भारत की तीनों प्रमुख संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों की 2019 के आम चुनाव में जबरदस्त हार हुई है। उन्होंने केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु समेत विभिन्न राज्यों में एक सौ से अधिक प्रत्याशी खड़े किये थे। सिर्फ पांच जीत सके। इनमें से भी चार तमिलनाडु में जीते हैं, जो मुख्यतः द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) के साथ गठबंधन की बदौलत संभव हो सका है।
केरल में सत्तारूढ़ लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) का नेतृत्व कर रही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) सिर्फ एक सीट जीत सकी। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में बरसों सत्ता में रही कम्युनिस्ट पार्टियों का तो पत्ता ही साफ हो गया। नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय कम्म्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की नेशनल काउंसिल के सदस्य कन्हैया कुमार भी बिहार की बेगुसराय सीट पर बुरी तरह हार गए, जिसे कम्युनिस्ट भारत का लेनिनग्राद और स्तालिनग्राद तक कहते रहे हैं।
बंगाल में वाम दलों को न सिर्फ भारी चुनावी नुकसान हुआ बल्कि उनकी प्रतिबद्ध कतारों के कुछ हिस्से का दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी के पाले में चले जाने से भी कम्युनिस्टों की काफी भद्द पिटी है। चुनाव के तुरंत बाद राज्य में सीपीएम के तीन मौजूदा विधायकों में से एक बाकायदा भाजपा में शामिल हो गए। स्वतंत्र भारत के इतिहास में कम्युनिस्टों की यह सबसे बुरी चुनावी हार है। पार्टियों द्वारा इसके कारणों की विस्तृत समीक्षा अभी पूरी नहीं हुई है। मीडियाविजिल के चुनाव चर्चा स्तम्भ के इस अंक में हम भारत में कम्युनिस्टों के चुनावी प्रदर्शन का संक्षिप्त जायजा लेंगे। फिर हम केरल की स्थिति की विस्तृत चर्चा करेंगे, जहां आज भी कम्युनिस्टों की सरकार है।
प्रथम चुनाव
स्वतंत्र भारत में 25 अक्टूबर 1951 से लेकर 21 फरवरी 1952 के बीच बहुत लम्बी अवधि में हुए सबसे पहले चुनाव में ही कम्युनिस्टों ने जोर-आजमाइश शुरू कर दी थी। तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन नहीं हुआ था। चुनावी राजनीति में कांग्रेस के बाद कम्युनिस्टों का असर ज्यादा था। उस बार चुनाव मैदान में 48 कम्युनिस्ट उतरे थे, जिनमें से 16 निर्वाचित हुए। इनमें से आठ तत्कालीन मद्रास राज्य से जीते थे जिसका बाद में पुनर्गठन किया गया। भाकपा को कांग्रेस के 45 फीसद मत की तुलना में 3.3 प्रतिशत मत ही मिले पर यह वोट शेयर भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती स्वरूप भारतीय जनसंघ को मिले 3.1 प्रतिशत मत से कुछ ज्यादा था, जिसके 94 प्रत्याशियों में से तीन ही चुने जा सके थे।
1957 के दूसरे आम चुनाव में सीपीआई को 8.9 प्रतिशत मत मिले और उसके 110 उम्मीदवारों में से 27 जीते। 1962 के आम चुनाव में कम्युनिस्टों का मत प्रतिशत बढ़कर 9.9 हो गया और उसकी जीती सीटें भी 29 हो गईं, जिनमें 9 पश्चिम बंगाल और 8 आंध्र प्रदेश की थीं। 1967 के आम चुनाव से कुछ पहले ही सीपीआइ का विभाजन हो गया। विभाजन से निकली नई पार्टी सीपीएम ने भी उस चुनाव में हिस्सा लिया। तब सीपीआइ ने 5 प्रतिशत मत प्राप्त कर 23 सीटें और सीपीएम ने 4.4 प्रतिशत मत हासिल कर 19 सीटें जीतीं। सीपीएम के सफल प्रत्याशियों में सर्वाधिक नौ केरल के थे।
सर्वाधिक सफलता
कम्युनिस्ट पार्टियों को सर्वाधिक सफलता 2004 के लोकसभा चुनाव में मिली थी, जब उनके कुल 59 सांसद चुने गए। इनमें से अकेले सीपीएम के 44 सांसद थे। उस चुनाव के बाद सीपीएम के ही सोमनाथ चटर्जी लोकसभा के स्पीकर चुने गए थे। ऐसा शायद सीपीएम द्वारा कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) को सरकार बनाने के लिए बाहर से दिए समर्थन के ‘एवज’ में हुआ था। यह दीगर बात है कि वामपंथी दलों ने यूपीए सरकार को दिया अपना समर्थन उसके द्वारा अमेरिका के साथ किये परमाणु करार के विरोध में वापस ले लिया। लेकिन यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार सत्ता में बने रहने में कामयाब रही और सीपीएम के कहने पर भी सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा के स्पीकर पद से इस्तीफा नहीं दिया।
बहरहाल, 2009 के लोकसभा चुनाव में 24 कम्युनिस्ट ही चुने गए जिनमे सीपीएम के 16 शामिल थे। लोकसभा के 2014 में हुए चुनाव में केवल 10 कम्युनिस्ट जीत सके, जिनमें सीपीएम के 9 थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम के तीन ही सदस्य लोकसभा के लिए चुने गए हैं। पिछले आम चुनाव में सीपीएम को 22.96 फीसदी वोट मिले थे जो इस बार घटकर 6.3 प्रतिशत रह गया। सीपीआइ को 2014 में 2.36 फीसदी वोट मिले, जो 2019 में घटकर 0.39 प्रतिशत रह गया। इस कारण से निर्वाचन आयोग से मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी बने रहने पर उस पर खतरा उत्पन्न हो गया है।
तीनों बड़ी संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों ने पिछले बरस अपनी पार्टी-कांग्रेस में निवर्तमान महासचिव को दोबारा चुनने के साथ ही आम चुनाव के लिए तैयारियां शुरू कर दी थीं। तीनों ने अपने पार्टी ‘कार्यक्रम’ को लगभग यथावत रखा, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की ‘फासीवादी’ प्रवृत्तियों के खिलाफ सीमित चुनावी परिप्रेक्ष्य में नई कार्यनीतियां बनाईं। सीपीएम की नई ‘लाइन’ के मुताबिक कांग्रेस से चुनावी सम्बन्ध नहीं रखने की पहले वाली सख्त लाइन में संशोधन कर प्रत्येक राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग चुनावी कार्यनीति बनाने पर जोर दिया गया। यह नई लाइन कारगर नहीं हुई। सीपीएम ने पश्चिम बंगाल में बीजेपी की चुनावी बढ़त को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ पिछली बार दोनों की जीती सीटों पर तालमेल करने का सुझाव दिया था, जिसे कांग्रेस ने स्वीकार नहीं किया। पश्चिम बंगाल की 42 में से 29 सीटों पर सीपीएम के प्रत्याशी थे, पर कोई नहीं जीत सका।
केरल
भारत में केरल कम्युनिस्टों की पहली उम्मीद बना जब वहां 1957 में देश की पहली लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार कायम हुई। बताया जाता है कि विश्व में पहली बार लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार इटली के समीप एक छोटे से देश सान मारिनो में द्वित्तीय विश्व युद्ध के लगभग तुरंत बाद कायम हुई थी जो ज्यादा टिक नहीं सकी। केरल में बनी पहली कम्युनिस्ट सरकार के मुख्यमंत्री ईएमएस नम्बूदरीपाद थे। बहरहाल, ‘मोदीमय’ भारत के मौजूदा दौर में कम्युनिस्टों के लिए केरल के आखिरी उम्मीद बने रहने में अब गंभीर शंका लगती है, जहां 2016 के विधानसभा चुनाव के बाद से मुख्यमंत्री सीपीएम के पिनाराई विजयन हैं।
केरल में लोकसभा की 20 सीटों में से 16 पर सीपीएम और चार पर सीपीआइ के उम्मीदवार थे। राज्य में वाम दलों ने दो सीटों पर निर्दलीय का समर्थन किया था। सीपीएम के आशावादी नेताओं को भले ही लगता हो कि कांग्रेस इस बार के लोकसभा चुनाव में अपना प्रदर्शन विधानसभा के 2021 में निर्धारित चुनाव में नहीं दोहरा सकेगी लेकिन पार्टी के कार्यकर्ता अंदरूनी तौर पर स्वीकार करते हैं कि राज्य में बरसों का राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत चुनावी समीकरण भी इस बार एकाएक बदल गया। सीपीएम ही नहीं विजयन सरकार में शामिल घटक दलों को भी इसका एहसास है कि राज्य में कम्युनिस्ट ताकतों की कांग्रेस के हाथों बुरी गति हुई है, जिसे बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों का भी भारी समर्थन मिला। सीपीएम ने पिछले विधानसभा चुनाव में कुल 140 में से 91 सीटें जीती थीं लेकिन लोकसभा चुनाव में उन 91 में से 75 समेत कुल मिलाकर 123 विधानसभा खण्डों में कांग्रेस आगे रही।
कुछ टीकाकारों के अनुसार कांग्रेस अल्पसंख्यक समुदायों को यह यकीन दिलाने में कामयाब रही कि वह केंद्रीय सत्ता में भाजपा की वापसी रोकने के लिए सीपीएम से बेहतर विकल्प है। कांग्रेस को पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के केरल की वायनाड लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने से भी राज्य में फ़ायदा हुआ। कांग्रेस को सबरीमाला मंदिर के आसपास के क्षेत्रों में बहुसंख्यक समुदाय के ज्यादातर वोट मिलने का आकलन है। इसका कारण यह बताया जा रहा है कि सबरीमाला मुद्दे पर कांग्रेस के नरम रूख ने बहुसंख्यक समुदाय के उस हिस्से को भी रिझाया जो भाजपा के साथ था।
भाजपा के वोट कांग्रेस को ट्रांसफर होने का एक दृष्टांत नेमोम विधान सभाखंड में भी मिला। भाजपा को राज्य विधानसभा के चुनाव में पहली बार जीत 2016 में नेमोम विधानसभा सीट पर ही मिली थी। इस बार के आम चुनाव में मतदान के आंकड़ों से स्पष्ट है कि उस क्षेत्र में वाम दलों के ही नहीं भाजपा के वोट भी कम हुए और कांग्रेस के बढ़ गए। अलाथुर में भी यही हुआ। लेकिन यह निष्कर्ष निकालना भूल होगी कि कांग्रेस ने राज्य में भाजपा के असर की रोकथाम कर दी है। राज्य की राजधानी तिरुवनंतपुरम के विधानसभा खंडो में कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा असर भाजपा का ही है। देखना है कि एलडीएफ का कम्युनिस्ट नेतृत्व निकट भविष्य में कांग्रेस की जीत और भाजपा की बढ़त रोकने के लिए क्या करता है। केरल भी कम्युनिस्टों के हाथ से निकल गया तो देश में संसदीय वामपंथ का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।
सीपी झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए मंगलवारी स्तंभ चुनाव चर्चा लिखते हैं