भारत में कम्युनिस्टों के लिए इतने ख़राब दिन शायद ही कभी रहे हों। सिर्फ़ चुनावी सफलता या प्रभावक्षेत्र को लेकर ऐसा नहीं कहा जा रहा है, सवाल क्रांति के विचार और कम्युनिस्ट पार्टियों की प्रासंगिकता पर उठाए जा रहे हैं। इस सबके बीच मशहूर चिंतक कांचा इल्लैया ने इंडियन एक्स्प्रेस में एक लेख लिखकर मार्क्स और अंबेडकर की साझेदारी को मुक्ति का रास्ता बताया है। उनकी निगाह में यह बहुजन लेफ्ट फ्रंट देश की तमाम समस्याओं का निदान कर सकता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक और हिंदी के आलोचक संजीव कुमार ने इसका सार संक्षेप पेश किया है। इसे पढ़िए और अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए सबसे अंत में लिंक भी है-संपादक
सीपीआई(एम) की 22वीं कांग्रेस के उद्घाटन सत्र में बतौर अतिथि भागीदारी करने के बाद कांचा इलैया शेफ़र्ड ने 24 अप्रैल को एक्सप्रेस में जो लेख लिखा, उसे पढ़ना सुखद रूप से आश्चर्यजनक था. मेरा अभी तक का अनुभव यह था कि जिस तरह प्रताप भानु मेहता से लेकर अपूर्वानंद तक, सभी उदार बुद्धिजीवी कुछ भी लिखते हुए कम्युनिस्टों को दो-चार चपत लगाना ज़रूरी समझते हैं, वैसा ही कांचा इलैया के साथ भी है. आज के लेख में वे लिखते हैं:
“2004 में कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आर्थिक और राजनैतिक नीतियों को प्रभावित किया. इसके कारण मनरेगा और सूचना का अधिकार क़ानून लागू हो पाए. मेरी दृष्टि में कम्युनिस्ट पार्टियों के समर्थन से काम करनेवाली पहली यूपीए सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ख़ासा बेहतर बनाया. किसी भी सरकार में कम्युनिस्ट हों तो व्यक्तिगत और सांस्थानिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकता है. प. बंगाल के अपने 34 साल के शासन में, त्रिपुरा के अपने 25 साल के शासन में और केरल में 1956 से समय-समय पर गठबंधन सरकार चलाने के दौरान उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं रहा है (अंग्रेज़ी में है: they did not leave any record of corruption).”
सीपीआई(एम) की आलोचना उनकी ओर से यह है कि “वे अभी भी इस सिद्धांत को पकड़े बैठे हैं कि संसदीय मार्ग सिर्फ कार्यनीतिक (tactical) है, जबकि क्रांति का रास्ता रणनीतिक (strategic) है. यह [नज़रिया] कांग्रेस और भाजपा के लिए पर्याप्त जगह मुहैया कराता है कि वे दिल्ली में शासक पार्टी के के तौर पर कायम रहें.”
कांचा इलैया लोककल्याणकारी नीतियों के साथ संसदीय मार्ग को सैद्धांतिक स्तर पर अपनाने का सुझाव देते हैं और मानते हैं कि “मार्क्सवादी ज़्यादा पढ़े-लिखे हैं और दूसरे राजनीतिज्ञों के मुकाबले लिखने में अधिक प्रशिक्षित हैं. लिहाज़ा, अगर वे केंद्र में प्रभावशाली जगह पर हों, तो लोककल्याणवाद के वैश्विक रुझानों के अपने ज्ञान को उपयोग में ला सकते हैं. वे यह काम कांग्रेस से बेहतर कर सकते हैं. भाजपा से तो कोई तुलना ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि वैश्विक व्यवस्थाओं की जानकारी तक उसकी पहुँच ही नहीं है.”
और “कम्युनिस्टों में यह क्षमता है कि नए सिद्धांत और व्यवहार की रचना करते हुए जाति के उन्मूलन और वर्गीय ग़ैर-बराबरी के ख़ात्मे की प्रक्रिया को अंजाम दें. मेरी दृष्टि में जाति की भारतीय विशिष्टता और वर्गीय क्रांति तथा ‘शुद्ध समाजवाद’ के वैश्विक स्तर पर कमज़ोर पड़ते जाने के मद्देनज़र यही सबसे ठीक रास्ता है.”
संसदवादी समझ को लेकर बहस तो होती रहेगी, फिलहाल पूरे लेख को पढ़ने के लिए नीचे क्लिक करें–
Notes from the CPM congress