जंगल खाली करने के SC के फैसले के खिलाफ 22 जुलाई को देशव्यापी आंदोलन

भूमि और वन अधिकार आंदोलनों का दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श सम्पन्न

नयी दिल्ली, 2 जुलाई 2019 : आज दिल्ली के असम असोसिएशन, क़ुतुब इंस्टीटयुशनल एरिया में भूमि अधिकार आंदोलन के बैनर तले दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श भूमि और वन अधिकार आन्दोलन और भविष्य की रणनीति संपन्न हुआ। सम्मेलन में देश भर के 12 राज्यों से 200 से ज्यादा प्रतिनिधियों ने हिस्सेदारी की।

सम्मेलन में आये वन अधिकार अधिनियम और इसके क्रियान्वयन के मुद्दों पर काम कर रहे आंदोलनों का मत था कि लाखों आदिवासी और अन्य परम्परागत जनजाति एक अस्तित्वगत संकट के कगार पर हैं क्योंकि 13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को आदेश दिया कि यदि वन अधिकार अधिनियम 2006 [एफआरए] के तहत वनवासियों के दावे खारिज किये गए हैं, तो वे उन्हें जंगल से बेदखल कर दिया जाये। हालांकि, अत्यधिक कोलाहल के बाद केंद्र सरकार अल्प निद्रा से जागृत हुआ और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने 23 फरवरी को अपने आदेश को संशोधित किया और 10 जुलाई 2019 तक के लिए माफी दे दी। यह स्पष्ट नहीं है कैसे दावों की अस्वीकृति को आधार मानते हुए बलपूर्वक बेदखली का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है। चूंकि, अधिनियम के अनुसार कोई भी समुदाय “स्वतंत्र वन्यजीव आवास” और निश्चित रूप से अन्य क्षेत्रों से नहीं, बिना उनके स्वतंत्र और सूचित सहमति के कानूनी रूप से बेदखल किया जा सकता है। यह भी ग़ौर करने की बात है की वनाधिकार क़ानून में ख़ारिज करने का कोई प्रावधान नहीं है ।

यह ध्यान दिया जाना है कि, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, जिसे वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) के रूप में भी जाना जाता है, भारत में पहली बार एक महत्वपूर्ण वन कानून, जो वन आश्रित समुदायों और अनुसूचित जन जातियों पर किये गए ऐतिहासिक अन्याय को मान्यता देता है। जमीनी स्तर पर होने वाले प्रयासों, वन आश्रित समुदायों के देशव्यापी संघर्ष और अन्य नागरिक अधिकारों के कानून के दायरे में आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों के लिए जगह बनाने वाले इस ऐतिहासिक कानून को बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। भारत में वनवासियों के रूप में वर्गीकृत अधिकांश लोग अनुसूचित जनजाति (एसटी), गैर-अनुसूचित आदिवासी, दलित और कमजोर प्रवासियों जैसे अन्य गरीब समुदाय हैं, जो व्यावसायिक रूप से निर्वाह योग्य कृषक, पशुचारण समुदाय, मछुआरे और वन उपज इकट्ठा करने वाले, जो आजीविका के संसाधन के लिए भूमि और वन पर निर्भर हैं। महिलाओं को एफआरए के दायरे में समान अधिकार सुनिश्चित किया गया है। इस वास्तविकता के साथ, भारत में कई वन निवास समुदायों का मानना ​​है कि जैव-विविधता वाले जंगल बेहतर रूप से बच गए हैं जहां समुदाय अपनी प्रथागत प्रथाओं के साथ जंगलों के साथ घनिष्ठ संपर्क में हैं,  राज्य ने समुदायों को विस्थापित किया है, जो जैव विविधता को प्रभावित करते हैं और अपनी आजीविका के स्रोत के रूप में  हैं। अपने घोषणापत्र में सरकार द्वारा किए गए सभी वादों में से, सबसे मुखर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत गारंटी के रूप में वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करना था। हालांकि, आज तक, बहुत कम समुदायों को उनके उचित अधिकार दिए गए हैं और अभी भी बेदखली, खतरों, हिंसा का सामना कर रहे हैं और वन विभाग और सामंती ताकतों के आतंक के अधीन हैं।

वन अधिकार अधिनियम और इसके क्रियान्वयन के मुद्दों पर काम कर रहे आंदोलनों का दृढ़ता से मानना है कि वर्तमान स्थिति, प्रासंगिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए व् विभिन्न रणनीतियों को समझने और तैयार करने के लिए विस्तृत तौर पर जायज़ा लेने की आवश्यकता है। सरकार निरंतर भारतीय वन अधिनियम के भीतर नए संसोधनो पर जोर दे रही है, इस विशेष मोड़ पर वन अधिकार आंदोलन अलगाव में काम नहीं कर सकता है और इसलिए अन्य संघर्षों के साथ गठबंधन की आवश्यकता है।

दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श से उभरे कुछ मुख्य बिंदु

यह दो दिवसीय परामर्श, उच्चतम न्यायालय के फ़रवरी माह के फ़ैसले, जिससे आदिवासियों के ऊपर तात्कालिक उजाड़े जाने का ख़तरा और पूरी तरह से वनाधिकार क़ानून को निरस्त करने की कोशिश के परिप्रेक्ष में आयोजित की गयी । इसी दौरान भारतीय वन क़ानून 1927 में प्रस्तावित संसोधन से उस प्रयास को और बल मिला है और दुबारा वन विभाग का पूरा क़ब्ज़ा वनों और वहाँ रहने वालों के ऊपर करने की कोशिश तेज़ हो गयी है ।

विमर्श का तात्कालिक परिप्रेक्ष तो यह है, लेकिन वृहद तौर पर यह बात उभर कर आयी की, आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पूँजी की पूरी ताक़त भारतीय सत्ता पक्ष के ऊपर है, जिसका विभत्स चेहरा अभी हुए आम चुनावों में देखने को मिला ।

आने वाले दिनों में जल, जंगल, ज़मीन, और खनीज़ संसाधन पर कोरपोरेटी हमले और तेज़ होंगे। सरकार भूमिहीनों और मेहनतकश लोगों को भूमि सुधार के तहत ज़मीन ना देकर कपनियों को देने की पूरी कोशिश कर रहा है ।  सरकार का पूरा ध्यान जनता के हाथों से सम्पदा को छीन कर पूँजीपतियों के हवाले करना है, औद्योगिक गलियारे, सागरमाला, भारतमाला, बुलिट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, बड़े बंदरगाह, इक्स्प्रेस्वे, हाइवे आदि कुछ उदाहरण हैं जिनके नाम पर सतत फ़ायदा पूँजीवादी वर्गों को पहुँचाने के लिए जो भी उपाय चाहिए वह लागू कर रहे हैं। संसद में एक मज़बूत विपक्ष की अनुपस्तिथि में जन संघर्षों के सामने आज कड़ी चुनौती है । सड़क पर संघर्ष, और माँगों की राजनीति से आगे बढ़कर इस बात की ज़रूरत है की कैसे हम एक नयी जन  चेतना पैदा करें जो बढ़ते फ़ासिवाद और पूँजीवाद से मुक़ाबला कर सके। आज हमारे सामने भूख, भय और भ्रम से लड़ने की और जनतंत्र को बचाने की चुनौती है, जिसे जन आंदोलनों को स्वीकार करना होगा।

 कुछ महत्वपूर्ण बातें, और प्रस्ताव जो चर्चा में से उभर कर आए वह निम्न है :

  1. सदन भारतीय वन क़ानून 1927 में प्रस्तावित संशोधन को पूरी तरह नकारता है और यह माँग करता है की वनाधिकार क़ानून को पूरी तरह से प्रभावी क्रियान्वयन की ज़रूरत है। सालों से संघर्ष के दौरान आंदोलनों ने वन अधिनियम 1927 में बदलाव की माँग की है और इसके लिए सदन में मौजूद संगठन क़ानून का नया मसौदा तैयार करेंगे ।
  2. सरकार यह समझ चुकी है की, ग्राम सभा इस देश में सबसे मज़बूत और सबसे कारगर हथियार समुदायों के हाथ में है और इसलिए हरेक संशोधन और अध्यदेशों में एक सुनियोजित तरीक़े से उसकी शक्ति ख़त्म करने की कोशिश जारी है। हमें ग्राम सभा को और मज़बूत करने के लिए तैयारी करनी होगी । यह बात अभी बस्तर में हुए अदानी के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष में खुल कर सामने आयी ।
  3. देश के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के ऊपर आज जो ख़तरा है उसमें सबसे बड़ा है सरकारी हिंसा का, क्योंकि केरल से लेकर, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, और कई अन्य राज्यों में जंगल में वनाधिकार क़ानून को लेकर अपनी लड़ाई करने वालों को माओवादी के नाम पर गिरफ़्तार किया जा रहा है, और परेशान किया जा रहा है। सदन ने देश के कई जेलों में बंद साथियों के संघर्ष को सलाम किया और सरकारी दामन की भर्त्सना की ।
  4. पूरे देश में सोची समझी रणनीति के तहत वनाधिकार क़ानूनों के दावे कई तरीक़ों से निरस्त किए गए है, कहीं तो पूरी तरह क़ानून को माना ही नहीं गया है और हालात यह है की आज भी देश के करोड़ों आदिवासी और वनवासी परिवार भूमिहीन और संपदाविहीन हैं।
  5. 1996 से जंगल मद में दर्ज ज़मीनों को लेकर चल रही पृथक पृथक समानांतर कार्रवायीयों के कारण भ्रम की जो स्थिति पैदा हो गयी है उसको लेकर भी सरकार और न्यायलय की ओर से स्पष्टता की ज़रूरत है ।

प्रस्तावित भावी कार्यक्रम और योजनाएँ :

  1. उच्चतम न्यायलय में २४ जुलाई की सुनवाई के पहले देश भर में गाँव, जंगल, ब्लाक, ज़िला और राज्य स्तर पर २२ जुलाई को संघर्ष के कार्यक्रम आयोजित करेंगे और अपने वनाधिकार के दावे दाख़िल करेंगे ।
  2. देश के सभी मुख्य मंत्रियों से मिल कर या फिर चिट्ठी के माध्यम से SC में वनाधिकार क़ानून और आदिवासी के हक़ों के पक्ष में अपनी बात रखें की अपील की जाएगी ।
  3. उच्चतम न्यायलय में चल रहे केस में जन आंदोलनों के साथी क़ानूनी तौर पर अपना पक्ष रखेंगे ।
  4. देश भर में चल रहे ज़मीनी संघर्षों को सीधा समर्थन देने के लिए अन्य राज्यों के साथी समर्थन कार्यकर्मों में जाएँगे ।
  5. संसद में पक्ष या विपक्ष के ST/SC और प्रगतिशील सोच वाले सांसदों के साथ संवाद स्थापित करके उन्हें FRA और अन्य क़ानूनों के बारे जानकारी और अपनी सोच बतायी जाए।
  6. संसाधनों की लूट के नए नए हथकंडों, क़ानूनों में बदलाव और अन्य मुद्दों के ऊपर निगरानी रखने वाली एक समिति बनेगी जो सामान्य भाषा में ज़मीनी आंदोलनों तक अपनी बात पहुँचाएँगे ।
  7. अगले २८ नवम्बर को दिल्ली में देश भर के सभी संगठन मिल कर वन और भूमि अधिकारों के मुद्दों पर एक संयुक्त प्रदर्शन करेंगे ।

सम्मेलन में ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्टि वर्किंग पीपॅल (एआइयूएफडब्लूजपी), जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वाय (एनएपीएम), आदिवासी अधिकार मंच, अखिल भारतीय किसान सभा (कैनिंग लेन), अखिल भारतीय किसान महासभा, शोषित जन आंदोलन, सर्वहरा जन आंदोलन, भारत जन आंदोलन, जिंदाबाद संगठन, काश्तकारी संगठन, आदिवासी ऐक़या वेदिके (केरल), लोक मुक्ति संगठन, सर्व आदिवासी समाज, दंतेवाडा, ट्राइबल फाउंडेशन ऑफ़ छत्तीसगढ़, बेगा ट्राइबल डवलपमेंट कवर्धा, गोंड महासभा छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड मजदूर किसान शक्ति संगठन, सहरिया जन अधिकार मंच, दिल्ली समर्थक समूह, जन मुक्ति वाहनी, विकल्प, नदी घाटी मोर्चा, सहेली, एस जे एस एम, दलित अधिकार मंच, हिमधारा, पथा दलित अधिकार मंच एवं अन्य संगठनों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की।

सादर,
कॉमरेड जितेन्द्र चौधरी, आदिवासी अधिकार मंच, कॉमरेड हन्नान मोल्लाह  प्रेम सिंह, भूमि अधिकार आन्दोलन, रोमा, अशोक चौधरी ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल, मधुरेश कुमार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, श्वेता, संजीव कुमार, अनिल वर्गीज दिल्ली समर्थक समूह।


प्रेस विज्ञप्ति : भूमि अधिकार आन्दोलन दारा जारी 

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