‘सबके लिए स्वास्थ्य’ से ‘एफोर्डेबल स्वास्थ्य’ के जुमले के पीछे छुपी है 18 साल की नीतिगत नाकामी

विश्व स्वास्थ्य दिवस पर विशेष 

डॉ. ए. के. अरुण 

मौजूदा सरकारी मशीनरी की वास्तविकता एवं गहराते स्वास्थ्य संकट तथा जनस्वास्थ्य की बढ़ती चुनौतियों की तुलना में यह उम्मीद करना मुश्किल है कि भारत में सरकार जनस्वास्थ्य एवं बढ़ते रोगों की चुनौतियों को स्वीकार कर उससे निबटने की इच्छा रखती है। ग्रामीण स्वास्थ्य आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2018 तक भी देश में लगभग 20 हजार स्वास्थ्य उपकेन्द्रों की कमी है। अभी भी 4,252 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तथा 2,115 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों को स्थापित करना है। इस समय देश में कोई 1084 चल चिकित्सा इकाई सक्रिय है। यदि वास्तव में स्वास्थ्य संस्थाओं को प्रभावी बनाना है तो समुदाय, ग्राम व प्रखण्ड स्तर पर स्वास्थ्य केन्द्रों को मजबूत व प्रभावी बनाना होगा। ऐसे ही ग्रामीण स्वास्थ्य आंकड़ों के अनुसार अभी भी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 2433 केन्द्रों पर चिकित्सक नहीं हैं। यह कभी कुल आवश्यकता का 10.27 प्रतिशत है। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर कोई 11,361 चिकित्सकों की अभी भी जरूरत है। आवश्यकता का यह 62.6 प्रतिशत है। ऐसे ही इन केन्द्रों पर कोई 25 प्रतिशत नर्स एवं सहायकों की जरूरत है। इसके अलावा 8 हजार फार्मासिस्ट एवं 14,225 लैब टेकनिशियन की भी जगह भरना शेष है।

आंकड़ों में देखें तो देश के 640 जिलों में से मात्र 193 जिले में ही मेडिकल काॅलेज हैं। बाकी 447 जिले में चिकित्सा अध्ययन का कोई इन्तजाम नहीं है। ऐसे ही देश में अभी मात्र 49 स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण प्रशिक्षण केन्द्र हैं। इतने से 125 करोड़ आबादी वाले भारत के लोगों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं को भला कैसे पूरा किया जा सकता है? 12वीं पंचवर्षीय योजना में यह तय किया गया है कि देश के सभी 635 जिला अस्पतालों तथा समुदाय स्तर के कोई 4535 स्वास्थ्य केन्द्रों को प्रशिक्षण केन्द्र बना लिया जाए।

चिन्ता की बात यह है कि उदारीकरण के इस दौर में जहां सरकार स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्रों में भी विदेशी निवेश और निजीकरण को बढ़ावा दे रही है वहां जनमहत्व की इन योजनाओं को लागू कराना क्या आसान होगा? जबसे भारत ने विश्व व्यापार संगठन के दबाव में काम करना शुरू किया है तब से जनस्वास्थ्य, जनकल्याण और जनशिक्षण कार्यों व योजनाओं की गति धीमी हुई है।

12वीं योजना में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आर.एस.बी.वाई.) पर भी जोर दिया जा रहा है। हालांकि इस योजना का जिक्र 11वीं योजना में भी था लेकिन तब इस पर सरकार ने ज्यादा कुछ किया नहीं। इस योजना में बच्चों के पोषण, स्कूल स्वास्थ्य तथा समेकित बाल विकास कार्यक्रमों पर भी जोर दिया गया है। इसमें 3 वर्ष तक के बच्चों को विशेष टीकाकरण एवं पोषण आपूर्ति कार्यक्रम में आवश्यक रूप से शामिल करने की बात है लेकिन मुख्य सवाल फिर खड़ा होता है कि सरकार की मौजूदा मशीनरी क्या इन ड्रीम योजनाओं को अमल में ला सकेगी?

वित्तमंत्री ने अपने इस वर्ष के बजट भाषण में ”आयुष्मान भारत“ का जिक्र कर जिन दो योजनाओं की बातें की थीं उसमें एक तो ”राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना“ तथा दूसरा ”हैल्थ एवं वैलनेस योजना“ है। सरकार का दावा है कि वह देश भर में डेढ़ लाख से ज्यादा हैल्थ और वैलनेस सैन्टर खोलेगी जो रोगियों को जरूरी दवाएँ और जाँच सेवाएं फ्री मुहैया कराएंगे। भारत सरकार की प्राथमिकताओ मे आयुष पद्धति के होमियोपैथी आयुर्वेद व योग आदि के लिये अलग से कोई विशेष प्रावधान नहीं है। स्वदेशी का नारा लगाने वाली मौजूदा सरकार चाहती तो आयुर्वेद व होमियोपैथी के चिकित्सालयों को प्रत्येक वार्ड मे स्थापित कर वाहवाही लूटती और देश में आयुष पद्धतियों का जाल बिछाकर मेडिकल टूरिज्म को प्रोत्साहित करती।

सरकार के स्वास्थ्य प्रावधानों पर बारीकी से नज़र डालें तो ”स्वास्थ्य बीमा“ मोदी जी का एक नया जुमला ही प्रतीत होता है। अव्वल तो यह केवल बीमा है जिसका सीधा लाभ बीमा कम्पंनियों को मिलेगा हालाँकि सरकार ने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है कि 50 करोड़ लोगों के इस स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम कौन भरेगा? एक मोटा अनुमान लगाएँ तो प्रति परिवार 5 लाख रुपये के बीमा का यदि सम्बन्धित परिवार 10वां हिस्सा यानि 50 हजार रुपये की सुविधा लेता है तो सालाना यह राशि 5 लाख करोड़ रुपये होगी। यदि यह राशि बीमा कम्पनियां वहन करेंगी तो इसका सालाना प्रीमियम 5 हजार से 15 हजार रुपये प्रति परिवार होगा यानि 50 हजार से 1.50 लाख करोड रुपया सालाना। यह राशि कहाँ से आएगी?

यह विडम्बना ही है कि जहां हमने सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य के संकल्प की बात आज से ढाई दशक पूर्व की थी वहीं 18 वर्षों बाद भी हम अभी तक पूरे देश में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को खड़ा भी नहीं कर पाए हैं। आज भी प्रत्येक साल कालाजार के 6 लाख नये मामलों में से एक लाख मामले भारत में ही होते हैं। दुनिया की 350 मिलियन आबादी कालाजार की आशंका में है। इनमें से 1.2 मिलियन (12 लाख) मामले भारत के हैं। इस रोग की एक खास बात यह है कि बिहार, बंगाल, आसाम, तमिलनाडु आदि प्रदेशों में सबसे गरीब व उपेक्षित कही जाने वाली जातियाँ सबसे ज्यादा इस रोग की चपेट में हैं। साल दर साल कालाजार की स्थिति बदतर होते जाने के बावजूद इस पर सरकार का बजट वर्ष 2010-11 में एड्स/एच.आई.वी. के बजट का 5 प्रतिशत भी नहीं है जबकि एच.आई.वी. के मुकाबले कालाजार के मरीजों की संख्या कई गुना ज्यादा है।

वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद मलेरिया की स्थिति इस रूप में भयानक हुई है कि इसके संक्रमण और बढ़ते प्रभाव की आलोचना से बचने के लिए सरकार ने नेशनल मलेरिया कन्ट्रोल प्रोग्राम (एन.एम.सी.पी. 1953) एवं नेशनल मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एन.एम.ई.पी. 1958) से अपना ध्यान हटा लिया है। नतीजा हुआ कि सालाना मृत्युदर में वृद्धि हो गई। हालांकि सरकारी आंकड़ों में मलेरिया संक्रमण के मामले कम हुए ऐसा बताया गया है लेकिन सालाना परजीवी मामले (ए.पी.आई.), सालाना फैल्सीफेरम मामले (ए.एफ.आई.) में गुणात्मक रूप से वृद्धि हुई। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत में स्त्री-पुरुष का अनुपात 898ः1000 है, जबकि रूस में यह 1140ः1000 है। औरतों की कमजोर सेहत की वजहों में कुपोषण खासा महत्वपूर्ण है। पंजाब जैसे समृद्ध प्रदेश में लड़कियों में कुपोषण का प्रतिशत लड़कों से ज्यादा है। आंकड़े बताते हैं कि गर्भ में लड़का होने पर माताएं 90 प्रतिषत पोषण प्राप्त करती हैं, जबकि लड़कियों के मामले में ऐसी माताओं का प्रतिशत सिर्फ 72 है। ग्रामीण लड़कों की तुलना में 52 प्रतिशत ग्रामीण लड़कियां कुपोषित हैं।

यह मौजूदा भूमण्डलीकरण और अन्तर्राष्ट्रीय पूंजीवादी व्यवस्था का ही प्रभाव है जो स्वास्थ्य सम्बन्धी सरकार की नीति सेवा से विचलित होकर रेवेन्यू पैदा करने के माॅडल की ओर जा रही है। इसी नीति के तहत एम्स जैसी अतिविशिष्ट स्वास्थ्य व चिकित्सा प्रदान करने वाली संस्थाओं से भी मुनाफा कमाने का लालच सरकार में दिख रहा है। एम्स को लेकर वेलियाथन की अध्यक्षता में बनी समिति की अनुशंसा भी इसी कड़ी का हिस्सा है। यह बात और है कि एम्स के प्रोग्रेसिव डाक्टर्स फोरम के दबाव से यह रिपोर्ट अभी तक लागू नहीं हो पा रही है।

भारत जैसे गरीब मुल्क में जहां 70 फीसद लोग 20 रुपये से कम की दैनिक आय पर गुजारा करते हैं वहां चिकित्सा को महंगा कर देने का क्या परिणाम होगा आसानी से समझा जा सकता है। नीति आयोग के ही एनसी सक्सेना कमीशन की रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलेगा कि इस देश में 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग अपने इलाज पर भारी रकम खर्च नहीं कर सकते। इसी रिपोर्ट में प्रति व्यक्ति कैलोरी का जो मानदण्ड रखा गया है वह आईसीएमआर की गाइडलाइन के कैलोरी इनटेक से बहुत कम है। भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुसार भी यहां के लोगों को मुफ्त स्वास्थ्य व शिक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेवारी सरकार की है लेकिन सरकार ‘‘सबके लिये स्वास्थ्य’’ की जगह ‘‘एफोर्डेबल स्वास्थ्य’’ की बात करने लगी है। स्पष्ट है कि यह स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण एवं व्यवसायीकरण की स्पष्ट साजिश है।

आधुनिक नीति की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इसमें पहले समस्या उत्पन्न की जाती हैं फिर उसका समाधान ढूंढा जाता है। व्यवसाय की दृष्टि से यह अच्छा है क्योंकि समाधान के नाम पर कम्पनियों, वित्तीय संस्थाओं को अच्छा मुनाफा कमाने एवं धन्धा चमकाने का अधिकारिक एवं सम्मानजनक मौका मिल जाता है। अब सवाल है कि ऐसा क्या किया जाए ताकि देश के लोगों में स्वास्थ्य की वास्तविक रक्षा हो सके और देश को बीमारियों व महंगे इलाज के बोझ से हल्का किया जा सके।

सुझाव के तौर पर मोटे मोटे कुछ बिन्दु निम्नलिखित हैं:

1. जनस्वास्थ्य शिक्षण को माध्यमिक स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।
2. जनस्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचों को प्राथमिक स्तर पर मजबूत, योग्य एवं आत्मनिर्भर बनाने की योजना बने।
3. स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे अतिमहत्वपूर्ण क्षेत्र से व्यावसायिकता एवं बाजार को एकदम दूर रखा जाए।
4. देश में प्रचलित भारतीय एवं सामुदायिक स्वास्थ्य पद्धतियां- आयुर्वेद, यूनानी, होमियोपैथी आदि को वैज्ञानिक एवं अकादमिक तौर पर न केवल और विकसित किया जाए बल्कि इन्हें स्वास्थ्य व उपचार की प्रक्रिया के मुख्यधारा में प्रम्मुखता से शामिल किया जाए।
5. देश में स्वास्थ्य को आवश्यक एवं आकस्मिक सेवा के रूप में घोषित किया जाए तथा जीवन रक्षा को निःशुल्क एवं व्यक्ति का सर्वप्रथम अधिकार घोषित किया जाए।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।

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