हाशिया: दलित आंदोलन को मसीहा नहीं नेता चाहिए !

यह बात आज दलितों के बीच एक आम राय की तरह स्थापित है कि कांशी राम डॉ अम्बेडकर के विचारों को व्यावहारिक रूप में लागू किया। समस्या यह है कि अम्बेडकर के मूल विचार तब दलितों की बहु संख्या तक पहुंचे ही नहीं थे इसलिए कांशीराम ने जो अम्बेडकर की जो छवि गढ़नी चाही वो गढ़ी।उनके लोकतंत्र ,समाजवाद और जाति उन्मूलन सम्बन्धी विचारों पर साजिशाना चुप्पी अख्तियार रखी गई। अम्बेडकर के विचारों को जमीन पर उतारने के दावे के साथ साथ खुद कांशीराम भी 'मान्यवर'हो गए। और आज दलित समाज के बीच वे आलोचना से परे एक  निर्विवाद मसीहा के रूप में स्थापित हैं।

 

आर.राम

बाबा साहब डा. अम्बेडकर ने देश के दलितों को व्यक्ति पूजा से बचनेे की सलाह दी थी। देश मे तानाशाही से बचने के लिए भी उन्होंने संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण मे कहा था कि – ‘धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक पूजा पतन का निश्चित रास्ता है और जो आखिरकार तानाशाही पर खत्म होता है। ‘ वे देश और समाज दोनों के लिए किसी भी तरह की व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे। लेकिन वर्तमान दलित आंदोलन के नेताओं ने अंबेडकर की इस चेतावनी पर कभी भी अमल नही किया।

उत्तर अंबेडकर समय में दलित राजनीति का विकास व्यक्ति पूजा और मसीहाई पर केंद्रित होती चली गई। अंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद महाराष्ट्र की आर पी आई ने सबसे पहले बाबा साहब को ‘मसीहा’ के बतौर पूजना शुरू किया। उनके विचारों और कार्यों को समझने उनका अनुसरण करने की बजाय आर पी आई के नेताओं में अम्बेडकर जैसा दिखने और अम्बेडकर को महा मानव घोषित कर ख़ुद को उनका सबसे पहला अवतार साबित करने की होड़ मच गई।इसका परिणाम यह हुआ कि इस दल और इसके नेताओं के हाथ से संगठन और विचार धारा की डोर हमेशा के लिए छूट गई और पार्टी अनगिनत टुकड़ों में बंट महत्वहीन हो गई।अकारण नहीं है कि जिस पार्टी का गठन खुद डॉ अम्बेडकर ने दलितों की राजनैतिक सामाजिक अग्रगति को सुनिश्चित करने के लिए किया था आज उस दल के एक प्रमुख टुकड़े  का चेहरा राम दास अठावले जैसा रीढ़ विहीन और मौकापरस्त व्यक्ति है, जो अन्ततः एक व्यक्तिपूजक के रूप में भारत में एक व्यक्ति के तानाशाहीपूर्ण शासन के अनुगामी से ज्यादा कुछ नहीं है।

उत्तर भारत मे खासकर उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने बामसेफ और बहुजन समाज पार्टी के रूप में एक प्रयोग प्रारम्भ किया। उनकी शुरुआती भंगिमा तो आरपीआई की अवसरवादी और दिशाहीन राजनीति के खिलाफत की दिखती है। ‘चमचा युग’ जैसी पुस्तिका लिख कर वे यह संदेश देना चाह रहे थे कि दलितों को अब एक खुद मुख्तार व स्वायत्त राजनैतिक शक़्क्ति के रूप में उभरने का वक्त आ गया है। लेकिन अपने विचार को जमीन उतारने के क्रम में उन्होंने भी व्यक्तिपूजा को माध्यम बनाया और बाबा साहब अम्बेडकर को मसीहा के रूप में स्थापित करते हुए बाबा साहब की प्रायोजन मूलक छवि गढ़ने की कोशिश की। उन्हें सिर्फ संविधान निर्माता और सत्ता में हिस्सेदारी का पाठ पढ़ाने वाला पथ प्रदर्शक की तरह पेश किया। कांशीराम खुले आम यह कहते थे कि महाराष्ट्र से बाहर अम्बेडकर को कोई नहीं जानता उत्तर भारत में अम्बेडकर को परिचित कराने का काम ‘मैंने’ किया।

यह बात आज दलितों के बीच एक आम राय की तरह स्थापित है कि कांशी राम डॉ अम्बेडकर के विचारों को व्यावहारिक रूप में लागू किया। समस्या यह है कि अम्बेडकर के मूल विचार तब दलितों की बहु संख्या तक पहुंचे ही नहीं थे इसलिए कांशीराम ने जो अम्बेडकर की जो छवि गढ़नी चाही वो गढ़ी।उनके लोकतंत्र ,समाजवाद और जाति उन्मूलन सम्बन्धी विचारों पर साजिशाना चुप्पी अख्तियार रखी गई।

अम्बेडकर के विचारों को जमीन पर उतारने के दावे के साथ साथ खुद कांशीराम भी ‘मान्यवर’हो गए। और आज दलित समाज के बीच वे आलोचना से परे एक  निर्विवाद मसीहा के रूप में स्थापित हैं।

यह सच है कि कांशीराम ने कम से कम उत्तर प्रदेश में दलित जाति के वोट बैंक को संगठित कर चुनावी राजनीति में कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल कीं। लेकिन सत्ता के इस खेल में नारों और सिद्धान्तों के रास्ते पर एक लंबा ‘यू टर्न’ लेकर वे वहीं पहुंचे जिसके खिलाफ उन्होंने अपनी राजनैतिक यात्रा शुरू की थी।इस तरह सामाजिक व राजनैतिक बदलाव की एक विराट संभावना बहुत ही सीमित लाभ की कीमत पर बिखर कर समाप्त हो गई।पर इस प्रक्रिया में ‘ मान्यवर कांशीराम ‘ एक मसीहा के रुप मे स्थापित हो गये।

मान्यवर कांशीराम की राजनैतिक उत्तराधिकारी बहन मायावती ने मसीहाई को अगले चरण में पहुंचा दिया।जहाँ दलित बहुजन समाज पार्टी का एक मात्र मतलब मायावती की इच्छा है।चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री रहने के बाद आज स्थिति यह है कि दलित राजनीति की सबसे प्रमुख चेहरा हैं।मायावती की हैसियत उनके स्वजातीय समाज मे किसी देवी से कम नहीं है। मुख्यमंत्री रहते हुए कई जगहों पर उन्होंने खुद अपनी मूर्ति का अनावरण किया।यह एक अभूतपूर्व परिघटना है। लेकिन दलित राजनीति व विचारधारा को जितना अंतर्मुखी, भोथरा और रक्षात्मक उन्होंने बनाया है उतना शायद किसी दलित नेता ने नही बनाया। बहुजन से सर्वजन की यात्रा में अंबेडकरवाद की विचारधारा को कहाँ छोड़ दिया गया है उसका कुछ पता नहीं। अब उनकी तमाम बातें बयान और कार्यनीतियाँ भारत की जाति व्यवस्था को मजबूत करने, वर्चस्व की ताकतों को सम्मान दिलाने व कथित समरसता को कायम रखने के लिए होती हैं।ऐसे समय मे जब देश मे दलितों पर हमले बढ़े हैं, समाज को पुरातन विचारों पर पुनर्गठित करने की बातें हो रही हैं , शिक्षा व नौकरियों व राजनीति में दलितों की हिस्सेदारी घटती जा रही है, मायावती की चुप्पी व निष्क्रियता अखरती है पर उनके मसीहाई के भव्य वितान के नीचे दलित समाज मौन होकर इस आशा में बैठा है कि बहन जी शायद अब आगे आकर हमें मार्ग दिखाएंगी।

पिछले पांच छः सालों में गुजरात ने ऊना आंदोलन से निकले जिग्नेश मेवानी और भीम आर्मी व सहारनपुर के शबबीरपुर  आंदोलन से चर्चा में आए और आज के प्रमुख दलित नेता चन्द्र शेखर ने उम्मीद जगाई है।जिग्नेश ने गुजरात मे जमीन में सवाल पर आंदोलन शुरू किया है और फ़िलहाल वे गुजरात मे केंद्रित किये हुए हैं। चंद्र शेखर ने पहले भीम आर्मी के रूप में संघर्ष व संगठन की दिशा में अच्छा काम किया था।अभी उनके बारे में कोई निर्णय देना जल्दबाज़ी होगी लेकिन यह जरूर कहना चाहिए कि इस संभावनामय आंदोलन को पिछले इतिहास से सबक लेना चाहिए।पुराने नारों और तौर तरीकों से नए दौर का नया आंदोलन खड़ा नही हो सकता।

2 अप्रैल के भारत बंद और तमाम स्वतः स्फूर्त दलित आंदोलन ने यह साबित किया है कि दलितों की नई पीढ़ी सामाजिक बदलाव की लड़ाई लड़ने को तैयार है।पर उन्हें नेता की जरूरत है, मसीहा की नही।


आर.राम.सामाजिक प्रश्नों पर सक्रिय सजग लेखक हैं।

 

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