बौद्ध दर्शन की भाषा संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के डॉ.आंबेडकर के प्रस्ताव पर अचरज कैसा?

ऐसी है संस्कृत की समृद्ध परंपरा. किसी एक धर्म या दर्शन का इस पर अधिकार नहीं रहा. ब्राह्मण दर्शन है, तो बौद्ध दर्शन भी है. नास्तिक दर्शन भी है. वेदों की प्रशस्ति है तो उसे धूर्त भांडों की रचना भी इसी जुबान में कहा गया है. यहाँ अर्थशास्त्र और कामशास्त्र भी है. मेघदूत और अभिज्ञान शाकुंतलम भी है.

भारत के मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे ने आम्बेडकर जन्मदिन पर केंद्रित एक जलसे में संस्कृत और आम्बेडकर के सम्बंधों की चर्चा करके एक नए विवाद को जन्म दे दिया है. शरद बोबडे साहब का कहना था कि आम्बेडकर साहब ने संस्कृत को भारत की राजभाषा ( ऑफिसियल लैंग्वेज ) बनाने का प्रस्ताव किया था. अख़बारों और सोशल मीडिया पर इस चर्चा ने जोर पकड़ा तब अनायास मेरा ध्यान इस ओर गया. इस हिंदुत्ववादी दौर में जब सब कुछ के भगवाकरण के प्रयास हो रहे हैं, कुछ लोगों को ऐसा लगा कि बाबासाहब को भी इसमें शामिल करने की एक कोशिश हुई ह .

यह एक दिलचस्प विषय है. पहली दफा जब मेरा ध्यान इस ओर गया था तब मुझे भी थोड़ी परेशानी हुई थी . मुझे इसकी जानकारी भाषा के युवा अध्येता राजीवरंजन गिरी की किताब ” परस्पर ” से मिली थी,जो 2018 में प्रकाशित हुई है . उनकी किताब के दूसरे अध्याय का विषय ही है ‘ राष्ट्र निर्माण ,संविधान सभा और भाषा -विमर्श.’  इसमें उन्होंने संस्कृत के राजभाषा के रूप में रखे जाने के प्रस्ताव- प्रसंग को रखा है. संस्कृत को राजभाषा के रूप में स्वीकार किये जाने संबंधी प्रस्ताव को रखे जाने की जानकारी मुझे थी ,लेकिन इस मुहिम में आम्बेडकर साहब भी थे ,इसकी जानकारी नहीं थी . उन्होंने जिन दो स्रोतों को पादटिप्पणी में उद्धृत किया है ,वे हैं The Indian constitution : cornerstone of a Nation ( Granville Austine ) और Sanskrit for the Nation ( Sumathi Ramaswamy ) . इन्हे कोई गूगल पर भी ढूंढ सकता है . इस किताब से गुजरने के बाद ही मैं भी इस सवाल पर गंभीर हुआ और फिर कुछ दूसरी चीजों से भी परिचित हुआ.

दरअसल राजभाषा को लेकर संविधान सभा में तमाशा अधिक हुआ था. लगभग साढ़े दस महीने की दीर्घावधि तक इस विषय पर बहस हुई थी ; 4 नवंबर 1948 से लेकर 14 सितम्बर 1949 तक. संविधान सभा, नेहरू के शब्दों में कोई क्रान्तिकारी सभा नहीं थी. केवल 11 फीसद लोगों का प्रतिनिधित्व वहाँ हो रहा था. जयपाल सिंह मुण्डा जैसे विलक्षण आदिवासी नेता की यह बात कि किसी आदिवासी जुबान को भी संविधान की भाषायी अनुसूची में रखा जाय, नकार दिया गया था. सभा बड़े लोगों के वर्चस्व वाली जमात थी ,जिसमें मुट्ठी भर ही वे लोग थे, जिन्हे सचमुच जनसामान्य की फ़िक्र थी. भूमि जैसे मामलों को तो तुरत -फुरत में रफा-दफा किया गया लेकिन राजभाषा पर चुभला -चुभला कर तकरीबन साल भर बातें होती रहीं . इस खेल में अंग्रेजी और हिन्दी वाले आमने -सामने थे. देश का बंटवारा हो जाने अर्थात पाकिस्तान के बन जाने के बाद उर्दू की दावेदारी स्वाभाविक तौर पर ख़ारिज हो चुकी थी. हिंदुस्तानी की चर्चा भी बेजान हो गई थी. हिन्दी वाले जरूरत से ज्यादा अकड़ में थे. सेठ गोविंददास, बालकृष्ण शर्मा नवीन, अलगूराम शास्त्री और पुरुषोत्तमदास टंडन सरीखे लोग हिन्दी अभियान का नेतृत्व कर रहे थे. श्यामाप्रसाद मुख़र्जी संस्कृत पर जोर देकर फिर हिन्दी के समर्थन पर आ गए थे.

संस्कृत को राजभाषा बनाने के पक्ष में कुल 28 सदस्यों ने संशोधन पेश किया था. प्रस्तावकों में प्रमुख थे एल. के मैत्र, टी टी कृष्णमाचारी और श्यामाप्रसाद मुख़र्जी. भीमराव आम्बेडकर और नजीरुद्दीन अहमद इनके साथ थे. अहमद साहब ने संस्कृत के समर्थन में भाषण भी दिया था. आम्बेडकर ने केवल संशोधन पेश किया था,कोई भाषण नहीं दिया था.

अब इतने सालों बाद आम्बेडकर को जब इस विषय पर उद्धृत किया जा रहा है ,तब इसका कुछ मतलब है . हमें इस विषय को गंभीरता से देखना -समझना चाहिए.

मेरी जानकारी में संस्कृत के समर्थन में संशोधन -प्रस्ताव रखने के अलावा आम्बेडकर का इस विषय में सक्रियता का कोई अन्य साक्ष्य नहीं है. लेकिन कुछ लोगों की यह धारणा कि आम्बेडकर को संस्कृत के औचित्य के विरुद्ध होना था,मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. आम्बेडकर के जीवन के बारे में जो जानकारी हमें है, उसके अनुसार वह संस्कृत के प्रति काफी उत्सुक थे. उन्होंने संस्कृत को विधिवत पढ़ने की कोशिश की लेकिन भारत में उन्हें कोई संस्कृत शिक्षक इसके लिए तैयार नहीं हुआ. उन दिनों संस्कृत पर द्विजों, विशेषकर ब्राह्मणों का एकाधिकार था और अछूतपन की कुंठा उन्हें एक महार विद्यार्थी को संस्कृत सिखाने से रोकती थी. आम्बेडकर ने बोन यूनिवर्सिटी से संस्कृत पढ़ने का कुछ जुगाड़ किया था. उनके लेखन से पता चलता है कि संस्कृत के कर्मकांड और ललित दोनों साहित्य का उनका गहरा अध्ययन था. संभव है उनके मन में यह बात हो कि संस्कृत यदि लोकतान्त्रिक भारत की राजभाषा बनती है तो उसकी शुचिता समाप्त हो जाएगी और वह सबके लिए सुलभ हो जाएगी. लेकिन यह केवल मेरा अनुमान है. ज्यादा संभावना इस बात की है कि वह संस्कृत के औजार से हिन्दी का विरोध और अंग्रेजी का प्रच्छन्न समर्थन कर रहे थे. मैं आम्बेडकर की भाषा सम्बन्धी ऐसे विचारों से सहमत नहीं हूँ, जहाँ वह अंग्रेजी के लिए व्यामोह पालते दिखते हैं. लेकिन संस्कृत को राजभाषा बनाने के प्रति प्रस्ताव दे कर उन्होंने कोई गुनाह किया था, यह मैं नहीं मानता.

जो राजभाषा हिन्दी स्वीकार की गई है ,वह संस्कृत के अधिक करीब है. चार कदम आगे बढ़ते ही हम संस्कृत हो जाते हैं. राजभाषा समितियों में रहने और राजभाषा के कारोबार समझने का कुछ अवसर मुझे मिला है. सरकारी फरमान, जो हिन्दी में निकलते हैं, उन्हें देख कर कोफ़्त होती है. उसे समझने के लिए अंग्रेजी रूप को देखना पड़ता है. रेलवे के टिकटों पर जो हिन्दी में निदेश -अनुदेश होते हैं ,उसे देख कर आप राजभाषा की स्थिति का अनुमान कर सकते हैं. जनतांत्रिक व्यवस्था में जनता की जुबान को राजभाषा बनना ही चाहिए. लेकिन क्या स्वयं हिन्दी का भाषा और साहित्य दोनों स्तरों पर अब तक जनतंत्रीकरण संभव हुआ है? भाषा और साहित्य दोनों स्तरों पर हिन्दी संस्कृत से अधिक द्विजानुशासन में है. लेकिन इस विषय पर विराम देकर हम एक बार संस्कृत की ओर लौटें ,जिसके बारे में चर्चा केलिए मैंने आमंत्रित किया है.

संस्कृत है क्या ? भारोपीय भाषा परिवार के इंडो -आर्यन शाखा की एक भाषा. कैसी भाषा? तो अपने चरित्र में गढ़ी हुई भाषा. संस्कृत का मतलब ही होता है परिष्कृत किया गया या कि शुद्धिकृत. यह जनभाषा कभी नहीं रही. आरम्भ से यह एक समूह की भाषा रही. ऋग्वेद को तो जानबूझ कर श्रुति रूप में रखा गया ताकि कोई अन्य इसमें भागीदार न बन सके. यह आदिवासी मनोवृत्ति है और अब भी कुछ समूहों में देखी जाती है. राजनीतिक स्तर पर इसकी जरुरत सबसे पहले एक शूद्र राजा महापद्मनन्द ने महसूस की थी. उसने महाजनपदों को ख़त्म कर पहली दफा एक राष्ट्र की नींव रखी थी. उसने विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के साथ एक संपर्क भाषा की जरुरत समझी थी. संस्कृत का एक रूप इस समय तक विद्वानों और व्यापारियों की भाषा बनने लगी थी क्योंकि ये दोनों विचरण करते थे. लेकिन इसमें एकरूपता का अभाव था . नौवीं सदी की एक किताब ‘ मंजुश्रीमूलकल्प’ और दसवीं सदी के एक लेखक राजशेखर की मानें तो महान वैयाकरण पाणिनि नंदों के दरबार में रहा और अष्टाध्यायी की रचना पाटलिपुत्र में की गई. हालांकि संस्कृत का पहला लिखित राज्यादेश जूनागढ़ में ईस्वी सं 150 का मिलता है जो शक राजा रुद्रदामन का है.

संस्कृत के उद्भव और विकास की कहानी काफी दिलचस्प है . इसे देवभाषा मानने वाले मूर्खों की संख्या ख़त्म नहीं हुई है ,लेकिन काफी कम जरूर हो गई है . यह भी मानी हुई बात है कि कुछ लोगों ने इस पर एकाधिकार जमाने की कोशिश की और कुछ हद तक वे कामयाब भी हुए . लेकिन यह सदैव केवल ब्राह्मणों की भाषा रही ,यह भी सच नहीं है. ( बीच के अन्धकार युग में जरूर ब्राह्मणों का इस पर कब्ज़ा हुआ था ,इसकी एक अलग कहानी है ) स्मृत्यादि ग्रंथों को छोड़ दें तो संस्कृत साहित्य के तीन दिग्गज हमारे समक्ष आते हैं, वे हैं वाल्मीकि, व्यास और कालिदास. जनश्रुतियों के अनुसार तीनों अद्विज हैं. वाल्मीकि को किसी ने ब्राह्मण नहीं कहा ,न द्वैपायन कृष्ण अर्थात वेदव्यास को. कालिदास कुरुब यानी गरड़िया परिवार से आते थे. अनेक अद्विज संस्कृत कवि -लेखक हुए. संकेत यही हैं कि शूद्रक,भवभूति और कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन अद्विज कुल से थे.

संस्कृत भाषा में एक महाक्रांति बौद्धों ने की जिस पर कम ही चर्चा हुई है. बौद्धों ने संस्कृत को अपनाया और उसे आमूलचूल बदल दिया. पाली बहुत समय तक बौद्धों की भाषा नहीं रही. ईसा की पहली सदी से ही बौद्धों ने विमर्श की भाषा के रूप में संस्कृत को स्वीकार लिय . उसके बाद लगभग हजार वर्ष तक बौद्ध विद्वानों ने इस जुबान को अपनाए रखा. अश्वघोष, वसुबन्धु, नागसेन, धर्मकीर्ति जैसे उद्भट्ट बौद्ध विद्वानों ने संस्कृत के माध्यम से ही वर्णवादी- ब्राह्मणवादी दर्शन का विरोध किया. यदि संस्कृत में मनुस्मृति है,तो वज्रसूची भी है. गीता है तो सौन्दरनन्द भी है. बौद्धों ने भाषा के स्तर पर भी संस्कृत के स्वरुप को बदल दिया. उसे हाइब्रिड अथवा संकर संस्कृत कर दिया. इसकी तुलना हम उर्दू से कर सकते हैं. संकर संस्कृत ने भाषा की रचनाशीलता बढ़ा दी. कालिदास से लेकर जयदेव तक की भाषा संकर संस्कृत के नमूने हैं. लेकिन इसी दौर में ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच सांप -नेवले का द्वंद्व पराकाष्ठा पर पहुंचा. ब्राह्मणों ने विदेशी ताकतों से सांठ -गाँठ कर बौद्धों के सम्पूर्ण संस्कृत वांग्मय को विनष्ट कर दिया. उदाहरणस्वरूप अश्वघोष की एक रचना ‘बुद्धचरित ‘ को देख सकते हैं. इसका लीला खंड तो बचा रहा ,क्योंकि इसमें विचार नहीं था,जीवनकथा थी ,लेकिन विचार खंड को विनष्ट कर दिया गया. आधुनिक ज़माने में यह चीनी जुबान से अनुदित होकर बुद्धचरित का हिस्सा बन सका. सभी बौद्ध दार्शनिकों की कृतियों को विनष्ट कर दिया गया. कुछ को लेकर भिक्षु तिब्बत देश भाग निकले थे. उनमें से कुछ को राहुल सांकृत्यायन कठिन परिश्रम से इस जमाने में भारत ला सके. बौद्धों का संस्कृत साहित्य मात्रा रूप में अत्यंत समृद्ध था.

मुगलिया ज़माने में शाहजहां के बेटे दारा शिकोह के प्रयासों से उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद हुआ. इससे यूरोपीय जगत को पूरब के सोचने के तरीकों की जानकारी मिली. अंग्रेजी ज़माने में विलियम जोंस के प्रयासों से एक बार फिर संस्कृत अध्ययन की ओर दुनिया भर के लोग मुखातिब हुए. 1776 में कुल्लूक भट्ट द्वारा सम्पादित मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद आया. इसके पूर्व कालिदास के ऋतुसंहार का अनुवाद आ चुका था. फिर तो एक सिलसिला बनता चला गया. उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में संस्कृत अध्ययन के क्षेत्र में मुख्य रूप से यूरोपीय विद्वानों ने ही काम किया. इसमें जर्मन भाषाविद मैक्स मूलर (1823 – 1900 ) का नाम सबसे ऊपर है,जिन्होंने ऋग्वेद को सम्पादित किया. भारतीय संस्कृत विद्वानों ने मैक्स मूलर के सम्पादित वेद से अपनी पोथियों का शुद्धि केलिए मिलान किया.

तो ऐसी है संस्कृत की समृद्ध परंपरा. किसी एक धर्म या दर्शन का इस पर अधिकार नहीं रहा. ब्राह्मण दर्शन है, तो बौद्ध दर्शन भी है. नास्तिक दर्शन भी है. वेदों की प्रशस्ति है तो उसे धूर्त भांडों की रचना भी इसी जुबान में कहा गया है. यहाँ अर्थशास्त्र और कामशास्त्र भी है. मेघदूत और अभिज्ञान शाकुंतलम भी है.

बावजूद इसके संस्कृत को आज जनभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने अथवा जनता पर थोपे जाने के मैं विरुद्ध होऊंगा. 1974 में कांग्रेस सरकार ने संस्कृत में आकाशवाणी से समाचार प्रसारित करने का निर्णय लिया था. मैंने इसका विरोध किया था और उन दिनों के चर्चित साप्ताहिक ‘दिनमान ‘ में एक टिप्पणी लिखी थी. आज भी मैं इसी विचार का हूँ. यही नही, मैं पाली, प्राकृत, अरबी -फारसी पर भी विशेष जोर दिए जाने के विरुद्ध होऊंगा. लेकिन यह अवश्य चाहूंगा कि इन जुबानों में दिलचस्पी रखने वालों को प्रोत्साहित किया जाय, क्योंकि इन सब में मानव सभ्यता और ज्ञान के खजाने हैं.

संस्कृत बोलने-जानने वालों की संख्या हमारे देश में कुल 14135 है. आज यह मरी हुई जुबान है, लेकिन इसका इतिहास शानदार है और हमें इस थाती को हर हाल में बचा के रखना है. लेकिन यह विश्वास कि किसी दिन यह जुबान फिर से जी उठेगी, एक भ्रम के सिवा कुछ नहीं है. प्राणियों की तरह जुबानों की भी एक उम्र होती है. समय के अनुसार वे या तो स्वयं को परिवर्तित कर लेती हैं, या फिर मर जाती हैं. संस्कृत में परिवर्तित होने की ताकत जब तक रही, वह विकसित होती रही. जब उसे अपरिवर्तनीय बनाया गया, वह कमजोर होने लगी और अंततः मर गई. ( कुछ लोग हिन्दी को भी इसी रास्ते ले जाना चाहते हैं. )

बुद्धिजीवियों से आग्रह अनुरोध होगा कि वे संस्कृत के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करें. उसे समझने की कोशिश करें. यह केवल भ्रम है कि संस्कृत कठिन जुबान है. अंग्रेजी भारतीय लोगों के लिए एक विदेशी जुबान है लेकिन संस्कृत के कुछ ही शब्द होंगे जिन से हम परिचित नहीं होंगे. हाँ, संस्कृत के रूप में यहाँ वेद, पुराण और स्मृतियों को ही यदि साहित्य माना जाता है, तब लगता है कि यह पाखंड विकसित कर रहा है . लेकिन यह तो हमारी अपनी समझ की समस्या है.

आखिर में मैं बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति का एक श्लोक रखना चाहूँगा ताकि आप जान सकें कि वहाँ विविध परम्पराएं रही हैं –

वेदप्रमाण्यम् कस्यचित कतृवादे स्नानेधर्मेच्छा जातिवादावलेपः
सम्थाप्रारम्थपापहानाय चेति ध्वस्तप्रज्ञानाम् पंचलिंगानीजाड्ये ।

(वेद को प्रमाण मानना, किसी कतृवाद यानि ईश्वर में विश्वास रखना, स्नान में धर्म की इच्छा रखना, जातिपाति का अवलेप धारण करना और पाप ख़त्म करने के लिए शरीर को कष्ट देना, ये पांच निशानियां उन जड़बुद्धि लोगों की है ,जिनकी समझ ध्वस्त हो चुकी है.)

 

*प्रेम कुमार मणि वरिष्‍ठ लेखक और पत्रकार हैं। मनुस्‍मृति पर लिखी इनकी किताब बहुत प्रसिद्ध है। कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित हैं। बिहार विधान परिषद में मनोनीत सदस्‍य रहे हैं।  

First Published on:
Exit mobile version