CPC@100: पुरातन चीन को आधुनिक बनाने का एक ग्रैंड प्रोजेक्ट!

सीपीसी के सत्तारोहण के बाद का इतिहास भी अब 71 साल से अधिक का हो चुका है। चीन की जो उपलब्धियां हैं, उनकी जमीन इसी दौर तैयार हुई और इसी दौरान वे साकार भी हुईं। लेकिन ये 71 साल आसान नहीं रहे हैं। इस दौरान कई उथल-पुथल से सीपीसी और चीन दोनों को गुजरना पड़ा। उन सबकी विस्तार से चर्चा एक लेख शृंखला में संभव नहीं है। इस दौर में कुछ पड़ाव ऐसे रहे हैं, जिनको लेकर न सिर्फ दुनिया में, बल्कि खुद चीन के अंदर भी अंतर्विरोधी समझ रही है। अब जबकि शताब्दी के मौके पर सीपीसी की भूमिका को समझने की कोशिश की जा रही है, तब उन पर और उनसे जुड़े विवादों पर एक नज़र डालना अनिवार्य है।

जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं? वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन इस विषय पर मीडिया विजिल के लिए एक विशेष शृंखला लिख रहे हैं। पेश है इसकी दूसरी कड़ी-संपादक

 

ब्रिटिश लेखक और पत्रकार मार्टिन जैक्स ने लिखा है- ‘विश्व शक्ति के रूप में चीन के उदय से हर चीज में नई जान आ गई है। पश्चिम इस विचार से चलता रहा है कि ये दुनिया उसकी दुनिया है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसका समुदाय है। वही उसूल यूनिवर्सल (वैश्विक) हैं, जो उसके उसूल हैं। लेकिन अब ये बात नहीं रह जाएगी।’ जैक्स ने ये बातें 2009 में आई अपनी किताब ‘ह्वेन चाइना रूल्स वर्ल्ड’ में कही थीं। 12 साल बाद अब ये साफ है कि जैक्स की बातें काफी हद तक सच हो गई हैं।

तो जाहिर है कि ये हर लिहाज से एक युगांतकारी बदलाव है। इस बड़े बदलाव की नींव 1921 में पड़ी थी। उस वर्ष एक जुलाई को चीन के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और नौजवानों का एक जत्था कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के लिए शंघाई (जो उस समय फ्रेंच शासन में था) में बैठा। चेन दुशिऊ और ली दा झाओ को इस बैठक के आयोजन का श्रेय दिया जाता है। लेकिन इतिहासकारों के मुताबिक यह तारीख महज प्रतीकात्मक है, क्योंकि जिस समय शंघाई में बैठक चल रही थी, वहां पुलिस छापा पड़ गया। इस कारण बैठक में शामिल लोग भाग गए और नौकाओं से वे लगभग सौ किलोमीटर दूर एक स्थान पर गए। वहीं पार्टी के स्वरूप को आखिरी रूप दिया गया। लेकिन इस ठोस रूप लेने में अभी और वक्त लगा। हां, यह जरूर था कि वहां से यात्रा शुरू हो चुकी थी।

इस यात्रा में कई अध्याय हैं। लेकिन इसके दो मुख्य चरण हैं। पहला 1921 से 1949 तक का, जो संघर्ष या सीपीसी के शब्दों में कहें तो वर्ग युद्ध का दौर है। इस लंबी लड़ाई के परिणामस्वरूप एक अक्टूबर 1949 को आखिरकार बीजिंग की सत्ता पर सीपीसी का कब्जा हुआ। उस रोज पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (चीन जनवादी गणराज्य) की नींव रखी गई। तब से लेकर सीपीसी चीन की सत्ताधारी पार्टी रही है।

अपने संघर्ष के चरण में सीपीसी को कई दौर से गुजरना पड़ा। कुओ-मिन-तांग (राष्ट्रवादी पार्टी जिसने 1911 की गणतंत्रीय क्रांति के बाद से कम्युनिस्ट क्रांति तक ज्यादातर समय देश की सत्ता संभाली) से सहयोग और टकराव, 1925 में सुन-यात-सेन की मृत्यु के बाद कुओ-मिन-तांग के बदले रुख, और उसके हमलों के कारण बनी ऐतिहासिक लॉन्ग मार्च की परिस्थितियां, जापान के साम्राज्यवादी हमलों के समय ‘जनता के अंदरूनी अंतर्विरोधों’ की सही समझ का परिचय देते हुए माओ दे दुंग के नेतृत्व में सीपीसी का फिर से कुओ-मिन-तांग से मिल कर युद्ध में शामिल होना, बाद में फिर से कुओ-मिन तांग से टकराव और आखिरकार बीजिंग में सीपीसी का सत्तारोहण इस दौर के प्रमुख घटनाक्रम रहे।

बहरहाल, सीपीसी के सत्तारोहण के बाद का इतिहास भी अब 71 साल से अधिक का हो चुका है। चीन की जो उपलब्धियां हैं, उनकी जमीन इसी दौर तैयार हुई और इसी दौरान वे साकार भी हुईं। लेकिन ये 71 साल आसान नहीं रहे हैं। इस दौरान कई उथल-पुथल से सीपीसी और चीन दोनों को गुजरना पड़ा। उन सबकी विस्तार से चर्चा एक लेख शृंखला में संभव नहीं है। इस दौर में कुछ पड़ाव ऐसे रहे हैं, जिनको लेकर न सिर्फ दुनिया में, बल्कि खुद चीन के अंदर भी अंतर्विरोधी समझ रही है। अब जबकि शताब्दी के मौके पर सीपीसी की भूमिका को समझने की कोशिश की जा रही है, तब उन पर और उनसे जुड़े विवादों पर एक नज़र डालना अनिवार्य है। पीपुल्स रिपब्लिक के वजूद में आने के बाद पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत, नए समाज के निर्माण के सिलसिले में गांवों में कम्यून की स्थापना, दूसरी पंचवर्षीय योजना में अपनाई गई ग्रेट लीप फॉरवर्ड की नीति, 1966 से 1976 तक चली सांस्कृतिक क्रांति, 1976 में माओ के निधन के बाद सत्ता के केंद्र में देंग श्यायो फिंग की वापसी और तब से शुरू हुआ देंग युग, और आखिर में शी जिनपिंग का मौजूद दौर- ये वो पड़ाव हैं, जिनका असर आज के चीन पर साफ देखा जा सकता है।

इस क्रम में कई विवादित सवाल रहे हैं। मसलन, ग्रेट लीप फॉरवर्ड क्या अति-उत्साह में अपनाई गई नीति थी, जिसके विनाशकारी परिणाम चीन को भुगतने पड़े? क्या सांस्कृतिक क्रांति सीपीसी के भीतर सत्ता का संघर्ष था, जिसके भयंकर अनुभवों से चीन की एक पूरी पीढ़ी अपने जीवन में कभी नहीं उबर पाई? क्या अपने हाथ में सत्ता का केंद्र आते ही देंग ने माओ की पूरी विरासत पलट दी और क्या वे चीन को पूंजीवाद की राह पर ले गए? या देंग की नीतियों के तहत जो चीन बना, उससे समाजवाद का एक बिल्कुल अनूठा रूप सामने आया, जिसे सीपीसी ‘चीनी स्वभाव का समाजवाद’ (socialism with Chinese characteristics) कहती है? या यह असल में ‘राजकीय पूंजीवाद’ पर परदा डालने के लिए गढ़ा गया एक शब्द है? और क्या शी जिनपिंग के दौर में चीन ने राष्ट्रवाद या उग्र-राष्ट्रवाद का रास्ता अख्तियार कर लिया है, जो धीरे-धीरे साम्राज्यवादी स्वरूप ग्रहण कर रहा है? ये तमाम वो सवाल हैं, जिन पर दुनिया पिछले छह-सात दशकों से बहस करती रही है। लेकिन गौर की बात यह है कि इसी बहस और तमाम आलोचनाओं के बीच चीन का एक महाशक्ति के रूप में उदय हो गया है।

आज सबसे अहम यह समझना है कि आखिर ऐसा कैसे हुआ? यह समझने के क्रम में दुनिया भर के अनेक इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों और राजनीति शास्त्रियों के विमर्श का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इससे आम तौर पर जो एक बात उभर कर सामने आती है कि वो यह कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के बाद सीपीसी ने जो विकास नीति अपनाई, उसके केंद्र में हमेशा आम जन को रखा गया। माओ के दौर में समता का मूल्य ऐसी हर नीति का प्रमुख मार्गदर्शक बना रहा। इन दोनों बातों का साझा परिणाम यह हुआ कि आरंभिक दशकों में चीन ने तब जो भी सीमित संसाधन थे, उनका निवेश, जिसे अब नई भाषा में मानव विकास कहा जाता है, उसमें किया। तो जोर प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य, और आम जन की सबसे प्राथमिक जरूरतों पर था। इसी जोर की एक मिसाल बेयर फुट डॉक्टरों का प्रयोग था, जिन्हें उन आम बीमारियों के इलाज के लिए गांव-गांव भेजा गया, जिनके इलाज के लिए उच्च विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होती। जोर ऐसे डॉक्टर तैयार करने पर रहा, जो डायरिया और आम इन्फेक्शन से होने वाले रोगों को स्थानीय स्तर पर साधारण चिकित्सा से ठीक कर सकें। निरक्षरता दूर करना और सबको बुनियादी तालीम देना पहली प्राथमिकताएं रहीं। गांवों में कम्यून बनाए गए, जिनके तहत सामूहिक खेती और अन्य उद्योग-धंधों को चलाने की योजना लागू की गई। ये प्रयोग कितना सफल रहा, यह विवादास्पद है। इसी विवाद से जुड़ा ग्रेट लीप फॉरवर्ड नीति की कथित विफलता है।

ग्रेट लीफ फॉरवर्ड की नीति दूसरी पंचवर्षीय योजना में अपनाई गई। इसका मकसद तेजी से औद्योगिक विकास था। औद्योगिक विकास के लिए श्रमिकों की जरूरत थी। तो सोचा गया कि गांवों से लोगों को शहर जाने के लिए प्रेरित किया जाए। आरोप है कि इस दौरान जोर-जबरदस्ती बरती गई। कहा जाता है कि कम्यून के तहत अनाज उत्पादन के जो लक्ष्य रखे गए, वे असल में प्राप्त नहीं हुए। चूंकि उनमें जिम्मेदारी सामूहिक थी, इसलिए ग्रामीणों ने व्यक्तिगत उत्साह और जरूरी मेहनत के साथ अपना योगदान नहीं किया। इससे अनाज पैदावार में गिरावट आई। लेकिन इसकी रिपोर्टिंग ईमानदारी से नहीं की गई। सरकार को यह गलत सूचना मिलती रही कि अनाज की पैदावार पूरी आबादी को खिलाने के लिहाज से पर्याप्त मात्रा में हो रही है। कहा जाता है कि वास्तविक स्थिति उलटी थी। इसके बावजूद लाखों की संख्या में ग्रामीणों को शहरी औद्योगिक केंद्रों की तरफ भेज दिया गया। इसी बीच सूखा भी पड़ गया। नतीजा हुआ कि देश में अनाज की कमी हो गई। उससे बड़ी संख्या में मौतें हुईं। कितनी? ये सही संख्या आज तक किसी को नहीं मालूम। पश्चिमी देशों में ये संख्या दो से तीन करोड़ तक मानी जाती है। चीन में अब तक ऐसे विश्वसनीय आंकड़े सामने नहीं आए हैं, जिनसे सही अंदाजा लग सके। लेकिन जब देंग का युग शुरू हुआ तो यह माना गया कि ग्रेट लीप फॉरवर्ड नीति पर अमल के कारण देश को अकाल झेलना पड़ा था।

ग्रेट लीप फॉरवर्ड नीति की विफलता का संबंध सांस्कृतिक क्रांति शुरू करने की माओ की मंशा से जोड़ा जाता है। माओ की सीपीसी में जो असाधारण हैसियत थी, वह पार्टी के सौ साल के इतिहास में किसी की नहीं रही। माओ की ये हैसियत उनके मार्गदर्शक व्यक्तित्व और वर्ग युद्ध के लंबे काल में उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से बनी थी। पार्टी में उन्हें चेयरमैन का दर्जा दिया गया था, तो उनके निधन के बाद किसी और को नहीं मिला। लेकिन चूंकि वे पार्टी के सर्वमान्य नेता थे, इसलिए ग्रेट लीफ फॉरवर्ड की विफलता का ठीकरा भी उनके सिर फोड़ा जाता है। एक राय यह है कि इस नाकामी के बाद पार्टी का एक हलका माओ के नेतृत्व पर सवाल उठाने लगा था। उससे सत्ता संघर्ष की स्थिति बन रही थी, जिसका जवाब माओ ने सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत करके दिया। लेकिन माओवादी नजरिया यह है कि क्रांति के तकरीबन 15 साल बाद सीपीसी में पूंजीवादी प्रवृत्तियां उभरने लगी थीं। कम्यून व्यवस्था को खत्म कर बुर्जुआ व्यवस्था लाने की कोशिशें की जा रही थीं। माओ समर्थकों का आरोप था कि चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति ली शाओ ची इसी धारा का नुमाइंदगी कर रहे थे। तो माओ ने देश के नौजवानों से क्रांति के मूल स्वरूप को बचाने का अह्वान किया। उन्होंने क्रांति के अंदर क्रांति का सिद्धांत सामने रखा। इस दौर में उनका एक प्रमुख नारा था- बॉम्बार्ड द हेडक्वार्टर्स। यानी मुख्यालयों पर हमला बोलो। इसमें सबसे बड़ा मुख्यालय राष्ट्रपति का था। इसके अलावा पुरातन संस्कृति और धर्म सत्ता के जो केंद्र थे, उन्हें भी ध्वस्त करने की अपील की गई।

माओ की लोकप्रियता का आलम यह था कि लाखों नौजवान रेड गार्ड्स का हिस्सा बन गए, जिसके जरिए सांस्कृतिक क्रांति को अंजाम दिया गया। ये सच है कि उस दौरान पार्टी में जो भी माओ के आसपास के कद के नेता थे, उनकी जगह पार्टी में खत्म हो गई। इसके एकमात्र अपवाद प्रधानमंत्री झाओ एन लाइ थे। बाकी सैकड़ों नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्टडी कैंप (अध्ययन शिविर) में भेज दिया गया। हजारों लोगों को शारीरिक श्रम करने के लिए गांव भेज दिया गया। कहा जाता है कि रेड गार्ड्स ने इस दौरान अति-उत्साह दिखाया और उन्होंने माओ की लाइन से हर असहमत व्यक्ति पर धावा बोल दिया। इस दौरान देश के आर्थिक विकास के तमाम कार्यक्रम ठहर गए। हालांकि कुछ जानकारों की राय है कि सांस्कृतिक क्रांति ने चीन के आधुनिकीकरण के उस अभियान को अपनी मंजिल पर पहुंचा दिया, जिसकी पृष्ठभूमि में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था।

आधुनिकीकरण की परियोजना की शुरुआत दरअसल 1911 में हुए राजतंत्र विरोधी आंदोलन से हो गई थी। इसी आंदोलन के परिणामस्वरूप चीन में सदियों से चले आ रहे राजतंत्र का खात्मा हुआ। 1912 में पहली बार गणतंत्र व्यवस्था के तहत सरकार बनी। उसके बाद प्रबुद्ध वर्ग ने चीनी समाज को श्रेणीबद्धता (हायआर्की) से मुक्त करने की मुहिम छेड़ी। चीनी समाज सदियों से कंफ्यूशियस की सोच और परंपरा के साथ चल रहा था। इसका खास पहलू ऊंच-नीच का श्रेणीबद्ध ढांचा था। इसके विरोध में 1915 में चीन में नव सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत हुई थी। उसके बाद 1919 में मशहूर फॉर्थ-मे मूवमेंट (चार मई आंदोलन) हुआ, जिसके जरिए उपनिवेशवाद विरोधी भावना भी नव सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बन गई। माओ के जीवनकारों ने लिखा है कि माओ की पहली राजनीतिक दीक्षा इसी सांस्कृतिक आंदोलन के दौरान हुई थी। उसके बाद ताउम्र वे चीन को एक आधुनिक समाज और राष्ट्र बनाने की महत्त्वाकांक्षा पाले रहे। 1966 में जब उन्होंने सांस्कृतिक क्रांति की घोषणा की, तो उसके पीछे भी उनके ये महत्त्वाकांक्षा थी। बेशक सांस्कृतिक क्रांति के दौरान ज्यादतियां हुईं, लेकिन उससे चीन में अंधविश्वास और पुरातनता के खिलाफ एक नई संस्कृति की जड़ें जमाने में भी मदद मिली। बहराहल, हकीकत यह है कि सांस्कृतिक क्रांति का दौर आधुनिक चीनी इतिहास का सबसे विवादास्पद अध्याय है। देंग जब सत्ता के केंद्र में आए, तो सीपीसी सांस्कृतिक क्रांति के दौर को एक गलती के रूप में चित्रित करने लगी।

सांस्कृतिक क्रांति का दौर 1976 में माओ के निधन के साथ समाप्त हुआ था। उसके बाद चीन ने नई राह पकड़ी। अगली किस्तों में हम उन पर गौर करेंगे। लेकिन उससे पहले माओ के दौर का एक और अहम अध्याय है, जिसे बिना समझे पीपुल्स रिपब्लिक ने जो दिशा पकड़ी उसे नहीं समझा जा सकता। ये अध्याय दुनिया के पहले कम्युनिस्ट प्रयोग- सोवियत संघ के साथ चीन के अलगाव का है। अनेक इतिहासकार मानते हैं कि इस घटनाक्रम का विश्व साम्यवादी आंदोलन पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा। तो ये सारा घटनाक्रम किस तरह चला, इस पर बात अगली किस्त में।

इस शृंखला की पहली कड़ी पढ़ने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें-

चीन: एक देश के कायापलट की अभूतपूर्व कथा

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