पहला पन्ना: छह महीने में 6000 पोस्ट हटवायी छुई-मुई मोदी सरकार ने! 

100 करोड़ लोगों को फायदे की बात कैसे कही जा सकती है जब पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनकड़ पर यह आरोप है कि उन्होंने अपने छह रिश्तेदारों-करीबियों को ओएसडी बना रखा है। ऐसा हो नहीं सकता कि यह सरकार की जानकारी में नहीं हो। फिर भी अखबारों ने बताया नहीं। तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा ने कल ट्वीटर पर यह सूचना दी और सोशल मीडिया पर इसकी पर्याप्त चर्चा थी। आज के अखबारों में पहले पन्ने पर इसकी कोई चर्चा नहीं है।

 आज तीसरे इंटरव्यू में भी आईटी मंत्री ने गूगल पर सवाल का जवाब नहीं दिया 

 

आज हिन्दुस्तान टाइम्स में दीक्षा भार्गव की बाइलाइन से एक खबर है, “इस साल सोशल मीडिया से छह हजार कंटेंट हटाने के आदेश हुए। ये आदेश आईटी कानून 2000 की धारा 69 ए के तहत हुए हैं। 2019 में यह संख्या 3600 थी, 2020 में 9800 और अभी आधा साल नहीं गुजरा जून के पहले हफ्ते में ही संख्या 6000 हो गई है। आप समझ सकते हैं सरकार सोशल मीडिया को वैसे ही नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है जैसे बाकी मीडिया को। मेरा स्पष्ट मानना है कि कानून भी वैसे ही बना दिए गए हैं हालांकि, इसमें सरकारी नालायकी दिखती है और भले इसका मकसद सोशल मीडिया का उपयोग अपने हित में करना हो पर एक नए, अच्छे भले मीडिया को भारत में बर्बाद किए जाने की साजिशें चल रही हैं। अपना समानांतर कुछ करने का माद्दा नहीं है तब भी। वैसे, यह अलग और बड़ा विषय है पर यहां यह बताना जरूरी है कि देश में जब टेलीविजन मीडिया आया तो सरकारी बाबुओं ने कहा कि उसपर भी सेंसर के फिल्मों वाले नियम लागू होंगे। पत्रकार विनीत नारायण ने तब कई मुकदमे किए और अंततः टेलीविजन मीडिया सेंसर से मुक्त हुआ। 

अब सोशल मीडिया को फिर उसी तरह सरकार नियंत्रण में लेना चाह रही है पर मीडिया में उसका विरोध तो छोड़िए समर्थन ही चल रहा है। यह सब भारत में कारोबार करने वालों के लिए ईज़ ऑफ डूईंग बिजनेस के प्रचार के बावजूद हो रहा है कि विदेशी कंपनियों को परेशान कर रखा गया है। व्हाट्सऐप्प का दावा था कि उसकी बातचीत टैप नहीं हो सकती तो सरकार द्वारा इजराइली सॉफ्टवेयर पेगासस का उपयोग किए जाने से उसकी साख खत्म हो गई। रही सही कसर फर्जी पोस्ट ऑर फॉर्वर्ड से पूरी हो गई। निश्चित रूप से इसका असर उसके कारोबार और साख पर पड़ा होगा। दूसरी ओर, सरकार ने आज तक यह नहीं बताया कि उसने पेगासस सॉफ्टवेयर खरीदा है कि नहीं। इसमें कानून के उल्लंघन, जनहित आदि की बातें भूल जाइए। क्योंकि सरकार ऐसा कर रही है, चाहती है। दूसरी ओर, आज ही द हिन्दू में एक खबर है, “नए नियम सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने भर के लिए हैं। इससे 100 करोड़ उपयोगकर्ताओं को फायदा होगा। ऐसा केंद्रीय कानून और आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है। 

सवाल उठता है कि सरकार ने जब छह महीने में 6000 पोस्ट (कंटेंट) हटाने के आदेश दिए तो वह उपयोगकर्ताओं का हित कैसे होगा? क्या सरकार आम आदमी की इतनी परवाह करती है। वैसे भी, सरकार जिसे दुरुपयोग कह रही है वह दुरुपयोग ही है, कैसे तय होगा। आज जब अखबारों में जनहित की बात नहीं होती है तो सोशल मीडिया ऐसे काम कर रहा है। जब लोग अस्पताल में जगह, दवाइयां और ऑक्सीजन ढूंढ़ रहे थे तो सोशल मीडिया ने काफी काम किया पर सरकारने तो उसे रोकने की कोशिश की एफआईआर करवाए गए। आप रोक नहीं पाए यह कमजोरी है और आपने जनहित नहीं होने दिया वह अलग नालायकी है पर अभी वह मुद्दा नहीं है। 100 करोड़ लोगों को फायदे की बात कैसे कही जा सकती है जब पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनकड़ पर यह आरोप है कि उन्होंने अपने छह रिश्तेदारों-करीबियों को ओएसडी बना रखा है। ऐसा हो नहीं सकता कि यह सरकार की जानकारी में नहीं हो। फिर भी अखबारों ने बताया नहीं। तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा ने कल ट्वीटर पर यह सूचना दी और सोशल मीडिया पर इसकी पर्याप्त चर्चा थी। आज के अखबारों में पहले पन्ने पर इसकी कोई चर्चा नहीं है। ऐसे में अगर आप इस खबर को हटवाएंगे तो किसका भला करेंगे? आपके या आपकी सरकार के खिलाफ है तो आप दुरुपयोग कह ही सकते हैं। 

सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार और सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म में से एक व्हाट्सऐप्प ने अदालत में दो मामलों में परस्पर विरोधी स्टैंड लिए हैं। इंडियन एक्सप्रेस में आज इस संबंध में एक खबर पहले पन्ने पर है। इसके अनुसार दोनों मामलों के केंद्र में उपयोगकर्ता की निजता है। पर दोनों लड़ भी रहे हैं। जाहिर है उपयोगकर्ता बहाना है, स्वार्थ दोनों के अपने हैं। सरकार का स्वार्थ तो फिर भी चलेगा, भारतीय जनता पार्टी अपना स्वार्थ घुसा रही है और देश भक्ति का दावा भी वही सबसे ज्यादा करती है। दिलचस्प यह है कि भाजपा अगर इसके लिए अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा का उपयोग कर रही है तो वह भी बहुच लचर है। उससे देशहित या जनहित की क्या उम्मीद की जाए। ऐसी ही प्रतिभाशाली रणनीति के तहत नए आईटी कानून का प्रचार इन दिनों खूब हो रहा है। कल हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर खबर थी (मैंने यहां चर्चा भी की थी)। अंदर आईटी मंत्री का इंटरव्यू भी था। आज हिन्दू में भी है। इससे पहले शुक्रवार, 4 जून को एक भक्त मित्र ने इकनोमिक टाइम्स में छपे केंद्रीय सूचना तकनालॉजी मंत्री का यह विशालकाय इंटरव्यू साझा किया था। नोट कीजिए, आज तीसरा दिन है इंटरव्यू प्रकाशित होने का। प्रिंट एडिशन में इसका प्रचारक वाला शीर्षक था, “पीएम मोदी की आलोचना कीजिए, मेरी, सरकार की पर भारत के नियमों का पालन कीजिए।” इंटरनेट पर या ई-पेपर में इसका शीर्षक था, “अमेरिका में काम करने वाली भारतीय फर्में क्या वहां के कानून का पालन नहीं करती हैं?” 

आज हिन्दू में पहले पन्ने पर छपी खबर में कहा गया है, “…. किसी भी मजबूत लोकतंत्र में जहां बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी है वहां शिकायतों के निपटारे के लिए भी एक मंच होना चाहिए। …. अमेरिका में बैठी एक निजी कंपनी को हमें लोकतत्र पर भाषण देने का कोई हक नहीं है जब आप हमारे उपयोगकर्ताओं को प्रभावी कार्रवाई का मंच देने से इनकार कर रहे हैं।” बेशक यह सब सुनने में अच्छा लगता है पर सोशल मीडिया से शिकायत किसे हैं? मुझे तो नहीं है। मुझे जीएसटी पर सरकार से शिकायत है कोई सुनने वाला नहीं है। चिट्ठी लिखी कोई जवाब नहीं आया। लेकिन फेसबुक से मुझे थी, शिकायत की, कार्रवाई हुई। मैं संतुष्ट हूं। मुझे नहीं लगता आम लोगों को शिकायत है। शिकायत होती और सोशल मीडिया वाले सरकार की बात नहीं मानते तो इन्हें बंद किया जा सकता था। दूसरे देशों में किया गया है। असल में सरकार खुद उसका दुरुपयोग करना चाहती है, किया है, करती है और दिखावा जनहित का कर रही है। 

आइए, अब रोज छप रहे इस इंटरव्यू के एक सवाल के बारे में बताता हूं। इस बारे में मैंने पहले भी लिखा है। दरअसल गूगल ने कोर्ट में मुकदमा कर कहा है कि वह सर्च इंजन है, उसे सोशल मीडिया के कानूनों से मुक्त रखा जाए। निश्चित रूप से यह एक बड़ा और गंभीर मुद्दा है। तकनीक तो है ही लेकिन डिजिटल भारत की अदालत में निपटेगा। क्योंकि यहां शिकायत दूर करने की यही व्यवस्था है। ट्वीटर या सोशल मीडिया मंचों से सरकार की अपेक्षा अलग है। वह भी जो वह खुद नहीं करती। भारत सरकार ने उसकी क्या व्यवस्था की है और अदालतों में कितना समय लगता है वह किसी से छिपा नहीं है। फिर भी ईज ऑफ डूईंग बिजनेस का दावा करने वाली सरकार गूगल को सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म मानती है कि नहीं, नहीं बता रही है। इकनोमिक टाइम्स ने अपने इंटरव्यू में इस बारे में सवाल पूछा, “गूगल ने कहा है कि वह सर्च इंजन है उस पर सोशल मीडिया के नियम लागू नहीं होने चाहिए।” इसका जवाब यह होना चाहिए कि गूगल कैसे सोशल मीडिया है (या नहीं है) और है तो उसपर लागू होगा (नहीं है तो नहीं होगा)। या यह भी कि इसमें कहां विवाद है वह तो है ही, इन कारणों से। लेकिन मंत्री जी पूरे मामले को ही गोल कर गए और एक भाषण दे दिया। 

आज, द हिन्दू के इंटरव्यू में वही सवाल इस तरह है, गूगल ने यह कहते हुए सूचना तकनालाजी नियमों से सुरक्षा मांगी है कि वह एक सर्च इंजन है …. । जवाब है, हम तकनीकी मामलों की आड़ न लें। क्या यह किसी भी नाम से चलने वाले प्लैटफॉर्म की नैतिक जिम्मेदारी नहीं है कि वह उस महिला के सम्मान की रक्षा करे जिसकी नंगी या मॉर्फ्ड (बदली हुई) तस्वीर प्रसारित हो रही है। क्या एक व्यवस्था नहीं होनी चाहिए। (जो यह सुनिश्चित करे) कि हम ऐसी सामग्री न लें जब तक हमें यह नहीं दिखाया जाए कि इसमें जनता की सहमति का तत्व है। यह इन सोशल मीडिया फर्मों की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है। मुझे नहीं पता मंत्री जी मामला समझ नहीं रहे हैं या जानबूझकर घालमेल कर रहे हैं। वैसे हैं तो कानून मंत्री और कानून कैसे नहीं समझेंगे। पर अगर किसी इंटरनेट साइट पर किसी की आपत्तिजनक फोटो है और सर्च इंजन दिखा रहा है तो यह उसका काम है। जितना अच्छा इंजन होगा उतना अच्छा काम करेगा और जो तस्वीरें आस-पास भी होंगी उन्हें दिखाएगा। आप यह अपेक्षा क्यों कर रहे हैं कि न दिखाए। उसके लिए नियम है कि महिला शिकायत करे, पुलिस कार्रवाई करेगी जिसने पोस्ट किया है वह हटाएगा या पुलिस कार्रवाई के आधार पर संबंधित वेबसाइट या पोर्टल या प्लैटफॉर्म से कहा जाए कि वह उसे ब्लॉक करे। तब सर्च इंजन नहीं दिखा पाएगा। यहां सरकार अपना काम नहीं कर रही है, जो कानून है उसका उपयोग नहीं किया जा रहा है और सर्च इंजन से अपेक्षा की जा रही है कि वह अपना काम नहीं करे। क्योंकि सरकार सोशल मीडिया को नियंत्रण में लेना चाह रही है। यह कैसा जनहित है

अगर सर्च इंजन को इससे रोक दिया जाए तो किसी की ऐसी तस्वीर किसी साइट पर होगी उसे पता ही नहीं चलेगा। वह ज्यादा गड़बड़ स्थिति होगी। या सर्च इंजन इसके पैसे मांगने लगें। होने को तो यह भी आपदा में अवसर हो सकता है पर क्या यह जनहित होगा? निश्चित रूप से सरकार जो कर रही है वह पार्टी के स्वार्थ में कर रही है तथा माई वे, ऑर नो वे के अलावा कुछ नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह प्रायोजित इंटरव्यू है या सेवा भावना से छापा गया होगा। वरना सवाल यह होता कि इकनोमिक टाइम्स के इंटरव्यू में आपने जवाब नहीं दिया, मुद्दा यह है कि सर्च इंजन सोशल मीडिया कैसे हो सकता है। अभी जो स्थिति है, कोई भी किसी की तस्वीर मॉर्फ करके पोस्ट कर देता है। कार्रवाई इतनी ढीली और लचर है कि फोटो हटने में महीनों लग जाएंगे। अपराधियों को डर नहीं है। दूसरी ओर अभी सुविधा है कि किसी को शक हो तो वह गूगल से पता कर ले, शिकायत करे। पोर्टल का नाम बताए तब भी कार्रवाई का भरोसा नहीं है। सरकार इस दिशा में तेजी लाने की बजाय दूसरी बातें कर रही है और कम से कम तीन इंटरव्यू तो मैं देख चुका, सवाल करने वाले को जवाब की जरूरत नहीं होती है। कहने की जरूरत नहीं है कि सोशल मीडिया और सर्च इंजन का काम बिल्कुल अलग है और अगर आईटी मंत्री इसमें घालमेल करेगा तो शिकायत निपटाने के लिए व्यवस्था यहां ज्यादा जरूरी है पर जिसकी लाठी उसकी भैंस में यह सब नहीं होता है। जहां तक खबरों और शीर्षक में खेल करने की बात है, अखबार यह तो बता रहे हैं कि कोरोना का मामला कितनी तेजी से गिर रहा है पर यह नहीं बता रहे कि चढ़ा कितनी तेजी से था। 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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