जनद्रोह-राजद्रोह और सत्ता सापेक्षता…..
रामशरण जोशी
इतिहास में देखें तो क्राइस्ट क्यों द्रोही माने गए ? क्योंकि उन्होंने अपने तरीके से तत्कालीन सत्ता-समीकरण को चुनौती दे डाली थी। उन्हें सूली पर चढ़ाया गया। आज वह सर्वत्र पूज्य हैं। उससे पहले सुकरात के साथ एथेंस की सत्ता ने क्या किया। उन्हें बहुमत से विष का प्याला पीने की सज़ा दी गई क्योंकि वे तत्कालीन सत्ता-वर्ग द्वारा स्थापि मान्यताओं ,मूल्यों ,आदि के विरुद्ध थे लेकिन उनका सत्य सर्वकालिक-सर्वव्यापी रहा। आज वही द्रोही सत्य के दूत माने जाते हैं। उनके शिष्य प्लटो,प्लटो के शिष्य एरिस्टोटल विश्वव्यापी हैं। मध्यकाल में मीरा को द्रोहिणी कहा गया क्योंकि उन्होंने राजतंत्र के स्थापित मूल्यों के विरुद्ध कृष्ण भक्ति के रूप में बगावत की थी। आज मीरा स्त्री शक्ति की प्रतिनिधि मानी जाती हैं। स्त्री-विमर्श मीरा के बिना अधूरा रहता है। चर्च ने गैलीलियो को दण्डित किया था लेकिन ढाई सो वर्ष बाद उसी चर्च ने उसकी आत्मा से क्षमा याचना भी की। 19वीं सदी में कार्ल मार्क्स को कई देशों से निष्काषित होना पड़ा था, उनकी शव यात्रा में सिर्फ 12 लोग थे, और आज भी उनके विचारों से पूंजीवादी सत्ताएं कांपती हैं। 1917 की रूसी क्रांति के नायक लेनिन और चीनी क्रांति ने नायक माओ राजद्रोही,वियतनाम क्रांति के नायक हो ची मिन्ह, क्यूबा क्रांति के नायक व सहनायक कास्त्रो व चे को राजद्रोही, बागी,आतंकवादी आदि सम्बोधनों से परिभाषित किया गया क्योंकि इन तमाम क्रांतिपुरुषों ने तत्कालीन राजसत्ताओं के मूल्यों और अतियों को ललकारा था।
भारतीय इतिहास पर नज़र डालें तो ईस्ट इण्डिया राज की नज़रों में 1857 संग्राम के नायक- उपनायक ( बहादुरशाह जफर,मंगलपांडे, झाँसी की रानी, तात्या टोपे आदि) राजद्रोही ही थे. इसी प्रकार सदी के अंत में आदिवासी क्रांतिकारी बिरसा मुंडा भी ब्रिटिश राज का राजद्रोही थे. उन्होंने सत्ता की अतियों-ज्यादतियों के विरुद्ध विद्रोह किया था.आज वह हमारे नायक हैं। इसी प्रकार बिस्मिल, अशफ़ाक़, भगतसिंह, चंद्रशेखर, सावरकर (प्रारम्भिक काल में ), खुदीराम बोस जैसे हज़ारों विद्रोही आतंकवादी, राजद्रोही रह चुके हैं. स्वतंत्र भारत के इतिहास में इनका क्या स्थान है, इससे हम सभी परिचित हैं। क्या गाँधी, नेहरू, बोस जेलों में नहीं रहे? 1975 के आपातकाल में इंदिरा गांधी ने उन सभी को जेलों में डाला था जो 1977 की दूसरी आज़ादी (तथाकथित) के अगुआ माने गए. नेल्सन मंडेला का ज्वलंत उदाहरण है जिन्हें दक्षिण अफ्रीका की श्वेत सरकार ने करीब तीन दशक तक जेलों में रखा था. ही बाद में पहली अश्वेत सरकार के प्रथम राष्ट्रपति बने. दक्षिण अफ्रीका की मुक्ति आंदोलन के महानायक कह लाये. पडोसी राष्ट्र बंगलादेश के जन्म ( दिसंबर 1971 ) से पहले बंगबंधु मुजीबुर्रहमान पाकिस्तानी शासकों के नज़रों में ‘राजद्रोही‘ ही थे। उन्हें गद्दार कहा गया, जेल में ठूंसा गया। जब पाकिस्तान के विभाजन से बंगलादेश बना तो वे स्वतंत्र देश के सर्वेसर्वा बने। कहां चंद महीने पहले तक वे गद्दार, राजद्रोही, राष्ट्रद्रोही, इस्लाम विरोधी के सम्बोधनों से परिभाषित हुए थे, वहीं 1972 में वे पाकिस्तानी जेल से रिहा किये गये और ढाका लौट कर राष्ट्रपति बने। बंगबंधु कहलाये।
आज का भी यही यथार्थ है. सरकार की आलोचना को राजद्रोह से जोड़ने की कोशिश शासक वर्ग करता है। कइयों के विरुद्ध राजद्रोह के मामले चलाये भी जा रहे हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट कह चूका है कि राजद्रोह के क़ानून का काफी सावधानी के साथ प्रयोग करना चाहिए। सारांश में, सत्ताधारी वर्ग परिभाषाएं, सम्बोधन, मूल्य, विधि -विधान आदि अपने हितों को ध्यान में रख कर गढ़ते आये हैं और द्रोही- विद्रोही- क्रांतिकारी बदलते भी आये हैं. विगत काल के नायकों को आज के खलनायक बनाये जा रहे हैं, बीते कल के खलनायक वर्तमान के नायक बन रहे हैं। जब एक व्यक्ति का राजद्रोह और जनता का जनद्रोह एकाकार हो जाते हैं तब इतिहास करवट लेता है और नए अध्याय का सृजन होता है। इसीलिए ये सभी सम्बोधन निरपेक्ष नहीं हैं, सत्ता सापेक्ष हैं।
जनविद्रोह :
राज्य की उत्पीड़क अतियों के प्रतिरोध में उठनेवाली आवाज़ें मूलतः जन-विरोध ही होती हैं। बगैर जन-भागीदारी के किसी भी प्रकार का प्रतिरोध और तद्जनित विद्रोह सम्भव ही नहीं है। मुद्दा यह है कि जन-विद्रोह के प्रेरणा-स्रोत, कारक, विचार दिशा, अभिव्यक्ति के माध्यम, रूप-आकार, चरित्र और अंतिम गंतव्य बिंदु क्या हैं।
वास्तव में प्रतिरोध, विद्रोह और क्रांति मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है। जब आरम्भिक प्रस्थान स्थल -प्रतिरोध- कालांतर में विद्रोह की शक्ल ले लेता है और जन द्वारा इसका विस्तार होने लगता है, समाज शिरकत करने लगता है तब यह क्रांति में भी रूपांतरित हो जाता है। मध्ययुग का भक्ति काल समाज के हाशिया के वर्गों द्वारा ‘ जन विद्रोह ‘ ही था ,लेकिन इसकी अभिव्यक्ति का माध्यम व रूप साहित्य व अहिंसात्मक था; संत तुकाराम, कबीर ,रैदास, नानक, मीरा, मीर जैसे बंजारा कवियों ने तत्कालीन सामजिक -सांस्कृतिक व्यवस्था के विरुद्ध काव्यात्मक ढंग से समाज में स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध ‘अलख‘ जगाया था। इस युग का सूफी आंदोलन भी एक प्रकार से ‘जन विद्रोह‘ ही था जिसने रब्ब के प्रति स्थापित अवधारणों को चुनौती दी।
मेरे मत में बुध, ईसा, मोहम्मद जैसे महापुरुषों ने अपने समकालीन सत्ता प्रतिष्ठान के तंत्र के विरुद्ध विद्रोह किया था। इन तीनों के विद्रोह के रूप-आकार भिन्न ज़रूर थे। वास्तव में अभिव्यक्ति, रूप-आकर-चरित्र का निर्धारण काफी कुछ समकालीन समाज का विकास स्तर, व्यवस्था, राज्य का चरित्र और अंतर्विरोधों का स्थितियां करती हैं। अंतर्विरोध जितने स्पष्ट, पैने और गहन होंगे, प्रतिरोध व विद्रोह का स्वरुप भी वैसा ही होने लगेगा। 18 वीं सदी की फ्रांसीसी क्रांति और 19वीं सदी का पेरिस विद्रोह हिंसात्मक रहा है। जैसे-जैसे समाज और राज्य का विस्तार होगा, सामजिक-आर्थिकी बदलती जाएगी और अंतर्विरोध बदलने लगेंगे। 1917 की बोलशेविक क्रांति और 1949 की चीनी क्रांति के चरित्र भिन्न हैं।
भारत को लें। इस देश में पिछली सदियों में प्रतिरोध व विद्रोह की लम्बी शृखंला है। गांधी जी के नेतृत्व में जन विद्रोह हुए, लेकिन शांतिपूर्ण व अहिंसात्मक रहे। 1857 का विद्रोह हिंसात्मक था। लेकिन दोनों सदी के विद्रोह ‘क्रांति‘ नहीं थे क्योंकि दोनों ने राज्य व समाज के आधारभूत चरित्रों को नहीं बदला। समाज में वर्ग-श्रेणी तंत्र और सम्पत्ति सम्बन्ध लगभग यथावत रहे। 2008 में नेपाल में हिंसात्मक क्रांति हुयी, राज्य राजतंत्र से गणतंत्र में रूपांतरित हुआ, लेकिन सुपर स्ट्रक्चर ही बदल सका, सब-सिस्टम या अधोरचना यथावत रही। घटनाओं की पृष्ठभूमि में जन विद्रोह को समझने की आवश्यकता है।
एक: जन विद्रोह स्वस्फूर्त भी होता है। इसकी निश्चित दिशा नहीं होती। राज्य की अतिवादिता के विरुद्ध प्रतिरोध की घनीभूत भावनात्मक अभिव्यक्ति जनविद्रोह की शक्ल ले लेती है। मिसाल के तौर पर, मिस्र का स्प्रिंग विद्रोह’ या अन्ना हजारे का आंदोलन। इससे पहले 1974 -75 की जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति।
इस श्रेणी के विद्रोह में भावनात्मकता का वर्चस्व रहता है, और विवेक, विश्लेषण, योजनाबद्ध रणनीति, संगठित विचारधारा तथा समरूपी प्रतिबद्ध नेतृत्व लगभग अनुपस्थित रहता है। यह मूलतः व्यक्ति केंद्रित होता है।
दो: विचारधारा और काडर आधारित जन विद्रोह की निश्चित दिशा रहती है। ये तात्कालिक या शार्ट-टर्म वाले होते हैं और दीर्घजीवी भी। इस श्रेणी में घेराव, धरना,हड़ताल, मार्च, अनशन आदि को शामिल किया जा सकता है ; टेहरी बचाओ आंदोलन, जल -जंगल -ज़मीन, नर्मदा बचाओं आंदोलन, सूचना अधिकार आंदोलन, लाल गढ़ जैसी घटनाएं इसकी अभिव्यक्तियाँ हैं। इससे पहले गांधीजी का चम्पारण आंदोलन , स्वामी सहजानंद का किसान आंदोलन , दक्षिण में पेरियार का ब्राह्मण विरोधी आंदोलन , केरल का अस्पृश्यता के विरुद्ध नारायण गुरु आंदोलन, बाबासाहब का आंदोलन आदि भी अहिंसक ‘जन विद्रोह‘ कहे जाएंगे।
तीन: जनविद्रोह की दशा-दिशा नेतृत्व के चरित्र से नियंत्रित होती है। यह व्यक्ति, समाज और नेतृत्व की चेतना की उच्चतम अवस्था है। यदि इसके माध्यम से वस्तुगत स्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता है तो यह प्रकारंतर से अपने अवसान को भी प्राप्त हो जाता है।
चार : जनविद्रोह में समकालीन मुद्दों की अंतर्धारा जितनी सघन-गहन रहेगी यह उतना ही प्रभावशाली व परिणाममूलक रहेगा .लेकिन, इसके प्रति यांत्रिक दृष्टि भी नहीं अपनी जा सकती. इसकी रणनीति परिस्थितियों -चुनौतियों पर निर्भर करती है। इसका सरलीकरण नहीं किया जा सकता।
पांच: वर्तमान काल में जनविद्रोह के क्या रूप हो सकते हैं, यह चिंतन का विषय है। आज प्रवासी मज़दूरों की विवशतापूर्ण ‘लम्बी या छोटी मार्च‘ को व्यवस्था के विरुद्ध परोक्ष ‘जनविद्रोह‘ ही कहा जायेगा. फर्क सिर्फ यह है कि यह दिशा व नेतृत्वविहीन है. यह शोषण, उत्पीड़न, राज्य के प्रति अविश्वास, विकलहीनता, अलगाव से प्रेरित ‘आवेग’ है। आवेग से दबाव बनाया जासकता है, लेकिन गुणात्मक परिवर्तन का आश्वासन नहीं दे सकता। फिर भी जन आक्रोश व जन विद्रोह के क्या क्या सम्भावी रूप हो सकते हैं, इस पर वैचारिक मंथन की ज़रूरत है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनको सोशल मीडिया पर यहां फॉलो किया जा सकता है।