ममता बनर्जी ने लोगों से एकजुट होकर वोट देने, मतों के ध्रुवीकरण से बचने के लिए कहा तो बहुत बड़ी गलती कर दी। मैं अब भी वही कहती हूं, मैं हमेशा यही बोलूंगी। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, मतुआ, महिला, छात्र, युवा …. मुझे हर किसी का वोट चाहिए बंगाल को बचाने के लिए। बंगाल जिन्हें प्रिय मानता है उन सारी चीजों को बचाने के लिए। इस तरह ममता बनर्जी ने अपने कहने को दोहरा दिया है। पर आज न इसकी रिपोर्ट होगी और ना कार्रवाई होगी। ऐसी ही होती है आजकल की रिपोर्टिंग। बिना धार की। सत्य से अलग। 

कोविड-19 के विदेशी टीकों को अचानक मंजूरी दिया जाना बड़ी खबर है। आप जानते हैं कि कोविड-19 जैसी महामारी ने निपटने के उपायों के नाम पर भारत में पीएम केयर्स का गठन और उससे टीका बनाने की सहायता के लिए पैसे दिए गए थे। पैसे तो वेंटीलेटर खरीदने के लिए भी दिए गए थे पर उसका कुछ पता नहीं चला। देश महामारी से लड़ने या लाचार पड़े रहने या ताली-थाली बजाने के साथ टीका भी बनाता रहा और जो हुआ वह सब आप जानते हैं। प्रचार भी। लेकिन विदेशी टीकों की चर्चा भारत में नहीं रही जबकि हमारे पास इन टीकों को खरीदने का विकल्प था। पर हम टीका बनाने, विकसित करने और उसके प्रचार में लग गए। फिर बिक्री और टीकाकरण में। आखिरकार टीके की कमी की खबरें आने लगीं। यह अव्यवस्था है। पर इसकी चर्चा अखबारों में नहीं होती।  

इसीलिए, राहुल गांधी को कहना पड़ा कि दूसरे टीकों को मंजूरी देने का काम भी तेजी से किया जाना चाहिए। पर भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने उनपर विदेशी कंपनियों के लिए दलाली का आरोप लगा दिया। भाजपा नेताओं ने पहले यह भी कहा था कि विदेशी टीकों की जरूरत नहीं पड़ेगी। राहुल गांधी की सलाह या मांग इन तथ्यों के आलोक में होगी पर चौकीदार सेना राहुल गांधी पर टूट पड़ी। कुछ ही दिन बाद विदेशी टीकों को मंजूरी की खबरें आने लगीं। मुझे नहीं पता कि हम अपना टीका विकसित करने की बजाय विदेशी टीका खरीदते तो पहले मिलता या नहीं तथा लाभ होता या नहीं। पर विदेशी टीकों को छोड़कर अचानक उन्हें मंजूरी देने, तथा राहुल गांधी पर आरोप लगाने के बाद जो स्थिति बनी है उसमें इस मामले पर छोड़ी पारदर्शिता की जरूरत है। प्रचार और श्रेय लेने का जो खेल हुआ वह भी ऐसा ही विषय है। पर अखबारों को ऐसा नहीं लगता है। 

 


टीके की खबर आज द टेलीग्राफ को छोड़कर सभी अखबारों में लीड है। टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर है। शीर्षक इस प्रकार हैं :  

  1. टीकों की विविधता बढ़ाने की कोशिश, विदेशी टीकों के लिए इमरजेंसी सहमति – (द टेलीग्राफ) 
  2. दूसरे देशों में क्लीयर टीकों की मंजूरी को गति दी गई – (हिन्दुस्तान टाइम्स) 
  3. दूसरे देशों में क्लियर्ड टीके को सहमति देने का काम सरकार ने तेज किया – टाइम्स ऑफ इंडिया। 
  4. ज्यादा टीकों के लिए केंद्र ने मंजूरी देने की प्रक्रिया तेज की – द हिन्दू।
  5. दूसरी तेजी: केंद्र ने विदेशी टीकों के लिए रास्ता साफ किया, मंजूरी को गति दी – इंडियन एक्सप्रेस। 

आप देख सकते हैं कि इंडियन एक्सप्रेस ने इसे अनावश्यक दूसरी महामारी की तेजी से जोड़ा है। अगर दूसरी तेजी की बात की जाए तो इसका पता सबको पिछले साल ही था। यह सब सोचना तो पिछले साल था। पर सोचा नहीं गया। मंत्रीगण तरह-तरह के बयान देते रहे। दूसरी दवा की जरूरत नहीं पड़ेगी से लेकर राहुल गांधी लॉबिइंग कर रहे हैं, तक। खुद स्वास्थ्य मंत्री देसी दवा का प्रचार कर रहे थे और टीके की खुराक के बीच अंतराल बढ़ाने, शेल्फ लाइफ बढ़ाने जैसी मनमानी कार्रवाई की गई। देसी कंपनियों (या चुनी हुई कंपनियों) को पूरा संरक्षण देने के बाद जब बीमारी नहीं रुकी तो छूट देने का ख्याल आया पर राहुल गांधी को लपेटने की कोशिश के बाद। कमाने वाले कमा चुके। आपदा में अवसर हो गया।  

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

First Published on:
Exit mobile version