यूं तो दलित आत्मकथाओं ने आम तौर पर ही लोगों का उन पीड़ाओं,वंचनाओं और अमनावीय परिस्थितियों से परिचय करवाया है, जो या तो सामान्य जन की कल्पना से परे थी या जिन परिस्थितियों को बनाए रखने के काम में शामिल हो कर भी,वो उनको अमानवीय नहीं समझते थे या समझना नहीं चाहते थे. लेकिन एक्टिविस्ट,लेखक,पत्रकार भंवर मेघवंशी की आत्मकथा- मैं एक कारसेवक था-भेदभाव और पाखंड के एक नए रूप का खुलासा करती है.
यह भेदभाव और पाखंड,उस संगठन के भीतर रचा-बसा है,जो इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है,गाहे-बगाहे हिंदुओं के खतरे में होने का नारा दे कर हिंदुओं को एकजुट करने की मुहिम चलाता नज़र आता है.भंवर मेघवंशी की आत्मकथा बताती है कि हिन्दू होने के नाम पर भले ही एकजुटता और समरसता की कितनी ही जुगाली कर ली जाये,लेकिन आरएसएस में दलितों के लिए वही जगह “आरक्षित” है,जो जातीय ऊँच-नीच के भेदभाव वाला समाज,हजारों साल से दलितों को देता रहा है.
इस नतीजे पर भंवर मेघवंशीकिसी सुनी-सुनाई बात के जरिये नहीं पहुँचते हैं बल्कि आरएसएस के सक्रीय स्वयंसेवक रहते हुए महसूस करते हैं,भुगतते हैं. आत्मकथा के शुरुआती हिस्से में भंवर मेघवंशी एक ऐसे युवा के रूप में सामने आते हैं,जो संघ के काम के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. जो संघ के काम की आलोचना करने वाले अपने पिता को अज्ञानी और गद्दार तक समझता है.संघ के कार्य के प्रति उसका उत्साह इतना अधिक है कि वह तो संघ का पूर्णकालिक प्रचारक बनना चाहता है. वह अपनी इस इच्छा को जिला प्रचारक के सामने प्रकट करता है.
जिला प्रचारक समाज की विषमता का हवाला दे कर उसे प्रचारक नहीं विस्तारक बनने का सुझाव देते हैं. युवा भंवर “जी” संघ के कार्य के प्रति इतने जुनूनी और निष्ठावान हैं कि इस प्रसंग में उन्हें समाज और संघ पर क्रोध नहीं आता बल्कि उन्हें अपने उस तथाकथित निम्न जाति में पैदा होने पर कोफ्त होती है. उसे भरोसा है कि संघ तो सामाजिक समरसता के लिए प्रयासरत है और जल्दी उसके जैसे “वंचित समुदाय के स्वयंसेवक भी पूर्णकालिक प्रचारक बन कर अपना जीवन राष्ट्र सेवा में लगा पाएंगे.” हालांकि, उसके सामने यह खुलासा भी होता है कि पूर्णकालिक प्रचारक बनने के रास्ते में जाति के अलावा उसका हर मामले में सवाल-जवाब करना भी बाधक है.
जिला प्रचारक,भंवर जी पर तंज़ कसते हैं, “आप जैसे ज्यादा सोचने वाले लोग केवल अपनी गर्दन के ऊपर-ऊपर मजबूत होते हैं,शारीरिक रूप से नहीं.”और यह भी कि “संघ को प्रचारक चाहिए,जो नागपुर से कही गयी बात को वैसा का वैसा समाज तक पहुंचाए.आप की तरह के सदैव सवाल करने वाला विचारक हमें नहीं चाहिए.” इस पूरे प्रसंग से संघ के पूर्णकालिक प्रचारक होने के लिए आवश्यक अर्हताओं (सवर्ण होना,गर्दन के ऊपर नहीं बल्कि शारीरिक रूप से मजबूत होना और विचारक न होना) को भी समझा जा सकता है और इन अर्हताओं के जरिये इस संगठन के चारित्रिक लक्षणों और कार्यप्रणाली को भी समझ सकते हैं.
यह एक ऐसे युवा की कहानी है,जो अयोध्या में कारसेवा करने जाता है और ऐसी स्थितियों से दो-चार होता है,जिसमें उसके प्राण भी जा सकते थे पर वह बच कर लौट आया. लौट कर वह पुनः उस संघ के कार्य में ज़ोरशोर से लग जाता है,जिसे वह “ईश्वरीय कार्य” समझता है. उसके दिमाग में कुछ शंकाएँ और सवाल हैं. जैसे कि कक्षा में जो गुरुजी भूगोल पढ़ाते हुए बताते हैं कि सूर्य आग का गोला है,उसके नजदीक जो जाएगा,नष्ट हो जाएगा.
वही शाखा में सूर्य नमस्कार कराते हैं और बताते हैं कि हनुमान जी द्वारा सूर्य भगवान को निगलने से संसार में अंधकार छा गया. गुरुजी से अपनी शंका रखने पर गुरुजी तुरंत उत्तर देते हैं, “भय्या जी,शाखा में सूर्य देवता हैं,लेकिन विद्यालय में वह आग का गोला है.” संघ में भंवर “जी” से “भंवर जी भाई साहब” होने की चाह रखने वाले इस युवा को भूगोल बकवास विषय और हनुमान जी दमदार लगने लगते हैं.
इस आत्मकथा का क्लाइमैक्स वह प्रसंग है,जिसमें आरएसएस की कलश यात्रा भंवर के गाँव आती है. भंवर “जी” सभा का संचालन करते हैं,सामाजिक समरसता और हिंदुओं की एकजुटता की बातें होती हैं. उसके बाद भंवर “जी” कलश यात्रियों से अपने घर पर खाने का आग्रह करते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि संघ के प्रयासों के बावजूद अभी समाज समरस नहीं हुआ. इसलिए यात्रा में शामिल साधु-संत और अन्य लोग वंचित समाज के व्यक्ति के घर खाना खिलाये जाने से नाराज हो सकते हैं. इसलिए उससे कहा जाता है कि वे खाना पैक कर दें.
कार्यक्रम की सफलता से उत्साहित भंवर “जी” पर घड़ों पानी पड़ जाता है. लेकिन बात इतने पर ही खत्म नहीं होती. अगले दिन पता चलता है कि घर से पैक करवा कर ले जाया गया खाना तो अगले ही मोड़ पर फेंक दिया गया है.जो युवा संघ को सारा जीवन समर्पित करना चाहता था,उसे सहसा विश्वास नहीं होता कि जिस संगठन के लिए वह गोली खाने को भी तैयार था,उसमें “जी” सम्बोधन के बावजूद,उसके प्रति इस कदर हिकारत का भाव है. संघ के प्रति उसकी आस्था,इस कदर गहरी हैं कि उसे लगता है कि उसके साथ यह भेदभाव निचले स्तर पर हुई गलती है. वह ऊपर तक शिकायत करता है और हर जगह से हताश-निराश लौटता है. संघ प्रति उसकी निष्ठा और उस पर लगी चोट से टूटा हुआ, वह आत्महत्या तक करने की कोशिश करता है.
इस आत्मकथा की रौशनी में समझा जा सकता है कि जो हिन्दू राष्ट्र बनाने की वृहद परियोजना इस देश में चल रही है,उसमें दलित-वंचित तबकों के लिए क्या जगह होगी. वे दंगों में मरने-मारने के काम तो आएंगे पर अन्यथा तो अछूत ही बने रह जाएँगे.
वैसे तो इटली की शोधकर्तामार्जिया कैसोलारी से लेकर देशराज गोयल तक तमाम देशी-विदेशी विद्वानों ने आरएसएस के बारे में पुस्तकों लिखी हैं और जो रहस्यात्मक आवरण यह संगठन अपने चारों ओर ओढ़े रहता है,उसका खुलासा भी किया है. परंतु भंवर मेघवंशी की आत्मकथा,इस मायने में विशिष्ट है कि पहली बार आरएसएस के समरसता की लफ़्फ़ाजी का सम्पूर्ण रस लोगों के सामने रख कर सिलसिलेवार तरीके से रख कर यह आत्मकथा बताती है कि दलित-वंचित तो समरसता की इस चक्की में केवल निचोड़े जाने के लिए हैं,उपयोग करके बहिष्कृत किए जाने के लिए हैं. नवारुण प्रकाशन से छपी इस आत्मकथाके जनसंस्करण का मूल्य 170 रु है. इसकी लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि दो महीने बीतते-न-बीतते पुस्तक का दूसरा संस्करण भी आ गया.
ऐसे दौर में जब पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति के बारे में ही कहा जा रहा है कि यह बीते जमाने की बात हो गयी,तब इतनी जल्दी किसी पुस्तक के दूसरे संस्करण का आना भी एक सुखद अहसास है. 2015 से प्रकाशन के क्षेत्र में उतरे नवारुण प्रकाशन और उसके कर्ता-धर्ता संजय जोशी अब तक 20 किताबें प्रकाशित कर चुके हैं और 21 पुस्तक,नवीन जोशी का उपन्यास-टिकटशुदा रुक्का-प्रकाशनाधीन है. पढ़ने-पढ़ाने का यह अभियान चलता रहे,आगे बढ़ता रहे.