पं.रविशंकर की सौंवी सालगिरह के सन्नाटे में झाँकती हमारी कुरूपता

पंडित रविशंकर एक नर्तक थे जिन्होंने आगे चलकर एक सितार वादक और संगीतकार के रूप में ख्याति पाई। देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से विभूषित पंडित रविशंकर को लगभग सभी बड़े पुरस्कार सम्मान मिले। विश्व संगीत पटल पर वे ग्रैमी अवार्ड विनर रहे और बेस्ट ओरिजिनल म्यूज़िक के लिए ऑस्कर से भी नवाज़े गए।

पंडित रविशंकर आज होते तो 100 साल के होते। उनका जन्म 7 अप्रैल 1920 को बनारस में हुआ था और 11 दिसंबर 2012 को 92 साल की उम्र में उन्होंंने अंतिम सांस ली थी। चार साल पहले गूगल ने एक डूडल के ज़रिये याद दिलाया था कि पंडित रविशंकर की 96 वीं सालगिरह है लेकिन किसी के कान पर जूं तक न रेंगी थी। याद रहे कि पंडित रविशंकर ने आकाशवाणी वाद्यवृन्द की संकल्पना की और इसके दिल्ली केंद्र में 7 साल तक लगातार रचनारत रहे। वे राज्य सभा के सदस्य भी रहे।

जिन व्यक्तियों के उद्यम से देश, कला और संस्कृति के क्षेत्र में प्रगति कर सका उसमें पंडित रविशंकर अग्रणी थे। आज से 60 साल पहले अमरीका और यूरोप के विशाल स्टेडियमों और सभागारों  के नाम भारतीयों को इसलिए ही मालूम हो सके थे क्योंकि उनमें महान भारतीय संगीतकारों ने अपने लिए सम्मान और स्वीकार्यता हासिल की थी। मैडिसन स्क्वैयर, रॉयल एल्बर्ट हॉल या व्हाइट हाउस के भीतर स्टैंडिंग ओवेशन पाने वाले पंडित रविशंकर 1966  आते आते दुनिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध भारतीय संगीतकार बनकर उभर चुके थे।

भारतीय संगीत को विश्व पटल पर स्थापित करने की उनकी कोशिशों का मूल्य वह समाज ही ठीक से समझ सकता है जिसमें संवेदना के सूत्र बचे हों । पंडित रविशंकर के प्रति उदासीनता, महीन और सौंदर्यबोधात्मक कला के प्रति उदासीनता का दूसरा नाम है। ‘जिस चीज़ से कुछ फ़ायदा नहीं उसे याद रखने से क्या फायदा’ की तेज़ी से पनप रही सामूहिक स्वीकृति से भी यह उपजा है और इसको फ़िलहाल कोई चुनौती देता नहीं दिख रहा है। अमूर्तन के खिलाफ गिरोहबंद जेहाद और स्थूलता की बढ़ती चाहत हमें अकेला कर के उस दुनिया में ले जा रही है जहां से महान चित्रकार एम.एफ.हुसैन निष्कासित हो चुके हैं।

याद रहे कि आधुनिक चित्रकला के साथ-साथ संगीत भी अभूतपूर्व संकट के दौर से गुज़र रहा है। संगीत के उपयोगितामूलक प्रयोजन का एक नमूना हम देख ही चुके हैं जब हाल ही में श्री श्री रविशंकर ने 35000 सितार बजवाकर ‘संगीत’ की एक झांकी पेश की थी।

आज से क़रीब 25-26 साल पहले इलाहाबाद के प्रयाग संगीत समिति सभागार में कंसर्ट के लिए पंडित रविशंकर तशरीफ़ लाए। मैं भी स्वागत करने वालों के बीच गेट पर ही खड़ा था। गुलाब के फूलों का गुलदस्ता थामते हुए मैंने उन्हें कहते सुना “ऐसे गुलाब के फूल हमारे अमरीका में नहीं होते।”

तब मुझे बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि वो कहाँ रहते हैं और आज तक उनकी कही उस बात का अर्थ समझ में नहीं आया। उस शाम बड़े बेमन से हम लोग थोड़ी देर कंसर्ट में रहे और लौट भी आए। बरसों तक पंडित रविशंकर का वह वाक्य कानों में गूंजता रहा “ऐसे गुलाब के फूल हमारे अमरीका में नहीं होते।”

सोचता हूँ वह मेरे देशप्रेम और आत्मगौरव की भावनाओं से टकरा गयी बात थी जो पहली नज़र में एक शीर्षस्थ संगीतकार पंडित रविशंकर से बिलकुल भी अपेक्षित नहीं थी।

आज सोचता हूँ कि सपेरों और मदारियों का देश समझा जाने वाला भारत विकसित देशों की कला और संस्कृति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो पाया तो उसमें पंडित रविशंकर एक धुरी की तरह खड़े हुए मिलते हैं।

अगले साल प्रख्यात फिल्मकार सत्यजीत रे की जन्मशताब्दी है और पिछले साल से ही इस संबंध में आयोजनों की रूपरेखा सूचना और प्रसारण मंत्रालय पेश कर चुका है। लेकिन पंडित रविशंकर की जन्मशताब्दी जिस तरह दबे पाँव आकर चली जाएगी उसमें हमें अपने चेहरे और भी धुंधले और कुरूप होते हुए देख लेने चाहिए।

अपने सितार से दुनिया भर में भारत की पहचान क़ायम करने वाले पंडित रविशंकर उन गिने चुने भारतीयों में शामिल हैं जिन्होंने पारम्परिक भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिम के संगीत के साथ संश्लेषित किया और एक वैश्विक संगीत के आस्वाद का अवसर हमारे सामने रखा। इस क्रम में पंडित रविशंकर ने अपने सामाजिक-राजनीतिक रुझानों को कभी छुपाया नहीं और एक आधुनिक, उदार और प्रयोगवादी दृष्टिकोण के साथ दुनिया भर की संगीतधाराओं में एक संवाद पैदा किया।

पंडित रविशंकर की रचनात्मकता और उद्यमिता का ही परिणाम था जो भारतीय शास्त्रीय संगीतकारों के लिए विभिन्न वैश्विक संगीत मंच व्यावसायिक अवसर देने को भी तैयार हुए। भारतीय संगीत वाद्यों को पश्चिमी संगीत आयोजनों और रचनाओं में बड़े शौक से शामिल करना भी बरसों की उस लगन और मेहनत का नतीजा था जिसे एक साधक के तौर पर पंडित रविशंकर करते रहे।

दुनिया भर के प्रमुख गायक और संगीतकार आज भारत के संगीत और इसके जीवन में जो रूचि रखते हैं उसका श्रेय पंडित रविशंकर को भी जाता है।  अब से थोड़ी देर पहले विश्वप्रसिद्ध गायक पॉल मैकार्टनी ने ट्विटर पर यह लिखा-

 

इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे युवा रविशंकर यूरोप और अमरीका के शहरों में अपना सितार बगल में दबाए सड़कें पार करते दिख रहे हैं। वह समय कैसी कैसी हलचलों का गवाह है यह विदेशों में बसे वो भारतीय (बांग्ला देशी और पाकिस्तानी) ही बयान कर सकते हैं जब पंडित रविशंकर ने ओरिएंटल म्यूजिक के लिए अभूतपूर्व जिज्ञासा और बाद में सुरुचि पैदा की। अमरीकी संगीत उद्योग और पश्चिमी संगीत के लगभग सभी तत्कालीन पुरोधाओं ने पंडित रविशंकर की मेधा का लोहा माना और उन्हें दोस्त का दर्जा दिया।

 

वो एक सजीले, आकर्षक, रंगीले और करिश्माई व्यक्ति थे जिन्होंने समय की धड़कनों से अपने सितार को सजाया और उसमें धड़कने पैदा कीं। फिल्मों में भी पंडित रविशंकर ने संगीत दिया जिनमें नीचा नगर, धरती के लाल, अनुराधा, गोदान, मीरा, कल्पना, अप्पूर ट्रायलॉजी और गांधी फिलहाल न भुलाए जाने वाली फ़िल्में हैं।

पंडित रविशंकर के सितार को उनके एकल वादन से लेकर वाद्यवृंदों तक जैसी विविधता, मधुरता और अप्रत्याशितता का अनुभव प्रस्तुत करते हुए सुना जा सकता है। प्रमुख पश्चिमी संगीतकारों और वादकों के साथ किये गए उनके प्रोजेक्ट्स आने वाले समय में भारतीय संगीतकारों को प्रेरित करें, यही पंडित रविशकंर की जन्मशती का संकल्प हो सकता है।

आपको छोड़े जाते हैं इस मधुर रचना के साथ। इसमें पंडित रविशंकर का सितार, अल्लारखा का तबला और यहूदी मेनुहिन का वायलिन मिलकर एक जादू पैदा कर रहा है—

 

.बर्बरीक


 

 

 

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