योगी जी, लखनऊ और देहली से मुक़ाबिल था फ़ैज़ाबाद, अयोध्या से तो कभी लाग-डाट न थी!

कृष्ण प्रताप सिंह


1995 में समाजवादी और बहुजन समाज पार्टियों का महत्वाकांक्षी गठबंधन टूटने के बाद भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं मायावती ने अपनी दलित अस्मिता की राजनीति को नयी बुलन्दियां देने के लिए 29 सितम्बर, 1995 को फैजाबाद जिले की अकबरपुर तहसील को (जो सपा के राजनीतिक आराध्य डाॅ. राममनोहर लोहिया की जन्मस्थली के तौर पर जानी जाती है और वहां जिले का नाम डाॅ. लोहिया के नाम पर रखने की मांगें लगातार उठती रहती थीं।) अम्बेडकरनगर नाम से जिला बना दिया। इस पर वरिष्ठ पत्रकार श्यामाप्रसाद प्रदीप को, जो स्वतंत्रता सेनानी और प्रदेश विधान परिषद के सदस्य भी थे, इतना गुस्सा आया कि उन्होंने दो राजनीतिक महापुरुषों के समर्थकों को अलानाहक आमने-सामने ला खड़ा करने वाले इस नामकरण को ‘डाॅ. लोहिया के घर में डकैती’ की संज्ञा दे डाली थी।

कहना व्यर्थ है कि उन दिनों पीछे मुड़कर न देखने के लिए जानी जाने वाली मायावती को इससे कोई फ़र्क़  नहीं पड़ना था। सो, नहीं पड़ा और उन्होंने अपने अब तक के चार मुख्यमंत्री-कालों में किसी को भी ऐसी ‘डकैतियों’ से महरूम नहीं होने दिया। तब भी नहीं, जब उन्होंने अपनी पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाकर भाजपा के समर्थन पर उसकी निर्भरता समाप्त कर ली।

अब प्रदेश में उसी, उनकी उन दिनों की समर्थक, भाजपा की पूरे बहुमत की सरकार है, तो मायावती को मात करने में लगे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ न सिर्फ ‘रावण या दुर्योधन जैसे’ जिलों बल्कि रेलवे स्टेशनों, मेडिकल कालेजों और हवाई अड्डों वगैरह के नाम बदलने के अपने अभियान को मुगलसराय व इलाहाबाद के रास्ते एक बार फिर फैजाबाद ले आये हैं। गत मंगलवार को अयोध्या में सरकारी खर्चे पर मनाये गये ‘भव्य’ दीपोत्सव में उन्होंने फैजाबाद जिले का नाम अयोध्या करने का एलान किया तो उनके समर्थकों ने इतिहास की इस पुनरावृत्ति में बक्सर की 22 अक्टूबर, 1764 की ऐतिहासिक लड़ाई में अंग्रेजों को हासिल उस विजय जैसी सुख की अनुभुति की, जिसके बाद अंग्रेजों ने अयोध्या के समीपवर्ती फैजाबाद को राजधानी का गौरव प्रदान करने वाले अवध के नवाब शुजाउद्दौला को युद्ध अपराधी करार देकर उनसे इलाहाबाद समेत अवध एक बड़ा क्षेत्र छीन लिया और उन पर पचास लाख का हरजाना भी लगा दिया था।

बल्लियों उछलते इन समर्थकों की मानें तो योगी ने प्रदेश के नक्शे से, पहले इलाहाबाद और अब फैजाबाद का नामोनिशान मिटाकर बक्सर में अंग्रेजों द्वारा प्रदर्शित पराक्रम से बड़ा पराक्रम कर दिखाया है। तिस पर अभी उनके पास ऐसे कई और पराक्रमों के प्रदर्शन की सुविधा है क्योंकि शिकोहाबाद, फिरोजाबाद, मुरादाबाद व गाजियाबाद वगैरह के नाम अभी भी अपरिवर्तित हैं।

जाहिर है कि योगी का खेल भी मायावती वाला ही है-सामाजिक आर्थिक मुद्दों को दरकिनार कर अस्मिता की राजनीति को आगे करना और उससे जुड़े भावनात्मक मुद्दों व ग्रंथियों को भुनाना। फर्क इतना ही है कि तब मायावती दलित अस्मिता की पैरोकार थीं और अब ये हिन्दू अस्मिता के अलम लिये फिर रहे हैं। कोढ़ में खाज यह कि फासीवादी मन्सूबों की बेपर की उड़ान उन्हें इस अंदेशे से रूबरू होने तक का अवकाश नहीं दे रही कि मायावती के इतिहास को दोहराते हुए वे उनके अंजाम को भी न दोहराने लग जायें। आखिरकार, मायावती भी तो एक समय ऐसे ही बहके-बहके दौर से गुजरती हुई अपने समर्थकों से ‘यूपी हुई हमारी है, अब दिल्ली की बारी है’ जैसे नारे लगवाती थीं। जबकि न दिल्ली में आ पाईं, न यूपी में रह गईं। उनके विरोधी कहते हैं कि न तीन में रह गई हैं और न तेरह में।

यहां याद रखना चाहिए कि योगी को उक्त अवकाश न मिलने का एक बड़ा कारण उन्हीं के शब्दों में उनका पूर्णकालिक राजनेता न होना भी है। इसी कारण वे यह भी नहीं ही समझ पा रहे कि हिन्दू अस्मिता की राजनीति के लिहाज से भी उनका यह समझना जरूरी है कि जिस हिन्दू-मुस्लिम ग्रंथि को तुष्ट करने के लिए उन्हें अयोध्या की प्रतिष्ठा के नाम पर फैजाबाद की बलि अभीष्ट लगी, उसने अपने छोटे से इतिहास में कभी उस ग्रंथि से खुद को जोड़ा ही नहीं। अवध की राजधानी वाले अपने वैभव के दिनों में तो वह अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति का निर्दम्भ वारिस बना ही रहा, उजाड़ के दिनों में भी अपनी इस विरासत पर कोई आंच नहीं आने दी। तभी तो अयोध्या के और उसके जन्मकाल में बड़ा फासला होने के बावजूद उसे अयोध्या का जुड़वां शहर कहा जाता तो किसी को भी कुछ भी गलत नहीं लगता था। दोनों शहरों की सीमाएं भी इतनी मिली हुई हैं कि आगंतुकों को पता ही नहीं चलता कि कब वे अयोध्या से फैजाबाद या फैजाबाद से अयोध्या में प्रविष्ट हो गये।

ऐसे में लाख इतिहास में समा जाये फैजाबाद, जानबूझकर बरती जा रही इस नादानी के सपनों में आकर यह पूछने से उसे कौन रोक सकता है कि जिलों की एक सूची से उसका नाम काटकर अयोध्या लिख देने का हासिल क्या है? क्या इससे उस अयोध्या को वाकई कुछ ज्यादा प्रतिष्ठा मिलने वाली है, जो पहले ही सप्तपुरियों-अयोध्या, मथुरा, द्वारका, काशी, हरिद्वार, उज्जैन और कांचीपुरम-में अग्रगण्य है? अनेक श्रद्धालुओं की निगाह में तो वह अभी भी न सिर्फ देश बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी नगरी है, इसलिए कि वहां ‘राम लीन्ह अवतार।’।प्रसंगवश, फैजाबाद ने कभी अयोध्या जैसे महात्म्य की दावेदारी नहीं की, न ही उसके गौरव में कोई छोटा-सा भी हिस्सा चाहा। एक प्रसिद्ध शायर ने अपनी मसनवी में उसे ‘बाग-ए- इरम’ (जन्नत का एक बाग) कहा तो भी फुलकर कुप्पा नहीं ही हुआ। दूसरे शब्दों में कहें तो अयोध्या से उसकी कभी कोई लाग-डांट तक नहीं रही। अलबत्ता, दिल्ली और लखनऊ से उसने भरपूर मुकाबले किये और उसके सुनहरे दिनों में ये दोनों राजधानियां उसके सामने पानी भरती थीं। योगी के समर्थकों द्वारा प्रायः किये जाने वाले अनर्थों के अनुसार भी वह ‘गुलामी की निशानी’ नहीं था। न ही उसके नाम से किसी भेदभाव की बू आती थी। उसकी संस्कृति में आकर मोहनभोग और हलवा दोनों एक हो गये थे।

लेकिन क्या कीजिएगा, यह सब समझदारी की बाते हैं और समझदारों को ही समझ में आती हैं। यह भी कि अयोध्या अपने इतिहास में हमेशा नगरी या कि पुरी ही रही, जनपद नहीं। तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में भी भगवान राम के मुंह से इसे ‘जन्मभूमि ममपुरी सुहावनि’ ही कहलवाया है। इस पुरी का जनपद था कोशल और अब उसके जिले की जगह फैजाबाद काटकर अयोध्या लिखने को आतुर योगी से लोगों को कम से कम इतने विवेक की अपेक्षा तो थी ही कि वे अयोध्या और कोशल का फर्क समझते होंगे।

लेकिन अब संदेह होता है कि क्या पता, वे इस बात को भी समझते हैं या नहीं कि जिन हाथों में कीचड़ लगा होता है, वे जिसको भी छूते हैं, थोड़ा कीचड़ लगा ही देते हैं। यह बात हिन्दुत्व के उन अलमबरदारों के लिए भी सच है, जिनकी सांगठनिक उम्र अभी सौ साल भी नहीं हुई, फिर भी बड़बोलेपन में दावा करते हैं कि हजारों साल पुरानी हिन्दू अस्मिता के एक मात्र रक्षक वे ही हैं। सच तो यह है कि उनके इसी बड़बोलेपन के कारण ऐसे अंदेशे पैदा हो रहे हैं कि वे भगवान राम, जिन्हें अल्लामा इकबाल ‘इमाम-ए-हिन्द’ बता गये हैं, भविष्य में सिर्फ हिन्दुओं के होकर रह जायें। उन्हें एक मन्दिर का मोहताज तो ये कब से बताते आ रहे थे, अब उन्हें और उनकी राजधानी दोनों को एक जिले, हवाई अड्डे या मेडिकल कालेज तक सीमित कर देना चाहते हैं। इनके जैसे शुभचिंतकों के रहते हिन्दुत्व को दुश्मनों की शायद ही जरूरत हो!

तिस पर उनकी इस सोच पर तो न हंसते बनता है और न रोते कि उनके हाथों अरसे से छला जा रहा हिन्दू समुदाय ऐसे नामकरणों के झांसे में आकर अयोध्या में ‘वहीं’ भव्य राममन्दिर निर्माण के सिलसिले में उनके द्वारा अब तक बोले गये नाना झूठों और वायदाखिलाफियों को माफ कर 2019 में खुशी-खुशी उनकी सत्ता की उम्र लम्बी कर देगा। उसे मालूम है कि चुनाव निकट देख ऐसे इमोशनल मुद्दों को राममन्दिर निर्माण का विकल्प बनाने की कोशिश क्यों की जा रही है? यह भी कि योगी हों या मोदी, सम्राट नहीं, निर्वाचित मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री हैं और उन्हें बेदखल भी किया जा सकता है।

लेखक जाने-माने पत्रकार और फ़ैजाबाद से प्रकाशित होने वाले दैनिक जनमोर्चा के संपादक हैं।

 



 

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