देश में गठबंधन की राजनीति का दौर अपने शैशवकाल में ही था, लिहाजा राजनीतिक अस्थिरता का दौर भी जारी था। भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन यानी एनडीए की सरकार 1998 में महज तेरह महीने चलने के बाद गिर चुकी थी लेकिन राजनीतिक तौर पर उसका अछूतोद्धार हो चुका था। उसके सहयोगी दलों की संख्या में इजाफा हो गया था। उसकी सरकार गिरने के परिणामस्वरूप 1999 के सितंबर-अक्टूबर में देश को फिर आम चुनाव से रूबरू होना पडा।
यह पांचवां मौका था जब लोकसभा के लिए मध्यावधि चुनाव हुआ। इस चुनाव में भी त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनी। किसी भी दल या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हो सका। लेकिन एक वोट से सरकार गिरने की सहानुभूति और करगिल की लडाई की पृष्ठभूमि में हुए इस चुनाव में एक बार फिर भाजपा सबसे बडे दल के तौर पर उभरी। उसके सहयोगी दलों की ताकत में भी इजाफा हुआ, लेकिन इसके बावजूद उसका गठबंधन बहुमत का आंकडा नहीं छू सका।
कांग्रेस को वोट ज्यादा मिले लेकिन सीटें पहले से भी कम मिलीं
भाजपा हालांकि सबसे बडी पार्टी बनकर उभरी लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले उसे कोई अतिरिक्त फायदा नहीं हुआ। उसकी सीटें 182 ही बनी रहीं। 1998 के चुनाव में भी उसे इतनी ही सीटें मिली थीं। उसे सबसे करारा झटका उत्तर प्रदेश में लगा, जहां पिछली बार मिली 59 सीटों के मुकाबले इस चुनाव में उसकी सीटें घटकर आधी रह गई। यानी उसे उत्तर प्रदेश में महज 29 सीटें हासिल हुईं। उसके इस नुकसान की भरपाई महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान से हुई। वह अपने साथ कुछ और छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों को जोडने में कामयाब रही। उसके गठबंधन में छोटे-बडे मिलाकर कुल 26 दल हो गए।
इन सभी दलों ने एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता चुना। वाजपेयी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया, जिसे राष्ट्रपति ने स्वीकार किया। वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार का गठन हुआ। पिछली बार की तरह इस बार भी सरकार बनाने और चलाने के लिए भाजपा को राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक कानून जैसे तीन पुराने और प्रिय मुद्दों को दरकिनार करना पडा, जिसकी वजह से उनकी सरकार ने बगैर किसी बाधा के अपना कार्यकाल पूरा किया।
जो प्रमुख दिग्गज लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे
1999 के चुनाव में जो प्रमुख नेता लोकसभा में पहुंचे थे उनमें भाजपा से अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से और लालकृष्ण आडवाणी गांधीनगर से निर्वाचित हुए थे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी अमेठी से जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं। समाजवादी जनता पार्टी से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे थे। इनके अलावा भाजपा से जसवंत सिंह, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, सुषमा स्वराज, जगमोहन, सुंदरलाल पटवा, शांता कुमार, राम नाईक, वसुंधरा राजे, उमा भारती, सुमित्रा महाजन, रमन सिंह, शिवराज सिंह चौहान आदि भी लोकसभा में पहुंचे। कांग्रेस से लोकसभा पहुंचने वाले दिग्गजों में जाफर शरीफ, जितेंद्र प्रसाद, सुनील दत्त, नारायणदत्त तिवारी, प्रियरंजन दासमुंशी, पीएम सईद, बूटा सिंह, कमलनाथ, माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट आदि प्रमुख रहे।
जनता दल (यू) से जॉर्ज फर्नांडीज, शरद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सोमनाथ चटर्जी, वासुदेव आचार्य, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इंद्रजीत गुप्त, गीता मुखर्जी, समाजवादी पार्टी से मुलायम सिंह यादव, राज बब्बर, अखिलेश यादव, राष्ट्रीय लोकदल से चौधरी अजीत सिंह, बहुजन समाज पार्टी से मायावती, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से शरद पवार, पीए संगमा शिवसेना से मनोहर जोशी, सुरेश प्रभु, तृणमूल कांग्रेस से ममता बनर्जी, झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन और निर्दलीय मेनका गांधी भी चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचने वालों में प्रमुख थे। जनता दल (एस) से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौडा यद्यपि चुनाव हार गए थे लेकिन बाद में उपचुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचने में कामयाब हो गए थे। इसी लोकसभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया भी लोकसभा में पहुंचे लेकिन उपचुनाव के जरिए। यह उपचुनाव उनके पिता माधराव सिंधिया की 2001 में एक विमान दुर्घटना में असामयिक मौत हो जाने की वजह से हुआ था।
फूलनदेवी दूसरी बार लोकसभा में पहुंची
जो दिग्गज नहीं पहुंच सके लोकसभा में
इस चुनाव में हारने वालों में प्रमुख थे कांग्रेस के डॉ. मनमोहन सिंह, डॉ. कर्ण सिंह, आरके धवन, हरीश रावत, बलराम जाखड, मोतीलाल वोरा, जगन्नाथ पहाडिया, एआर अंतुले, अजित जोगी, राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गुरुदास दासगुप्त, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मोहम्मद सलीम, बहुजन समाज पार्टी के आरिफ मोहम्मद खान, भाजपा के अनंत कुमार, मुख्तार अब्बास नकवी, अकाली दल के सुरजीत सिंह बरनाला, जनता दल (एस) से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौडा, प्रो. मधु दंडवते, जनता दल (यू) के शिवानंद तिवारी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के तारिक अनवर।
लोकसभा अध्यक्ष का पद फिर सहयोगी दल को मिला
क्षत्रपों का दबदबा बढा
1996 से लेकर 1999 तक के चुनावों में सिर्फ गठबंधन की राजनीति ही परवान नहीं चढी बल्कि चुनावी राजनीति में क्षत्रपों के दबदबे की वास्तविक शुरूआत भी इसी दौर में हुई। 1999 चुनाव सूबाई क्षत्रपों का स्वर्णिम काल रहा। उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक और पूरब-पश्चिम से लेकर मध्य भारत तक इन क्षत्रपों की असरदार उपस्थिति दिखी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के खाते में 17 से बढकर 26 सीटें हो गई और आंध्र प्रदेश में चंद्गबाबू नायडू की तेलुगू देशम का आंकडा 16 सीटों से बढ़कर 29 पर पहुंच गया। बिहार में लालू प्रसाद यादव को झटका लगा और वे 17 से गिरकर सात पर अटक गए। जार्ज फर्नाडीस और शरद यादव के जनता दल (यू) की हैसियत 12 से बढकर 21 की हो गई। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की शिवसेना ने 15 का आंकडा बनाए रखा। बहुजन समाज पार्टी पहले 11, फिर पांच और 1999 में 14 सीटें जीतने में सफल रही।
शरद पवार की पार्टी को 1999 में आठ सीटों पर जीत मिली और इतनी ही सीटें पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के खाते में गई। पश्चिम बंगाल केरल और त्रिपुरा में वामपंथी मोर्चा भी अपनी बढत बनाए रखते हुए 40 सीटें जीतने में कामयाब रहा। तमिलनाडु में एम. करुणानिधि और जयललिता ने भी क्रमश: 12 और 10 सीटें हासिल कर अपना दबदबा बनाए रखा। ओडिशा में नवीन पटनायक के बीजू जनता दल ने भी दस सीटों के साथ और हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाल के इंडियन नेशनल लोकदल ने पांच सीटों के साथ अपनी हैसियत बनाए रखी। जम्मू-कश्मीर में फाक अब्दुल्ला भी चार सीटों के साथ परिदृश्य में बने रहे।
इस बार एनडीए सरकार का पूरा कार्यकाल गठबंधन की राजनीति में एक नया अनुभव रहा। स्थिति यह हो गई कि गठबंधन राजनीति को हमेशा हिकारत से देखने वाली कांग्रेस को भी अब गठबंधन की राजनीति स्वीकार करनी पड़ी। उसने भी भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का गठन किया। अपने रवैये में लाए गए इस बदलाव के उसे 2004 के आम चुनाव में अनुकूल परिणाम भी मिले।
अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए आम चुनाव के इतिहास पर श्रृंखला लिख रहे हैं