दास मलूका कौन हैं, यह जानने से ज़्यादा अहम यह जानना है कि हमारे समय में ऐसे लोग हैं जो दास मलूका जैसी दृष्टि रखते हैं। यह दृष्टि हमें उस ‘गोपन’ की यात्रा कराती है जो दृश्य में होते हुए भी अदृश्य है। दास मलूका बहुत दिनों से चुपचाप ज़माने की यारी-हारी-बीमारी पर नज़र रख रहे थे कि मीडिया विजिल से मुलाक़ात हुई और क़लम याद आया। अब महीने में दो बार गुफ़्तगू का वादा है– संपादक
दास मलूका
इनटॉलरेंस’, मने असहिष्णुता वाला जिन्न एक बार फिर जगा है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने ‘कुर्सी विमोचन’ के बाद अपनी ही पत्रिका ‘दस्तावेज़’ के कई पन्नों में अपना दर्द बयान किया, इसके जवाब में अशोक वाजपेयी ने एक वेबसाइट पर ‘कभी क-भार’ कर मारा। ज़ाहिर है जवाब में वाजपेयी जी, तिवारी जी पर भारी हैं। मजाल कि यूनिवर्सिटी का मुदर्रिस दफ़्तरी जवाब में किसी आईएएस अफ़सर का मुकाबला कर पाए। ‘दस्तावेज़’ में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने रोने-धोने में जितने पन्ने खर्च किए, वाजपेयी जी वेबसाइट पर उससे कम ही ‘प्वाइंट’ में जवाब देकर फ़ारिग हुए।
बताने की जरूरत नहीं कि तिवारी जी गोरखपुर यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर रहे, फिर विभागाध्यक्ष हुए और होते-हवाते साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंच गए।
हिंदी को आजकल बड़ी वाली बिंदी लगा रहे एक ‘स्वनामधन्य’ के मुताबिक तिवारी जी का अकादमी का अध्यक्ष बनना तो खुद उनके लिए भी सुखद संयोग ही था। क्योंकि “वो जिस-जिस कुर्सी तक पहुंचे उसके ऊपर की कुर्सी वाला भगवान को प्यारा हो गया, सुनील गंगोपाध्याय के न रहने के बाद ये अफवाह और तेज़ हो गई कि तिवारी जी के ऊपर की कुर्सी पर रहना ख़तरे से ख़ाली नहीं, नतीजा लोगों ने उन्हें ही उपाध्यक्ष के बाद अध्यक्ष भी बन जाने दिया।”
अगर ये बात सही है तो इसी से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हमारे साहित्य जगत के प्रभुओं की प्रगतिशीलता का आलम क्या है।
ख़ैर साहब ! अपना दर्द बयान करते हुए तिवारी जी, अशोक वाजपेयी पर कुछ ज्य़ादा मेहरबान दिखे। उन्होने अशोक वाजपेयी को सरकार के ख़िलाफ़ छिड़े ‘असहिष्णुता आंदोलन’ का सूत्रधार तक क़रार दे दिया। ज़ाहिर है वाजपेयी इससे इनकार करते हैं।
सच जो भी हो, लेकिन हिंदी साहित्य के समय और समाज की अच्छी समझ और गहरी पकड़ रखने वाले एक सज्जन का दावा सुनिए
“कुछ नहीं साहब….ये हिंदी के सरयूपारीण और कान्यकुब्ज ब्राह्मण धड़ों की आपसी सर फुटव्वल है, इसमें थोडा यूपी और मध्य प्रदेश का भी तड़का लगा है”
एक मित्र हैं, गोरखपुर यूनिवर्सिटी और पत्रकारिता दोनों से उनका रिश्ता रहा है, कुछ-कुछ साहित्य से भी, जैसा कि उस दौर में हर पत्रकार के साथ जवानी में हो जाता था। बताते हैं –
“तिवारी जी तो अशोक वाजपेयी गोल में ही हुआ करते थे…और इन सबको जोड़ने वाला मलमल का धागा पहले बनारस और बाद के दिनों में दिल्ली में स्वर्गीय विद्या निवास जी मिश्र कातते थे। उनके जाने के बाद खटपट कहां हुई पता नहीं, वर्ना एक दौर में तो पंडित जी अज्ञेय वाले ‘वत्सल निधि ट्रस्ट’ के आयोजन में अशोक वाजपेयी, मनोहर श्याम जोशी, वागीश शुक्ल, मृदुला गर्ग, निर्मल वर्मा और उनकी धर्म पत्नि गगन गिल आदि-आदि को लेकर कुशीनगर गए थे, हां इस आयोजन के सूत्रधार ज़रूर अशोक वाजपेयी थे, और आयोजन की एक डोर तिवारी जी से भी जुड़ी थी, जो उन दिनों गोरखपुर में ही थे ”
ख़ैर साहब विद्यानिवास जी और विश्वनाथ जी का आपसी लगाव देखिए, पंडित जी ब्राह्मणों की पंक्ति-पावन परंपरा का पूरी मर्यादा से पालन करते थे ( चाहें तो अपनी मलेच्छ मानसिकता के मुताबिक कट्टरता कह लें) बाहर के बर्तन में दुकान की चाय भी नहीं पीते थे, झोले में अपना कटोरा, गिलास और फल काटने वाला चाकू तक लेकर चलते थे ; तो वत्सल निधि के आयोजन में उनके कुशीनगर प्रस्थान से पहले, गोरखपुर में उनके प्रवास के दौरान विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एक छोटी सी जुटान हुई। बाहर से चाय आई जो थोड़ी गरम थी,पंडित जी थोड़े ‘सुकुआर’ थे ही। चाय उनके गिलास में ढाली गई, और विश्वनाथ जी बड़ी देर तक अपनी धोती से वो गिलास थामे फूंक-फूंक कर उसे ठंडा करते रहे। तो ऐसा था विद्यानिवास जी और तिवारी जी का स्नेह भाव।
तिवारी जी अपनी पत्रिका ‘दस्तावेज’ के 157 अंक निकाल चुके हैं, जानकार बताते हैं कि विचारधारा में वो पहले खुद को लोहियावादी / समाजवादी कहते थे। कमला कांत त्रिपाठी और गोविंद मिश्र की कृतियों पर वहां लेख छपते रहे, या उन जैसों का लिखा छपता रहा। ये सिलसिला NDA के ‘अटल काल’ में भी जारी था, लेकिन खुद के मार्क्सवादी न होने का उद्घोष उन्होने पहली बार ‘असहिष्णुता आंदोलन’ के ख़िलाफ़ अपने ‘दस्तावेज़ी हलफ़नामें’ में ही किया है।
हालांकि ‘दस्तावेज़-157’ में तो उनका ये दर्द दब कर ही रह जाता, मगर भला हो संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ का जो उसने अपने पन्नों पर रायता फैला दिया,और इसी लेख से ज़ाहिर हुआ कि सचमुच ये मोदी विरोधियों की साजिश ही थी, अरूण जेटली का ‘मैन्युफैक्चर्ड इनटॉलरेंस’ का जुमला बिलकुल सही था। तिवारी जी के लगभग सारे आरोप वही हैं जो सत्ता प्रतिष्ठान के पाल्य लगा रहे थे।
अब पता नहीं कि दोबारा इस जिन्न को चिराग का दूसरा सिरा रगड़ कर जगाने के पीछे की मंशा क्या है, क्योंकि साजिशें तो आजकल होती नहीं ! जानकारों की मानें तो पुरस्कार वापसी के वक्त सर पर ‘बिहार’ था, और अब 2019 करीब है।
बहरहाल, ब्राह्मणों की सिरफुट्व्वल तो साफ हो गई, तिवारी जी दो ठाकुरों से भी कुपित नजर आते हैं। पहले काशीनाथ सिंह जो प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह जी के भाई हैं और दूसरे स्वर्गीय दूधनाथ सिंह जो काशीनाथ सिंह के ही समधी थे। एक से शिकायत ये कि उसने पुरस्कार वापसी कांड पर तिवारी जी से बातचीत करने के बाद भी वादा तोड़ दिया, तो दूसरे दूधनाथ जो इलाहाबाद में उन पर जूते फिंकवाना और उनके मुंह पर कालिख़ पुतवाना चाहते थे।
अब इस ‘नेक्सस’ पर भी ‘एक्सपर्ट कमेंट’ लीजिए
“देखिए साहब….हिंदी साहित्य में एक हुआ भोपाल घराना तो दूसरा हुआ बनारस घराना, इसमें घालमेल भी है और तालमेल भी है, लेकिन असल में बनारस घराना ठाकुरों का हुआ जिसे नामवर दिल्ली से चला रहे थे, दूसरा हुआ ब्राह्मणों का भोपाल घराना जिसके सीईओ तो अशोक वाजपेयी थे लेकिन चेयरमैन विद्यानिवास जी थे। अभी दोनों घराने ‘सस्पेंडेड एनीमेशन’ में हैं, क्योंकि सत्ता के ऊंट पर ‘गुजरात का पिछड़ा’ सवार है, बस तिवारी जी ने अपनी तस्वीर थोड़ी साफ़ करने की कोशिश की है, कि वो मार्क्सवादी नहीं हैं, जिसका दूसरा मतलब ये कि उन्हें ‘वाममार्गी’ न माना जाए। अशोक वाजपेयी असमंजस में हैं इसलिए अभी वो तिवारी जी पर ‘वफ़ादारी की कट्टरता’ जैसे जुमले उछाल रहे हैं ”
“बाकी वयोवृद्ध नामवर इस अवस्था में किसी तरह की मिट्टी पलीद से बचना चाहते हैं, लिहाजा वो अपनी सुविधा के मुताबिक कभी कुख्यात लेखक आदरणीय पप्पू यादव की जेलयात्रा पर लिखी किताब का विमोचन करते हैं, तो कभी ‘असहिष्णुता आंदोलन’ के खिलाफ विश्वनाथ तिवारी के साथ भी खड़े दिखते हैं”
( न रहे गोरखुपर वाले ही परमानंद जी श्रीवास्तव वर्ना किसी दिन ये साहित्यिक सुसमाचार भी सुनाई पड़ता कि ‘D’ कंपनी वाले सहिष्णु डॉन बबलू श्रीवास्तव की जेल में ही लिखी दूसरी किताब का लोकार्पण उन्होने ही किया। साहित्य अकादमी को सबसे पहला पुरस्कार लौटाने वाले ठाकुर उदय प्रकाश का तो कहना ही क्या, गोरखपुर में निजी निमंत्रण पर योगी आदित्य नाथ के साथ मंच शेयर कर वो बहुत पहले चर्चा में रहे।)
फिलहाल ताज़ा स्थिति ये है कि हिंदी साहित्य की सिकुड़ी हुई दुनिया को साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ये बताने में जुटे हैं कि कथित ‘असहिष्णुता आंदोलन’ भले ही मोदी विरोध के बहाने शुरु हुआ लेकिन निशाने पर तो दरअसल बतौर अकादमी अध्यक्ष वही थे। यही नहीं साहित्य के ‘ब्रह्मसमाज’ में अकेले वही हैं जो इस जंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ पूरे दमखम से खड़े हैं, दूजा कोई नहीं। बात ‘पांचजन्य’ के परिसर से निकल चुकी है तो लोक कल्याण मार्ग (प्रधानमंत्री निवास) भी पहुंच ही रही होगी।