पंजाब गए पत्रकार भाषा नहीं समझते ! कितनी विश्वसनीय हैं राष्ट्रीय मीडिया की चुनावी ख़बरें ?

अभिषेक श्रीवास्‍तव / पंजाब से

पंजाब विधानसभा चुनाव के बारे में मीडिया में आ रही रिपोर्टों पर क्‍या विश्‍वास किया जा सकता है? अंग्रेज़ी और हिंदी के समाचार चैनलों व अखबारों में जो कुछ भी दिखाया जा रहा है, बताया जा रहा है, आखिर वह कितना विश्‍वसनीय है? यह एक ऐसा सवाल है जो पहली बार किसी भी पत्रकार के मन में खड़ा होता है जब वह पंजाब की धरती पर कवरेज करने आता है और पाता है कि उसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा। हो सकता है दूसरे पत्रकारों को समझ में आ रहा हो, लेकिन मेरी समझदारी यदि थोड़ी भी दुरुस्‍त है तो मुझे वाकई कुछ भी समझ नहीं आ रहा। इसकी केवल एक वजह है और वह है गुरमुखी लिपि का ज्ञान न होना।

हिंदी/अंग्रेज़ी पत्रकार के लिए पंजाबी बोलना आसान है, समझना और आसान है लेकिन पढ़ पाना उतना ही मुश्किल। यहां दीवार पर लिखी इबारतों से आप इलेक्‍शन का अंदाजा नहीं लगा पाएंगे क्‍योंकि बैनर, पोस्‍टर, नारे से लेकर कैंडिडेट के नाम तक गुरमुखी में लिखे हुए हैं। लुधियाना में जिस प्रत्‍याशी को लंबे समय तक हम जेटली समझते रहे, वह अंत में चेटली निकला। यह तो केवल एक बानगी भर है। फिर सवाल उठता है कि दिल्‍ली से आए पत्रकार क्‍या खाकर अपनी रिपोर्ट लिख रहे हैं, जबकि मालवा, दोआबा और माझा की बोलियां भी अलग-अलग हैं और उन्‍हें समझना भी इतना आसान नहीं!

इस सब के बीच दिलचस्‍प बात यह है कि दिल्‍ली से पैदा हुई खड़ी हिंदी बोली वाली आम आदमी पार्टी भी यहां पूरी तरह गुरमुखी में काम कर रही है। पार्टी के राष्‍ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल केवल स्‍थानीय पंजाबी पत्रकारों से बात कर रहे हैं और उन्‍हीं को तरजीह दे रहे हैं। दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री के मीडिया सलाहकार और चंडीगढ़ वॉर रूम के मीडिया प्रभारी पूर्व पत्रकार अरुणोदय प्रकाश का कहना है कि अरविंद हिंदी के पत्रकारों से बात नहीं करेंगे क्‍योंकि वे जानते हैं कि उससे कोई लाभ नहीं होने वाला। वॉर रूम में मौजूद कार्यकर्ता बताते हैं कि दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय मीडिया का पंजाब के मतदाता पर कोई असर नहीं है, जबकि स्‍थानीय मीडिया खासकर टीवी चैनल पूरी तरह बादल परिवार के लिए काम कर रहे हैं।

यहां दो मुख्‍य चैनल ज़ीटीवी और पीटीसी बादलों का प्रचार कर रहे हैं और आम आदमी पार्टी व कांग्रेस के खिलाफ़ हैं। राष्‍ट्रीय अखबारों के स्‍थानीय संस्‍करण भले ही न्‍यूट्रल खबरें दिखा रहे हैं, लेकिन उनके पाठक बेहद कम हैं। स्‍थानीय पंजाबी अखबारों में ज़मीनी खबरें आ रही हैं,लेकिन दिल्‍ली से गए पत्रकारों के लिए काला अक्षर भैंस बराबर है। कुल मिलाकर हिंदी या अंग्रेज़ी के पत्रकारों का प्राइमरी स्रोत शहरी जनता है जो हिंदी/अंग्रेज़ी समझती है या फिर वे एक- दूसरे के कहे-सुने से ज्ञान ले रहे हैं। इसलिए पंजाब के मतदाताओं का मूड राष्‍ट्रीय मीडिया में जो भी दिख रहा है, वह पूरी तरह झूठा हो सकता है।

अंगेज़ी पत्रिका कारवां के पत्रकार अमनदीप बताते हैं कि इस बार पूरा पंजाब तना हुआ है। कोई अपना मुंह नहीं खोल रा। वे कहते हैं, “तुक्‍का लगाने से क्‍या फायदा। पिछले चुनाव में डेढ़ परसेंट वोट नोटा पर पड़े थे। इस बार नोटा पर पांच परसेंट तक वोट पड़ सकते हैं। लोग उदासीन हैं और उन्‍हें किसी भी राजनीतिक दल पर कोई भरोसा नहीं है। हवा की बात दूर रही, आम आदमी पार्टी को तो कोई पूछ भी नहीं रहा।”

इस बीच कुछ स्‍थानीय पंजाबी अखबारों ने पैकेज चला रखे हैं। उनमें प्रत्‍याशियों की खबरें पैसे लेकर छापी जा रही हैं, लेकिन गुरमुखी में होने के कारण उनका भी पता लगा पाना बहुत मुश्किल है। यही वजह है कि पंजाब की सारी कवरेज लुधियाना, जालंधर, पटियाला या अमृतसर जैसे बड़े शहरों से हो रही है जबकि रोपड़, माझा के कुछ इलाके और दलित, भूमिहीन, किसान आदि के मसले सिरे से गायब हैं।

हिंदी के पाठकों को राष्‍ट्रीय मीडिया में आ रही पंजाब की खबरों को आलोचनात्‍मक नज़र से देखना होगा और कोशिश करनी होगी कि वे अपनी समझ बढ़ाने के लिए स्‍थानीय पंजाबी मीडिया को फॉलो करें। वैसे, मतदान में चूंकि एक हफ्ता ही बच रहा है, इसलिए सीधे नतीजों का ही इंतज़ार किया जाए तो बेहतर।

 

First Published on:
Exit mobile version