क्या नए दौर के लिए तैयार है देसी वामपंथ?

दीपंकर भट्टाचार्य, महासचिव, भाकपा-माले (फाइल फोटो)

अर्से बाद भारत में वामपंथ किसी सकारात्मक कारण से चर्चा में आया है। कारण है बिहार विधानसभा चुनाव, जिसमें सीपीआई-एमएल को 12 और सीपीआई-सीपीएम को दो-दो सीटें हासिल हुई हैं। वामपंथ ने यह चुनाव राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर लड़ा और खुद को आवंटित 29 सीटों में से कुल 16 पर विजय प्राप्त की। इस नतीजे को अगर बिहार में लेफ्ट के अतीत से जोड़कर देखें तो शायद इसमें कोई यादगार बात न नजर आए। 1972 में 35 सीटें जीतकर सीपीआई वहां दूसरे नंबर की पार्टी बनी थी, जबकि 1990 के विधानसभा चुनाव में सीपीआई को 23 और सीपीएम को 6 सीटों के अलावा गैर-पारंपरिक वाम दलों आईपीएफ (अभी सीपीआई-एमएल) को 7 और एके राय की मार्क्सिस्ट कोऑर्डिनेशन को 2 सीटें हासिल हुई थीं। इस तरह समूचे वाम दायरे को मिली कुल 38 सीटों के साथ इस खेमे के लिए वह सबसे अच्छा चुनाव था।

लेकिन जो दो बातें इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों को भारतीय वामपंथ के लिए खास बनाती हैं, उनमें एक यह है कि 2009 से देश में लेफ्ट के लिए लगातार आ रही गिरावट की खबरों के बीच यह एक अच्छी खबर है। और दूसरी यह कि हिंदी हार्टलैंड में पहली बार वामपंथ की एक ऐसी धारा ने संसदीय दायरे में अपनी मजबूत पहचान कायम की है, जिसकी लाइन चुनाव जीतने को ही लक्ष्य मानने के बजाय इसका उपयोग वाम आंदोलन को आगे बढ़ाने में करने की है। सड़क चलते आदमी के लिए यह सिर्फ एक कागजी फर्क है, लेकिन हकीकतन यह खुद में एक ऐसी प्रस्थापना है, जिसकी आजमाइश को लेकर वाम दायरों में गहरी उत्सुकता है। इस बारे में और चर्चा करने से पहले हम पहली वाली बात को थोड़ा और आगे बढ़ाते हैं।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले अभी के प्रतीकात्मक एनडीए का पिछला, अटल बिहारी वाजपेयी वाला दौर सत्ता से अपनी विदाई के वक्त वामपंथ के लिए काफी अच्छा साबित हुआ था। 2004 के आम चुनाव में वाम मोर्चे को 59 सीटें मिली थीं जबकि 2006 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में 176 विधायक जिताकर उसने अपने गढ़ में खुद को अजेय साबित किया था। इन अच्छे नतीजों के पीछे वजह शायद यह थी कि राजनीतिक हिंदुत्व के उभार का प्रतिनिधित्व कर रही बीजेपी के सामने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की कमान तब कांग्रेस और सोनिया गांधी से कहीं ज्यादा मजबूती के साथ ज्योति बसु और अन्य वामपंथी नेताओं ने संभाल रखी थी। यह स्थिति मोटे तौर पर भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौते के मुद्दे पर 2008 में वाम मोर्चे द्वारा मनमोहन सरकार से समर्थन वापसी तक बनी रही।

इसके बाद हुए दो महत्वपूर्ण चुनावों में लेफ्ट के प्रदर्शन पर नजर डालें तो 2009 के आम चुनाव में 59 से गिरकर सिर्फ 24 लोकसभा सीटें उसके पास रह गईं, जबकि 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में 176 से लुढ़कता हुआ वह सीधे 40 पर आ गिरा। चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों के लिए जीत-हार इतनी बड़ी बात नहीं होती, क्योंकि सरकार में आए सामने वाले दल का बुरा प्रदर्शन उन्हें जल्द ही दोबारा उभरने का मौका दे देता है। लेकिन मुक्केबाजी के खेल में जिसे ‘सकर पंच’ कहते हैं- ऐसा घूंसा जो प्रतिद्वंद्वी की लड़ने की क्षमता ही समाप्त कर दे- कुछ वैसी ही मार इन दोनों चुनावों में पारंपरिक वामपंथ को लगी और वह उठकर फिर से मुकाबला करना ही भूल गया।

इस बात को आंकड़े में समझना हो तो पिछले दो आम चुनावों में वाम मोर्चे की जीती हुई सीटें गिरकर 2014 में 11 और 2019 में 5 पर चली गईं, जबकि प. बंगाल विधानसभा के 2016 के चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने के बावजूद वह 44 तक ही पहुंच पाया। एक ऐसी राजनीतिक धारा, जो आजादी के पहले से भारत के ज्यादातर जमीनी आंदोलनों की अग्रणी शक्ति रही हो, उसका बढ़ना-घटना सिर्फ उसके चुनावी प्रदर्शन से नहीं आंका जाना चाहिए। लेकिन न सिर्फ दूसरों की बल्कि खुद की नजरों में भी आज उसके दुर्दिन आए हुए से लग रहे हैं तो इसका कारण यही है कि वाम मोर्चा और उसकी संचालक शक्ति सीपीएम धीरे-धीरे अपनी पहचान एक चुनावी शक्ति जैसी ही बनाती गई है- ‘सारे संघर्ष, सारे आंदोलन चुनाव के लिए।’ पार्टी दस्तावेजों में चुनाव का मकसद ‘जनविद्रोह की तैयारी’ बताया गया है, लेकिन व्यवहार से ऐसा कोई संकेत नहीं निकलता।

पारंपरिक और अ-पारंपरिक वाम का फर्क इस बिंदु पर ही देखने को मिलता है। इनकी पॉलिटिकल लाइन के ब्यौरों में काफी फर्क है, लेकिन इसका संक्षेपण इस एक वाक्य में किया जा सकता है- ‘चुनाव समेत सारे राजनीतिक टकराव जनसंघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए।’ कहने को पिछले तीस वर्षों से सीपीआई-एमएल भी चुनाव लड़ती है, लेकिन बिहार में खेत मजदूरों और गरीब किसानों के साथ जुड़ी अपनी पहचान के बल पर वह घनघोर ध्रुवीकरण के बीच भी अकेले दम पर चुनाव जीतती रही है। उसके जन प्रतिनिधि इन्हीं वर्गों के बीच से आते हैं और जीत-हार दोनों स्थितियों में जमीनी आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं। बीते विधानसभा चुनाव में सीपीआई-सीपीएम से गठजोड़ न बनने पर राष्ट्रीय जनता दल का चुनावी नतीजा शायद ही प्रभावित होता, लेकिन सीपीआई-एमएल के अलग लड़ने की स्थिति में उसे अपनी 25-30 मजबूत सीटें जीतने का ख्याल भी छोड़ देना होता।

क्या इस नई वाम धारा का बिहार में 12 एमएलए जिता लेना वाकई इतनी बड़ी बात है कि इसे समूचे भारतीय वामपंथ के लिए खुशखबरी कहा जा सके? जवाब देने की कोई हड़बड़ी नहीं है। पूरी दुनिया में वामपंथ का संकट सोवियत संघ के पतन से थोड़ा पहले ही शुरू हो गया था। भारत में वह इसे 15-20 साल तक टालने में कामयाब रहा, लेकिन फिर कुछ रणनीतिक गलतियों के बाद कार्यकर्ता, संसाधन और विचार, तीनों स्तर पर समस्याएं उभर आईं। अभी के दौर की खासियत यह है कि दुनिया भर की पूंजीवादी सत्ताएं भी भारी मुश्किलों का सामना कर रही हैं। कोविड के बाद की दुनिया कैसी होगी इस बारे में अभी कयास ही लगाए जा रहे हैं, लेकिन कमजोर तबकों के लिए यह पहले से ज्यादा मुश्किल होगी, इस पर आम सहमति सी लग रही है। वामपंथ अगर नई वैचारिक ऊर्जा के साथ मैदान में उतरे तो इससे न केवल गरीब-उत्पीड़ित तबकों का हौसला बढ़ेगा, बल्कि भारत में कांग्रेस और अन्य उदार धाराओं के दोबारा जोर पकड़ने की गुंजाइश भी बनेगी।


चंद्रभूषण, वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार लिया गया है।

First Published on:
Exit mobile version