चन्द्र प्रकाश झा
मोदी जी की चुनावी कल्पनाएं अभी पूरी तरह से नहीं खुली हैं। वह अक्सर ‘न्यू इंडिया’ की बात कहते हैं, इसके लिए नया संविधान भी बनाने की मोदी जी की मंशा की एक झलक इस बार के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के उनके नए जुमले से मिली। मोदी जी की मंशा यह लगती है है कि लोक सभा और देश की सभी विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ करा लिए जाएँ ताकि विभिन्न राज्यों में अलग -अलग चुनाव न कराना पड़े , चुनाव कराने के राजकीय खर्च में कमी हो , सरकारें चुनावी दबाब में लोकलुभावन उपाय करने के मंहगे चक्कर से बच कर ‘ स्थिरता ‘ से राजकाज चला सके.
यह तथ्य स्पष्ट है कि भारत , केन्द्रीयतावादी नहीं बल्कि संघीयतावादी गणराज्य है जिसके संघ -राज्य के संघटक सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव केंद्र की विधायिका ( संसद ) के निम्न सदन ( लोकसभा) के चुनाव के साथ ही कराने की अनिवार्यता का कोई संवैधानिक प्रावधान ही नहीं है। मौजूदा संविधान के रचनाकारों ने ‘ एक व्यक्ति , एक वोट , एक मूल्य ‘ के सिद्धांत को अपनाया। स्वतंत्र भारत की पहली लोक सभा के साथ ही सभी राज्यों की विधान सभाओं के भी चुनाव कराने की व्यवस्था का प्रावधान रखने का विकल्प , संविधान सभा के सम्मुख खुला था। पर संविधान के रचियताओं ने भारत में संवैधानिक लोकतंत्र के हितों के संरक्षण के लिए बहुत सोच –समझ कर केंद्र के केंद्रीयतावाद की प्रवृति पर अंकुश लगाना और राज्यों की संघीयतावाद को प्रोत्साहित करना श्रेयस्कर माना।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस ) के पूर्व प्रचारक एवं सिद्धांतकार और भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके के.एन.गोविंदाचार्य इस काम में लगे हैं। उन्होंने यह स्वीकार भी किया है। उनका कहना है कि मौजूदा संविधान में ” भारतीयता ” नहीं है उसकी जगह नया संविधान बने।मोदी जी इसी बरस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्पष्ट कह चुके हैं कि वह ‘ एक राष्ट्र एक चुनाव ‘ के पक्षधर हैं। लेकिन उन्होंने इसका और खुलासा नहीं किया है।
राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि मोदी जी को ऐसे बहुत सारे काम पूरे करने हैं जिनके लिए उन्हें प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया गया। इन कामों में भारत को ” हिन्दू राष्ट्र ” घोषित करने की जमीन तैयार करना भी है जिसमें मौजूदा संविधान बाधक है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि भाजपा जिस आरएसएस को अपनी ‘ मातृ संस्था ‘ कहती है उसे भारत का यह संविधान कभी रास नहीं आया। आरएसएस का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कभी भी कोई योगदान नहीं रहा। उसने संविधान निर्माण के समय उसके मूल स्वरुप का विरोध किया था। उसके स्वयंसेवकों ने स्वतंत्र भारत का मौजूदा संविधान बनने पर उसकी प्रतियां जलाईं थी।
आरएसएस को संविधान की प्रस्तावना में शामिल सेक्यूलर ( धर्मनिरपेक्ष / पंथनिरपेक्ष ) पदबंध नहीं सुहाता है। उसके अनुसार धर्मनिरपेक्ष शब्द मात्र से भारत के धर्मविहीन होने की बदबू आती है। जबकि यह जनसंख्या के आधार पर हिन्दू धर्म -प्रधान देश है। आरएसएस का राजनीतिक अंग कही जाने
वाली भाजपा का हमेशा से कहना रहा है कि आज़ादी के बाद से सत्ता में रहे अन्य सभी दलों और ख़ास कर कांग्रेस ने वोट की राजनीति कर अल्पसंख्यक मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है और हिन्दू हितों की घोर उपेक्षा की है , जिसका ज्वलंत उदाहरण अयोध्या में विवादित परिसर में राम मंदिर के निर्माण में विधमान अवरोध हैं. लेकिन मौजूदा संविधान में कहीं भी मोदी जी के स्वप्न के ‘ न्यू इंडिया ‘ का जिक्र नहीं है। अलबत्ता , संविधान सभा की 26 नवम्बर 1949 को पारित और कार्यान्वित संविधान की प्रस्तावना में ही स्पष्ट लिखा है कि ‘ इंडिया दैट इज भारत ‘ , सर्वप्रभुता संपन्न, समाजवादी , धर्म निरपेक्ष , लोकतांत्रिक गणराज्य है। इस संविधान में भले ही अब तक एक सौ से भी अधिक संशोधन किये जा चुके हैं लेकिन उसके मूल चरित्र को पलटना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं है।
इंडिया दैट इज भारत के संघ -राज्य की मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के तहत कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले भी राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के माध्यम से मध्यावधि चुनाव कराने की उसकी कैबिनेट बैठक में पारित संस्तुति पर निर्वाचन आयोग को से आदेश जारी करने कह सकती है.
लेकिन सरकार का निर्धारित कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद नया चुनाव रोकना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। गौरतलब है कि चुनाव कराने के अंतिम निर्णय की घोषणा के बाद विस्तृत चुनाव कार्यक्रम तैयार करने और फिर उसके अनुरूप देश भर के विभिन्न राज्यों में अनेक चरण में मतदान कराने , पुनर्मतदान , मतों की गिनती , मतगणना के परिणामों की अधिकृत घोषणा , अलग -अलग दलों और उनके चुनाव- पूर्व या चुनाव -पश्चात के मोर्चा के विधायी निकाय की औपचारिक बैठक में निर्वाचित प्रत्याशियों के नेता का चयन , चयनित नेता की नई सरकार बनाने की औपचारिक दावेदारी , प्रतिस्पर्धी दलों -मोर्चा की नई सरकार बनाने की प्रति-दावेदारी की सरल अथवा अत्यंत ही जटिल प्रक्रियाओं के उपरान्त नई सरकार के औपचारिक शपथ ग्रहण को पूरा होने में माह -दो -माह लग ही जाते हैं। चुनाव कराने पर राजकीय खर्च खर्च , प्रति मतदाता 2009 में 12 रूपये और 2014 के आम चुनाव में 17 रूपये पड़ा था।
इस स्तम्भ में हम पहले ही इंगित कर चुके है कि भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत संसद के निम्न सदन , यानि लोक सभा का चुनाव सावधिक रूप से कराने की अनिवार्यता है। यह अनिवार्यता अभी हर पांच बरस पर है। पिछली 16 वीं लोकसभा के चुनाव मई 2014 में कराये गए थे। इस कारण अगला आम चुनाव मई 2019 तक कराने होंगे। भारतीय संघराज्य के केंद्र की कार्यपालिका चाहे तो अपने कैबिनेट में एक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपति के माध्यम से निर्वाचन आयोग से समय से पहले भी चुनाव कराने का आग्रह कर सकती है। केंद्र की कार्यपालिका की मंशा अगर आम चुनाव निश्चित अवधि पर नहीं कराने की हो तो उसके पास कुछ उपाय तो है लेकिन वे बहुत जटिल है और उनकी संभाव्यता फिलहाल संदिग्ध है। इन में एक उपाय जनमतसंग्रह भी हो सकता है। मौजूदा संविधान में जनमत संग्रह का प्रावधान है लेकिन इसका उपयोग स्वतंत्र भारत में अभी तक नहीं किया गया है। दूसरा उपाय यह है कि मौजूदा संविधान को पलटने के लिए नई संविधान सभा का गठन हो और नए चुनाव के बाद नई संसद के गठन की प्रक्रिया पूरी होने तक वही भारत के संघ गणराज्य की विधायिका का कार्यभार भी संभाले। जिस संविधान सभा ने मौजूदा संविधान रचा था उसने कुछ अर्से के लिए विधायिका की भूमिका भी निभाई थी। पर नई संविधान सभा का गठन और भी जटिल उपाय होगा। क्योंकि मौजूदा संविधान में नई संविधान सभा के गठन का कोई प्रावधान ही नहीं है। नई संविधान सभा के गठन के के लिए संसद से कोई संविधान संशोधन अधिनियम पारित कराने से काम नहीं चलेगा। क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ , दिवंगत इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल ने पारित 42 वें संविधान संशोधन को निरस्त कर यह व्यवस्था दे चुकी है कि भारत के संविधान के बुनियादी ढांचा में परिवर्तन लाना कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
सत्ता पक्ष और विपक्ष की तरफ से भी नए आम चुनाव की तैयारियां भी चल रही हैं। विपक्ष की तैयारियों की चर्चा हम बाद में करेंगे। पहले यह देख लें कि चुनावी मैदान में उतरने से पहले कौन कितने पानी में है और अभी चुनावी परिणामों के आधार पर किसमें कितना दम है। गौरतलब है कि मोदी जी ने शनिवार को कटक की अपनी रैली में गर्जना कर कहा कि भाजपा 20 राज्यों की सत्ता में है जो दिखाता है कि लोगों ने पिछले चार साल में ” एनडीए ” के कामकाज को सराहा है। मोदी जी की यह बात सत्य नहीं है। यह सिर्फ इस बात से स्पष्ट है कि एनडीए का अस्तित्व सिर्फ संसद और कुछ हद तक बिहार जैसे प्रदेशों में ही है। देश के पूर्वोत्तर राज्यों की सत्ता में विभिन्न दलों के साथ भाजपा के दाखिल मोर्चा में किसी का नाम एनडीए नहीं है। भाजपा के सत्तारूढ़ साझा मोर्चा का नाम महाराष्ट्र , नगालैंड , मेघालय , अरुणाचल प्रदेश , असम , झारखंड , और जम्मू -कश्मीर में अलग -अलग है। एनडीए में दलों और उनके निर्वाचित सांसदों , विधायकों का कोई प्रामाणिक देशव्यापी ब्योरा उपलब्ध नहीं है।
‘द वायर ने‘ 27 मई को एक रिपोर्ट में कहा कि भाजपा को 10 राज्यों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त है। भाजपा को इनमें से मध्य प्रदेश की 230 में से 165 , छत्तीसगढ़ की 90 में 49 , राजस्थान की 200 में से 163 , उत्तर प्रदेश की 403 में से 312 , उत्तराखंड में 70 में से 56 , हरियाणा की 90 में से 47 , गुजरात में 182 में से 99 , हिमाचल प्रदेश में 68 में से 44 और त्रिपुरा में 60 में से 35 सीटें सीटें हासिल है. जिन अन्य 10
राज्यों में विभिन्न दलों के साथ भाजपा की साझा सरकार है उनकी विधान सभाओं में से उसको महाराष्ट्र की 228 में से 122 , असम में 126 में से 60 , बिहार में 243 में से 53 , झारखंड में 81 में से 35 , गोआ में 40 में से 13 , जम्मू -कश्मीर में 89 में से 25 , मणिपुर में 60 में से 21 , मेघालय की 60 में से दो , नागालैंड की 60 में से 12 सीट है। भाजपा को अरुणाचल प्रदेश के 60 -सदस्यीय विधान सभा के 2014 में हुए पिछले चुनाव में केवल 11 सीटें ही मिली थीं लेकिन उसने बाद में कांग्रेस समेत विपक्ष दलों के जीते विधायकों का कई किश्तों में दल -बदल करवा कर जुटाए बहुमत से खुद अपनी सरकार बना ली थी। अन्य राज्यों की विधान सभा में से भाजपा को केरल की 140 में से एक , पंजाब की 117 में से तीन , बंगाल की 295 में से तीन , तेलंगाना की 119 में से पांच , आंध्र प्रदेश की 175 में से चार , उड़ीसा की 147 में से 10 , दिल्ली की 70 में से तीन , कर्नाटक की 224 में से 104 सीटें हैं। तमिलनाडु , सिक्किम , पुडिचेरी में भाजपा का कोई भी विधायक नहीं है। देश भर के कुल 4139 विधायकों में से भाजपा के आधा से भी बहुत कम सिर्फ 1516 विधायक हैं जो अधिकतर उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , राजस्थान , महाराष्ट्र , कर्नाटक और गुजरात के हैं।
उधर , आम चुनाव को लेकर सेंटर फॉर डेवलपिंग स्टडीज ( सीएसडीएस ) – लोकनीति के मई 2018 के उत्तरार्ध में किये सर्वेक्षण के अनुसार मोदी सरकार के प्रति असंतोष पूरे देश में बढ़ा है। दक्षिण भारत में असंतोष सबसे ज्यादा 63 प्रतिशत है। शेष भारत में असंतोष 47 प्रतिशत है। मोटे तौर पर मोदी सरकार से संतुष्ट हर व्यक्ति पर दो असंतुष्ट हावी पड़ते हैं अगले आम चुनाव में दक्षिण भारत के पांच राज्यों , कर्नाटक , केरल , तमिलनाडू , आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भाजपा का कुल वोटों में हिस्सा 18 फीसदी रहने की संभावना है। दक्षिण भारत में भाजपा को सबसे बड़ा झटका आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ तेलुगु देशम के एनडीए से अलग हो जाने से लगा है . दक्षिण भारत के राज्यों में से आंध्र में तेलुगु देशम , तेलंगाना में ‘ तेलंगाना राष्ट्र समिति ‘ ( टीआरएस ) , तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम , कर्नाटक में जनता दल ( सेकुलर ) और केरल में वाम दलों के प्रति जन समर्थन बढ़ने का अनुमान है। मोदी सरकार से सर्वाधिक 75 प्रतिशत असंतोष तमिलनाडु में है जहां अभी भाजपा -समर्थक अन्ना -द्रमुक की सरकार है। तेलंगाना के 63 प्रतिशत , आंध्र के 68 प्रतिशत और केरल के 64 प्रतिशत लोग मोदी सरकार से असंतुष्ट बताये जाते हैं।
इस बीच , नई दिल्ली में 8 जून 2018 को इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट में एक सम्मलेन आयोजित किया जा रहा है जिसमें भारत में चुनाव के व्यापक सन्दर्भों में ईवीएम , चुनाव फंडिंग और निर्वाचन आयोग पर भी विचार -विमर्श किया जाएगा। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस वाय कुरैशी इस सम्मलेन की अध्यक्षता करेंगे। इसमें आयआयटी भिलाई के निदेशक रजत मूना , वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी , एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक -सदस्य जगदीप चोकर और भारतीय प्रसाशनिक सेवा के ईएएस सरमा , एमजी देवसहायम आदि को भी बुलाया गया है। फिलहाल तो सबका ध्यान सात राज्यों में 28 मई को लोकसभा की चार और विधान सभाओं की कुल 10 सीटों पर कराये गए मतदान और उनमें से कुछ बूथों पर बुधवार को कराये जा रहे पुनर्मतदान के 31 मई को घोषित किये जाने वाले परिणामों पर लगी हैं। इन परिणामों की विस्तृत जानकारी देने के लिए मीडिया विजिल पर 31 मई की शाम एक विशेष रिपोर्ट पेश की जाएगी।
(चंद्र प्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं, जिन्हें मीडिया हल्कों में सिर्फ ‘सी.पी’ कहते हैं। सीपी को 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण, फोटो आदि देने का 40 बरस का लम्बा अनुभव है।)