महाराष्ट्र : जहां जनता ही विपक्ष बन कर खड़ी हो गयी!

लोकतंत्र की सबसे सटीक परिभाषा अब्राहम लिंकन की मानी जाती है, जिनके अनुसार लोकतंत्र “जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए” स्थापित शासन प्रणाली है. कालान्तर में यह परिभाषा राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए थ्योरी मात्र रह गयी. किसी भी समाज, राज्य व देश की लोकतान्त्रिक स्थिति को मापने का एक पैमाना ‘चुनाव’ हो सकता है. चुनाव प्रतिनिधित्व चुनने का महज़ एक प्रयोग नहीं है, बल्कि आम जन इस प्रक्रिया से गुज़र कर अपना अधिकार स्थापित करते हैं. वे अहसास दिलाते हैं कि “उनसे लोकतंत्र है और वे ही इसके वाहक.”

लोकतंत्र का एक अन्य पहलू भी हैं, जो राजनीतिक पार्टियों से सम्बन्ध रखता है. यह लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से गुजरते हुए किसी भी समाज, राज्य व देश के लोगों को सुरक्षा की गारंटी देता हैं. यह चुनाव प्रक्रिया का एक अहम हिस्सा होता है. जनता अपना प्रतिनिधि चुन कर अपने अधिकारों, अवसरों और सुरक्षा की जिम्मेदारी उसे देती है. साथ ही, सदन में वह अपना विपक्ष भी भेजती है जिसकी जिम्मेदारी चुनी हुई सरकार से कहीं अधिक होती हैं.

2014 और 2019 के आम चुनावों में भाजपा की जीत के बाद जिस तरह से न सिर्फ क्षेत्रीय पार्टियों को, बल्कि कांग्रेस− जो आज़ादी के बाद से लगातार सत्ता में स्थापित रही है− को विपक्ष की भूमिका से खत्म करने की कोशिश की जा रही हैं, वह किसी भी लोकतान्त्रिक देश के लिए लाभकर नहीं है. यही कारण है कि महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में जनता खुद विपक्ष की भूमिका निभाने में पीछे नहीं रही. महाराष्ट्र में बीजेपी सत्तारूढ़ होने के बावजूद भी अपनी विश्वसनीयता खोती चली गयी. शरद पवार की एनसीपी और कांग्रेस के रूप में वहां की जनता ने अपना एक मजबूत विपक्ष खड़ा किया. इसके बावजूद कि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने इस चुनाव में खासी दिलचस्पी नहीं दिखायी. फिर भी, 2014 में जहां उसे 42 सीटें मिली थीं, इस बार 44 मिली और वोटों के प्रतिशत में भी इजाफ़ा दर्ज किया गया.

सहयोगी पार्टी एनसीपी, जिसके शीर्ष नेता शरद पवार इस चुनाव के हीरो हैं, उसने न सिर्फ मराठाओं को अपने पक्ष में किया बल्कि वोट शेयरिंग में बढ़ोतरी करते हुए 2014 के आंकड़े 41 को 56 तक पहुंचा दिया. पिछले कुछ वर्ष से बीजेपी ने विपक्ष को जिस तरह टारगेट करने का रुख़ अपनाया है, उससे पवार भी बचे नहीं रह सके. जब एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) द्वारा महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक के मनी-लौंड्रिंग में उनका नाम सामने आया तो उन्होंने इससे डरे बिना इसका सामना किया और ईडी के मुंबई दफ्तर में खुद ही पहुंच गये. बाद में हालांकि ईडी ने स्कैम में पवार का नाम होने से इंकार कर दिया. यह घटना पवार के लिए चुनावी रैली का एक महत्वपूर्ण तथ्य बन गयी और इससे उन्हें जनता की सहानुभूति भी मिली.

बीजेपी द्वारा संवैधानिक, असंवैधानिक और अन्य माध्यमों से विपक्ष को कमजोर करने की कोशिशों को जनता भी खुली आंखों से देख रही है. महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के परिणाम इस बात को साबित करते हैं. महाराष्ट्र के 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन नहीं था और दोनों को क्रमश: 122 और 63 सीटें मिली थीं. वहीं इस बार दोनों को न सिर्फ वोटिंग प्रतिशत में कमी का सामना करना पड़ा बल्कि सीटों में भी गिरावट आई. बीजेपी इस बार बहुमत की रेखा पार करने का दावा कर रही थी लेकिन उसे 105 सीटों से ही संतोष करना पड़ा जबकि शिवसेना को महज़ 56 सीटें मिलीं.

राज्य में 34% आबादी मराठाओं की हैं और इस समुदाय से राज्य के 18 मुख्यमंत्री रह चुके हैं. सुहास पलशिकर के अनुसार, 1980 के दशक को छोड़ दें तो महाराष्ट्र में राज्य मंत्रिमंडल में मराठाओं की हिस्सेदारी 52% से कभी कम नहीं हुई. वे राज्य की लगभग 54% शैक्षणिक सस्थाओं, 70% सहकारी संस्थाओं पर और कृषि/भूमि के 70% पर नियंत्रण रखते हैं. देवेन्द्र फडनवीस ब्राह्मण हैं. मराठा उनसे नाराज़ थे. इस बात को केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने महसूस किया था और मराठा आरक्षण के माध्यम से इस नाराज़गी को दूर करने की कोशिश भी की गई.

इसी वर्ष 27 जून को मुंबई के उच्च न्यायालय से मराठों को “सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग” के तहत राज्य के शैक्षणिक विभाग में 13% तथा रोजगार में 12% का आरक्षण देने का निर्देश दिया गया है. न्यायालय के इस फैसले के मद्देनज़र यह अनुमान लगाया जा रहा था कि इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को फायदा मिलेगा क्योकि राज्य और केंद्र दोनों जगह इनकी ही सरकार हैं. लेकिन जब चुनाव परिणाम आया तो मराठाओं का मोहभंग न सिर्फ बीजेपी के प्रति टूटता दिखा बल्कि उसकी सहयोगी पार्टी शिवसेना से भी दूरी बनाते नज़र आया. पश्चिम महाराष्ट्र, जो मराठाओं का गढ़ माना जाता रहा है, वहां बीजेपी को 2014 के चुनाव में 25 सीटें मिली थी, इस बार उसे महज़ 16 पर संतोष करना पड़ा.

शिवसेना का आधार ही मराठा वोटर रहा है. लोकसत्ता के संपादक गिरीश कुबेर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखते है “शिवसेना एक एजेंडे से दूसरे एजेंडे पर गई है. इस प्रक्रिया में वह अपनी पहचान खोती दिख रही है. शुरूआती दौर में खुद को मराठी मानुष दिखाया, फिर हिंदुत्व का राग अलापने लगी और वर्त्तमान चुनाव में दोनों का मिश्रण पेश करने की कोशिश की.”

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि महाराष्ट्र चुनाव में निर्णायक भूमिका मराठा समुदाय ने निभायी. बेशक बीजेपी राज्य में सरकार बना रही है लेकिन जनता ने उसे एक सबक ज़रूर दिया है कि वह अपने काम से मतलब रखे. अगर वह विपक्ष को खत्म करने की कोशिश करेगी तो जनता खुद विपक्ष बनकर उनके सामने खड़ी होगी.

इसका एक सटीक उदाहरण शिवाजी के वंशज उदयन राजे भोसले है, जो 2019 के आम चुनाव में सतारा लोकसभा क्षेत्र से एनसीपी के सांसद चुने गये थे लेकिन कुछ महीने बाद यानि अगस्त में उन्होंने संसदीय पद से इस्तीफा दे दिया और विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले बीजेपी में शामिल हो गये और उसी के उम्मीदवार के तौर पर फिर से चुनावी मैदान में आ खड़े हुए. जनता ने उन्हें नकार दिया और एनसीपी के श्रीनिवास पाटिल को चुना.

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