खबर को प्रचार बनाने की यह प्रतिभा स्वस्फूर्त है या लंबी योजना का भाग? 

 

दरअसल हर मीडिया संस्थान में ज्यादातर प्रचारक बैठे हैं 

पासपोर्ट वालों की संख्या 10 करोड़ हो जाएगी तो खबर, 

आयकर देने वालों की संख्या 11 करोड़ है तो टैक्स चोरी की शिकायत 

टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर आज छोटी सी खबर के रूप में सरकारी प्रचार है। इस प्रचार का विवरण अंदर के पन्ने पर होने की सूचना भी है। शीर्षक है, पासपोर्ट धारक भारतीयों की संख्या 10 करोड़ का निशान छूने वाली है। यह एक सामान्य सूचना है और सिर्फ यही खबर होती तो मैं यहां यह सब नहीं लिख रहा होता। खबर बताती है, और यह पहला वाक्य है, सिर्फ 7.2 प्रतिशत भारतीयों के पास पासपोर्ट है इनमें ज्यादातर के पास पिछले दशक में भी (पासपोर्ट) था। मुझे लगता है कि पासपोर्ट धारकों की संख्या 10 करोड़ हो जाएगी से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि सिर्फ 7.2 प्रतिशत लोगों के पास पासपोर्ट है और पिछले दशक में इसमें ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है। आठ साल से विदेश जाना चाहने वालों की संख्या नहीं बढ़ी तो यह अच्छी बात हो या बुरी, खबर यह भी होगी कि ऐसा क्यों है। 

देश में जब सब अच्छा चल रहा हो लोग विदेश न जा रहे हों तो भी खबर के साथ यह बताना चाहिए कि लोग घूमने क्यों नहीं जा रहे हैं, विदेश में बसे रिश्तेदारों से मिलने क्यों नहीं जा रहे हैं। ऐसे में पासपोर्ट धारकों की संख्या 10 करोड़ हो जाएगी यह सूचना तो है पर सच यह भी है कि 130 करोड़ या उससे भी ज्यादा लोगों में सिर्फ 10 करोड़ लोगों के पास पासपोर्ट है। यह प्रतिशत में कोई अच्छा आंकड़ा तो नहीं है। और बात इतनी ही नहीं है। incometax.gov.in के अनुसार 11 दिसंबर 2022 तक देश में व्यैक्तिक पंजीकृत उपयोगकर्ताओं की संख्या 10,72,84,183 है। इसे 11 करोड़ मान लें तो आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों या पैन कार्ड वालों की संख्या इतनी ही है। देशवासियों पर आयकर चोरी करने और काला धन रखने का आरोप भी लगता रहता है। ऐसे में इस संख्या में वो लोग भी शामिल हैं जो आयकर नहीं देते हैं और सरकारी कानूनों के कारण पैन नंबर लेने और टीडीएस वापस लेने के लिए रिटर्न दाखिल करने को मजबूर हैं। 

पासपोर्ट रखने वालों की संख्या 10 करोड़ हो जाएगी यह प्रचार और आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या 11 करोड़ है तो कम है। लोग टैक्स चोरी करते हैं, काला धन रखते हैं। दोनों कैसे सही हो सकता है? अगर हो भी तो तथ्य यही है कि पासपोर्ट धारक उतने ही हैं जिनकी आय सरकार के ध्यान में है। यानी ऐसा कोई काला धन वाला नहीं है जो ऐश कर रहा है, विदेश घूम रहा है। यही नहीं, काले धन वाले अपने बच्चों और परिवार को भी विदेश ले जा रहे होते तो पासपोर्ट वालों की संख्या ज्यादा होती है। पर ऐसा नहीं है। आयकर देने वाले सभी लोग विदेश भी नहीं जाते हैं और काला धन वाले बहुत कम लोग परिवार को विदेश ले जाते हैं। जो हैं उनकी पहचान आसानी से की जा सकती है फिर भी सरकार काले धन और आयकर नहीं देने का रोना रोती रहती है। 

इसके बावजूद खबर सिर्फ सूचना होती तो मुझे कोई एतराज नहीं होता। खबर में आगे लिखा है, (और यही प्रचार है और शीर्षक इसीलिए 10 करोड़ है और अन्य संबंधित मुद्दे को इसीलिए छोड़ दिया गया है) अभी हाल तक पासपोर्ट जारी करने की नीति सख्त थी। सुधारों के भाग के रूप में केंद्र ने 2015 से 2022 तक 368 पासपोर्ट सेवा केंद्र जोड़े हैं। तथ्य यह है कि इसके बावजूद पिछले दशक में नया पासपोर्ट बनवाने वालों की संख्या नहीं बढ़ी तो मामला चिन्ताजनक नहीं है? हो सकता है यह गैर जरूरी तथ्य हो या गलत भी हो पर खबर में लिखा है तो सवाल उठेगा ही। जवाब तो नहीं है लेकिन दावा किया गया है पासपोर्ट बनने में 2015 के दौरान अगर औसतन 21 दिन लगते थे तो अब (इस साल) छह दिन लगते हैं। 

बेशक सरकार ने काम किए हैं, सेवा केंद्र बढ़ना ही बड़ी बात है और यह सब कंप्यूटर से संभव हुआ है तथा अब कंप्यूटर का उपयोग हो रहा है – इसका श्रेय सरकार को है। पर खबर को प्रचार की तरह क्यों लिखा जाए? प्रचार तो तब होता जब 200 स्मार्ट शहर बन गए होते। पासपोर्ट बनने में अब अगर छह दिन लगते हैं तो सत्य यह भी है कि आवेदन भले इंटरनेट पर होता है लेकिन आपको पासपोर्ट सेवा केंद्र जाना ही पड़ता है और छह दिन आपके पासपोर्ट केंद्र जाने की तारीख से लगता है और इस तारीख से अगर छह दिन ही लगते हैं तो मतलब है कि आवेदक पासपोर्ट का आवेदन ठीक से भर रहे हैं और दस्तावेज सही ढंग से लगा रहा है। इसमें सरकार को करना ही क्या है और दस्तावेज की सत्यता भी नहीं जांचनी है। सब एख दूसरे से लिंक्ड हैं तो छह दिन भी क्यों लगे? 

मैंने अपना पहला पासपोर्ट वर्षों पूर्व बनवाया था। तब मैं दिल्ली में रहता था और अनुभव तब भी बुरा नहीं था। तब ना आधार होते थे ना पैन कार्ड और ना कंप्यूटर। आज की तरह सब एक दूसरे से लिंक्ड भी नहीं थे। लिंक होने का नुकसान है कि संयुक्त खाते में टीडीएस का पैसा वापस नहीं आ सकता है जबकि टीडीएस काटना ह परेशान करना है। फिर भी उस जमाने में मैं पासपोर्ट बनवाने पासपोर्ट दफ्तर नहीं गया था। अब जाना पड़ा। तब फॉर्म भरकर डाक से भेज दिया था बनकर आ गया था। हालांकि, ना उसकी जरूरत पड़ी ना उपयोग हुआ। इस चक्कर में खो गया था। जब मिला तब तक नियम काफी बदल चुके थे और घर में ही बेटा, बेटी व पत्नी का पासपोर्ट बन चुका था। मेरा पुराना पासपोर्ट अकेला बना था। मेरी सलाह पर कुछ और लोगों ने फॉर्म भरकर डाक से भेज दिया था उनके भी पासपोर्ट बनकर आ गए थे। ऐसे में पासपोर्ट बनवाना मुझे कभी मुश्किल नहीं लगा। और सरकार ने भले दफ्तर खोले हों, कंप्यूटर लगवाए हों पर वह समय की जरूरत ज्यादा है जनता की सेवा कम।   

अब पासपोर्ट बनवाने के लिए सेवा केंद्र जाना ही होता है। यह अपने आप में एक मुसीबत है। उससे पहले इंटरनेट पर आवेदन करना सबके वश का नहीं है। मैंने कर दिया तो लंबी तारीख मिली। खबर में भले दावा किया गया है कि औसतन छह दिन में बन जा रहा है पर आज आप आवेदन करेंगे तो जरूरी नहीं है कि सामान्य तौर पर आपको अगले सोमवार को पासपोर्ट मिल जाए। मिलने जाने के लिए मुझे लंबी तारीख मिली और उसके बाद पुलिस वेरीफिकेशन हुआ और पासपोर्ट बन कर आ गया। वह भी इसलिए कि मुझसे पहले मेरी पत्नी का काम एक बार में नहीं हुआ था। उसे दोबारा जाना पड़ा था। इसलिए मैं सतर्क था। ऐसी हालत में इन दावों की कोई जरूरत नहीं थी और 10 करोड़ संख्या पूरी होने वाली है खबर पर्याप्त रहती। आवेदकों को जब अफसरों से मिलने जाना ही है और मिलने का समय ही देर से मिले तो छह दिन में पासपोर्ट बना देने का दावा भी बेमतलब है। 

खबर के अनुसार 23 प्रतिशत पासपोर्ट केरल और महाराष्ट्र के हैं। ऐसे में स्थिति बहुत बदली तो नहीं लगती है और ना यह सच लगता है कि बड़ी संख्या में युवा नौकरी के लिए विदेश जा रहे हैं। दूसरी ओर संसद में दी गई सूचना के अनुसार इस साल दस महीनों में करीब दो लाख लोगों ने भारतीय नागरिकता छोड़ दी है। वर्ष 2011 से अब तक 16 लाख से अधिक लोग भारतीय नागरिकता छोड़ चुके हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि ये 10 करोड़ में से ही होंगे। नागरिकता छोड़ने वालों की संख्या हर साल बढ़ती ही लग रही है। 2022 में 31 अक्तूबर तक 1,83,741 लोगों ने नागरिकता छोड़ी थी जबकि 2021 में यह संख्या इससे कम, 1,63,370 ही थी। इस साल के दो महीने अभी बाकी ही हैं। 2015 में नागरिकता छोड़ने वालों की संख्या 1,31,489 जो 2017 में कम हुई फिर बढ़ गई और बढ़ रही है। लोग पासपोर्ट बनवा कर देश छोड़ दे रहे हैं तो उसका भी उल्लेख होना चाहिए या उसके बिना कैसा प्रचार? 

पत्रकारों से सरकार समर्थकों की शिकायत रहती है कि वे सरकार की निन्दा करें तो प्रशंसा भी करें। सुनने में भले यह वाजिब लगता है पर सरकार की तारीफ करना पत्रकारिता नहीं है। ईमानदारी की बात यह है कि सरकार की आलोचना, उससे सवाल करना ही पत्रकारिता है। प्रचार के लिए सरकार के पास साधन, संसाधन और स्रोत सब हैं। जनता को सूचना देने के लिए प्रशंसा वाली खबरें जरूर की जा सकती हैं पर वह प्रचार ही है पत्रकारिता नहीं। हमारे समय में उसके लिए प्रायोजित दौरे होते थे। बाद में खबरों के साथ लिखा जाने लगा कि रिपोर्टर इस खबर के लिए प्रायोजित दौरे पर गया था। इसके बाद पेड जर्नलिज्म का दौर आया जब पैसे लेकर खबर और इंटरव्यू छापे जाते थे और कोने में कहीं छोटे अक्षरों से लिख दिया जाता था कि यह एडवटोरियल है। मतलब विज्ञापन और संपादकीय का मिला जुला रूप। अभी आपने सरकारी सेठ के ऐसे ही विज्ञापननुमा इंटरव्यू की चर्चा सुनी ही होगी।   

अब सब खुल्लम खुल्ला है या पूरा घालमेल में। सच कहिए तो विरोध है ही नहीं सिर्फ भक्ति और समर्थन है। उसके तरीके हैं और संबंधित बेशर्मी है। पाकिस्तान के साथ पिछले दिनों जो हुआ वह इसी का उदाहरण था और इस मामले में बहुत कुछ पता नहीं चला, कभी नहीं चलेगा। इस संबंध में बीबीसी (हिन्दी) की खबर का शीर्षक है, “बिलावल भुट्टो ने की मोदी पर विवादित टिप्पणी, तो भारत ने दिया ये जवाब”। खबर में कहा गया है, “भारतीय विदेश मंत्रालय ने इसका जवाब देते हुए कहा था कि पाकिस्तान के हिसाब से भी यह बयान काफ़ी निचले स्तर का है”। इसपर पाकिस्तान ने आरोप लगाया था कि भारत अपने बयानों से 2002 के गुजरात दंगों की असलियत को छुपाना चाहता है। 

शीर्षक के मुकाबले खबर के तथ्य देखिए, (पाकिस्तान ने कहा) “कोई भी शब्दाडंबर भारत में ‘भगवा आतंकवाद’ के अपराधों को छुपा नहीं सकता। सत्ताधारी पार्टी की राजनीतिक विचारधारा हिंदुत्व ने नफ़रत, अलगाव और सज़ा से बचाव के माहौल को जन्म दिया है।” (पाकिस्तान के) विदेश मंत्रालय ने कहा, “भारत की हिंदुत्व आधारित राजनीति में सज़ा से बचाव की संस्कृति गहराई से जुड़ी हुई है। दिल्ली-लाहौर समझौता एक्सप्रेस पर हुए घिनौने हमले के दोषी और मास्टरमाइड को छोड़ दिया गया। इस हमले में भारत की ज़मीन पर 40 पाकिस्तानी मारे गए थे। ये आरएसएस-बीजेपी के तहत न्याय के नरसंहार को दिखाता है।”

इस मामले में तथ्य यह भी है कि भारत ने पाकिस्तान को आतंकवाद का केंद्र कहा था। जवाब में बिलावल भुट्टो ने कहा था, “ओसामा बिन लादेन मर चुका है पर ‘बुचर ऑफ़ गुजरात’ ज़िंदा है. और वो भारत का प्रधानमंत्री है। जब तक वो प्रधानमंत्री नहीं बना था तब तक उसके अमेरिका आने पर पाबंदी थी।” भारत में जो प्रतिक्रिया हुई वह मुख्य रूप से इसी पर थी लेकिन खबरों की प्रस्तुति आप देख चुके हैं। बीबीसी की इस खबर में भी तथ्य हैं पर वैसे नहीं जैसे हुए। भारतीय मीडिया में भी इस मामले में प्रस्तुति ऐसी थी जैसे बिलावल ने बिना बात प्रधानमंत्री के बारे में ऐसा कह दिया। भारत में जो छपा वह निश्चित रूप से खबर नहीं थी, भारत का पक्ष था। और इसमें पक्ष कुछ ज्यादा ही है जबकि आरोप पूरे भी नहीं हैं।

लेकिन लिखने वालों का काम था कि वे पता करते और बताते कि बिलावल भुट्टो ने जो कहा वह क्यों कहा। कोई भी, विदेश मंत्री तो छोड़िये, यूं ही ऐसी बात नहीं करता है। भारत ने भी कहा तो यूं ही नहीं कहा। संयुक्त राष्ट्र में कहा पर क्यों कहा या कहने की जरूरत थी कि नहीं यह समझना मुश्किल है। भारत में लोगों को डराया जा सकता है या उम्मीद की जा सकती है कि जो माहौल है उसमें कोई पलटवार नहीं करेगा लेकिन पाकिस्तान से यह उम्मीद क्यों की गई, किसने की, यह नियोजित था या यूं ही हो गया – यह सब खबर है और विदेश मामले देखने वालों को इसकी चिन्ता होनी चाहिए। खबर होनी चाहिए पर ऐसा होगा नहीं। दरअसल मीडिया में प्रचारकों की ही भर्ती होती रही है और यह लंबे समय से होता रहा है। वह एक अलग अनुसंधान का विषय है। 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और  प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

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