‘समय और चित्रकला ‘शीर्षक से प्रख्यात चित्रकार अशोक भौमिक की लेख शृंखला की यह नौवीं कड़ी पहली बार 14 जून 2020 को मीडिया विजिल में प्रकाशित हुई थी। कोरोना की पहली लहर के दौरान चित्रकला पर महामारियों के प्रभाव की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए अशोक दा ने दस कड़ियों की यह साप्ताहिक शृंखला लिखी थी। साल भर बाद भारत दूसरी लहर से मुक़ाबिल है तो हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। इस बार यह शृंखला दैनिक आधार पर प्रकाशित हो रही है- संपादक।
विश्व स्तर पर महामारियों का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही पुराना है इन महामारियों के लक्षणों को समझने और इनका इलाज़ खोजने का इतिहास। हम जानते हैं कि महामारियाँ, विषाणुओं (वायरस) या बैक्टेरिया (जीवाणुओं ) द्वारा संक्रमित होती हैं और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचने के क्रम में एक देश से दूसरे देशों तक फैल सकती हैं। आधुनिक विज्ञान में इन महामारियों की पहचान और उपचार के लिए निरंतर शोध जारी हैं। विज्ञान ने एक तरफ़ जहाँ सदियों से लोक कल्याण की दिशा में व्यापक काम किया, वहीं इन्हीं महामारियों के दौर में धर्म के नाम पर असहाय मनुष्यों के बीच अंध-विश्वास और नियतिवाद ने अपने विस्तार की कोशिशें भी जारी रखीं। विश्वव्यापी ‘कोरोना’ महामारी के इस मौजूदा दौर का अभी थोड़ा ही वक़्त बीता है और इसी दौरान भारत के तमाम राज्यों में ‘कोरोना’ के नाम पर एक ‘मैया’ की पूजा शुरू हो गयी है। ‘कोरोना मैया’ की पूजा के विधि-विधान तय होने लगे हैं और उनके प्रचार के लिए कीर्तन भी बनने लगे हैं। उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही ‘कोरोना मैया’ की मूर्ति की कल्पना और मंदिरों का निर्माण भी शुरू होगा। पूरे विश्व में असंख्य देवी देवताओं के जन्म के पीछे ऐसे ही कारण रहे हैं जिन्हें एक निर्धारित घटना क्रम का अनुसरण करते हुए देखा जा सकता है।
महामारियाँ/ आपदाएँ जब समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करती हैं तो उसी समय प्रायः किसी न किसी के स्वप्न या कल्पना में किसी देव या देवी का आविर्भाव होता है। सपने देखने का यह अनुभव कई बार एक साथ कइयों को हो सकता है या उन्हें लग सकता है कि उन्होंने भी ऐसा ही सपना देखा है या ऐसी ही कल्पना की है। इस प्रकार ऐसे सपनों या कल्पनाओं के माध्यम से देवी-देवताओं के रूप और आराधना के विधि-निर्देशों का निर्माण होता है। ऐसी कल्पनाएँ प्रायः समान परिस्थितियों में जी रहे लोगों के एक वर्ग विशेष के साथ घटित होते देखी गई हैं जहाँ लोगों में कल्पना और यथार्थ का भेद मिट जाता है और अतार्किकता विस्तार पा लेती है। हालाँकि अतीत में कई बार विश्व स्तर पर ऐसी घटनाओं को घटित होते पाया गया है किन्तु भारत में इसके फलस्वरूप पैदा हुए देवी देवताओं की संख्या विशाल है।आधुनिक युग में भी ऐसे आविर्भाव निरंतर बने हुए हैं। वस्तुतः यह भी एक प्रकार का संक्रमण ही है जो कई बार ‘महामारी’ का रूप धारण कर लेता है। विज्ञान में इसे ‘मास साइकोजेनिक इलनेस ‘ (MPI) कहते हैं। यह सामूहिक बीमारी किसी वायरस या बैक्टेरिया से संक्रमित नहीं होती बल्कि दृश्य और श्रव्य अर्थात देखने और सुनने से परस्पर संचारित होती है। पंद्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान सन्यासिनों के मठों में यह रोग कई बार दिखाई दिया, जहाँ एक सन्यासिन की देखा-देखी अन्य सन्यासिनों ने भी जानवरों की आवाज़ निकालना शुरू कर दिया था। वैज्ञानिकों ने इसके कारणों की तलाश करते हुए इन सन्यासिनों के अपनी इच्छा के विरुद्ध मठों के कठिन नियमों में बँधे रहने और समाज से कटे रहने को रेखांकित किया है। विज्ञान के तमाम प्रकाशित और अप्रकाशित शोध-पत्रों में इस महामारी के व्यापक विश्लेषण उपलब्ध हैं। इसे समझने का वैज्ञानिक प्रयास शायद सबसे पहले जर्मन पुनर्जागरण के महान चिकित्सक पेरासेलसस ने किया था और उन्होंने ही इस महामारी को कोरियोमेनिया (choreomania) का नाम दिया था। कोरियोमेनिया (choreomania) ग्रीक भाषा के दो शब्दों- ‘कोरस’ (नृत्य) और मेनिया (पागलपन) से मिल कर बना है।
इतिहास में ‘उन्माद नृत्य महामारी’ के सबसे शुरुआती सबूत हमें सातवीं शताब्दी में मिलते हैं। सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में यह कई बार संक्रमित होते पाया गया। अभिलेखों से पता चलता है कि जर्मनी के बर्नबर्ग शहर में 1020 ईस्वी में 18 किसानों ने एक चर्च के चारों तरफ़ अचानक नृत्य करना शुरू कर दिया था। तेरहवीं शताब्दी में (1237) एक ऐसी ही घटना में बच्चों के एक विशाल समूह ने नाचते-कूदते एर्फ़र्ट से अर्नस्टेड शहर के बीच की बारह मील की दूरी तय की थी। एक दूसरी घटना में (1278 ) यकायक 200 लोगों ने मीऊस नदी के पुल पर नाचना शुरू कर दिया था जिस कारण पुल ही टूट गया। चूँकि नदी में डूबने से बचाये गए लोगों को पास के सेंट वाइटूज़ मंदिर (चैपल) ले जाया गया था इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह संभवतः उन्माद नृत्य करते लोगों का धार्मिक जुलूस था जो सेंट वाइटूज़ चैपल जा रहा था। इसी प्रकार इंग्लैंड, जर्मनी और नीदरलैंड्स में भी 1373 और 1374 के दौरान ऐसी कई घटनाएँ देखने को मिलीं।
फ्रांस के स्ट्रॉसबर्ग में लगातार फसलों के नष्ट होने के कारण महँगाई और साथ में धार्मिक पुरोहितों द्वारा अनाज की जमाखोरी से परेशान जनता के बीच यह महामारी अचानक फ़ैल गयी थी। ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार 1518 के जुलाई महीने में, जब बदहाली और भुखमरी चरम पर पहुँच चुकी थी तब लोगों को रातों में भूतों के जुलूस पहाड़ियों की तरफ जाते दिखाई देने लगे। तभी एक दिन फ्राउ ट्रोफ़िया नाम की एक अधेड़ औरत ने बिना किसी बाजे-गाजे के साथ चौराहे पर अकेले ही नाचना शुरू कर दिया। फ्राउ ट्रोफ़िया के इस नृत्य को लोगों ने पहले हँसी में लिया पर जब फ्राउ ट्रोफ़िया नाचते नाचते बेहोश होकर गिर पड़ी तो लोगों को यह कुछ अस्वाभाविक सा लगा। लोगों को और ज्यादा आश्चर्य तब हुआ जब उन्होंने फ्राउ ट्रोफ़िया को बेहोशी से उठ कर पुनः नाचते देखा। ऐसे में चर्च के पुरोहितों ने आकर उसे उपचार के लिए सन्यासिनों के मठ भेज दिया। यह घटना किसी आम महिला के क्षणिक मानसिक असंतुलन की कहानी मानकर भुला दी जाती अगर अगले दिन उसी इलाके की अनेक महिलाओं ने खुले में आकर फ्राउ ट्रोफ़िया की तरह ही नाचना शुरू न कर दिया होता। पहले कुछ महिलायें आयीं फिर धीरे धीरे सैकड़ों महिलाएँ इस सामूहिक नृत्य में शामिल हो गयीं। देखते ही देखते यह संख्या हजार पार कर गयी। स्टॉसबर्ग के अधिकारियों की समझ में यह नहीं आ रहा था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटा जाए। उन्होंने चौराहों पर मंच बनाकर बाजे गाजे का इंतज़ाम कर दिया। ऐसे इंतज़ामों का विवरण हमें एक छापा चित्र (देखें चित्र-3 ) में मिलता है। कहना न होगा कि अधिकारियों द्वारा लिया गया यह कदम जरा भी कारगर नहीं हो सका और बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हुई।
चित्र-4
स्ट्रॉसबर्ग की इस उन्माद नृत्य महामारी पर केन्द्रित पीटर ब्रायगाल द्वारा 1564 में निर्मित रेखा-चित्र ( देखें चित्र- 4 ) को आधार मानते हुए हैंड्रिक होन्डियस (1573-1650) ने छापा चित्र ( देखें चित्र-5 और 6 ) बनाये थे। बाद में पीटर ब्रायगाल के पुत्र पीटर ब्रायगाल द जूनियर (1564 -1638) ने अपने पिता के बनाये गए रेखा चित्र को आधार बना कर एक स्वतंत्र रंगीन चित्र (देखें मुख्य चित्र, सबसे ऊपर) बनाया।
चित्र-6
इतिहास में महामारी के रूप में वर्णित ‘उन्माद नृत्य महामारी’ पर चिकित्सा शास्त्र की शोध पत्रिकाओं में आज भी चर्चा जारी है। यह महामारी सत्रहवीं शताब्दी के बाद उस व्यापक रूप में हालाँकि फिर कभी दिखाई नहीं दी, किन्तु ‘सामूहिक मनोरोग’ या ‘मास साइकोजेनिक इलनेस’ के उदाहरण हमें आज भी आसानी से देखने को मिल जाते हैं। इसीलिये धर्म के नाम पर संकट काल में मनुष्य में सामूहिक और अतार्किक निष्ठा से नए नए देवी, देवताओं एवं देवालयों का निर्माण निर्बाध चलता रहता है। आज, कोरोना महामारी के पहले से ही समाज में मौजूद बदहाली, घृणा, सामाजिक और सांप्रदायिक दुराव की पृष्ठभूमि में यह महामारी अनेकों सामूहिक मनोरोग जन्य परिस्थितियों को जन्म दे सकती है जिससे बचने के लिए समाज के वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न जागरूक व्यक्तियों को सजग रहना होगा।
अशोक भौमिक हमारे दौर के विशिष्ट चित्रकार हैं। अपने समय की विडंबना को अपने ख़ास अंदाज़ के चित्रों के ज़रिये अभिव्यक्त करने के लिए देश-विदेश में पहचाने जाते हैं।
जनांदोलनों से गहरे जुड़े और चित्रकला के ऐतिहासिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य पर लगातार लेखन करने वाले अशोक दा ने इतिहास के तमाम कालखंडों में आई महामारियों के चित्रकला पर पड़े प्रभावों पर मीडिया विजिल के लिए एक शृंखला लिखना स्वीकार किया है। उनका स्तम्भ ‘समय और चित्रकला’, हर रविवार को प्रकाशित हो रहा है। यह नौवीं कड़ी है। पिछली कड़ियाँ आप नीचे के लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।