कृष्ण प्रताप सिंह
साफ है कि मीडिया, खासकर हिन्दी मीडिया, इन दो दिनों में ही न सिर्फ अपनी 1990-92 की भूमिका में उतर गया बल्कि उसे प्राण-प्रण से दोहराने लगा है। उसके इस दोहराव में कोई अंतर आया है तो सिर्फ इतना कि 90-92 में प्रिंट मीडिया का प्रभुत्व था, जबकि अब इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उसे पीछे धकेलकर उसका ‘हिन्दू’ पत्रकारिता का अलम उससे छीन लिया है। खुद को राममन्दिर आन्दोलन का अघोषित प्रवक्ता तो बना ही लिया है। ये चैनल, यकीनन, भ्रम गहरा करने के लिए लोगों से यह सवाल तो पूछते हैं कि आप अयोध्या में मन्दिर निर्माण के पक्ष में हैं या नहीं, लेकिन किसी से भूल कर भी नहीं पूछते कि ‘वहीं’ मन्दिर निर्माण की जिद का क्या अर्थ है? और क्या इस निर्माण के लिए वह देश के कानून, संविधान और सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा की बलि भी चाहता है? उसे देश में लोकतंत्र, भाईचारा और अमन चैन भी चाहिए या नहीं? विहिप कहती रही कि वह इसके लिए अयोध्या की धर्मसभा में तीन लाख लोगों को जुटा रही है और वे इसका प्रचार भी करते रहे लेकिन उससे इतना भी नहीं पूछा कि उसके अपेक्षाकृत छोटे सभास्थल में ये इतने लाख लोग समायेंगे कैसे?
बहरहाल, अयोध्या प्राइम टाइम का ज्यादातर वक्त राममन्दिर विवाद को समर्पित करने के उनके लक्ष्य में सहायक सिद्ध होने को तैयार नहीं है। धीरे-धीरे करके ही सही आम अयोध्यावासी इस विवाद की व्यर्थता को समझने लगे हैं और अपनी ओर से किसी अन्देशे को हवा नहीं देना चाहते। अयोध्या के इर्द-गिर्द के गांवों के किसान व मजदूर खाद, बीज, डीजल, बिजली व नहरों में पानी की उपलब्धता और गन्ना व धान बिक्री से जुड़ी अपनी समस्याओं से जूझने से ही फुरसत नहीं पा रहे जबकि भाजपा सरकारों की अनेक वादाखिलाफियों से दुःखी मध्यवर्ग ने भी निर्लिप्तता की चादर ओढ़ ली है। इससे अयोध्या इन चैनलों के लिहाज से पहले जितनी खबर-उर्वर या न्यूजफ्रेंडली रह ही नहीं गई है। इस कारण और भी कि चूंकि ‘दूसरे’ पक्ष ने अपनी नियति स्वीकार कर सारे प्रतिरोधों से हाथ खींच लिये हैं, इसलिए कहीं कोई ‘टकराव’ नहीं दिखता।
कई बुजुर्ग, शिवसैनिकों व विहिप कार्यकर्ताओं को इंगितकर, कहते हैं कि ये जो राममन्दिर का नाम लेकर ‘फेंकरने’ वाले लोग वादाखिलाफ प्रधानमंत्री के कार्यालय के बाहर ‘फेंकरने’ के बजाय चुनाव निकट देख यहां फेंकरने आ गये हैं, उनका इलाज यही है कि उन्हें भरपूर फेंकरने और थक जाने देना चाहिए। बुजुर्ग यह भी समझाते हैं कि कैसे मीडिया ने दुरभिसंधिपूर्वक इस विवाद को पहले ‘बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद’ से ‘रामजन्मभूमि/ बाबरी मस्जिद विवाद’ बनाया और कैसे अब न्यूज चैनल अपने ‘अयोध्या से लाइव’ कार्यक्रमों में ‘राममन्दिर विवाद’ बताने लगे हैं। इसलिए जागरूक व सचेत नागरिक तो उनके ऐसे ‘लाइव’ कार्यक्रमों से सायास परहेज बरतने लगे हैं।
इन चैनलों द्वारा इस हेतु सम्पर्क किये जाने पर कई जागरूक नागरिक यह पूछने से भी संकोच नहीं करते कि जब उन्होंने अपना पक्ष पहले से तय कर रखा है तो उनके द्वारा इस सिलसिले में कराई जाने वाली किसी भी बहस का क्या मतलब है? स्थानीय दैनिक ‘जनमोर्चा’ के सम्पादक शीतला सिंह तो इन चैनलों के प्रतिनिधियों से दो टूक पूछ लेते हैं कि मैं आपकी स्वार्थसाधना का हिस्सा बनने आपके कार्यक्रम में क्यों चलूं? ऐसे में ये चैनल स्थानीय लोगों के असहयोग की भरपाई इस तरह कर रहे हैं कि तीर्थयात्रियों को जमाकर लेते और उन्हें ही अयोध्यावासी बताते रहते हैं। हां, अपने अहर्निश प्रयासों से वे ऐसे लोगों की एक जमात पैदा करने में सफल रहे हैं जो टीवी पर दिखने के लालच में कैमरे के सामने कुछ भी बोल देने या कैसे भी ऊल-जलूल नारे लगाने को तैयार हो जाती है।
चूंकि इस जमात के बूते चैनलों का काम भरपूर चल निकला है इसलिए जमीनी हकीकत की उन्हें परवाह नहीं है। उन्हें यह भी नहीं दिखता कि अयोध्या में यह पहली बार हुआ है कि विहिप के मुकाबले शिवसेना बाजी मार ले गयी है-आक्रामकता में भी और प्रचार में भी। अयोध्या और उसके जुड़वा शहर फैजाबाद में प्रायः हर प्रमुख जगह पर लगे शिवसेना के ‘पहले मन्दिर, फिर सरकार’ के होर्डिंगों ने विहिप की ‘धर्मसभा’ की चमक छीन ली है। शिवसेना के मैनेजरों द्वारा विहिप के किले में सेंधमारी की कोशिशें भी सफल होती दिखती हैं। पिछले दिनों एक चैनल पर शिवसेना के प्रतिनिधि ने यह कहकर भाजपा के स्थानीय सांसद लल्लू सिंह की तीखी आलोचना शुरू की तो उसे यह कहकर रोक दिया गया कि किसी जनप्रतिनिधि का नाम इस तरह कैसे ले सकते हैं। जैसे कि उसने कोई गम्भीर अपराध कर दिया हो।
उन खौफों और अंदेशों को तो खैर प्रिंट मीडिया भी नहीं ही देख रहा, इस अंचल के रोज कुआँ खोदने व पानी पीने वाले निम्न आय वर्ग के लोग जिनके शिकार हैं। वे 1990 और 92 के दूध के जले हुए हैं, इसलिए उन्हें न प्रशासन की भरपूर बताई जा रही सुरक्षा व्यवस्था के छाछ पर एतबार हो पा रहा है, न शिवसैनिकों व विहिप के कार्यकर्ताओं की ‘सदाशयता’ पर। किसी अनहोनी के डर से वे अपने सामर्थ्य भर खाने-पीने व आवश्यक उपभोग की चीजें अपने घरों में जमा कर ले रहे हैं। लेकिन सबसे बुरा हाल उनका है, जिनके घरों में इस बीच शादियां या कोई अन्य समारोह है। एक शादी वाले घर के मुखिया ने इन पंक्तियों के लेखक से पूछा कि वह सैकड़ों मेहमानों के लिए खाना पकवा ले और अचानक कर्फ़्यूु लग जाये तो क्या होगा? बाहर से आने वाली बारात शहर में कैसे प्रवेश पायेगी? बढ़ती असुरक्षा के बीच अयोध्या में कार्तिक पूर्णिमा का मेला भी खासा फीका रहा। बड़ी संख्या में मेलार्थी आये ही नहीं।
इससे पहले बाबरी मस्जिद के पक्षकार इकबाल अंसारी ने, जो मरहूम हाशिम अंसारी के बेटे भी हैं। उन्होंने कहा कि असुरक्षा ऐसी ही रही तो वे अयोध्या छोड़कर चले जायेंगे तो मीडिया ने उनकी तकलीफ को ज्यादा कान नहीं दिया, लेकिन मन्दिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग पर उनका बयान आया तो उसका अनर्थ करके हाथों-हाथ लपक लिया। दरअस्ल, इकबाल ने कहा यह था कि वे कानून बना सकते हैं तो बना लें। हम तो कानून के पाबन्द नागरिक हैं, जो भी कानून बन जायेगा, उसका पालन करेंगे, और नहीं कर सकते तो उपयुक्त मंच पर फरियाद करेंगे। लेकिन हिन्दी के अखबारों और न्यूज चैनलों ने इसे इस तरह पेश किया कि जैसे वे अपना दावा छोड़कर मन्दिर निर्माण के लिए कानून का समर्थन कर रहे हों। इस सबसे समझा जा सकता है कि वे लोग कितने गलत थे, जो मनमोहन के राज में कहें या भाजपा व विहिप के पराभव के दिनों में, कहने लगे थे कि भारत 1990-92 के साम्प्रदायिक जुनून के दौर से बहुत आगे निकल आया है और अब जाति व धर्म की संकीर्णताओं के लिए अपने पंजे व डैने फड़फड़ाना बहुत मुश्किल होगा।
कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या के वरिष्ठ पत्रकार और वहाँ से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा के संपादक हैं।