दूषित चेतना के घटाटोप से निकलने की उम्मीद देकर जा रहा है 2020 !

1977 की बात है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी को ‘फूलती-फलती’ देखा तो अपनी संभावनाएं उजली समझ लोकसभा चुनाव कराने की ‘गलती’ कर बैठीं। कहते हैं कि उन्होंने इस बाबत खुफिया एजेंसियों से जो रपट मंगवाई थी, उसके आधार पर आश्वस्त थीं कि इस चुनाव में उन्हें शानदार जनादेश मिलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव परिणाम उनकी शिकस्त की खबर ले आये तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की अंतिम बैठक बुलाकर इमर्जेंसी खत्म कर दी।

उन दिनों के बहुचर्चित दैनिक ‘नई दुनिया’ के सम्पादक श्री राजेन्द्र माथुर को उनके किसी सहकर्मी ने बेहद आह्लादित होकर यह खबर दी तो उसकी मुखमुद्रा देख उन्होंने पूछा, : इसमें इतना खुश होने की क्या बात है? वह तो तब होती, जब इस खबर के लिए श्रीमती गांधी की ‘गलती’ का लम्बा इंतजार करने के बजाय देश 1975 में ही उन्हें घुटनों के बल ला देता। जैसे ही उन्होंने इमर्जेंसी लगाकर नागरिकों के मौलिक अधिकार छीने, प्रेस पर सेंसर लगाया और विपक्षी नेताओं को जेल में डाला, उन्हें अपने कदम वापस खींचने के लिए विवशकर कर देता। मैं तो दुःखी हूं कि उसने श्रीमती गांधी को उन्नीस महिनों तक अपनी आजादी व लोकतंत्र दोनों से जी भर कर खेलने दिया।…सोचो जरा, वे यह ‘गलती’ न करतीं, तो इस हमारी आजादी और लोकतंत्र कब तक उनके पंजों में जकड़े रहते?

यह वाकया आपकी नजर करना इसलिए जरूरी लगा कि वर्ष 2020 प्रकारांतर से ही सही, स्वर्गीय माथुर के इस सवाल का जवाब देकर विदा हो रहा है। यह जताकर कि नरेन्द्र मोदी सरकार की बदगुमानियों से निजात के लिए देश हाथ पर हाथ धरे 2024 के चुनाव का इंतजार नहीं करने वाला। सच कहें तो स्व. माथुर जैसे दुःख के पार जाने के लिए वह अपनी पहली सुबह से ही उस उजाले की लौ को बढ़ाता रहा है, जिसकी विरासत 2019 उसे सौंप गया था। यही कारण है कि उसकी विदा बेला में देश उन नाउम्मीदियों के पार जाता दिखने लगा है, पिछले साल दूषित चेतनाओं के रथ पर सवार होकर आई नई और ‘ज्यादा मजबूत’ सरकार ने उसे बरबस जिनके हवाले कर दिया था।

याद कीजिए, तब जम्मू-कश्मीर का विशेष तो क्या पूर्ण राज्य तक का दर्जा छीनकर उसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में बांट देने से शुरू इस सरकार की आक्रामकता नागरिकता कानून में अवांछनीय संशोधनों से गुजरकर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तक पहुंचने की उतावली में न कोई दलील सुनने को तैयार थी, न किसी वकील या अपील के लिए कोई गुंजायश छोड़ रही थी। इसीलिए 2020 ने अपनी पहली ही सुबह देश के कई शाहीनबागों में उसकी निरंकुशता के विरुद्ध प्रदर्शनरत लोगों के रेले देखे थे। इन रेलों में, और तो और, दादियां और माँएँ तक मुखर थीं। लेकिन उनके एक सौ एक दिन जमे रहने के बावजूद सरकार की ओर से किसी ने उनसे बात तक करना गवारा नहीं किया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व गृहमंत्री अमित शाह, जिन पर इसका तकिया था, नागरिकता संशोधन कानून व राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर परस्परविरोधी बातें कहते तो उनके समर्थक इन सारे जमावड़ों को लांक्षित व अपमानित करते रहे थे। जब तक कि निर्मम दमनात्मक कार्रवाइयों के बीच राजधानी दिल्ली में दंगे नहीं भड़क गये और पुलिस द्वारा कोरोना के बहाने सारे जमावड़ों को बिखर जाने को मजबूर नहीं कर दिया गया।

लेकिन आज परिदृश्य एकदम से बदला हुआ है। शाहीनबाग वाले जमावड़े की ही तर्ज पर तीन मनमाने कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलित किसान दिल्ली की सीमाओं पर आ डटे हैं और सारे आन्दोलनों व असहमतियों के अपमान, दमन व अनसुनी की इस सरकार की पुरानी शैली को विफल कर दिया है। तभी तो 2020 न सिर्फ गुमान में फूली-फूली फिर रही सरकार को किसानों से बिना शर्त वार्ता करते, उक्त कानूनों में संशोधनों को राजी होते और गृहमंत्री को यह मानते देख रहा है कि उन्हें पारित करने से पहले किसानों से सलाह-मशवरा न करना गलत था।

इतना ही नहीं, वह यह भी देख रहा है कि जिस सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि शाहीनबाग के प्रदर्शनकारी विरोध के लिए सार्वजनिक जगह पर कब्जा नहीं जमा सकते, उसने किसानों के मामले में यह सरकारी दलील ठुकरा दी है कि किसान राजधानी को बंधक बनाकर अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रहे हैं। न्यायालय का किसानों के विरोध प्रदर्शन के अधिकार में दखल देने से मनाकर उनके आन्दोलन को शाहीनबाग जैसे अंजाम तक पहुंचाने के सरकारी इरादे पर पानी फेरना भी देश के लोकतंत्र के लिहाज से कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस किसान आन्दोलन का उभार इस अर्थ में भी काबिलेगौर है कि मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल के आन्दोलनरहित गुजर जाने के बाद कई प्रेक्षक इस निष्कर्ष तक जा पहुंचे थे कि चूंकि यह सरकार न आन्दोलनों के प्रति लोकतांत्रिक रुख अपनाती है, न उनकी मांगें मानती है, इसलिए उसके ‘न्यू इंडिया’ में उनकी को कई जगह नहीं होगी।

विडम्बना यह कि इन प्रेक्षकों के गलत सिद्ध हो जाने के बावजूद कई महानुभाव यही रटे जा रहे हैं कि हाय, 2020 में कोरोना ने बहुत रुलाया। यकीनन, इसमें हम साल कोरोना जैसी भीषण महामारी, बिना सोचे-समझे थोप दिया गया लम्बा लॉकडाउन और करोड़ों बदहाल श्रमिकों का पलायन झेला। इन सबके त्रास को कोरोना के कारण असमय हमें छोड़ गये अपनों के बिछोह से जोड़कर देखें तो वह और बढ़ जाता है। लेकिन हम जानते हैं कि न कोरोना मनुष्यता के इतिहास की पहली महामारी है, न अंतिम। न ही वह मनुष्य के बुद्धि, विवेक और साहस से इतनी बड़ी है कि उनकी अविराम चलती रहने वाली यात्राएं ही रोक दे। तभी तो 2020 की विदाई तक हमने साबित कर दिया है कि कोई भी दुःख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं होता और हारता सिर्फ वही है, जो उससे लड़ता नहीं।

दरअसल, 2020 ने हमें समझाया कि इस दौरान जो महामारी हमें हराने में कुछ भी उठा नहीं रख रही थी, वह कोरोना वायरस से नहीं, उसके बहाने हमारी दूषित चेतनाओं को कुछ और दूषित कर हमारी छाती पर मूंग दलने के सत्ताधीशों के गर्हित खेल से पैदा हुई थी। याद कीजिए, उन दिनों दिल्ली में फंसकर रह गये तब्लीगी जमातियों को कोरोना के संक्रमण का वायस और खलनायक बनाने के लिए सत्ता व उसके समर्थक मीडिया की जुगलबन्दी ने कैसे-कैसे करतब दिखाये। उनके ये करतब इस अर्थ में अभूतपूर्व थे कि हमारे इतिहास में इससे पहले की एक भी ऐसी नजीर नहीं है कि किसी महामारी के आते ही उसके लिए किसी धर्म या सम्प्रदाय को कोसना व लांक्षित करना आरंभ कर दिया जाये, लेकिन 2020 का सौभाग्य कि वह यह देखने से भी वंचित नहीं रहा कि अंततः इस जुगलबन्दी के सारे करतब मिलकर भी सच्चाई को उजागर होने से नहीं रोक पाये।

स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर के वाकये पर लौटें तो 2020 ने सिद्ध कर दिया है कि देश 1975, 2014 या 2019 में नहीं ठहरा हुआ है। उसने इस उम्मीद को भी पुख्ता किया है कि अब देश अपनी गुमी हुई आजादी और साथ ही लोकतंत्र की कीमत को पहले से बेहतर समझने लगा है। दुष्यंत कुमार के शब्द उधार लेकर कहें तो देशवासी समझते तो खैर पहले भी थे कि कई नदियां उन तक आती-आती क्यों सूख जाती हैं और उनका पानी कहां ठहरा दिया गया है, अब वे उस ठहराव के खिलाफ मुखर भी हो रहे हैं और मुखरता के रास्ते की बाधक दूषित चेतनाओं के घटाटोप से बाहर भी निकल रहे हैं।

उनका यह निकलना ही इसकी गारंटी दे सकता है कि 2020 में देश की राजधानी में हुए 1984 के बाद के भीषणतम दंगों और करोड़ों श्रमिकों के समक्ष आई देशव्यापी पलायन की बंटवारे के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी और अर्थव्यवस्था के बंटाधार की पुनरावृत्ति नहीं होगी।


कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।

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