किसानों को बड़े कॉरपोरेट की इच्छा का ग़ुलाम बनाने वाले कृषि सुधार बिल पास कराने के दो दिन बाद यानी 22 सितंबर कोमोदी सरकार ने मज़दूरों और मज़दूरी से जुड़े तीन क़ानूनों को लोकसभा से पास करा लिया। विपक्ष के भारी विरोध को दरकिनार करते हुए सरकार ने श्रम क्षेत्र में ‘सुधार’ का दावा करते सामाजिक सुरक्षा बिल 2020, आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता बिल 2020 और औद्योगिक संबंध संहिता बिल 2020 पास करा लिया। कृषि सुधार बिल के अनुभव को देखते हुए राज्यसभा में किसी न किसी दाँव से इन्हें पास करा ही लिया जायेगा। वैसे भी विपक्ष ने राज्यसभा की कार्यवाही के बहिष्कार का ऐलान किया हुआ है।
यह सदियों के संघर्ष के बाद मज़दूरों को मिले अधिकारों पर तगड़ा प्रहार है। काम के घंटे से लेकर सेवा सुरक्षा जैसी तमाम बातें जल्दी ही अतीत की बात हो जाएगी। यानी किसी को भी नौकरी से निकाल देना अब पूँजीपतियों के बायें हाथ का खेल होगा। काम होगा भी तो सिर पर नौकरी से बेदख़ली की तलवार लटकती रहेगी।
कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने इसे लॉकडाउन की मार से त्राहि-त्राहि कर रहे मज़दूरों पर एक और प्रहार बताा है। वहीं मज़दार संघों ने आरोप लगाया है कि विधेयक के वर्तमान स्वरूप में उनका कोई सुझाव सार्थक रूप से शामिल नहीं किया गया है। साथ ही यह असंगठित क्षेत्र के बड़े हिस्सोंऔर कमज़ोर समूहों को सामाजिक सुरक्षा देने में बुरी तरह विफल रहा है। ख़ास बात ये है कि विपक्ष में रहते हुए बीजेपी ऐसे किसी भी प्रयास का विरोध करती थी और आज भी आरएसएस से जुड़ा मज़ूदर संगठन इसका विरोध कर रहा है। लेकिन शायद मोदी को अच्छी तरह पता है कि यह विरोध महज़ नाटक है। कृषि सुधार बिलों को लेकर भी उनका यही रुख रहा जब संघ के किसान संगठन ने विरोध किया था। बहुमत संदिग्ध होने के बावजूद ध्वनि मत से बिल पास कराने की जुगत भिड़ा ली गयी।
बहरहाल, बीजेपी का मज़दूर विरोधी रुख पूरी तरह साफ़ हो चुका है। अटल बिहारी वाजपेयी ने पेंशन ख़त्म की थी तो मोदी श्रम क़ानूनों के तहत मिली हुई तमाम सुरक्षा को अलविदा कहने में जुटे हुए हैं।
लेकिन क्या मज़दूर वर्ग पर कोई अहसान था, श्रम कानून और उससे मिली सुरक्षा। इसके लिए मज़दूरों ने लंबा संघर्ष किया। आज उस संघर्ष को याद करने का दिन है ताकि समझा जा सके कि कितनी बड़ी चोट मज़दूर वर्ग पर मोदी सरकार ने की है।
मुसोलिनी फ़ासीवाद को कारपोरेट और सरकार को जोड़ बताता था। मोदी सरकार इसे साबित कर रही है।
सभ्यता की कसौटी एक ऐसा जीवन है जिसमें सबको काम, आराम और मनोरंजन हासिल हो। लेकिन इस सिद्धांत को उन्होंने कभी नहीं माना जो मज़दूरों के श्रम के शोषण पर अपना साम्राज्य खड़ा करते रहे हैं। इस सिलसिले में जो भी उपलब्धियाँ हासिल हुईं, उसके लिए तमाम क़ुर्बानियाँ देनी पड़ीं। ‘मई दिवस’ इस संघर्ष का सबसे चमकता प्रतीक है जब मानवीय गरिमा के साथ जीने के लिए मज़दूरों ने अपने झंडे को अपने ही ख़ून से लाल कर दिया था। यह घटना अमेरिका के शिकागो शहर में घटी थी, 1886 में। मज़दूरों के इस संघर्ष के कारण ही पूँजीवाद ने ‘कल्याणकारी राज्य’ की की बात करनी शुरू की थी। लेकिन 134 साल बाद आज पूरी दुनिया में मज़दूरों की उन तमाम उपलब्धियों को नष्ट करने का षड़यंत्र हो रहा है। कभी ‘श्रम सुधार’ के नाम पर तो कभी ‘न्यू इंडिया’ के जुमले के साथ भारत का शासकवर्ग भी ज़ोर-शोर से शोषकवर्ग के साथ पूरी बेशर्मी के साथ खड़ा है। मज़दूरों की आवाज़ पूरी तरह ग़ायब है। मीडिया की नज़र में मज़दूरों और उनके हक़ की बात करना ‘अपराध’ है।
नीचे पढ़ें मई दिवस की पूरी दास्तान ताकि समझा जा सके कि ख़तरा क्या और किससे है..!
मज़दूरों का त्योहार मई दिवस आठ घण्टे काम के दिन के लिए मज़दूरों के शानदार आन्दोलन से पैदा हुआ। उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर सोलह-अठारह घण्टे तक खटते थे। कई देशों में काम के घण्टों का कोई नियम ही नहीं था। ”सूरज उगने से लेकर रात होने तक” मज़दूर कारख़ानों में काम करते थे। दुनियाभर में अलग-अलग जगह इस माँग को लेकर आन्दोलन होते रहे थे। भारत में भी 1862 में ही मज़दूरों ने इस माँग को लेकर कामबन्दी की थी। लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई।
एक मई 1886 को पूरे अमेरिका के लाखों मज़दूरों ने एक साथ हड़ताल शुरू की। इसमें 11,000 फ़ैक्टरियों के कम से कम तीन लाख अस्सी हज़ार मज़दूर शामिल थे। शिकागो महानगर के आसपास सारा रेल यातायात ठप्प हो गया और शिकागो के ज्यादातर कारख़ाने और वर्कशाप बन्द हो गये। शहर के मुख्य मार्ग मिशिगन एवेन्यू पर अल्बर्ट पार्सन्स के नेतृत्व में मज़दूरों ने एक शानदार जुलूस निकाला।
मज़दूरों की बढ़ती ताक़त और उनके नेताओं के अडिग संकल्प से भयभीत उद्योगपति लगातार उन पर हमला करने की घात में थे। सारे के सारे अख़बार (जिनके मालिक पूँजीपति थे।) ”लाल ख़तरे” के बारे में चिल्ल-पों मचा रहे थे। पूँजीपतियों ने आसपास से भी पुलिस के सिपाही और सुरक्षाकर्मियों को बुला रखा था। इसके अलावा कुख्यात पिंकरटन एजेंसी के गुण्डों को भी हथियारों से लैस करके मज़दूरों पर हमला करने के लिए तैयार रखा गया था। पूँजीपतियों ने इसे ”आपात स्थिति” घोषित कर दिया था। शहर के तमाम धन्नासेठों और व्यापारियों की बैठक लगातार चल रही थी जिसमें इस ”ख़तरनाक स्थिति” से निपटने पर विचार किया जा रहा था।
मीटिंग रात आठ बजे शुरू हुई। क़रीब तीन हज़ार लोगों के बीच पार्सन्स और स्पाइस ने मज़दूरों का आह्वान किया कि वे एकजुट और संगठित रहकर पुलिस दमन का मुक़ाबला करें। तीसरे वक्ता सैमुअल फ़ील्डेन बोलने के लिए जब खड़े हुए तो रात के दस बज रहे थे और ज़ोरों की बारिश शुरू हो गयी थी। इस समय तक स्पाइस और पार्सन्स अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ वहाँ से जा चुके थे। इस समय तक भीड़ बहुत कम हो चुकी थी — कुछ सौ लोग ही रह गये थे। मीटिंग क़रीब-क़रीब ख़त्म हो चुकी थी कि 180 पुलिसवालों का एक जत्था धड़धड़ाते हुए हे मार्केट चौक में आ पहुँचा। उसकी अगुवाई कैप्टन बॉनफ़ील्ड कर रहा था जिससे शिकागो के नागरिक उसके क्रूर और बेहूदे स्वभाव के कारण नफ़रत करते थे। मीटिंग में शामिल लोगों को चले जाने का हुक्म दिया गया। सैमुअल फ़ील्डेन पुलिसवालों को यह बताने की कोशिश ही कर रहे थे कि यह शान्तिपूर्ण सभा है, कि इसी बीच किसी ने मानो इशारा पाकर एक बम फेंक दिया। आज तक बम फेंकने वाले का पता नहीं चल पाया है। यह माना जाता है कि बम फेंकने वाला पुलिस का भाड़े का टट्टू था। स्पष्ट था कि बम का निशाना मज़दूर थे लेकिन पुलिस चारों और फैल गयी थी और नतीजतन बम का प्रहार पुलिसवालों पर हुआ। एक मारा गया और पाँच घायल हुए। पगलाये पुलिसवालों ने चौक को चारों ओर से घेरकर भीड़ पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। जिसने भी भागने की कोशिश की उस पर गोलियाँ और लाठियाँ बरसायी गयीं। छ: मज़दूर मारे गये और 200 से ज्यादा जख्मी हुए। मज़दूरों ने अपने ख़ून से अपने कपड़े रँगकर उन्हें ही झण्डा बना लिया।
इस घटना के बाद पूरे शिकागो में पुलिस ने मज़दूर बस्तियों, मज़दूर संगठनों के दफ्तरों, छापाख़ानों आदि में ज़बरदस्त छापे डाले। प्रमाण जुटाने के
पूँजीवादी न्याय के लम्बे नाटक के बाद 20 अगस्त 1887 को शिकागो की अदालत ने अपना फ़ैसला दिया। सात लोगों को सज़ा-ए-मौत और एक (नीबे) को पन्द्रह साल क़ैद बामशक्कत की सज़ा दी गयी। स्पाइस ने अदालत में चिल्लाकर कहा था कि ”अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटकाकर तुम मज़दूर आन्दोलन को… ग़रीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करनेवाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर यही तुम्हारी राय है – तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। लेकिन याद रखो… आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो लेकिन यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।”
सारे अमेरिका और तमाम दूसरे देशों में इस क्रूर फ़ैसले के ख़िलाफ़ भड़क उठे जनता के ग़ुस्से के दबाव में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो अपील मानने से इन्कार कर दिया लेकिन बाद में इलिनाय प्रान्त के गर्वनर ने फ़ील्डेन और श्वाब की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया। 10 नवम्बर 1887 को सबसे कम उम्र के नेता लुइस लिंग्ग ने कालकोठरी में आत्महत्या कर ली।
13 नवम्बर को चारों मज़दूर नेताओं की शवयात्रा शिकागो के मज़दूरों की एक विशाल रैली में बदल गयी। पाँच लाख से भी ज्यादा लोग इन नायकों
तब से गुज़रे 131 सालों में अनगिनत संघर्षों में बहा करोड़ों मज़दूरों का ख़ून इतनी आसानी से धरती में जज्ब नहीं होगा। फाँसी के तख्ते से गूँजती स्पाइस की पुकार पूँजीपतियों के दिलों में ख़ौफ़ पैदा करती रहेगी। अनगिनत मज़दूरों के ख़ून की आभा से चमकता लाल झण्डा हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहेगा।
( मई दिवस की यह कहानी मज़दूर बिगुल से साभार प्रकाशित। )