हे राम, आप न होंगे वहाँँ !

प्रताप भानु मेहता

राम! आप इसी नाम से ठीक से पुकारे जा सकते हैं । जय श्री राम! जैसा कोई भी उद्घोष जिससे आपकी विजय घोषणा की जाए, आपको कम करता है। आप की विजय घोषणाओं की आवश्यकता में यह निहित हो जाता है कि आपको हराया भी जा सकता है। आप ज्वलंत और अंतरंग रूप से मुझ में उपस्थित हैं।आप हमारे अस्तित्व के आधार हैं।आप मस्तिष्क और इंद्रियां हैं। आप सद्गुण हैं। आप करुणा और दिव्यता हैं। आपका नाम दुख और कष्ट में लिया जाता है तो परम आनंद और मुक्ति के समय भी आपके नाम का उच्चारण किया जाता है। आप गृहस्थ थे, पुत्र थे, भाई, शिष्य और मित्र थे। आप राजा थे किंतु आप त्यागी थे। आप धर्म थे। आप कभी क्रूर और अन्यायी भी थे। लेकिन आपका दुख अपनी क्रूरता को पहचानता हुआ लगता है। आप दिव्य थे लेकिन आप की दुविधाए मानवीय थी। आप अंतिम शरण थे। तुलसी द्वारा दिए गए आश्वासन ‘रघुवर तुमको मेरी लाज, सदा सदा मैं शरण तिहारी, तुम हो गरीब नवाज’ से मैं जागता और सोता रहा हूं।

जिन्होंने आपके नाम से युद्ध किया वह आपके मंदिर का शिलान्यास करेंगे। वे इसे आप की आराधना का अंतिम कार्य आपकी प्रभुता का अंतिम नमन बता रहे हैं। उनका दावा है कि वे असभ्य आक्रांताओं द्वारा अपवित्र की गई पवित्र भूमि को पुनः प्राप्त कर रहे हैं। वे इसे हिंदुओं के अपमान पर पवित्र विजय बता रहे हैं। वे इसे रामराज्य का पुनरुत्थान बता रहे हैं। अब आप एक एकत्रित, नव गौरव से युक्त समुदाय के प्रतीक होंगे। चुपके-चुपके यह कहा जाएगा कि यह एक खंडित सभ्यता की पूर्णता की वापसी है।

लेकिन मैं आपको वहां नहीं पाऊंगा क्योंकि जिसका वहां शिलान्यास किया जा रहा है वह हिंसा और सामूहिक आत्मरति का स्मारक है। आप जानते हैं कि आपके लिए मंदिर या तो खतरनाक है या अनावश्यक। अनावश्यक अगर हम आपका सही अर्थ समझ लें। और खतरनाक अगर हम आपका उद्दंडतापूर्वक अनुकरण करें। वाल्मीकि ने आपको नर चंद्रमा कहा है। आप के महानतम चरित् लेखक ने आपको बिल्कुल सही देखा। उनके मन में चंद्रमा के दाग रहे होंगे। निश्चित ही आप त्याग के पुतले हैं। आप ने अपने पिता के एक अनुचित वचन को पूरा करने के लिए राज्य का त्याग कर दिया। यह भी एक पहेली है कि हमारा इतिहास ऐसी संततियों से भरा पड़ा है जो कि अपने पिताओं के अनुचित वचन पूरा करने के लिए विनाशक घटनाओं की श्रृंखला बना देते हैं। रामायण और महाभारत में शांतनु से लेकर धृतराष्ट्र और अर्जुन तक कोई ऐसा पिता नहीं है जिसमें उनके पुत्रों को अपने पिता के अनुचित निर्णयों की कीमत ना चुकानी पड़ी हो। आपके साथ भी यही हुआ और अब आपने बालि का कायर की तरह वध किया। वर्ण व्यवस्था को चुनौती देते हुए शंबूक को तप करने के कारण दंडित करने के लिए आप ने मारा और सीता के सत्य का बलिदान एक सनकी विचार के लिए कर दिया गया । आपने इन सब दागो को आत्मसात कर लिया क्योंकि आप दिव्य थे। आप पाप करके उनसे मुक्त भी हो सकते हैं। नाम रामायण में ‘स्वर्गता शंबूक संस्तुत’ कहा गया है अर्थात आपने शंबूक को स्वर्ग भेजा और इसके लिए वह आपका कृतज्ञ है।

लेकिन हम मर्त्य प्राणी आपकी नैतिकता की पूजा नहीं कर सकते। हम मनुष्यों में कम नैतिकता होती है क्योंकि हम लोग उन लोगों को मुक्त नहीं कर सकते जिन्हें हम मारते या निष्कासित करते हैं। यहां बाली, शंबूक और सीता न्याय चाहेंगे, शाश्वत मुक्ति नहीं । इसलिए हम लोग आप की मर्यादा का अनुकरण नहीं कर सकते। यह आपके लिए ही उपयुक्त है। कोई आश्चर्य नहीं कि मधुसूदन सरस्वती, तुलसी और गांधी जैसे आपके सबसे बड़े भक्तों को आपकी नैतिकता की खोज के लिए मंदिर की आवश्यकता नहीं हुई।

शायद हम एक बड़े सिद्धांत की प्रतिष्ठापना कर रहे हैं।  ब्रह्म के शुद्धतम रूप ‘शुद्ध ब्रह्म परात्पर राम ‘ जैसा कि नाम रामायण में आता है को मंदिर की आवश्यकता नहीं होती। राम रहस्य उपनिषद के सुंदर शिव उमाराम की अवधारणा का कोई भी एक प्रतिरूप नहीं हो सकता। अयोध्या में आपके मंदिर का शिलान्यास करके हम आपके उन स्वरूपों का निष्कासन करना चाहते हैं जिनमें आप हमारे अंतरतम में विराजमान हैं, वह रूप जिसे कोई भी हटा नहीं सकता और उसकी जगह पर किसी भी नए चमकदार देवता को या राजनीतिक मशीनरी द्वारा निर्मित मूर्ति को प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।

इसलिए मंदिर खतरनाक है या अनावश्यक है। आप जानते हैं कि मंदिर आतंकवाद जैसे किसी कृत्य, मस्जिद को ढहाया जाना पर, आधारित है । आप जानते हैं यह मंदिर भक्ति का नहीं, बल्कि बदला और प्रतिशोध का उत्पाद है, वह घटना जो शताब्दियों पूर्व घटित हुई थी। अतीत में राजाओं और आक्रांताओं ने बहुत से मंदिरों को धूल में मिलाया होगा और संभव है कि उन्होंने अयोध्या में भी ऐसा किया हो। लेकिन वह न यहां है, ना वहां। इतिहास एक ऐसी वधशाला है जिसमें किसी भी धारा का कोई भी दिव्य व्यक्तित्व मुक्ति प्रदान करने में सक्षम नहीं रहा है। जो कुछ भी हम कर सकते हैं वह यही कि कुछ असम्बद्ध, भंगुर न्याय के टुकड़े, यत्र तत्र छीन लें। इससे बड़ी कोई गुस्ताखी नहीं हो सकती कि आप हमारी रक्षा करें इसके बजाय हम आपकी रक्षा करें।

बदले से कुछ नहीं मिलता। अतीत के टकराव समसामयिक शक्तियों के पुनर्निर्माण के बहाने बनाए जा रहे हैं। जो शक्तियां आपका अभिषेक कर रही है उन्होंने आपके नाम को उसका उल्टा बना दिया है जिनका वह प्रतीक है । उन्होंने राम को बदले का, एक असुरक्षित गर्व का, खून जला देने वाले हमले का, हिंसा का, संस्कृति के अपकर्ष का, वास्तविक भक्ति के अपमार्जन का प्रतीक बना दिया है।

वे कहेंगे राम राष्ट्र के हिंदू गर्व का प्रतीक हैं ।क्या आपने अपने आप को किसी जातीयता के तुच्छ गर्व में बदल दिए जाने की सहमति दी है? आपने अपने भक्तों को मुक्त किया है, उन लोगों को मुक्त किया है जिन्होंने गलतियां की हैं बल्कि उनको भी मुक्त किया है लेकिन जो आप के प्रतिद्वंदी थे। यह मंदिर निष्कासन का, बर्बर बहुमतवाद का, दूसरे को अधीन बनाने का स्मारक है। इन लोगों को देखिए राजनीतिक और आध्यात्मिक दोनों को जो आपका नाम बोलते हैं और अपने हाथ में रक्त, सत्ता और भय रखते हैं। आपका नाम लोकतंत्र के आवरण में सबसे भद्दे किस्म की व्यक्तिगत सत्ता और भ्रष्टतम एकतंत्रीय सत्ता का प्रतीक बन गया है। मैं समझता हूं कि मेरे बहुत से हिंदू बंधुं इस को इतिहास द्वारा ढोये जाने वाले भार का शुद्धिकरण जैसा अनुभव कर रहे होंगे लेकिन अंतर्तम में हमें यह पूछने की आवश्यकता है कि हम इतने असुरक्षित कैसे हो गए कि हमें अपने आत्म गौरव को तुष्ट करने के लिए एक स्मारक को ढहाने जैसी कायरतापूर्ण जीत की आवश्यकता पड़े? और यह ऐसी असुरक्षा की भावना है जो कभी तुष्ट नहीं होती, और यह अपना दायरा तब तक बढ़ाती रहती है जब तक की है यह सभी भावनाओं को अपने उपनिवेश नहीं बना लेती। मंदिर पहला वास्तविक हिंदू उपनिवेशीकरण है। मैं समझता हूं कि मैंने इसके पहले कभी अपने को इस तरह जंजीरों में बंधा हुआ महसूस नहीं किया।

आप धरती के बोझ को हल्का करने के लिए आए थे लेकिन यह मंदिर हम पर बुराइयों का बोझ डालता है। आधुनिक भारत के आखिरी सच्चे राम भक्त गांधी की तरह हम केवल शोक में मौन रह सकते हैं। आप की चमकीली उपस्थिति चली गई है और केवल अत्याचारी का जोशीला जुआ शेष है।




प्रताप भानु मेहता हमारे समय के महत्वपूर्ण विचारक हैं। यह लेख 5 अगस्त 2020 को इंडियन एक्सप्रेस में छपा जिस दिन अयोध्या में प्रधानमंत्री मोदी ने राममंदिर का शिलान्यास किया। अनुवाद आनंद मालवीय का है। साभार प्रकाशित।



 

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