“जासूसी हमें अलगाव में डालने की सरकारी साज़िश है, एकजुटता ज़रूरी है”

रोज की तरह 30 अक्टूबर की सुबह 10 बजे के करीब नेट ऑन किया, तो व्हाट्सएप पर एक मेसेज बाकी मेसेजेस से अलग था। यह मेसेज खुद व्हाट्सएप का था। इसमें लिखा था कि मई में बहुत सारे व्हाट्सएप वीडियोकॉल के जरिये एक जासूसी वायरस कई फोन नम्बर पर भेजा गया है और मेरा नम्बर भी उनमें से एक हो सकता है, इसके लिए कुछ सुरक्षा उपायों के बारे में बताते हुए मुझे ‘टोरंटो सिटिजन सेल’ के लिंक पर सम्पर्क करने को कहा गया।

मुझे इस मेसेज ने थोड़ा परेशान किया, लेकिन फिर मैंने इसे ये सोचकर झटक दिया कि इसमें क्यूंकि व्हाट्सएप का लेटेस्ट वर्जन इस्तेमाल करने की बात कही गयी है, इसलिए ये सबके पास भेजा गया रूटीन मेसेज होगा। आज सुबह ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में सीमा चिश्ती की स्टोरी पढ़ी, कि इजरायल के बने स्पाईवेयर का इस्तेमाल भारतीय सुरक्षा कम्पनियां लोगों की जासूसी करने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं, और उन्होंने देश भर के 1400 वकील, पत्रकार और मानवाधिकार कर्मियों की जासूसी करने के लिए इस ‘चुगलखोर एप’ का इस्तेमाल कर लिया है। उन सभी के पास व्हाट्सएप ने ये मेसेज भेजे हैं।

यह खबर पढ़ कर मुझे लगा कि ये गम्भीर मामला है और मुझे उस मेसेज को गम्भीरता से ही लेना चाहिए, फिर भी मुझे लगा कि मैं उन 1400 लोगों में नहीं हो सकती। मैंने कुछ जानकार परिचित लोगों से अपनी आशंका शेयर की, तो उन्होंने भी कहा कि ‘मान कर चलो कि तुम्हारे फोन की जासूसी हुई है, इसलिए सुरक्षा उपायों को ठीक से पढ़कर उसे लागू करो।’ इसी बीच एक ग्रुप पर एक समाचार देखा कि नागपुर के एडवोकेट ने ये भी कहा कि इस चुगलखोर साफ्टवेयर ने केवल लोगों की जासूसी ही नहीं की है, बल्कि इस खुलासे के बाद ये भी समझ में आ रहा है कि भीमा कोरगांव मामले के आरोपियों के हार्डडिस्क में सन्देहास्पद पत्र कैसे रखे जा रहे हैं।

साथ ही एक दो और खबरों में यह भी लिखा था कि जिनके फोन की जासूसी की गयी है उनके पास अनजान इण्टरनेशनल नम्बर से वीडियों कॉल आते रहे हैं। मुझे याद आया ऐसे कॉल तो मेरे पास भी कई बार आये हैं। बल्कि मेरे घर की एक सदस्य, जिसके पास ट्रू कॉलर ऐप है, उसे मैंने यह नम्बर दिया, तो उसने बताया यह नम्बर स्वीटजरलैण्ड या स्वीडन का है। लगभग तीन चार महिनों तक यह फोन आने के बाद पिछले लगभग चार महीने से यह फोन आना बन्द हो गया। लेकिन इसके सन्देहास्पद होने की बात तो पहले ही मन में थी, अब यह पढ़कर तो और भी चिन्ता हो गयी।

मैं अब व्हाट्सएप पर दिये गये सिटिजन सेल के लिंक को खोलकर सुरक्षा उपायों के बारे में पढ़ ही रही थी, कि एक अनजान नम्बर से व्हाट्सएप फोन आया, एक महिला का चेहरा था। मैं फिर चिन्तित हो गयी और रिसीव नहीं किया। फोन कटने के बाद देखा कि उनका मेसेज भी आया हुआ था। ये ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ से सीमा चिश्ती थी। मैंने उन्हें कॉल बैक किया, तो उन्होंने मेरे फोन की जासूसी के बारे में आये मेसेज के बारे में मुझसे सवाल किया। मुझे तो आश्चर्य अब हुआ।

मैंने पूछा ‘आपको कैसे पता?’ उन्होंने हंसते हुए कहा, अब सारे नाम ओपन हो रहे हैं। उनसे मैंने जितना बताया उतनी ही जानकारी भी ली। उसके बाद तो फोन और मेसेज आने का सिलसिला शुरू हो गया। बल्कि इसीलिए लगा कि मुझे लिखकर इस बारे में लोगों से बात करनी चाहिए।

सरकारी खुफिया एजेन्सियों द्वारा फोन की जासूसी करने की बात मेरे लिए आश्चर्यजनक बिल्कुल नहीं है। कई साल पहले ही जूलियन असान्ज ने कहा था कि ‘स्मार्ट फोन आपके बेडरूम में रखा हुआ ऐसा तोप है, जिससे आपको कभी भी टारगेट किया जा सकता है।’ इस बात का ध्यान में रखते हुए ही मैं स्मार्टफोन का इस्तेमाल करती हूं। लेकिन सच ये है कि आप इसमें कितनी भी प्राइवेसी सेटिंग कर लें, इसके माध्यम से आप अपनी जासूसी को नहीं रोक सकते।

अगर सरकार नहीं तो कोई दूसरी प्राइवेट कम्पनी ये काम करेगी ही। आश्चर्य तो इस बात का होता है कि आम लोगों के लिए ये कोई मुद्दा नहीं है। उनके लिए आपके फोन में खुफिया एजेन्सियों की ताकझांक कोई गलत बात नहीं, बल्कि नार्मल बात है। इसीलिए आम लोगों की ओर से आधार से आपके हर दस्तावेज को जोड़ने का विरोध नहीं हुआ। बल्कि फोन के आधार से जुड़ने के बाद जासूसी का काम और आसान हो गया है। इसीलिए हम सब आधार का विरोध भी करते हैं।

हमारे बहुत सारे दोस्त जो कि एक्टिविस्ट नहीं हैं, उनमें कई ने मुझसे बहस की कि ‘सरकार को सुरक्षा कारणों से हमारी हर बात जानने का हक है, और इसमें कुछ भी गलत नहीं है… जो गलत काम करते हैं, वो ही इसके लिए डरते हैं।’ मैंने एक दोस्त से उसके घर में आये दिन होने वाले पति-पत्नी, सास-बहू और देवरानी -जेठानी के झगड़ों के बारे में पूछा कि तुम इन बातों को सार्वजनिक करने से क्यों बचते हो, क्यों छिपाते हो, जब बहू ने एक दिन पुलिस भी बुला लिया तो पुलिस वाले को पैसा खिलाकर वापस क्यों भेज दिया, इसको भी सार्वजनिक रहने देने में क्या दिक्कत है? मेरे सवाल पर वो चुप तो हो गया लेकिन शायद सहमत नहीं हुआ।

तो सबसे पहले इन लोगों से ही कहना है कि हमारी प्राइवेसी हमारा अधिकार है, सुरक्षा के नाम पर हमारे घर या फोन में ताकझांक नहीं की जा सकती है। यह हमारे अधिकारों का हनन है। यह हमारी पिछड़ी मानसिकता है कि सुरक्षा के नाम पर हम हमारी प्राइवेसी का हनन होने देते हैं, उसमें किसी को कुछ भी गलत नहीं लगता।

अगर मेरे फोन की जासूसी की गयी है, तो सरकार की सुरक्षा एजेन्सियों को उसमें कुछ भी सन्देहास्पद नहीं मिलेगा, लेकिन किसी को भी मेरी निजी तस्वीरें मेरे ईमेल और मेरे निजी दस्तावेज में ताकझांक करने का हक किसने दिया है? निजता मेरा संवैधानिक हक है, उसका उल्लंघन करने वाले अपराधी हैं। इस जासूसी करने वाले साफ्टवेयर के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि यह जिस फोन में है, वह फोन जिस कमरे में रखा है, उसमें होने वाली सारी गतिविधियों के बारे में अपने आका से चुगली करता रहेगा।

क्या आप ऐसे किसी व्यक्ति को अपने घर पर बैठने देंगे, जो आपके घर की हर बात लोगों से, वो भी अनजान लोगों से बताता फिरे? हम सब की इसी पिछड़ी मानसिकता के कारण सरकारी और बाजार की एजेन्सियां हमारे घरों में ही नहीं हमारे बेडरूम, बाथरूम तक पहुंचने में सफल होती जा रही हैं। सोशल मीडिया पर आने वाले विज्ञापन हमारी पसन्द की चीजें हमें हमारे हाथ तक पहुंचाकर उसे खरीदने के लिए विवश कर रही हैं।

यह तो सामान्य रूप में सभी से कही जाने वाली बात है, यह नयी जासूसी की घटना इसी सीढी से आगे बढ़ा अधिक गम्भीर मुद्दा है। व्हाट्सएप के माध्यम से इजरायली फर्म एनएसओ के जासूसी एप का इस्तेमाल कर भारतीय खुफिया एजेन्सियों ने 1400 वकीलों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के फोन की जासूसी की। 30 अक्टूबर को जब व्हाट्सएप ने इस बात का खुलासा किया, तो एनएसओ ने इससे इंकार कर दिया, साथ ही यह स्वीकार भी किया कि हां उसने pegasus नाम का जासूसी एप बनाया है, यह भी कहा कि यह एप वह केवल देशों की सरकारों को बेचता है किसी प्राइवेट फर्म को नहीं। ऐसा ही माना भी जा रहा है कि यह जासूसी भारतीय सरकार ने ही कराई है। जिन लोगों के पास ‘टोरंटो सिटिजन सेल’ का फोन आगाह करने के लिए गया, सबको यही बताया गया कि आपकी सरकार ही ऐसी जासूसी करा रही है।

दूसरे, इस जासूसी में जितना अधिक खर्चा आया, वह रकम किसी निजी कम्पनी के लिए खर्च करना असंभव बताया जा रहा है। इसका वहन कोई राजकीय मशीनरी ही कर सकती है। बताया जा रहा है कि 1400 लोगों की जासूसी करने के लिए 6454 करोड़ रूपये खर्च हुए हैं, जिसमें 4900 करोड़ केवल वायरस डिवाइस में इंस्टॉल करने का खर्चा है। निश्चित ही ये रकम छोटी रकम नहीं है और बिना सरकारी मशीनरी के शामिल हुए इस तरह की जासूसी की कार्यवाही की भी नहीं जा सकती।

इसमें जरा भी शक नहीं किया जाना चाहिए कि यह आपराधिक कार्यवाही सरकारी है या नहीं। ये है और पक्के तौर पर है। और किसी को भी इससे कोई फायदा और रूचि नहीं है। फासिस्ट होती सरकारें वास्तव में भीतर से इतना डरी होती हैं कि वे ही अपनी जनता पर अधिक से अधिक नियन्त्रण के लिए अधिक से अधिक निगरानी रखने का काम करती हैं। यह भी एक ऐसी ही कार्यवाही है।

लेकिन व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के साइट्स को इस मामले में बरी कर देना भी मूर्खता होगी। हो सकता है कि इस बार की जासूसी में उसका कोई हाथ न हो, लेकिन वो भी अपने कस्टमर यानि यूजर के आंकड़ों की निजता का कितना सम्मान करती हैं, ये समय-समय पर सामने आ ही जाता है। कुछ महीने पहले ही फेसबुक पर लोगों की निजी सूचनाओं का रिकार्ड न सिर्फ रखने, बल्कि निजी कम्पनियों को बेच देने का आरोप लगा था, तो इसके मालिक ने इसकी सफाई में सन्तोषजनक उत्तर नहीं दिया था।

यह तथ्य भी एक साल पहले सामने आया था कि कश्मीर के बुरहान वानी के मारे जाने के पीछे फेसबुक द्वारा खुफिया एजेन्सियों से साझा की गयी जानकारियों का हाथ था। बुरहान वानी क्या था या क्या नहीं यहां बात इसकी नहीं हो रही है, बल्कि इसकी हो रही है कि फेसबुक अपने एक कस्टमर की जानकारी कहीं और देकर बेईमानी का काम किया या नहीं किया? अगर आप उसकी जानकारी दिये जाने को गलत नहीं मानते तो अपनी जानकारी के लीक होने को लेकर कैसे आश्वस्त हो सकते हैं। ये सारे तथ्य बताते हैं कि मीडिया के सभी माध्यम हमारे साथ नहीं अन्ततः जुल्मी सत्ता के साथ ही खड़ी हैं।

अब जबकि लोगों की जासूसी की बात सामने आ गयी है तो यह बिल्कुल नहीं समझा जाना चाहिए कि जिन लोगों के नाम उजागर हो गये हैं, केवल वे ही निशाने पर हैं। वास्तव में देश की पूरी जनता आज एक अदृश्य जेल में है, जिन पर न दिखने वाले इन माध्यमों से लगातार निगरानी रखी जा रही है उनकी जासूसी की जा रही है, सरकार के मत से जरा भी इधर-उधर सोचने या बोलने से आप उनके निशाने पर आ सकते हैं।

इस तथ्य से ये भी जुड़ा है कि अब जबकि इस जासूसी की बात उजागर हो चुकी है और इस पर सरकार को घेरा जा रहा है उसे इससे कोई नुकसान होता नहीं दिख रहा है। इसकी वजह यह है कि इस जानकारी ने पूरी सिविल सोसाइटी में एक आपाधापी मचा दी है, एक डर का माहौल बना दिया है। हम तो अपनी प्राइवेसी को लेकर आशंकित हैं ही, दूसरे हमसे जुड़े लोगों में भी यह डर बैठ गया है कि हमसे जुड़े होने के कारण कहीं उनकी भी जासूसी न हो जाय। यह लोगों को एक दूसरे से बांटने का, एक-दूसरे से दूर करने का, हर समय सशंकित रहने का सिलसिला शुरू हो चुका है।

आज जितने भी फोन मेरे पास आये सबमें यह गहरा एहसास नजर आया, खुद मैं भी काफी देर तक आशंकित रहीं कि ये क्या हुआ मेरे साथ। थोड़ी देर बाद ही इन सबको दूर से देखने की क्षमता वापस आ सकी। यह हमारे फोन की जासूसी के साथ हम सब पर एक मानसिक हमला है। यह हमें तनाव और अलगाव में डालने की कार्यवाही है।

इस मामले के खुल जाने के बाद अब यह घटना समाज में अफरातफरी पैदा करने और चुप होकर बैठा दिये जाने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है, हमें इससे भी सतर्क रहना है। इस बात को उनके ही माध्यमों से कहना इसलिए भी जरूरी समझती हूं। खुफिया और डराने वाली एजेन्सियों को कहना चाहती हूं कि देखों अभी भी मैं यहां हूं और लिख रही हूं, लड़ रही हूं। लेकिन इस जासूसी के खिलाफ भी बोलूंगी, लिखूंगी। निजता हमारा संवैधानिक अधिकार है, इसका हनन करने वाले लोग अपराधी हैं। इस हनन के खिलाफ भी एकजुटता की जरूरत है, न कि आशंकित होकर दूर-दूर हो जाने की।


फेसबुक से साभार प्रकाशित

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