इलाहाबाद को प्रयागराज करने का मसला अब हाईकोर्ट पहुँच गया है। याचिकाकर्ता वकील, मीडिया विजिल में छप रही मुंबई निवासी, इलाहाबादी कवि बोधिसत्व की इस संदर्भ में छप रही शृंखला का भी हवाला दे रहे हैं। बोधिसत्व ऐतिहासिक, पौराणिक, सांस्कृतिक प्रमाणों के आधार पर बार-बार बता रहे हैं कि प्रयाग ऐसा कोई प्राचीन नगर नहीं था, जिसका नाम अकबर ने बदला। अकबर ने संगम पर एक एक किला और दो बाँध बनाकर एक नए नगर की नींव डाली थी जिसे पहले इलावास और बाद में इलाहाबाद कहा जाने लगा। बहरहाल, बहस जारी है। इस सिलसिले में मीडिया विजिल में छप रहे अपने इस सातवें लेख में बोधिसत्व ने सप्तपुरियों में प्रयाग के न होने का सवाल उठाया है। साथ ही बता रहे हैं कि क्यों प्रयाग तीर्थ है न कि नगर और तीर्थ वन में भी हो सकता है। पढ़िये एक कवि के बौद्धिक प्रतिवाद का नया और दिलचस्प कोण–संपादक
बोधिसत्व
सनातन धर्म के लोगों को पता है कि सात पुरियाँ बेहद मान मर्यादा और आस्था का केन्द्र रही हैं। उन पुरियों की पौराणिक महिमा भी बहुत बड़ी है। ये सात पुरियाँ सनातन धर्म की श्रद्धा का मूल केन्द्र या रीढ़ रही हैं। एक बहुत विख्यात श्लोक है जिसमें इन मोक्ष देने वाली सात पुरियों का नाम बड़े ही उत्साह और आदर से लिया जाता है। वह श्लोक है:
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका ।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्ष दायका : ।।
यहाँ पढ़ रहे सभी लोग जानते हैं कि इस श्लोक में माया हरिद्वार का प्राचीन नाम है। द्वारावती द्वारका है। अवंतिका उज्जैन है। बाकी अयोध्या मथुरा काशी और कांचीपुरम् हैं । ये सात ही मोक्षदायक प्राचीन पौराणिक नगर पुर या नगर कहे गए हैं। पुरी का सीधा सा अर्थ वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिंदी कोश में शहर नगर या गढ़ बताया गया है। (पृष्ठ 624) इन सातों में या इन पुरियों में प्रयाग का नाम क्यों शामिल नहीं है?
इस सूची में प्रयाग को न रखने को मैं पौराणिकों की एक साजिश मानता हूँ। क्योंकि सप्त पुरियों की संख्या आठ, नौ दश ग्यारह बारह कर देने में उनका क्या जा रहा था। अगर नौ ग्रह हो सकते हैं। दश या चौबीस अवतार हो सकते हैं या चौदह भुवन या सोलह संस्कार और श्रृंगार हो सकते हैं तो पुरियों की संख्या सात रख कर प्रयाग को उससे बाहर रखना प्रयाग का अपमान है। इस श्लोक को रद्द किया जाए या इसे संसोधित किया जाए और अगर यह सब न हो तो इस श्लोक को विवादित ही कर दिया जाए।
यह सीधी सी बात सप्तपुरियों का श्लोक पढ़ने वाले लोगों को तो समझ में आती होगी कि प्रयाग को पुरी न कह कर तीर्थ क्यों कहा जा रहा है। क्योंकि तीर्थ में भवनों की आवश्यकता नहीं होती। तीर्थ यानी जो तार दे। तार दे यानी पार उतार दे। तीर्थ का अर्थ आप्टे जी बताते हैं मार्ग, सड़क, रास्ता या घाट, नदी के किनारे बनी हुई सीढ़ियाँ, जलस्थान, पवित्र स्थान या मंदिर आदि जो किसी पुण्यकार्य के लिए अर्पित कर दिया गया हो। यानी तीर्थ होने के लिए नगर आदि की आवश्यकता नहीं है।
“तीर्थ” और ‘पुरी” में यही सबसे बड़ा भेद है। तीर्थ वन में भी हो सकता है। नदी के किनारे कहीं भी जहाँ घाट हों। जलस्थान हो। ( आप्टे संस्कृत हिंदी कोश-पृष्ठ 431) ऐसी मान्यता है कि जहाँ सरोवर या पोखर भी हो तो भी तीर्थ संभव है। लेकिन पुरी होने के लिए नगर की संकल्पना आवश्यक है। देवों का घर हो। उनकें सेवकों आराधकों का निवास हो। अगर हम गौर करें तो ऊपर के श्लोक में जिन धार्मिक मोक्षदायक पुरियों का वर्णन है वे मूल रूप से नगर थे। काशी को ही लें, वह प्राचीनतम नगर है संसार का। यह संसार का सच भले न हो लेकिन सनातन पौराणिक साहित्य का सत्य तो यही है। प्रयाग से 125 किलोमीटर दूर एक धार्मिक स्थान काशी को पुरी में गिनना और प्रयाग को उसमें न रखना यह अन्याय है या पौराणिक धार्मिक सत्य यह मैं प्रयाग के भक्तों पर छोड़ता हूँ। काशी प्रयाग के बीच में विन्ध्याचल की भवानी हैं। वे भी तीर्थ हैं पुरी नहीं हैं। जगन्नाथ धाम के तो नाम में ही पुरी जुड़ा है। तो पुरी और तीर्थ के मूल भाव को अधिक समझदार लोग ही समझाएँ मुझे भी और व्यापक समाज को।
एक और सुझाव यह है कि ऊपर के सात पुरियों में से किसी एक को विस्थापित करके प्रयाग को उसमें घुसेड़ क्यों न दिया जाए। यह विस्थापन और पुनर्स्थापन का कार्य तो बेहद आसान होगा। या श्लोक को थोड़ा संशोधित करके अष्टपुरियाँ क्यों न कर लिया जाए। क्योंकि अब तो “प्रयागपुरी” से आगे निकल कर “प्रयागराज” बनाया जा रहा है।
भक्त भाइयों के मन में यह बात तो नहीं आ रही है कि प्रयाग को सप्तपुरियों में न गिने जाने के पीछे भी कहीं भारत सम्राट अकबर का ही हाथ तो नहीं है। या उसी सम्राट के संकेत और षड्यंत्र पर प्रयाग के साथ प्राचीन और पौराणिककाल से ही अन्याय होता आ रहा है कि उसे पुरी नहीं माना जा रहा है।
जो भी हो तथ्य सामने है कि प्रयाग प्राचीनयुग से तीर्थ ही है पुरी नहीं।
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