संजय कुमार सिंह
इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को सिटी पन्ने पर लीड बनाया है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने पर छोटी सी सूचना के साथ इस खबर को सिटी पेज पर छापा है। हालांकि, टाइम्स की खबर में लिखा है, “एबीवीपी ने दावा किया है कि 20 नवंबर को दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई से पहले ‘संगठन की छवि बनाए रखने के लिए’ बसोया से इस्तीफा देने के लिए कहा गया है।” यही नहीं, छात्र परिषद के दिल्ली राज्य सचिव भरत खटाना का यह दावा भी है कि हमने दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन से आग्रह किया था कि जांच की प्रक्रिया पूरी की जाए पर वे देर करते रहे। इससे अफवाह फैल रही थी।
हमलोगों ने बसोया से इस्तीफा देने को कहा क्योंकि अफवाहों से हमारी और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की छवि खराब हो रही थी।” हालांकि, टाइम्स ऑफ इंडिया ने एनएसयूआई और एआईएसए के दावे भी छापे हैं।
इस बारे में हिन्दुस्तान टाइम्स ने हाल में दो बार विस्तार से खबर की थी। आज फिर मेट्रो पन्ने पर विस्तार से खबर दी है और तारीखवार घटनाक्रम बताया है। द टेलीग्राफ ने अंदर के पेज पर छोटी सी डबल कॉलम की खबर छापी है। विशेष संवाददाता की यह खबर पढ़ने से ही लगता है कि प्रेस विज्ञप्ति नहीं है और ना प्रेस विज्ञप्ति से लिखी गई है। हिन्दी अखबारों के 10 हजारी संवादादाताओं से ऐसी खबर की उम्मीद करना भी बेमानी है। एबीवीपी फेक स्लर (एबीवीपी पर फर्जी प्रमाणपत्र का दाग) हिन्दी के अखबारों में लगे तमाम शीर्षक से बढ़िया और सटीक है।
सच यही है कि आरोप लगने के बाद कोई कार्रवाई नहीं हुई और अब जब अदालत का आदेश आने वाला है तो यह दिखावा किया गया है। दिल्ली पुलिस की इसमें कोई भूमिका नहीं रही जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ-साथ इसमें दाखिला लेने और चाहने वाले लाखों छात्रों के साथ यह ठगी और धोखाधड़ी का मामला है। पर फर्जी डिग्री की जांच दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन खुद करता रहा। एफआईआर हुई ऐसी कोई सूचना मुझे किसी अखबार में नहीं दिखी। दूसरी ओर, दिल्ली के आम आदमी पार्टी के एक मंत्री की डिग्री फर्जी होने के मामले में पुलिस ने कितनी तत्परता दिखाई थी और तब अखबारों का रुख कैसा था, यह पाठकों को भूला नहीं होगा।
जितेंद्र सिंह तोमर की डिग्री के संबंध में फैसला अभी नहीं आया है और एफआईआर की धाराओं से लेकर एफआईआर कराने के अधिकार और आईपीसी की धारा 420 के तहत कार्रवाई जैसे कई मामले दिल्ली और पटना हाईकोर्ट में लंबित हैं। जिसकी जानकारी अखबारों ने नहीं दी, नहीं देता है। इस मामले में खास बात यह भी है कि भागलपुर के तिलकामांझी यूनिवर्सिटी ने जितेंद्र सिंह तोमर की डिग्री को रद्द कर दिया था। इसका मतलब हुआ कि डिग्री फर्जी नहीं थी, जारी हुई थी। अगर ऐसा है तो फर्जी डिग्री का मामला तो नहीं ही बनेगा 420 का भी नहीं बनेगा। पर कार्रवाई हुई, मंत्री पद गया, गिरफ्तारी, परेशानी और बदनामी हुई सो अलग। लेकिन बसोया की फर्जी डिग्री के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
यह दो राजनैतिक दलों के समर्थकों के साथ दो तरह की कार्रवाई का सीधा और साफ मामला है। इस पर बोलेगा कौन? इस बारे में आपको जानकारी देने की जिम्मेदारी किसकी है? पर सही और निष्पक्ष जानकारी देना तो दूर, आपका अखबार खुद ही पार्टी बन जाता है। आइए, आज अंकिव बसोया के मामले में आपको कुछ ऐसी जानकारी दूं जो आपके अखबारों को पहले देनी चाहिए थी और नहीं दी थी तो आज जरूर देनी चाहिए थी पर ना पहले दी और ना आज। असल में अंकिव को एक साल के लिए चुना गया था और चुनाव में ईवीएम गड़बड़ी की शिकायत भी थी। नियम है कि अगर कोई पद दो महीने बाद खाली होता है तो उसके लिए दोबारा चुनाव नहीं होगा। इस लिहाज से अदालत ने 12 नवंबर तक जांच पूरी करने का आदेश दिया था। पर विश्वविद्यालय ने जांच पूरी नहीं की। बहाने बनाए गए। किसी तरह समय निकाला गया।
(चुनाव नहीं होंगे तो अध्यक्ष पद उपाध्यक्ष संभालेगा जो एबीवीपी का है। इस तरह एबीवीपी का कब्जा बना रहेगा। समय पर कार्रवाई होती तो अध्यक्ष पद पर चुनाव होता और फर्जी डिग्री प्रकरण संगठन पर भारी पड़ता।)
सच यह है कि एक साल के लिए चुने गए वसोया पर आरोप तो जीतते ही लग गए थे और डिग्री फर्जी होने की जानकारी भी उसी समय सार्वजनिक हो गई थी। दिल्ली हाईकोर्ट ने 30 अक्तूबर को ही दिल्ली विश्वविद्यालय से कहा था कि 12 नवंबर तक जांच पूरी करे और नहीं पूरी होने पर इसे 20 नवंबर तक बढ़ाया जा चुका था और अदालत में भी यह आरोप लगा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय जानबूझ कर इस मामले में देरी कर रहा है। कुल मिलाकर फर्जी डिग्री के एक जैसे मामले में दिल्ली पुलिस, प्रशासन, दिल्ली विश्वविद्यालय और अदालत के अलग-अलग रुख के साथ-साथ मीडिया की आजादी भी अच्छी तरह से दिख रही है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।