पहला पन्ना: अख़बारों ने हेडलाइन मैनेजमेंट की ख़बर जस के तस छाप दी! 

आज सभी अखबारों में केंद्र सरकार के 6.28 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की खबर लीड है। हमेशा की तरह ज्यादातर शीर्षक प्रचारात्मक हैं और किसी ने यह नहीं बताया है कि पहले के ऐसे पैकेज का क्या हुआ। या यह भी नहीं कहा गया है कि पहले के ऐसे पैकेज की सफलता से प्रेरित होकर अभी भी वही तरीका अपनाया जा रहा है।

कहने की जरूरत नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब है और इसकी शुरुआत इस सरकार के पद संभालने के बाद से ही हो गई थी। नोटबंदी और फिर जल्दबाजी में बिना सोचे-समझे जीएसटी लागू करने से बढ़ती हुई कोविड-19 के समय बिल्कुल खराब हो गई थी। उसके बाद बंदी और लॉकडाउन के कारण स्थिति लगातार खराब हो रही है। जीडीपी शून्य से नीचे जा चुकी है। पर प्रचारक अभी तक हेडलाइन मैनेजमेंट में ही लगे हुए हैं। इसी क्रम में आज सभी अखबारों में केंद्र सरकार के 6.28 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की खबर लीड है। हमेशा की तरह ज्यादातर शीर्षक प्रचारात्मक हैं और किसी ने यह नहीं बताया है कि पहले के ऐसे पैकेज का क्या हुआ। या यह भी नहीं कहा गया है कि पहले के ऐसे पैकेज की सफलता से प्रेरित होकर अभी भी वही तरीका अपनाया जा रहा है। सबसे पहले सभी अखबारों के शीर्षक देख लीजिए।    

 

  1. हिन्दुस्तान टाइम्स  नए राहत बूस्टर का फोकस स्वास्थ्य और पर्यटन है। अखबार ने इसे प्रोत्साहन का नवीनतम दौर कहते हुए इसका विस्तार या विवरण दिया है।
  2. टाइम्स ऑफ इंडिया-वित्त मंत्री ने कोविड राहत योजना का विस्तार स्वास्थ्य और पर्यटन क्षेत्र में किया।
  3. इंडियन एक्सप्रेस – केंद्र ने दूसरी लहर का प्रेरक पेश किया, स्वास्थ्य और पर्यटन के लिए कर्ज राहत का विस्तार किया। 
  4. द हिन्दू-सरकार ने कोविड की दूसरी लहर के बाद 6.28 लाख करोड़ के प्रोत्साहन की घोषणा की।
  5. द टेलीग्राफ –फ्लैग हेडिंग है, केंद्र का प्रोत्साहन पैकेज सरकारी गारंटी पर केंद्रित कर बना है। मुख्य शीर्षक है, आंकड़ों की बाढ़ के लिए भ्रम परीक्षण 

 

सभी अखबारों ने सरकार की योजना का प्रचार किया है और यह संदेश चला गया कि सरकार कोशिश कर रही है। इस कोशिश के पीछे क्या ज्ञान और क्या अनुभव है यह न बताया गया, न पूछा गया। और तो और पहले के ऐसे पैकेज से नफा नुकसान की कोई चर्चा भी नहीं हुई। ऐसे में सिर्फ टेलीग्राफ की खबर सरकारी प्रचार से अलग, सच बता रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने मुख्य खबर के विस्तार में बताया है कि 23,000 करोड़ रुपए बच्चों की देखभाल और अस्पताल के बेड के लिए हैं। आर्थिक राहत में 1.1 लाख करोड़ की लोन गारंटी योजना है। स्वास्थ्य के मद में 50,000 करोड़ रुपए हैं। खबर के अनुसार इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम (ईसीएलजीएस) को 1.5 लाख करोड़ बढ़ाकर कुल 4.5 लाख करोड़ कर दिया गया है। इसके अलावा माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं के लिए क्रेडिट गारंटी योजना शुरू की गई है। पर्यटन के क्षेत्र में ट्रैवेल एजेंसियों के लिए 10 लाख तक के कर्ज की सुविधा है और 10.7 हजार टूरिस्ट गाइड को एक लाख का कर्ज मिलेगा। शुरू के पांच लाख पर्यटकों के लिए एक महीने का वीजा निशुल्क है। 

गरीबों को नवंबर तक मुफ्त अनाज की घोषणा पहले हो चुकी है उसे भी इसमें शामिल कर लिया गया है। निर्यात, संरचना से संबंधित कुछ योजनाएं ऐसी हैं कि उनका लाभ हासिल करना टेढ़ी खीर है। फिर भी यह दावा किया गया है और टाइम्स ऑफ इंडिया ने प्रधानमंत्री के इस दावे को प्रमुखता से प्रकाशित किया है कि वित्त मंत्री ने जिन उपायों की घोषणा की है उससे जन स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर होंगी …. मेडिकल इंफ्रा में निजी निवेश बढ़ेगा और मानव संसाधन बेहतर होगा। मुझे लगता है कि यह सब सामान्य स्थितियों में होता। यह समय ऐसा नहीं है कि लोग बाजार या काम के भरोसे के बिना भारी निवेश करेंगे। इस पूरी योजना में टूरिस्ट गाइड के लिए एक लाख का कर्ज सुनने में आसान लगता है पर वे भी यह कर्ज तभी ले पाएंगे जब पांच लाख पर्यटक वीजा शुल्क नहीं लगने का लाभ उठाएं और वाकई भारत घूमने चले आएं। पर अस्पतालों की कमी और ऑक्सीजन बिना मरते लोगों के लिए श्मशान की सुविधा भी पर्याप्त नहीं होने के बावजूद भारत घूमने कौन आना चाहेगा? और इसके बिना किस गाइड की हिम्मत होगी कि वह कर्ज ले जब लोग जानते हैं कि किस्त नहीं लौटाने पर मौत के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ऐसी हालत में कर्ज लेकर कोई क्यों मरेगा जबकि बिना कर्ज लिए भी सबसे बुरा मरना ही है। मुझे लगता है कि बाजार बनाने के लिए काम किया जाना चाहिए और अस्पताल बाजार नहीं है। 

भूखा मर रहा व्यक्ति छोटा कारोबार करके जिन्दा रहने की कोशिश कर सकता है और दूसरी सेवाओं का उपभोक्ता बन सकता है लेकिन अस्पताल खोल सकने वाला कोई व्यक्ति आज के समय में कर्ज लेकर अस्पताल खोलेगा इसकी संभावना मुझे बहुत कम लगती है। सरकार को कर्ज देने की नहीं, पहले बाजार बनाने की जरूरत है। और कर्ज पहले की तरह देने पर बात नहीं बनेगी। कर्ज की पहली जरूरत तो यही होगी कि वापसी दो-तीन साल बाद शुरू हो और ब्याज लेने की शुरुआत में भी कुछ मोहलत हो। उसके बिना कोई जोखिम नहीं लेगा। दूसरे, अपने देश में कारोबार करना बहुत मुश्किल है उसे आसान किए जाने की जरूरत है। लेकिन इतना समय निकल जाने के बावजूद ना तो सरकार इस दिशा में कुछ ठोस कर रही है और ना अखबार बता रहे हैं। इस लिहाज से द टेलीग्राफ की आज की रिपोर्ट में बताया गया है कि यह गए साल मई में पेश किए गए पैकेज की ही तरह है, इसका तीन चौथाई सरकार की गारंटी है और निर्यात से सुंदर तस्वीर दिखाने की कोशिश की गई है। सच्चाई यह है कि अर्थव्यवस्था पिछले एक साल में 7.3 प्रतिशत गिर गई है और सुधार के कोई संकेत नहीं हैं।   

 

राष्ट्रपति के वेतन पर कितना टैक्स

ऐसी ही खबरों में आज एक खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में है। वैसे तो यह खबर सोशल मीडिया पर कई दिनों से है और इस पर काफी कुछ कहालिखा जा चुका है। लेकिन टाइम्स ने आज इसे अपने पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर छापा है और खबर की शुरुआत ही है कि उन्होंने लोगों से अपील की कि विकास के काम को बढ़ावा देने के लिए टैक्स दें। सच्चाई यह है कि वेतनभोगियों का तो टैक्स कट ही जाता है और पहले जमा हो जाता है जबकि कारोबारियों को किए जाने वाले भुगतान से टीडीएस काटने का नियम है और उनका पैसा हिसाब देने (रिटर्न फाइल करने) के बाद वापस मिलता आता है। इस तरह कहा जा सकता है कि चोरी की गुंजाइश ही नहीं है। टैक्स लेना सरकार का काम है और वसूली के नियम बनाना तथा इसमें चोरी की गुंजाइश न हो यह सब देखना भी उसी का काम है। सच्चाई यह है कि सरकार अपने भ्रष्ट अफसरों (और नेताओं) को नियंत्रित करने की बजाय आम आदमी को परेशान करने वाले नियम बनाती है। राष्ट्रपति अगर निष्पक्ष हैं और जनहित की बात न करें तो उन्हें सरकार की वकालत करने की कोई जरूरत नहीं है। फिर भी राष्ट्रपति ने अगर कहा है कि उनके पांच लाख के वेतन में करीब 55 प्रतिशत टैक्स कट जाता है जबकि अधिकतम (टीओआई की इसी खबर के अनुसार) 42.7 प्रतिशत है तो वह स्पष्ट किया जाना चाहिए। राष्ट्रपति ने 55 प्रतिशत कैसे कहा इसे बताए बगैर ना खबर पूरी होती है ना राष्ट्रपति का कथित मकसद पूरा होगा। फिर भी खबर छपी है और राष्ट्रपति का पक्ष नहीं है। कई दिनों से नहीं आ रहा है और यह मजाक उड़ रहा है कि पहले राष्ट्रपति हैं जो वेतन की बात सार्वजनिक रूप से कर रहे हैं। यह भी कि राष्ट्रपति का वेतन टैक्स मुक्त होता है। लेकिन इसपर कोई स्पष्टीकरण ना सरकार की तरफ से, ना राष्ट्रपति की तरफ से और ना अखबारों की तरफ से है। फिर भी खबर पहले पन्ने पर है।  


अब ऐसी खबरें नहीं मिलतीं 

इंडियन एक्सप्रेस में आज एक खोजी खबर है, सार्वजनिक उपक्रमों के स्वतंत्र निदेशक कितने स्वतंत्र हैं, आधे भाजपा के हैं। इसके अनुसार 98 बीएसयू के बोर्ड में 172 स्वतंत्र निदेशक हैं और इनमें 86 के संबंध सत्तारूढ़ पार्टी से हैं। श्याम लाल यादव की इस खबर की शुरुआत उत्तर प्रदेश भाजपा के उपकोषाध्यक्ष मनीष कपूर से हुई है। वे 30 जनवरी 2020 से बीएचईएल के बोर्ड में हैं।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

   

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