ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आपराधिक छवि वाले पूर्व मंत्री रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के मुकदमे हटाए जाने पर सवाल किया है। योगी आदित्यनाथ की सरकार से पूछा है कि ऐसा क्यों किया? कोर्ट उत्तर से संतुष्ट नहीं हुई तो वह आगे एक्शन ले सकती है। राजा भैया उस वक्त सियासी चर्चा में आए थे जब मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने उन्हें कुंडा का गुंडा कहा और जेल भेजा था। उन्होंने भरी सभा में कहा था -“गुंडा विहीन कुंडा करौं, ध्वज उठाय दोउ हाथ!” बाद में मायावती सरकार में भी उन पर तमाम मुकदमे चले। बाद में वे अखिलेश यादव सरकार में मंत्री थे पर उन्हें एक डिप्टी एसपी की हत्या के आरोप में मंत्री पद छोडऩा पड़ा था। बाद में सीबीआई ने उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया था। इसी तरह मुकदमा वापसी के मुद्दे पर पूर्व डीजीपी ब्रजलाल ने कुछ दिनों पहले सपा नेता अखिलेश यादव को घेरा था। ब्रजलाल ने कहा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए आतंकियों के मुकदमें वापस लेने की तैयारी हुई थी।
आमतौर पर जो भी सरकार आती है, अपनी सुविधा के अनुसार कुछ लोगों पर लगे मुकदमे हटाने की कोशिश करती है। अभी कुछ महीनों पहले विधायक जवाहर पंडित की हत्या के आरोपी पूर्व सांसद कपिल मुनि करवरिया, पूर्व विधायक उदयभान करवरिया के मुकदमे वापसी की प्रक्रिया योगी सरकार ने शुरू कराई थी। करवरिया परिवार की भाजपा विधायक नीलम करवरिया इसके लिए पैरवी कर रही थीं। जब यह बात सामने आई तो मारेगए विधायक जवाहर पंडित की पत्नी पूर्व विधायक विजमा यादव ने कोर्ट जाकर इसका विरोध किया। नतीजा ये हुआ कि मुकदमें वापस नहीं हो पाए।
प्रभावशाली लोगों के मुकदमें हटाना और विरोध पर प्रक्रिया रुक जाना कोई नई बात नहीं है। सरकार को अधिकार हासिल है कि वह तय प्रक्रिया से मुकदमें वापस ले सकती है। मगर ऐसी कोशिश सिर्फ प्रभावशाली लोगों के लिए ही क्यों होती है? पीडि़त लोक इन प्रक्रियाओं से नदारद क्यों दिखते हैं। इलाहाबाद के ही लोक सेवा आयोग के सामने बीते एक दशक में भ्रष्टाचार, नौकरियों में घोटाले के खिलाफ अनगिनत प्रदर्शन युवाओं ने किए और उन पर मुकदमे दर्ज किए गए। इन युवाओं पर लगे मुकदमे हटाने के लिए सरकारों ने ऐसी सक्रियता नहीं दिखाई जो प्रभावशाली, दबंग और सत्ता में रसूख रखने वाले लोगों के लिए दिखाई जाती है। चूंकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई बार अपराधियों के खिलाफ तीखे तेवर दिखाए हैं, इसलिए सामान्य जन उनकी ओर उम्मीद की नजर से देखते हैं। सबकी निगाहें उनके फैसलों पर हैं। इसीलिए रघुराज प्रताप सिंह पर लगे मुकदमे वापसी की सूचना से लोग हैरत में हैं।
सरकार अगर मुकदमे वापस लेती है तो कभी यह कदम सामान्य नागरिकों के हक में भी उठने चाहिए। एक नजीर देखिए। प्रदेश के अनेक जिलों में भूमि अधिग्रहण और फसलों के दाम के लिए हुए आंदोलनों के वक्त किसानों पर सैकड़ों मुकदमें दर्ज किए गए हैं। टप्पल का मामला छोड़ दें तो किसी भी मामले में किसानों के मुकदमे वापस नहीं हुए। जिस इलाके में योगी सरकार ने विधायक की हत्या के आरोपी पूर्व सांसद-विधायकों से मुकदमे हटाने की प्रक्रिया शुरू कराई थी, उसी क्षेत्र में 500 किसान परिवार एक दशक से मुकदमे झेल रहे हैं। इन किसानों ने मनमाने ढंग से जमीन अधिग्रहण का विरोध किया था। इस एक दशक में तीन मुख्यमंत्री गए-आए। मायावती, अखिलेश यादव और अब योगी आदित्यनाथ। योगी सरकार का वक्त अभी शेष है। किसानों को मुकदमे हटाने का आश्वासन भी मिला है पर ठोस कार्रवाई नहीं हुई। आश्वासन अखिलेश यादव की सरकार ने भी दिया था पर किसानों पर मुकदमे अब भी जारी हैं। इनमें से दो दर्जन लोग जेल हो आए। जो नेता विपक्ष में रहते हुए किसानों के साथ खड़े हुए वो सत्ता में आ गए। मगर किसानों को पुलिस अपराधी की तरह ही ट्रीट कर रही है।
आश्चर्यनजक ये है कि निजी कंपनी जेपी समूह के लिए 2007 में सरकार ने जो भूमि अधिग्रहण शुरू किया था, किसान जिसे मनमाना बताकर विरोध कर रहे थे, उसे पांच साल बाद हाईकोर्ट ने इसी आधार पर रद्द भी कर दिया था। यानी किसानों के कथन समय के साथ सच साबित हुए थे।
23 हजार करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट लेकर आए जेपी समूह को इलाहाबाद के करछना इलाके के एक दर्जन गांवों की जमीन लेकर 1300 मेगावाट का पॉवर प्लांट बनाना था। भूमि अधिग्रहण का यह मामला अफसरों की मनमानी का दिलचस्प उदाहरण भी है। 50 करोड़ रुपए खर्च हो जाने के बाद अंतत: यह प्रोजेक्ट अधर में फंस गया। 2286 लोगों को 2010 तक जमीन का मुआवजा भी दे दिया गया था, परन्तु 32 किसानों के विरोध और अफसरों के मनमाने रवैये से न सिर्फ अधिग्रहण रद्द हुआ बल्कि 500 से अधिक किसानों पर सैकड़ों मुकदमें लगे। कई साल तक इलाके में अशांति फैली रही, हिंसा हुई। रेल-सड़क मार्ग बाधित हुए। सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचा। खेतों में फसल पैदा करने के बजाय किसानों को प्रदर्शन के लिए विवश होना पड़ा। किसान जेल गए और लगातार कोर्ट के चक्कर लगाने को अभिशप्त हुए। करछना का यह मामला किसानों की लाचारी, अफसरों की अदूरदिर्शता और राजनीतिज्ञों की मौका परस्ती का दिलचस्प उदाहरण है।
एक दशक तक चले इस किसान आंदोलन में जिन नेताओं ने विपक्ष में रहते हुए प्रदर्शन में हिस्सा लिया, समर्थन किया वे अब सत्ता में हैं। मौजूदा सरकार में मंत्री और सांसद हैं। मगर किसानों की आवाज अब उनके कानों में नहीं गूंजती है। एक किसान गुलाब विश्वकर्मा इस आंदोलन में मौत का शिकार हो गए और लगातार इसके खिलाफ लडऩे वाले किसान राज बहादुर पटेल और उनके परिजन, गांव के दूसरे दो दर्जन किसान जेल हो आए। एक-एक पर 86-86 मुकदमे हो गए। कुल 500 लोगों पर रिपोर्ट दर्ज है और राज बहादुर पर गैंगस्टर एक्ट लगाकर 50 हजार का ईनाम पुलिस ने रखा। पटेल को नक्सली घोषित करने की तैयारी थी कि हाईकोर्ट ने अधिग्रहण रद्द कर दिया। इससे अफसर कुछ कमजोर पड़े। इलाके के किसान अभी भी दरोगा के खौफ में जी रहे हैं कि कब किसे पकड़कर थाने में बैठा लिया जाएगा। अज्ञात व्यक्ति के नाम पर पुलिस ऐसा करती भी रहती है।
सड़क जाम, सरकारी काम में बाधा, पुलिस पर हमला, निजी कंपनी के लोगों को धमकी देने, वसूली करने, रेल मार्ग जाम करने, गिरोह बनाकर दहशत फैलाने के जो मुकदमे पुलिस ने दर्ज किए हैं, उनमें उन्हीं दो दर्जन लोग नामजद हैं। आंदोलन की अगुवाई करने वाले अनशनकारी ही पुलिस के निशाने पर हैं। पांच साल के दौरान जहां भी विवाद हुए, सड़क जाम हुई, इन किसानों पर एक-एक मुकदमा और बढ़ा दिया गया। यह पुलिस का शातिर खेल था ताकि उनकी हिस्ट्रीशीट तैयार हो सके और कंपनी के अफसर पुलिस पर खुश हो। इसी दौरान जिले में तैनात रहे कई अफसरों ने भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया से पहले ही प्रोजेक्ट एरिया में परदे के पीछे से सैकड़ों बीघा जमीन खरीदी। फिर मंहगा मुआवजा लिया और शेष बची अपनी जमीन के सामने से सड़क बनवाई। जबकि पीडि़त किसानों की तीन फसली जमीन के मुआवजे में खेल किया। रिश्वत न देने वालों के खेत पर लगे ट्यबवेल, बाग आदि रिकार्ड से गायब कर दिए गए। इससे सरकार के खिलाफ आक्रोश भड़का। किसानों को सपने दिखाए गए कि जिसकी जमीन लेंगे उसके घर के एक सदस्य को प्लांट में नौकरी मिलेगी। आसपास के हालात बदल जाएंगे। इलाके में सामाजिक दायित्व निभाते हुए कंपनी, स्कूल, तालाब, बारात घर से लेकर सड़क, बेहतर बाजार और अन्य सुविधाएं देगी।
किसानों ने प्रथमदृष्य: इस पर यकीन किया और जमीन भी दी। मगर मुआवजा निर्धारण के तौर-तरीकों में अफसरों का निजी लालच हावी हो गया। किसानों का आंदोलन भड़का तो बजाय समाधान निकालने के, अफसरों ने तानाशाही दिखाई। निजी कंपनी और जिला प्रशासन के दलालों ने मिलकर न सिर्फ किसानों को दमित किया बल्कि आंदोलन को दो फाड़ करा दिया। एक पक्ष से प्लांट के लिए भूमि पूजन भी कराया मगर अंतत: सब फेल हो गया। जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सत्ता संभाली तो उन्होंने ऐलान किया कि पिछली सरकार की नीतियों में गलती के कारण यह अधिग्रहण फंस गया। उनकी सरकार पावर प्लांट बनाएगी। किसानों पर लगे मुकदमे वापस होंगे। इस दौरान किसानों ने शर्त रखी कि भूमि अधिग्रहण के लिए बने नए कानून 2010 के तहत उनकी मांगे पूरी की जाएं। इस पर सरकार ने हाथ खड़े कर लिए और किसान हाईकोर्ट चले गए। कोर्ट ने जमीन का अधिग्रण रद्द करते हुए कह दिया था कि जो किसान जमीन वापस लेना चाहते हैं, उन्हें जमीन दी जाए। इस पर जिला प्रशासन ने जमीन वापसी शुरू कर दी। मुआवजा वापस लौटाने वालों को जमीन वापस देने का काम भी विवाद और मनमानी का शिकार हो गया। इस पर फिर प्रदर्शन और हंगामा हुआ।
कुछ किसानों को दूसरी जगह जमीन देने का प्रस्ताव रखा गया। कुछ को रिकार्ड में नाम दर्ज करने के लिए दौड़ाया गया। जिन 32 किसानों ने सर्वाधिक विरोध किया और मुआवजा नहीं लिया था वो लगातार प्रताडि़त किए गए। पांच साल तक किसी किसान को अपनी ही तीन फसली जमीन पर पैदावार करने का मौका नहीं दिया गया न उस आर्थिक नुकसान की भरपाई हुई। चौतरफा नुकसान, यंत्रणा में डूबे वे सब किसान अपने हक और न्याय के लिए एक दशक से मारे-मारे फिर रहे हैं। इन किसानों की आवाज सुनी जानी चाहिए थी। राज्य में योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में वाली नई सरकार से भी किसानों ने मुकदमा वापसी की गुहार लगाई। तीन साल बीत गए पर न्याय नहीं मिला। इस पर किसानों ने अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मन की पीड़ा भेजी है। इस उम्मीद के साथ कि आय दोगुनी करने का वादा करने वाले प्रधानमंत्री शायद उनके मुकदमों का बोझ खत्म करा दें।
ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं।