हाशिया: लैटरल एंट्री यानी पिछले दरवाजे से कंपनी राज का आग़ाज़!

अगर लैटरल एंट्री का यह प्रयोग आम हो गया तो इसका सबसे बड़ा नुकसान ब्यूरोक्रेसी में दलित-आदिवासी व पिछड़े वर्गों के आरक्षण पर पड़ेगा और वे धीरे धीरे इससे बाहर हो जाएंगे या कर दिये जाएंगे। इस आशंका को लेकर देश में विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो चुके हैं। अभी ही जबकि लैटरल एंट्री प्रचलन में नहीं है तब भी पहले से ही ऊपरी प्रशासन मे आरक्षित वर्गों की संख्या नगण्य है।

प्रशिक्षु आईएएस अधिकारियों के साथ पीएम मोदी (फाइल फोटो)

आर.राम

पिछले दिनों फरवरी के पहले हफ्ते मे संघ लोक सेवा आयोग ने केंद्रीय स्तर पर संयुक्त सचिव और निदेशक जैसे पदों के लिए कुल 30 पदों का विज्ञापन निकाला जिसे ‘लैटरल एंट्री’ कहा जा रहा है। इसके अंतर्गत बिना किसी लिखित परीक्षा के निजी क्षेत्र के अनुभवी विशेषज्ञों को इंटरव्यू के आधार पर संविदा के तहत पहले तीन साल के लिए नियुक्त किया जाएगा जिसे आगे बढ़ा कर पाँच साल भी किया जा सकता है। यह लैटरल एंट्री उच्च प्रशासनिक सेवाओं में पिछले दरवाजे से निजी क्षेत्र के लोगों को सीधा प्रवेश कराने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है।

निजीकरण को देश के विकास का एकमात्र उपाय मान कर चल रही मोदी सरकार के निजीकरण अभियान का यह एक महत्वपूर्ण कदम है, जिसका लक्ष्य बहुत साफ है, अगर संसाधनों, उद्योगों और सेवाओं का निजीकरण होना है तो उनका प्रशासन, नियमन और नियंत्रण भी कॉर्पोरेट के चहेते अधिकारियों द्वारा ही होना चाहिए। फाइलों पर साइन होने और फैसलों को बिना आगा-पीछा के लागू करने के लिए ‘सरकारी बाबुओं’ से मुक्ति जरूरी है। क्यूंकि सरकारी बाबू सरकार के आदेशों का पालन करने में जितना तत्पर होता है उतना ही विपक्ष के प्रति चौकन्ना रहता है, क्यूंकि उसे पता होता है कि सरकार तो बादल जाती है पर उन्हें इसी तंत्र में रहना होता है। लैटरल एंट्री के जरिये सरकार मंत्रालयों और सचिवालयों में सीधे कॉर्पोरेट के प्रतिनिधियों को बैठाकर इस झंझट को ही खत्म कर देना चाहती है। सरकार चाहती है कि उच्च पद पर बैठा अधिकारी तीन और पाँच साल के लिए आए और जिस कंपनी के लिए वह नियुक्त हुआ है उसका काम करे और काम समाप्त कर जगह खाली कर दे।

लेकिन अगर लैटरल एंट्री का यह प्रयोग आम हो गया तो इसका सबसे बड़ा नुकसान ब्यूरोक्रेसी में दलित-आदिवासी व पिछड़े वर्गों के आरक्षण पर पड़ेगा और वे धीरे धीरे इससे बाहर हो जाएंगे या कर दिये जाएंगे। इस आशंका को लेकर देश में विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो चुके हैं। अभी ही जबकि लैटरल एंट्री प्रचलन में नहीं है तब भी पहले से ही ऊपरी प्रशासन में आरक्षित वर्गों की संख्या नगण्य है। 12 अगस्त 2019 में द वायर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार के मंत्रालयों में उस समय कुल 93 अतिरिक्त सचिव तैनात थे, जिनमें 6 अनुसूचित जाति से , पाँच अनुसूचित जनजाति से आते थे, जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग से एक भी अतिरिक्त सचिव कार्यरत नहीं था। इसी तरह भारत सरकार के कुल 89 सचिव स्तर के अधिकारियों में मात्र 1 अनुसूचित जाति से था, 3 अनुसूचित जनजाति से थे और ओबीसी वर्ग से एक भी सचिव कार्यरत नहीं था। 275 संयुक्त सचिवों में से 13 एससी, 9 एसटी  और 19 ओबीसी थे।

ये संख्या ये बताने के लिए काफी है कि उच्च प्राशसनिक सेवाओं में वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है। आरक्षण समाप्त करने और उसे निष्प्रभावी बना देने के संकल्प के कारण ही यह सरकार सवर्ण तबकों का समर्थन हासिल किए हुये है। ऐसे में निजीकरण सरकार के हाथ में एक नायाब हथियार की तरह है, यह एक ऐसा हथियार है जिससे आम सवर्ण मतदाता और कॉर्पोरेट कंपनियाँ एक साथ प्रसन्न हैं। निजीकरण के कारण सामाजिक रूप से पिछड़े और वंचित तबकों को आरक्षण व सामाजिक न्याय की गारंटी करना अब कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं रह जाएगी। कॉर्पोरेट कंपनियाँ गुणवत्ता और एफिसिएन्सी के नाम पर उच्च पदों पर केवल कुलीन और संभ्रांत वर्गों के लोगों की नियुक्तियाँ करेंगे और वंचित तबकों को निम्न स्तर के कार्य करने पर मजबूर होना पड़ेगा।

लैटरल एंट्री के लिए सरकार यह करण बता रही है कि राज्यों में नियुक्त वरिष्ठ अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली नहीं आना चाहते, इसलिए मंत्रालयों और सचिवालय में सचिव, संयुक्त सचिव व निदेशक जैसे पद खाली रह जाते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि लैटरल एंट्री की प्रक्रिया तो 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा गठित प्राशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर आगे बढाई जा रही है। लेकिन वर्तमान सरकार यह नहीं बता रही कि 2005 के सिफ़ारिशों में और क्या क्या बाते थीं जिनपर अमल नहीं किया जा रहा है। वैसे भी मोदी सरकार को यूपीए सरकार के अधूरे कामों को पूरा करने का जनादेश तो नहीं ही मिला था।

बहरहाल, जहां जरूरत यह थी कि उच्च प्रशासन में वंचित तबकों की भागीदारी के लिए प्रोन्नति में आरक्षण का कानून बने उसकी जगह वर्तमान सरकार बची खुची जगहों  से भी इन्हें बाहर कर जन्म आधारित पेशे की पुरातन व्यवस्था को पुनर्जीवित करने में लगी है। देखना है दलित वंचित तबकों के लोग इन नीतियों का कहाँ तक और कब तक प्रतिकार कर पाते हैं!


लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.

First Published on:
Exit mobile version