पिछड़ी जाति की एक छात्र नेता का बहुजन समाज के नाम ख़त

मेरा नाम कनकलता यादव है, फिलहाल जेएनयू में शोध छात्रा हूँ। ज्योतिबा फूले, सावित्री बाई फूले, फातिमा शेख, बिरसा मुंडा, बाबासाहेब, जोगेन्द्र नाथ मण्डल, जयपाल सिंह मुंडा, मौलाना असीम बिहारी, कर्पूरी ठाकुर, मान्यवर साहेब, मण्डल, एल आर नायक, फूलन और अनगिनत सामाजिक न्याय के पक्षधर रहे गुमनाम लोगों ने मेरे हिस्से की जो लड़ाई लड़ी थी, उसकी वजह से मैंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से अपना उच्च शिक्षा का सफर तब शुरू किया।

जब जुलाई, 2011 में महिला महाविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर सरस्वती मैडम ने पूछा, “कनकलता, तुमको ओबीसी कैटेगरी से कैम्पस में एड्मिशन मिल रहा है, लेना है? टिक कर दूँ?”

उस समय मैंने हाँ की और तुरंत तय किया कि पहले जाकर मैं उसके बारे में पढ़ूँगी जिसकी वजह से आज मेरा यहाँ एड्मिशन हुआ है।

सरस्वती मैडम के वो शब्द और वाकया मेरे सामने हर उस समय आता है जब कोई मेरी ओबीसी की पहचान को टार्गेट करता है, डीफेम करता है, मज़ाक बनाता है या ईज़ी लेता है।
उसके बाद फिर मैं डीयू आई और फिर जेएनयू। धीरे-धीरे उच्च शिक्षण संस्थाओं में अपने और अन्य बहुजन समाज के लोगों के साथ हो रहे जातिगत भेदभाव को लगातार झेलते हुये मुझे समझ में आया कि मसला सिर्फ इस सर्टिफिकेट भर का नहीं है, मसला है बहुजन एकता का, एक बराबरी के विचार का, प्रतिनिधित्व का, आत्म-सम्मान का।

बीएचयू में मेरे एड्मिशन के वक्त 2011 में छात्र परिषद के चुनाव हुये, जिसमें हम निर्दल चुनाव लड़े और जीते, वहाँ भी तरीके-तरीके के भेदभाव मौजूद रहे। दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने देखा कि बहुजन तबके से आने वाले छात्रों को इतना कम नंबर देना कि वो नेट/ रिसर्च वगैरह में अप्लाई करने के भी योग्य न रहें। इसका अलग पॉलिटिक्स है। हिन्दी भाषी छात्रों के साथ भी सेकंड क्लास सिटिज़न जैसा व्यवहार होता है (ये सब होता है हाई-फ़ाई शिक्षा के नाम पर)। फिर जेएनयू आए और वाइवा में दो नंबर मिला। मेरे साथ-साथ ज़्यादातर बहुजन तबके से आने वालों को 0-5 नंबर मिला। ये सब एक संस्थागत भेदभाव का हिस्सा था जो मैंने भी महसूस किया और बाकी बहुजन स्टूडेंट्स ने भी कम ज्यादा महसूस किया।

जेएनयू में मेरा तीन संगठनों से संबंध रहा- यूनाइटेड ओबीसी फोरम, बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट असोशिएशन और बहुजन साहित्य संघ। इन संगठनों में रहने के दौरान हम लोगों ने मिलकर कई छोटे बड़े आंदोलन किए, जिसमें वाइवा का नंबर कम करने का मुद्दा, ओबीसी वर्गीकरण का मुद्दा, पसमान्दा का मुद्दा, ओबीसी महिलाओं का मुद्दा, बहुजन महिलाओं का मुद्दा, रोस्टर का आंदोलन जैसे तमाम मौके रहे जिसमें हम लोग लड़े और कई मायनों में जीत हासिल भी किए। ये सारे आंदोलन आने वाली पीढ़ियों और वर्तमान पीढ़ी के सामाजिक न्याय के मसले पर थे और इससे बहुजन समाज की जातियों को न्याय दिलाने की कोशिश की जा रही थी। हम सभी ने तय किया कि हम एक हैं, एक होकर लड़ेंगे और बहुजन आंदोलन होगा।
पिछले एक महीने से मैं ये सारी बातें सोच रही थी और मैंने 3 सितंबर 2019 को बापसा छोड़ दिया। मैंने देखा कि धीरे धीरे सारे बहुजन एकता के दावे खोखले पड़ने लगे।

हालत ये हो गयी कि चुनाव का रिज़ल्ट आने के बाद बहुजन साहित्य संघ के ग्रुप में बाल गंगाधर बागी जी ने सार्वजनिक तौर पर मुझे पर्सनल टार्गेट करके मेसेज लिखा और मैंने बोला कि जो भी लिखा गया है उसके लिए माफी मांगनी पड़ेगी या ये क्लियर करना होगा कि कैसे वो शब्द बराबरी के हैं?

इस संदेश के बाद मेरी पहचान बहुजन से लाकर ओबीसी पर तय कर दी गयी। इसके बाद सतरूद्र प्रकाश जी ने मेरी समझदारी के साथ -साथ संगठन की एक दलित महिला को सार्वजनिक तौर पर बोला कि वो संगठन चलाने लायक नहीं हैं (जिस पर बाद में माफी भी मांगी)। एक आदिवासी महिला को भी ये बोला कि वो माचिस लगाने का काम कर रही हैं।

अब मामला धीरे-धीरे महिला बनाम पुरुष का भी हो रहा था। जेंडर के मसले पर वो अपने स्टेटमेंट को जस्टफ़ाई नहीं कर पाये तो सीधा जाति पर आ गए और ओबीसी होने के नाते मैं उनके लिए सबसे ईज़ी टार्गेट बन गयी। जिस समूह में मेरा सार्वजनिक तौर पर अपमान हुआ, उसमें उल्टे मुझसे ही माफी मांगने का मांग की गई क्योंकि मेरा अपमान करने वाले और उनके साथी दोनों अनुसूचित जाति से हैं, इसलिए मुझे माफी मांगना चाहिए ।

जवाब में मैंने भी उन्हें बताया कि उन्हें जेंडर जस्टिस की अपनी समझ ठीक करने की जरूरत है और अगर वे दलित पुरुष हैं तो मैं भी पिछड़ी जाति की महिला हूँ जिसका कोई भी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर नहीं है। ओबीसी की भी जातियों का शोषण हो रहा है और दलित महिला को ये बोलते वक्त कि वो पद नहीं संभालने योग्य है, तब आपका जाति का प्रेम कहाँ चला जाता है? इसके साथ ही मैंने अपना स्टेटमेंट वापिस लिया। लेकिन जब मैंने देखा कि मामला अब मूल मुद्दे से भटक चुका है और मेरे सार्वजनिक हरासमेंट की सिर्फ इसलिए कोई वैल्यू नहीं है क्योंकि मैं ओबीसी हूँ और महिला हूँ, बहुत निराशा के साथ मैंने समूह छोड़ दिया। इसके बाद उस आदमी ने मुझे एक लंबा निजी संदेश लिखकर भेजा जिसमें कुछ शब्द ऐसे थे कि मैं सिर्फ और सिर्फ अहीर जाति की स्त्री हूँ और स्वघोषित क्षत्रिय महिला हूँ।

मैंने सिर्फ शुक्रिया लिख कर उनका जवाब दिया। अब मेरी पहचान बहुजन से ओबीसी के बाद अहीर जाति की स्वघोषित क्षत्रिय महिला की तय कर दी गयी। 8 सितंबर से लेकर 15 सितंबर तक पूरे 8 दिन महिलाओं के इतने अपमान के बाद भी समूह में पूर्व अध्यक्ष ने उस स्टेटमेंट पर अपना कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया और हमारे दूसरे साथी लगातार बहुजन महिलाओं के योग्यता पर सवाल उठाते रहे और पर्सनल संदेश में हम लोगों की आइडेंटिटी तय करने का जिम्मा ले लिए।

इन सब बातों के बाद भी मैंने सब कुछ सुना, समझा और चुप रहने का तय किया, लेकिन मेरी आइडेंटिटी तय करने का अधिकार इन पुरुषों ने ले लिया था और पर्सनल संदेश में/सार्वजनिक व्हाट्स एप्प समूहों में मेरी पहचान तय करते रहे।
मैंने सोचा कि मेरी पहचान मेरा काम तय करेगा और अगर मैं लिखूँगी तो बहुजन समाज की ही चीजें बिगड़ेंगी, इन वजहों से मैंने लिखना बंद कर दिया।

20 सितंबर की रात को मैं अपना फोन चला रही थी तभी एक ग्रुप, ‘मुनिरका अर्जेंट ग्रुप’ में एक नंबर से अनुसूचित जाति को लेकर एक जातिवादी संदेश आया और इस संदेश में सतरुद्र जी का नाम लेकर संदेश लिखा था। एडमिन होने के नाते मैंने अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुये उस नंबर को उस ग्रुप से रिमूव कर दिया और मैं खुद भी उस ग्रुप से निकल गयी क्योंकि उसमें मेरे कई बार सिर्फ अर्जेंट मैसेज भेजने के निवेदन को नजरंदाज करते हुये अलग अलग तरीके के मैसेज डाले जा रहे थे।

जिस उद्देश्य से वो समूह बना था, उसमें वो फ़ेल हो रहा था। ये समूह हमारी साथी महिला के साथ मुनिरका में हुए अपराध के कारण अर्जेंट बेसिस पर बनाया गया था ताकि कैम्पस के बाहर छात्रों को कोई समस्या होने पर तुरंत उस समूह में मदद के लिए सूचना डाली जाए।

इस ग्रुप को बनाने का निर्णय एक कमरे में बैठे हुये 10 से 15 लोगों का था, सभी ने नंबर बताए और लोगों को जोड़ा गया। ज्यादा से ज्यादा लोग जुड़ सकें इसलिए 50 के करीब लोग इसमें एडमिन भी बनाए गए। ग्रुप से निकलने के बाद मेरे एक दोस्त ने मुझे उस ग्रुप के कुछ संदेश दिखाये जिसमें बिना मेरा मत जाने मेरा पब्लिक ट्राइल शुरू हो चुका था और जातिसूचक शब्द लिखने वाले व्यक्ति से ज्यादा उसे ग्रुप से निकालने वाले पर चर्चा शुरू की जा चुकी थी।

मैंने इसे देखते हुये उन्हे पर्सनल मैसेज किया कि, ‘मैंने उस आदमी को रिमूव किया क्योंकि उसकी भाषा ठीक नहीं थी और उस ग्रुप का पहले दिन से ये उद्देश्य था कि सिर्फ अर्जेंट संदेश डाले जाएंगे जो फॉलो नहीं हुआ और हम एक नया ग्रुप बना लेंगे जिसमें कुछ ऐसे लोग रहें जो ग्रुप का उद्देश्य समझें और किसी की मुश्किल में मदद की जा सके। इसके बाद मुझे कोर्ट की धमकी देते हुये उन्होने बोला कि, आप अब कुछ मत बोलिए और आप अपने हिस्से की सफाई कोर्ट में दीजिएगा। इसके आगे मैं लिख ही रही थी कि उन्होने मुझे ब्लॉक कर दिया।

मैंने भी सोचा कि ठीक है, मैं कोर्ट में ही अपनी बात रख दूँगी और बहुजन से ओबीसी, ओबीसी से अहीर स्वघोषित क्षत्रिय महिला होते हुये मैं अब कोर्ट में तलब होने वाली लड़की बन गयी, जिसका बिना पक्ष जाने गैरजिम्मेदाराना तरीके से पब्लिक डिफ़ेमेशन शुरू कर दिया गया। वो मुझे सामने भी दिखे लेकिन सामने उन्होंने कुछ नहीं पूछा।

उस रात मैंने तय किया कि कोर्ट में ही अपनी बात रखूंगी (जैसा मुझे आदेश दिया गया)। उस रात से लेकर अभी तक मेरा मन इतना बेचैन है कि मेरा मन हो रहा है मैं आत्महत्या कर लूँ या कहीं ऐसी जगह चली जाऊ जहां मेरी पहचान न तय की जाय और बिना मेरी इजाजत के मेरा दृष्टिकोण न तय किया जाय।

जो अपराध करने के बारे में मैं कभी सोच भी नहीं सकती हूँ, उसके लिए सार्वजनिक तौर पर मेरे बारे में सभी लोग जज बनकर बोल रहे हैं। क्या मैं किसी खास जाति के खिलाफ हेट उगल रहे व्यक्ति को उस ग्रुप में रहने देती?

उस ग्रुप से उसे निकालने और फिर पीड़ित से भी बात करने की मेरी पहल अपराध है? मेरी बात करने की पहल पर मुझे ब्लॉक कर दिया जाता है और नहीं बोलने दिया जाता है। कौन, क्यों कब कहाँ तय करेगा कि मैं कब बोलूंगी और कब नहीं?

20 तारीख की रात से लेकर अभी तक का समय मेरे लिए इतना कठिन है कि मुझे हर वक्त लगता है कि मेरा सर फट जाएगा और मैं आत्महत्या कर लूँगी, इसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ मेरा पक्ष जाने बिना, मेरा पर्सनल टार्गेटिंग करने वाले सतरुद्र प्रकाश व अन्य लोग होंगे।

मेरा स्टैंड शुरू से क्लियर है इस मामले में कि शिकायत की जाए, मैं अंतिम समय तक इस पर कायम रहूँगी।

मेरा जो पक्ष है मैं कोर्ट में रखूंगी। बहुजन एकता से लेकर कोर्ट का धमकी, लगातार मेरी अनुपस्थिति में मेरा पब्लिक ट्रायल होना। ये सब मुझे पूरी तरह मानसिक प्रताड़ना दे चुके है और हर समय मैं यही सोच रही हूँ कि क्या डिसएग्रीमेंट का मतलब क्रिमिनल होना होता है?

क्या मैं एक ओबीसी महिला होकर कोई सवाल नहीं उठा सकती हूँ? क्या ग्रुप बनाते वक्त हम लोग सबका वोटर आईडी और आधार कार्ड जैसी चीजें लेकर किसी को एड करते हैं? क्या ग्रुप का क्रिएटर और एडमिन होना कोई गुनाह है? या क्या ये दोनों चीजें कोई लीगल पोस्ट हैं? क्या ग्रुप क्रिएटर या एडमिन बनने से पहले कोई कांट्रैक्ट साइन किया जाता है कि कोई उस ग्रुप को नहीं छोड़ सकता है? क्या ग्रुप में कोई भी हेट फैलाने वाले को ग्रुप से न निकाला जाय?

खैर जो सवाल मुझसे हैं, उन सभी का जवाब मैं कोर्ट को दूँगी। लेकिन जो सवाल मेरे हैं, वो पूरे बहुजन समाज के लिए ओपेंन एंडेड सवाल हैं कि कैसे आपको एक महिला का, जो कि पिछड़ी जाति से आती है, उसका पब्लिक ट्रायल करने का अधिकार मिल जाता है?

कैसे आप एक ओबीसी महिला को अपनी सुविधानुसार बहुजन से लेकर ओबीसी फिर अहीर फिर स्वघोषित क्षत्रिय महिला की पहचान तय कर देते हैं? कौन आपको ये अधिकार देता है कि आप एक महिला को लगातार पर्सनल मैसेज भेजकर हरास करें और ये तय करे कि वो कब कहाँ और क्या बोलेगी?

मैंने कई महीनों से चुप रहने का निर्णय लिया था क्योंकि प्रतिनिधित्व और बराबरी को लेकर मेरी असहमतियाँ अंदर-अंदर मुझे परेशान कर रही थी और उन्हे पब्लिकली लिखने से बहुजन आंदोलन का नुकसान होता। लेकिन आज मैं इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि शायद मैं इन हालात में जी भी न पाऊँ या इतने अपमान के बाद अब क्या बचा है मेरे पास? न तो मैं ठीक से पीएचडी का काम कर पा रही हूँ और न ही कुछ पढ़ने की हालत में हूँ।

बहुजन एकता की बातें जब शुरू की गयी थीं तो ये किसी ने नहीं बताया कि पिछड़ा होकर सवाल नहीं पूछ सकते हो, अपना अपमान होने पर माफी की मांग नहीं कर सकते हो, भले ही तुमने सारा बहुजन मूवमेंट साथ में किया हो लेकिन तुम्हारा पब्लिक ट्रायल कभी भी हो सकता है। मुझे बस इतना पता है कि बाबासाहेब ने जो अधिकार आपको दिये हैं, वो मुझे भी दिये हैं और यकीनन उन्होने मेरे सार्वजनिक अपमान का अधिकार आपको नहीं दिया है।

मेरा पक्ष जाने बिना लगातार मेरा सार्वजनिक अपमान करने पर मुझसे माफी मांगी जाएगी इसकी भी मुझे कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि शायद एक ओबीसी महिला का कोई अस्तित्व ही समाज की नजर मे नहीं है। बहुजन से लेकर सार्वजनिक अपमान तक के सफर के लिए आप सभी का शुक्रिया। मैं किसी को कोई जवाब पर्सनल संदेश, ग्रुप के संदेश में न ही दूँगी और न ही इन समूहों में रहूँगी।

मेरे हरासमेंट का और जो तरीका आता हो वो भी अपना लीजिये, लेकिन मेरा सवाल हमेशा इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द रहेगा क्योंकि मेरे लिए कोई भी कम्यूनिटी और उसका प्रतिनिधित्व का मुद्दा मजाक नहीं है।

कनकलता यादव
21-09-2019
जेएनयू, नई दिल्ली

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