अनुपस्थित स्त्री, असुरक्षित स्त्री!

स्त्री सुरक्षा के मुद्दे को एक सामान्य समीकरण के रूप में देखा जा सकता है- जहाँ स्त्री नेतृत्व और निर्णय की भूमिका में नहीं होगी, वहाँ असुरक्षित रहेगी | सामाजिक ही नहीं, राजनीतिक ही नहीं, धार्मिक स्पेस में भी। भगवा या शरिया संस्कृति के आवरण में चल रहे नियम-कायदे और संस्थान, जिनमें स्त्रियों को इन दो भूमिकाओं में आने नहीं दिया जाता, स्त्री को तभी सुरक्षा नहीं दे पाते।

अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता हथियाने के बाद तालिबान सबसे बढ़-चढ़ कर अपने ब्रांड के मध्ययुगीन शरिया कानूनों को स्त्रियों पर लागू करने की बात करते रहे हैं। लिहाजा उनकी सरकार के मंत्रिमंडल में एक भी महिला को जगह नहीं दी गयी है।  स्वाभाविक है कि आज के दिन वहां की स्त्री दुनिया की सबसे अपमानित और असुरक्षित स्त्री बन चुकी है।

प्रयागराज की बाघम्बरी गद्दी के महंत नरेंद्र गिरि की आत्महत्या की चिट्ठी इन सन्यासी संस्थाओं में यौन शोषण की निरंतर परंपरा की एक छोटी सी बानगी है। इसमें स्वयं इस महंत ने अपने प्रमुख शिष्यों द्वारा यौनिक ब्लैकमेल की आशंका जतायी है। नरेंद्र गिरि हजारों करोड़ की संपत्ति की मालिक 13 सनातनी अखाड़ों की अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष भी थे। जाहिर है, ‘ब्रम्हाचारियों’ के ऐसे अखाड़ों से स्त्री सिर्फ एक तार से जुड़ सकती है- यौन शोषण के।

दरअसल, हिन्दुओं के धार्मिक स्थल शायद ही कभी अपने लम्बे इतिहास में स्त्री सुरक्षा के केंद्र बने हों। हाँ, देवदासी जैसी स्त्री शोषण परंपरा के तमाम उदहारण जरूर हैं। क्यों? क्योंकि स्त्री हिन्दू धार्मिक संस्थाओं में नेतृत्व और निर्णय की भूमिका में कभी नहीं रही। मुस्लिमों और ईसाइयों के धार्मिक संस्थानों में भी स्त्री की यही स्थिति है। वहाँ पर भी स्त्री शोषण का समीकरण जब-तब प्रबंधन पर हावी मिलेगा।

इसके बरक्स एक वर्ष से चल रहे ऐतिहासिक किसान आन्दोलन का उदाहरण लीजिये। दिल्ली सीमा पर हजारों स्त्री, पुरुष, बच्चे सडकों पर 24 घंटे डेरा डाले मिलेंगे। उनका खाना-पीना और नहाना-धोना, सोना-उठना सब वहीं। यानी समूची दिनचर्या। न वहां पुलिस न गश्त, लेकिन उनके बीच स्त्री की सुरक्षा कभी मुद्दा नहीं बनता। क्योंकि धरना स्थल पर स्त्रियों की स्थानीय स्तर पर नेतृत्व और निर्णय दोनों में भागीदारी है। बड़ी मात्रा में स्त्री की निर्णायक उपस्थिति ही उनकी सुरक्षा और सम्मान की गारंटी भी है।

राजनीति और कार्यस्थल में स्त्री की उपस्थिति पर लैंगिक नियंत्रण के उदाहरण तालिबान जैसी धार्मिक शासन पद्धति में ही नहीं, भारत जैसी लोकतांत्रिक पद्धति में भी आये दिन दिखेंगे। कोझिकोड, केरल की 30 वर्षीय वकील फाथिमा थहिलिया, इन्डियन यूनियन मुस्लिम लीग के छात्र विंग ‘मुस्लिम स्टूडेंट्स फेडरेशन’ (एमएसएफ) की खासी सक्रिय महिला शाखा ‘हरिथा’ का प्रमुख चेहरा बन चुकी थीं। गत महीने पार्टी नेतृत्व ने फाथिमा को एमएसएफ के उपाध्यक्ष पद से निकल दिया और ‘हरिथा’ को भंग कर दिया। क्योंकि वे एमएसएफ के कुछ पुरुष पदाधिकारियों के खिलाफ यौनिक दुर्व्यवहार के आरोपों को उठाते जा रहे थे।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में वर्षों चली क़ानूनी लड़ाई के बाद भारतीय महिलाओं के लिए सेना के तमाम दरवाजे, कॉम्बैट विंग समेत, खुले तो सही लेकिन मोदी की केंद्र सरकार उन्हें एनडीए में प्रवेश न देने पर अड़ी रही। एनडीए से ही कॉम्बैट विंग में अफसर बनने का रास्ता खुलता है। सर्वोच्च न्यायालय के अड़ जाने से अब आगामी नवंबर से महिलाओं को एनडीए की प्रवेश परीक्षा में बैठने का अवसर मिलेगा। सच्चाई यह है कि बेशक भारत के शासन संचालन में साक्षात तालिबान न भी नजर आते हों लेकिन तालिबानी मानसिकता की कमी नहीं दिखती।

ठीक है, स्त्री शोषण के सर्वाधिक घटिया स्वरूप धार्मिक स्पेस में नजर आते हैं। साथ ही यह भी समझना होगा कि इस शोषण की जड़ें नियमित रूप से दंड की राजनीति से मजबूत की जाती हैं। अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानी शासन तंत्र में स्त्री को अपने प्रेम के लिये ही नहीं, अपने पर हुए दुर्व्यवहार की भी सजा भुगतनी पड़ती है। यौनिक आरोपी को फांसी की सजा का प्रावधान करने वाले भारत में क्या होता है? दंड की राजनीति का यह भारतीय चेहरा देखिये।

बहुचर्चित हैदराबाद बलात्कार कांड के चार निम्न वर्गीय आरोपियों को दिसंबर 2019 के पुलिस एनकाउंटर में मार दिया गया था। इसकी न्यायिक जाँच अभी चल ही रही थी कि दो वर्ष बाद, सितम्बर 2021 में, एक और इसी पृष्ठभूमि के बलात्कार आरोपी की पुलिस द्वारा पकड़कर मार देने की भविष्यवाणी राज्य सरकार के मंत्री ने कर डाली। अगले दिन उस आरोपी का शव रेल पटरी पर मिला। विचार की बात होनी चाहिये कि पुलिस एनकाउंटर या फांसी जैसे निरोधी माने जा रहे दंड से ही स्त्री सुरक्षा मजबूत होती, तो कहीं ज्यादा असर पड़ता यदि आसाराम, राम रहीम, चिन्मयानंद, कुलदीप सेंगर इत्यादि का एनकाउंटर किया गया होता या उन्हें फांसी दी गयी होती।

निर्णय और नेतृत्व से अनुपस्थित स्त्री ही असुरक्षित स्त्री है!

 

विकास नारायण राय, अवकाश प्राप्त आईपीएस हैं, हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।

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