गिरीश मालवीय
इस विलय से यह प्रमाणित हो रहा है कि बैंकों में बढ़ते NPA की समस्या अब विकराल रूप धारण कर चुकी है और कुल 21 सार्वजनिक बैंको को मिलाकर सरकार द्वारा सिर्फ 4 या 5 बड़े बैंक बनाना ही आखिरी उपाय नजर आ रहा है, लेकिन जिस कारण से यह किया जा रहा है उसमें इस तरह के उपायों से कोई फायदा होने वाला नही है।
नुकसान हम बाद में समझेंगे, पहले आप यह जानिए कि इस तरह निर्णय क्यो लिया जा रहे हैं! कल खुद अरूण जेटली ने इस बारे में बताया कि बैंकों की कर्ज देने की स्थिति कमजोर होने से कंपनियों का निवेश प्रभावित हो रहा है। वित्त मंत्री ने कहा कि कई बैंक नाजुक स्थिति में है और इसका कारण अत्यधिक कर्ज तथा फंसे कर्ज (एनपीए) में वृद्धि है।
यानी आज भी उनकी प्राथमिकता में यही बात है कि बैंको को कंपनियों को कर्जा देना चाहिए, जो वो नही दे रहे हैं। उनकी इस बात पर कल जागरण में आए बीजेपी से राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर के इंटरव्यू की याद आयी जिसमे उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण तथ्य पेश किया था। उन्होंने बढ़ते NPA पर बात करते हुए कहा कि ‘साल 2012 में आई क्रेडिट सुइस की एक रिपोर्ट के मुताबिक बैंकों की तरफ से दिये गये 550000 करोड़ रुपये के कर्जो में 98 फीसद हिस्सेदारी देश के 10 कंपनी समूहों की थी।
तो जेटली जी से यह पूछा जाना चाहिए कि ये कौन सी कम्पनियाँ है जिन्हें लोन नही मिल पा रहा हैं और इसलिए आप बैंको का विलय करके उनकी एकीकृत पूंजी से लोन दिलाना चाह रहे हैं?
सच बात तो यह है कि आर्थिक सुधारों के बाद से उद्योग घरानों ने ही बैंकों को लूटा है। ऑक्सफेम द्वारा 2017 में जारी रिपोर्ट ‘इकोनॉमी फॉर 99%’ के अनुसार, भारत में 57 लोगों के पास 75 प्रतिशत गरीबों के बराबर संपत्ति है।
अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप पर अकेले 1,21,000 करोड़ का बैड लोन है। इस कंपनी को 8,299 करोड़ तो साल का ब्याज़ देना है। रूइया के एस्सार ग्रुप की कंपनियों पर 1,01,461 करोड़ का लोन बक़ाया है। गौतम अडानी की कंपनी पर 96,031 करोड़ का लोन बाक़ी है।मनोज गौड़ के जेपी ग्रुप पर 75,000 करोड़ का लोन बाकी है।
10 बड़े बिजनेस समूहों पर 5 लाख करोड़ का बक़ाया कर्ज़ा है।
दिवालिया क़ानून के तहत बनाए गए लॉ ट्रिब्युनल (एनसीएलटी) को मोदी सरकार अपनी उपलब्धि बताती है। कोई जरा बताए कि उन 12 कम्पनियों से कितना पैसा वापस बैंकों में आया है जिसे देश के NPA के 25 प्रतिशत बताया जा रहा था, कितने मामले इन दो सालो में पूरी तरह से हल हो पाए हैं? सही जवाब है पूरी तरह से एक भी नही।
तो आखिरकार मोदी सरकार किसके विकास के लिये प्रतिबद्ध है ? किसके अच्छे दिन लाने की कोशिश हो रही है? समझना मुश्किल नही है !
बैंको का विलय कोई जादू की छड़ी नही है! यह समझना होगा कि जिस मूडीज का नाम यह मोदी सरकार भजती रहती है उसने 2016 में एक रिपोर्ट पब्लिश की थी। इस रिपोर्ट का शीर्षक ‘बैंक- इंडिया: वर्तमान स्थितियों में सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों के एकीकरण में आएंगी चुनौतियां’ था। रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया कि ‘सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों को एकीकृत कर 8-10 बड़े बैंकों में तब्दील करने से जोखिम पैदा होंगे, जो वर्तमान कमजोर आर्थिक माहौल में संभावित दीर्घकालिक फायदों को खत्म कर देंगे।’
मूडीज उस रिपोर्ट में आगे लिखता है कि ‘बहुत से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) की बैलेंसशीट बहुत अधिक बिगड़ गई हैं, जिसका पता उनकी आस्ति गुणवत्ता और पूंजीकरण से चलता है। नतीजतन किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक में इतनी वित्तीय ताकत नहीं है कि वह विलय के बाद कंसोलिडेटर की भूमिका संभाल सके।’
रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने 2017 में कहा था कि ‘सरकारी बैंकों का विलय करने से पहले उनके गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) के मसले का समाधान किया जाना चाहिए। उनके बहीखातों को साफ-सुथरा बनाया जाना चाहिए ताकि उनकी सेहत में सुधार हो सके और उनके पास एकीकरण के बाद पर्याप्त पूंजी हो।’
लेकिन ऐसा नही किया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को जितनी पूंजी की जरूरत है उसकी पूर्ति एकीकरण के बाद भी संभव नहीं प्रतीत होती है।
विलय के संबंध में यह तर्क दिए जाते हैं कि यदि 5 या 6 बड़े बैंक ही रहेंगे तो अंतराष्ट्रीय स्तर के बड़े बैंको का मुकाबला कर पाएंगे। दरअसल अमेरिका के आठ बैंकों की समग्र पूँजी वहां के जीडीपी का साठ प्रतिशत है, वहीं इंग्लैंड और फ्रांस के चार बैंकों की समग्र पूंजी उनके देशों के जीडीपी का तीन सौ प्रतिशत है, जबकि भारत में प्रस्तावित छह बैंकों की समग्र पूंजी देश के जीडीपी की महज एक तिहाई होगी। अमेरिका के सबसे बड़े बैंक जे.पी मार्गन की पूंजी 2415 अरब डॉलर है, जो भारत के सबसे बड़े बैंक (भारतीय स्टेट बैंक) से आठ गुना ज्यादा है। साफ है, एकीकरण के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े बैंक नहीं बन पाएंगे।
कुल मिलाकर यह मोदी सरकार ने देश को जिस आर्थिक संकट के भँवर में डाल दिया है उसमें इन छोटे मोटे उपायों का अब कोई महत्व नही बचा है।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आर्थिक मामलों के जानकार हैं।