श्याम कुमार सिन्हा
कानूनी अर्थ में जेल को सुधारगृह कहा जाता है और बंदियों को सामाजिक रूप से विकारग्रस्त माना जाता है। राज्यव्यवस्था (सरकार) हमेशा यह दावा करती है कि जेल प्रवास बंदियों को आपराधिक गलती दोहराने से रोकती है, समाज से अलग-थलग करके बंदियों को पश्चाताप का अवसर दिया जाता है, आदि-आदि।
कैदखाने का आईना (जेल डायरी) में ये सारे दावे एक तरफ तो बेरंग नजर आते हैं, तो दूसरी तरफ राज्यव्यवस्था एवं उसके सिपहसलारों (अधिकारी-कर्मचारी) का चरित्र बेहद स्याह काला नजर आता है।
“कैदखाने का आईना” स्वतंत्र पत्रकार /लेखक/कवि रूपेश कुमार सिंह के अपहरण से लेकर जमानत पर रिहाई तक उनके द्वारा जेल प्रवास के जीवन अनुभव का दर्शन व लेखा जोखा है।
राज्यव्यवस्था के उच्चपदस्थ अधिकारियों द्वारा लेखक का अपहरण करना और अवैध हिरासत में रखे जाने के दिन से शुरू होती हुई लेखक की यह जेल डायरी राज्य द्वारा किये जाने वाले मानवाधिकार हनन का उदाहरण है। जनमुद्दों पर रूपेश जी का लेखन सरकार के आँख की किरकिरी बनती है, ऐसे में उनके अधिकारों का सरकार द्वारा हनन होना अप्रत्याशित नहीं था।
कैदखाने का यह आईना जेल की दुनिया से पर्दा हटाकर झांकने का अवसर देने के साथ-साथ राज्यव्यवस्था के असली चरित्र का दर्शन भी करवाती है। जेल में प्रवेश के समय कैदियों की खरीद-बिक्री का बेरोक-टोक होना बताता है कि सरकारी तंत्र किस कदर मानव व्यापार में संलिप्त है। बंदी मुलाकात से लेकर उनकी रिहाई तक हर कदम पर सरकारी तंत्र के निष्ठावान कर्मठ रक्षक हाथ फैलाये मिल जाते हैं। व्यवस्था का यह बिकाउपन देश में हर तरफ सहजता से दिख रहा है और जनता अपनी अपनी क्षमता के अनुरूप खरीद भी रहे हैं।
“कैदखाने का आईना” जहाँ जेल के भीतर योग दिवस, गाँधी जयंती एवं अन्य सरकारी-धार्मिक आयोजनों की हकीकत दिखाता है, वहीं महिला सिपाहियों के लिए शोषण से भरे कार्य माहौल से भी अवगत करवाता है।
नंगटा दौड़ जैसे वाकये यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि राज्यव्यवस्था जनता को सामान्य कानूनी जानकारी देने में विफल रही है। नंगटा दौड़ किसी मानव के नग्न देह को देखने की घिनौनी लालसा और अनैतिक अश्लील मनोरंजन की स्वीकार्यता को भी साबित करता है।
“कैदखाने का आईना” न केवल राज्यव्यवस्था के शोषक, आपराधिक, क्रूर, दमनकारी व धार्मिक, जातीय- वर्गीय चरित्र का दर्शन करवाता है बल्कि इस आइने में जेल में बंद जनता (कैदियों) के आपराधिक, शोषक, धार्मिक, जातीय-वर्गीय चरित्र भी झलकता है। सामान्य कैदी जहाँ दबंग कैदियों के शोषण का शिकार होते हैं, वहीं कुछ को छोड़कर ज्यादातर कैदी महिला सिपाहियों को हर पल ललचाई निगाहों से देखते है। भारतीय समाज में महिला चाहे किसी भी सामाजिक, प्रशासनिक या राजनीतिक हैसियत में हो पर अधिकांश आम व खास मर्द के नजर में वह केवल भोग की वस्तु ही है, समाज में महिलाओं के प्रति यौन अपराध के दिन-प्रतिदिन बढ़ने के पीछे यह भी एक कारण है।
कैदियों का विरोध-विद्रोह, जेल में बाहरी छापा जैसी कहानियाँ जेल प्रशासन के वर्दी की धौंस की पोल खोल देता है। जबकि दारोगा बना कैदी जैसी कहानी पुलिस प्रशासन के चरित्र का वखूबी बखान करता है।
कैदखाने के इस आईना में जेल के भीतर साहित्यिक व मानवीय सृजनता को पनपते देख थोड़ा सुकून भी मिलता है। कैदियों द्वारा जनगीत लिखा-गाया जाना, प्रियजनों को यादकर गीत लिखना राजकीय दमन के विपरीत मानवीयता की जीवटता दर्शाती है।
इस जेल डायरी के आखिरी भाग में लेखक ने न्यायिक व्यवस्था के तौर तरीके पर गंभीर और जायज टिप्पणी की है। हाल ही में उच्चतम न्यायालय के एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायधीश महोदय ने भी न्यायपालिका के शिथिल तौर तरीके और सामान्य जनता को न्याय नहीं मिलने जैसे गंभीर आरोप लगाये है। ऐसा लगता है कि लेखक रूपेश जी के आरोपों पर न्यायधीश महोदय ने मुहर लगा दी है। बहरहाल लेखक अपनी स्वतंत्रता वापस हासिल करने में कामयाब हो गये है, पर कैदखाने मे बंद लाखों भारतीय जनता आज भी आपनी स्वतंत्रता के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं।
कैदखाने के इस आईना के माध्यम से लेखक ने साहसिक तरीके से न केवल कैदखाने की जिंदगी को कागज पर उकेरा है, बल्कि राज्यव्यवस्था के साथ-साथ जेल में बंद जनता के चरित्र का भी सटीक चित्रण किया है।
लेखक, अधिवक्ता हैं।